‘राजा को 5 साल क़ैद’,
‘राजा को मिली सज़ा’,
‘5 साल जेल काटेंगे राजा’,
‘राजा को हुई पांच साल की सज़ा’,
‘राजा को 5 साल के लिए जाना होगा जेल’,
‘राजा जाएंगे जेल’
‘राजा को कोर्ट ने 5 साल की सज़ा सुनाई’
‘राजा को कोर्ट से हुई 5 साल की सज़ा’
इत्यादि, इत्यादि। ठीक वैसे ही अगर क्रिकेट से
जुड़ी किसी खबर की पट्टी लिखनी हो , तो उसके भी कई तरीके हो सकते हैं, मसलन-
‘भारत ने पहली पारी में बनाए 419 रन’
‘भारत : पहली पारी में 419’
‘भारतः पहली पारी-419/10’
‘भारत 419 पर ऑल आउट’
‘भारत के 419 रन’
चंद उदाहरणों से आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि
सिर्फ एक पट्टी पर चलाने के लिहाज से दोनों खबरों में कौन-कौन सी लाइन बेहतर हो
सकती हैं। लेकिन टेलीविजन समाचार के रोजमर्रा के कामकाज से जुड़े लोग किसी न किसी
वजह से इसका ध्यान नहीं रख पाते और सही तरीके से खबर दर्शक तक नहीं पहुंच पाती। सीधे
तौर पर ये बात पट्टी पर लिखे टेक्स्ट में झलकती है- कभी जगह कम पड़ जाती है, तो
कभी जगह ज्यादा हो जाती है, जिससे पट्टी पर लिखा टेक्स्ट बड़ा या छोटा – दोनों तरह
से बेढब दिखता है। दूसरी चीज, ये बात साफ नहीं हो पाती है कि आप खबर में बताना
क्या चाहते हैं। क्या आप पूरी खबर देना चाहते हैं या दर्शक को अगली लाइन के लिए
इंतजार करवाना चाहते हैं । आमतौर पर एक लाइन में पूरी खबर पेश करने की आदर्श
स्थिति नहीं देखने को मिलती। दर्शक को खबर के लिए अगली लाइन का भी इंतजार करना ही
पड़ता है और ये पट्टी बदलने की स्पीड पर निर्भर करता है कि दर्शक को कितनी जल्दी
पूरी खबर मिले।
अगर ब्रेकिंग न्यूज़ विंडो के साथ ग्राफिक के तौर
या स्टूडिय़ो ग्राफिक के रूप में लिया जा रहा हो, तो और भी अजब स्थितियां स्क्रीन
पर देखने को मिलती हैं। मसलन अगर आपको एक खबर को कई लाइनों में तोड़कर पेश करना
हो, तो आपकी लेखन शैली की असल परीक्षा होनी ही है। यहां आपको एक साथ कई बातों का
ध्यान रखना है। एक तो खबर के ज्यादा से ज्यादा हिस्से या उससे जुड़े ज्यादा से
ज्यादा तथ्य ग्राफिक प्लेट्स पर दिए जा सकें। दूसरी चीज- क्या आपको टेंपलेट की
सीमा का ज्ञान है- अगर आपको ये नहीं पता कि टेंपलेट पर कितने शब्द अधिकतम आ सकते
हैं, तो बहुत संभव है कि आपकी खबर की पूरी लाइन ऑन एयर न हो और कुछ शब्द छूटे हुए
दिखें। तीसरी बात- अगर टेंपलेट पर शब्दों की सीमा के साथ एलाइनमेंट की सुविधा नहीं
दी गई तो आपके लिए खबर की लाइन लिखना और भी चुनौतीपूर्ण है। क्योंकि ऐसी स्थिति
में एक लाइन बड़ी, दूसरी लाइन छोटी, तीसरी लाइन और भी छोटी या बड़ी दिख सकती और
प्लेट पर ऐसा एलाइनमेंट पेश होगा जो देखने में न तो आकर्षक होगा, ना ही पूरी खबर
उसमें समा सकेगी। ऐसे में आपके सामने शब्दों के चयन और उनके इस्तेमाल में सावधानी
बरतने की कठिन समस्या खड़ी होती है। खासकर ब्रेकिंग न्यूज़ की स्थिति में जब आपके
पास ज्यादा सोचने या टेक्स्ट को बार-बार बदलने के लिए ज्यादा वक्त नहीं होता तो
अगर एलाइनमेंट या शब्द सीमा की वजह से एक मात्रा भी प्लेट पर न दिखे, तो लिखनेवाले
पर मूर्खता का इल्जाम मढ़ा जाना स्वाभाविक है, भले ही वह ऐसी गलती के लिए पूर्ण
रूप से दोषी न हो क्योंकि एक बात तो साफ है कि स्क्रीन पर मोटे-मोटे अक्षरों में
दिखनेवाली गलती को कभी माफ नहीं किया जाता, भले ही गलती टेंपलेट की वजह से हो। ऐसे
में अपने अनुभव और सूझ-बूझ के इस्तेमाल के साथ-साथ एक और बात गांठ बांध लेनी चाहिए
कि अगर हम लिखने में शब्दों की फिजूलखर्ची से बचें तो समस्या काफी हद तक दूर हो
सकती है। उदाहरण देने की जरूरत नहीं समझता क्योंकि ऐसे ढेरों उदाहरण आपको हिंदी
न्यूज़ चैनलों पर अक्सर दिख जाएंगे, जिनमें छोटी-छोटी गलतियां बड़ा नुकसान कर
बैठती हैं। यही बात स्टोरी पैकेज में इस्तेमाल होने वाले ग्राफिक्स प्लेट्स, और
चैप्टर प्लेट्स वगैरह में भी दिख सकती है। हालांकि उनकी तैयारी और उनमें सुधार के
लिए आपके और आपके ग्राफिक्स आर्टिस्ट के पास पर्याप्त समय होता है लिहाजा, उनके
इस्तेमाल में आप बेढब गलतियों से बच सकते हैं।
बात स्टूडिय़ो वीओ या एंकर वीओ या एंकर सॉट या
स्टूडियो पैकेज की करें, तो इनमें भी शब्दों की फिजूलखर्ची अक्सर झलकती है। आधुनिक
हिंदी न्यूज़ चैनलों के न्य़ूज़रूम में ऐसा माना जाता है और ऐसी परिपाटी भी है कि दर्शक खबरें देखना चाहते , न कि एंकर को। ऐसे
में छोटे से छोटे एंकर लीड लिखना भी कम चुनौती का काम नहीं। माना जाता है कि अगर
आपको पैकेज का एंकर लीड लिखना हो, तो खबर की जानकारी सिर्फ से 2 से 3 लाइन यानी
अधिकतम 15 सेकेंड में देने की क्षमता होनी चाहिए। लेकिन आमतौर पर ऐसा नहीं दिखता
और 18 से लेकर 25-30 सेकेंड तक एंकर को ज्ञान देते देखा जा सकता है। एंकर सॉट के
इस्तेमाल में अपेक्षा ऐसी ही होती है कि बाइट में क्या कहा गया है- ये पूरी बात
एंकर के जरिए न कहलवाई जाए, बल्कि उसकी ओर इशारा भर हो। स्टूडिय़ो वीओ या एंकर वीओ या
स्टूडियो ग्राफिक्स या एंकर ग्राफिक्स के इस्तेमाल में भी शब्दों की फिजूलखर्ची से
बचने की कोशिश होनी चाहिए –बातें तथ्यपरक और टु दि प्वाइंट हों, ताकि दर्शक ऊबे
नहीं और कम समय में पूरी खबर से रू-ब-रू हो सके।
बात स्टोरी पैकेज की हो, तो उनमें भी शब्दों की
फिजूलखर्ची से बचने की सलाह दी जाती है ताकि पैकेज बोझिल न हो। खबरों से जुड़े
पैकेज में विश्लेषण की छूट नहीं दी जाती। अगर स्टोरी पैकेज तथ्यपरक है, तो उसमें ग्राफिक्स
का इस्तेमाल होना ही चाहिए ताकि दर्शक को बिंदुवार जानकारी मिल सके। वहीं अगर
पैकेज गीत-संगीत, फिल्म या किसी और सॉफ्ट स्टोरी से जुड़ा हो, तो उसमें भी
विश्लेषण की छूट कतई नहीं दी जा सकती और ऐसी अपेक्षा की जाती है कि वॉयस ओवर के
बजाय ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल नेचुरल एंबिएंस का हो। अगर किसी समाचार विशेष के
विश्लेषण से जुड़ा पैकेज भी तैयार करना हो, तो टेलीविजन की भाषा में फिजूलखर्ची से
बचते हुए उसे हवा-हवाई भाषाई शब्द जाल से बचते हुए बिंदुओं पर आधारित ही बनाया
जाना चाहिए।
बात न्यूज़रूम से निकली है तो जरा फील्ड रिपोर्टर्स
तक जाना जरूरी है। रिपोर्टिंग में खबर निकालने के साथ-साथ उसे सही तरीके से पेश
करना भी बड़ी कला है। लेकिन लाइव की स्थिति में खबर पेश कर रहे बहुत से रिपोर्टर्स
भाषा के लिहाज से पंगु होते हैं लिहाजा शब्दों का गैरजरूरी इस्तेमाल करते पाए जाते
हैं। जमाना आम-फहम बातचीत की भाषा के इस्तेमाल का है, हिंदी-इंग्लिश का मिला-जुला
उपयोग भी काफी बढ़ चला है, ऐसे में रिपोर्टर्स के लिए कम और जरूरी शब्दों में खबर
देना कोई बड़ी बात नहीं, जरूरत है सिर्फ थोड़ी सजगता और थोड़ी तैयारी की।
सवाल ये है कि हिंदी न्यूज़ टेलिविजन में शब्दों
की फिजूलखर्ची क्यों देखने को मिलती है। इसका एक बड़ा कारण है खबर लिखने की सही
ट्रेनिंग की कमी। देश में जिस वक्त प्राइवेट न्यूज़ चैनलों की शुरुआत हो रही थी,
उस वक्त स्टाइल बुक का पालन करने का भी रिवाज था,जिसका सार्थक असर टीवी समाचार
लेखन पर पड़ता था। अब न तो समाचार लेखन के विशेषज्ञ टेलीविजन में रहे, ना ही
ट्रेनर। जो नए लोग टीवी समाचार में आते भी हैं, उनमें तर्क की क्षमता ज्यादा होती
है, सीखने की नहीं। दूसरी वजह य़े कि शुरुआती दौर में हिंदी टेलीविजन समाचारों के
पुरोधा काफी हद तक भाषा के प्रति आग्रही थे, लेकिन नए दौर में ये बात काफी पीछे
छूट गई है। अब तो वैसे अनुभवी लोग भी टीवी समाचार में कम ही हैं जिनकी बात गांठ
बांधी जा सके। ऐसे में हिंदी न्यूज़ टेलीविजन में शब्दों का नाजायज इस्तेमाल
ज्यादा होने लगा है, जो एक नए किस्म का माहौल तैयार कर रहा है।
-कुमार कौस्तुभ, 06-04-2013, 16.33 PM
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