बलात्कार और महिलाओं
पर जुल्म से जुड़ी खबरें टेलीविजन समाचार का अहम हिस्सा बन गई हैं। खासकर टीआरपी
रेटिंग को प्रभावित करने वाले बड़े शहरों में होनेवाली ऐसी घटनाओं की खबरों के
टेलीविजन पर छाने में देर नहीं लगती। ऐसा नहीं कि ऐसी खबरों को दिखाने का उद्देश्य
सिर्फ टीआरपी बटोरना ही है, बल्कि खबर को चर्चा में लाने का नेक मकसद भी इसके पीछे
रहता है। हालांकि ‘सिर्फ
हंगामा फैलाना मेरा मकसद नहीं..सूरत बदलनी चाहिए’ का जो संदेश कवि दुष्यंत दे गए हैं, उससे कोई मतलब टेलीविजन समाचार को
होता भी है, ऐसा नहीं लगता। टेलीविजन खबरें दिखाता है, जो कुछ घटित हो रहा है,
उसको पर्दे पर पेश करता है। हर खबर की तरह बलात्कार और महिला हिंसा की घटनाएं भी
टेलीविजन समाचार के लिए commodity हैं, कच्चा माल हैं, जिनसे 24x7 की चैनल पैकेजिंग
होती है। ये तो सिर्फ एक पहलू है और बलात्कार और ऐसी घटनाओं के खबर बनने से जुड़े
कई और भी पहलू हैं, जिन पर विचार जरूरी हो गया है। राजधानी दिल्ली में पहले ‘निर्भया’ और फिर ‘गुड़िया’ बलात्कार कांड के
साथ ही टेलीविजन समाचारों में बलात्कार और महिलाओं पर जुल्म से जुड़ी खबरों के
प्रसारण से जुड़े कई और मुद्दे उठ खड़े हुए हैं, जिन पर विस्तार से चर्चा और सोचने
की जरूरत है।
सबसे बड़ा सवाल ये
है कि टेलीविजन पर इन दिनों बलात्कार की खबरें ज्यादा क्यों आती हैं, क्या हमारे
समाज में ऐसी बुराइयां बढ़ गईं हैं, हम किस ओर जा रहे हैं? मेरा मानना ये है कि
घटनाएं पहले भी होती थीं, लेकिन गुजरे जमाने में मीडिया, खासकर टेलीविजन की पहुंच
खबरों तक नहीं थी। टेक्नॉलॉजी और संचार सुविधाओं के विकास ने टेलीविजन कैमरे को
बेडरूम तक में पहुंचा दिया है, ऐसे में कोई खबर कैमरे की पहुंच से बची रहेगी ये
सोचना सही नहीं लगता। लेकिन 10 साल पहले तक ही जब न बड़ी संख्या में टेलीविजन के
समाचार चैनल वजूद में थे, न ही घटनाओं के समाचार बनने की प्रक्रिया उतनी आसान थी।
समय और परिस्थितियों में बदलाव की वजह से अब तमाम घटनाओं को छिपा कर रखना मुश्किल
हो गया है। यही वजह है कि सामाजिक सक्रियता भी बढ़ी है और बलात्कार जैसी घटनाओं पर
पब्लिक की तीव्र प्रतिक्रियाएं भी सामने आने लगी हैं, जो घटनाओं को खबर बनाने और
उन्हें हवा देने में मदद करती हैं। ये एक ऐसी कड़ी है जो तब तक बढ़ती चली जाती है,
जब तक कोई और बड़ी घटना समाचार की शक्ल न ले ले। आम तौर पर एक घटना की खबर आती है,
तो समाचार जगत में, पत्रकार जगत में, खबर के कारोबार से जुड़े लोगों में सक्रियता
इस कदर बढ़ जाती है कि और भी मिलती-जुलती घटनाओं को पकड़ने की गति बढ़ जाती है।
लिहाजा अक्सर ऐसा देखा जाता है कि जब कोई एक खबर सुर्खियों में आती है, तो उस एक
खबर का follow
up होने
के साथ ही मिलती-जुलती और भी ढेर सारी खबरों की आवक बढ़ जाती है। बलात्कार ही
नहीं, चोरी-डकैती, और यहां तक कि जेल ब्रेक जैसी घटनाओं से जुड़ी खबरों के मामले
में भी ये ट्रेंड देखने को मिल चुका है। एक तरह की खबरों की आवक बढ़ने से एक तो
प्रमुख खबर को चर्चा में बनाए रखने में मदद मिलती है, दूसरे इनके जरिए सरकार और
प्रशासन की खामियां उजागर करने और सियासी दलों का एक-दूसरे पर निशाना साधने का
मकसद भी पूरा होता है। ये अपराध से जुड़ी खबरों के प्रसारण से जुड़ा सामान्य
मनोविज्ञान है। कोई खबर आती है, उस पर जनता की प्रतिक्रिया होती है, उसकी पड़ताल
होती है और फिर उसके नतीजे निकाले जाते हैं, फिर सियासी बयानबाजियां शुरु होती हैं
और चंद दिनों में मामला ठंडा हो जाता है। घटना के खबर बनने से पीड़ितों और उनके
परिजनों पर सरकार, प्रशासन और सियासतदानों का ध्यान जाता है, उनकी कुछ हद तक मदद
भी हो जाती है, लेकिन मूल समस्या जहां की तहां रहती है और चंद दिनों बाद वो फिर एक
नई खबर का रूप लेकर टीवी स्क्रीन पर आ जाती है। हालांकि आज के दौर में खबरें ‘localize’ हो चुकी हैं। राष्ट्रीय समाचार चैनलों के लिए
राजधानी और मेट्रो से जुड़ी खबरें अहमियत रखती हैं, लिहाजा ‘निर्भया’ जैसी मिलती जुलती
कोई घटना अगर चेरापूंजी में हो, तो उसे शायद उतनी कवरेज नहीं मिलेगी। लेकिन
क्षेत्रीय समाचार चैनलों के लिए वो hot cake हो सकती है। इसी तरह दक्षिण भारत की ऐसी कोई खबर हिंदी समाचार चैनलों
पर लगातार सुर्खियों में नहीं रहेगी। केरल के सूर्यनेल्ली रेप केस को लेकर भी
हिंदी समाचार टेलीविजन पर कोई बड़ी कवरेज नहीं दिखी, बावजूद इसके कि उसमें
सत्ताधारी पार्टी के बड़े नेता पर उंगुली उठी। सूदुर आदिवासी इलाके से आनेवाली
सोनी सोरी का मामला भी राष्ट्रीय हिंदी समाचार चैनलों पर कभी सुर्खियों में शामिल
हुआ हो, ऐसा नहीं दिखता। लेकिन दिल्ली की संकरी गलियों में रहनेवाली ‘गुड़िया’ से बेइंतहा बेरहमी पर
तमाम चैनल आंसू बहा रहे हैं।
दूसरा बड़ा सवाल ये
है कि बलात्कार से जुड़ी खबरों का प्रसारण किस तरह होना चाहिए? तमाम
सरकारी-गैरसरकारी गाइडलाइंस, एडवाइजरीज़ और स्वनियंत्रण का पालन करते हुए भारत ही
नहीं दुनियाभर के समाचार चैनलों पर बलात्कार पीड़ितों की पहचान छिपाने का चलन है।
नैतिक तौर पर ये बिल्कुल सही है। लेकिन नियंत्रण के दायरे में रहते हुए टेलीविजन पर
ऐसे समाचारों का प्रसारण बड़ी चुनौती है। सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि टेलीविजन
विजुअल माध्य़म है, छोटे पर्दे पर बिना वीडियो के बात नहीं बनी। लेकिन ऐसी खबरों
में बड़ा संकट विजुअल को लेकर होता है। पीड़ित की पहचान छिपाने के लिए उससे जुड़ी
कोई तस्वीर या ऐसा वीडियो आप नहीं दिखा सकते, जिसमें उसके पहचाने जाने का खतरा हो।
अगर दिखाते भी हैं, तो चेहरों को पूरी तरह blur करके या
आंखों पर काली पट्टी लगाकर दिखाया जाता है, जो बेहद नीरस और ऊबाऊ होता है। पीड़ित
और उससे जुड़े लोगों की पहचान छुपाने पर सख्त नियम कायदों की वजह से जनवरी 2013
में ज़ी न्यूज़ चैनल की ओर से ‘निर्भया’ के
दोस्त का इंटरव्यू प्रसारित किए जाने पर सवाल खड़े हो गए। दिल्ली पुलिस ने इस
सिलसिले में शिकायत भी दर्ज कर ली, जिसके पीछे वजहें और भी हो सकती हैं, और
इंटरव्यू बगैर पहचान छिपाए दिखाने के पीछे चैनल के अपने तर्क भी हो सकते हैं। लेकिन,
नैतिकता का तकाजा यही माना जाता है कि पीड़ितों की पहचान जाहिर होने पर समाज उनकी
ओर आंखें फाड़-फाड़ कर देखेगा और हो सकता है किसी वजह से उंगुली भी उठाए, जिससे
उनके सार्वजनिक जीवन जीने पर असर पड़ सकता है। हालांकि, एक सीमित दायरे में रिश्तेदारों
और जान-पहचानवालों के बीच पीड़ित की पहचान कैसे छिप सकती है और पीड़ा से तो जिंदगी
भर छुटकारा नहीं मिल सकता, अगर पीड़ित मानसिक रूप से मजबूत न हो। तीसरी बात ये कि
किसी खबर को दर्शक आखिर कब तक याद रख सकते हैं और दर्शकों की कितनी पीढ़ियां उसका
इतिहास पलटकर देखने की फुर्सत में होगी? फिर भी घटना के खबर बने तात्कालिक 10-20 साल गुजरने तक तो पीड़ित की
परेशानी और न बढ़े, ये बात तार्किक कसौटी पर खऱी लगती है। लिहाजा, पीड़ित और उनसे
जुड़े लोगों के चेहरों को पूरी तरह blur करके या आंखों पर काली पट्टी
लगाकर दिखाने के अलावा आजकल पीड़ित के प्रतीक के तौर पर काले कटआउट या silhouette images के इस्तेमाल का भी चलन बढ़ गया है, जिन्हें
देखने पर बगैर ऑडियो सुने या टेक्स्ट या ग्राफिक्स के भी खबर को पकड़ना दर्शकों के
लिए मुश्किल नहीं होता । इनके साथ पुलिस थाने और शहर और सड़क के डेड विजुअल्स भी
स्टोरी को बेहद कठिन बना देते हैं। हालांकि खबरों के मजबूत होने की वजह से लोगों
की दिलचस्पी उनमें ज्यादा होती है और ग्राफिक्स के जरिए तथ्यों को दिखाने की कोशिश
खबरों के प्रसारण को जिंदा रखती है। चुंकि विजुअल्स की सीमा होने के चलते ऐसी
खबरों के प्रसारण का कोई और उपाय नहीं है, ऐसे में कुछ उम्मीद कैमरे पर जाकर टिकती
है, जिसका अगर बेहतरीन इस्तेमाल हो, तो खबरों के विजुअल विवरण में कुछ जान आ सकती।
कैमरे का इस्तेमाल थाने, पुलिसवालों और अस्पताल के अलावा मौका-ए-वारदात से जुड़े
अलग-अलग किस्म के ढेर सारे वीडियो इकट्ठा करने में हो सकता है। ये कैमरामैन की
समझदारी पर निर्भर करता है कि वो बेपरवाही से शॉट्स शूट करता है, या फिर उसके
दिमाग में भी खबर की स्टोरी घूम रही होती है। अगर कैमरामैन कल्पना कर सकता है कि
किसी खबर की स्टोरी किस तरह बन सकती है, तो वो उसके हिसाब से तमाम काम आने लायक
विजुअल इकट्ठा कर सकता है और अगर वो स्टोरी को नहीं समझता तो फिर विजुअल मिलने की
संभावना शून्य रहती है। ऐसे में इस प्रक्रिया में खबर जुटानेवाले पत्रकारों से कम
जिम्मेदारी कैमरामैन की नहीं है। बलात्कार से जुड़ी खबरों पर पब्लिक की
प्रतिक्रिया जब धरने-प्रदर्शनों और जुलूस की शक्ल में सड़कों पर सामने आती है, तो
विजुअल्स की कोई कमी नहीं रहती और इसके साथ ही कई साइड स्टोरीज़ भी निकलती चली
जाती हैं, जो मुख्य खबर को आगे बढ़ाने के लिए समाचार चैनलों को काफी मसाला और
मजबूत आधार प्रदान करती हैं। लेकिन अगर खबर की स्टोरी पीड़ित और आरोपी तक ही सीमित
हो, तो क्या किया जा सकता है। ऐसे में, कट-आउट, silhouette और ग्राफिक्स ही खबर को पेश करने के लिए सबसे
बड़ा सहारा साबित होते हैं। लेकिन आखिर कब तक, खबर को विस्तार देने की कोशिश में
ये elements बहुत मदद नहीं कर
सकते।
तीसरा मुद्दा
बलात्कार जैसी घटनाओं से जुड़ी खबरों को आधे-आधे घंटे तक के विशेष बुलेटिन्स या
खास कार्यक्रमों के ढांचे में ढालने का। यहां एक तो विजुअल का मूल संकट है, दूसरा
मामला स्क्रिप्टिंग से जुड़ा है। घटना का विवरण देने या पीड़ित और मुजरिम के बारे
में लिखते हुए डेस्क के पत्रकार अक्सर भावना में बह जाते हैं, लच्छेदार भाषा के
इस्तेमाल का लोभ संवरण नहीं कर पाते। इस तरह की स्क्रिप्ट्स सुनने में कई बार
मार्मिक भी लगती हैं, तो कई बार absurd भी। मार्मिकता का पुट डालने
औऱ खबर को मसालेदार बनाने के लिए कई बार जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है, वो
साहित्य में फिट बैठ सकते हैं, लेकिन खबरों में नहीं। देश के दुख को जाहिर करने के
लिए कई बार स्क्रीन पर कविता रच दी जाती है, तो आरोपियों और दोषियों के चरित्र-चित्रण
में टेलीविजन के लिक्खाड़ खुद न्यायाधीश की भूमिका अदा करने लग जाते हैं। जाहिर
है, ये आदर्श स्थिति तो नहीं है, ना ही पेशे की कोई ऐसी मजबूरी है, जिससे हटा नहीं
जा सकता। जरूरत सिर्फ कुछ गंभीरता और सावधानी बरतने और खबरों के मामले में objective बने रहने की है। स्पेशल
न्यूज़ शो में ऐसा इसलिए नहीं देखने को मिलता क्योंकि उनकी दिशा तय नहीं रहती है।
फोकस तय भी हो, तो भटकने की पूरी छूट दी जाती है भले ही इसके पीछे तर्क कुछ भी
हों। सीरियस मुद्दों को अति-सीरियस बनाने की कोशिश में अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
समाचार चैनल के स्लॉट पूरे हो जाते हैं, लेकिन ऐसे कार्यक्रमों की सार्थकता पर
सवाल बने रहते हैं। मूल मुद्दा खबरों के प्रसारण की स्टाइल, उसके अंदाज-ए-बयां का
है, जिस पर अनुभवी टीवी पत्रकारों को और गौर करने की जरूरत और टीवी पत्रकारिता में
आनेवाली पीढ़ियों को ऐसे नए और innovative तरीके तलाशने चाहिए, जिससे खबर की संजीदगी बनी
रहे और खुद उसके साथ बलात्कार न होने पाए।
बलात्कार
संबंधी घटनाओं के प्रसारण का मामला भारतीय ही नहीं विदेशी मीडिया में भी विमर्श का
विषय रहा है। हालांकि अमेरिका जैसे देशों में ये खबर से ज्यादा एंटरटेनमेंट चैनलों
पर दिखाया जाने वाला विषय है। इसके असर और इससे जुड़े पहलुओं पर अमेरिका के बोस्टन
कॉलेज में Women`s studies program और Communication पढ़ानेवाली
Lisa M. Cuklanz ने Rape
on Prime Time नाम की किताब लिखी है, जिसमें 1974 में बलात्कार संबंधी कानूनों में सुधार
के बाद मुख्यधारा के मीडिया में ऐसी घटनाओं के सामाजिक परिप्रेक्ष्य की चर्चा की
गई है। Lisa M. Cuklanz 1990
के दशक
तक मीडिया में पेश होनेवाले बलात्कार मामलों की बात करते हुए लिखा है-
“prime-time television programs
during the 1970s—usually detective shows—reflected traditional ideas that
"real" rape is perpetrated by brutal strangers upon passive victims.
Beginning in 1980, depictions of rape began to include attacks by known assailants,
and victims began to address their feelings. By 1990, scripts portrayed date
and marital rape and paid greater attention to the trial process, reflecting
legal reformers' concerns.”[1]
वहीं, एक और
विश्लेषक सुजाता मूर्ति का मानना है कि टेलीविजन समाचारों में बलात्कार से जुड़ी
खबरों का प्रसारण जटिल जेंडर पॉलिटिक्स जैसे मुद्दे को उठाता ही नहीं, जिस पर ये
खबरें सीधे ध्यान आकर्षित करती हैं। Color of rape: gender and race in television's public
spheres नाम की अपनी किताब में सुजाता
मूर्ति ने लिखा है कि टेलीविजन बलात्कार की वारदातों को सामाजिक-राजनीतिक घटना या
किसी प्रमुख हस्ती से जुड़े पारंपरिक खबरिया ढांचे में रखकर पेश करता है। हालांकि
मूर्ति का ये भी मानना है कि ऐसी खबरों के प्रसारण से समाज में लैंगिक मुद्दों पर
चल रही बहस की ओर इशारा तो किया जाता है, लेकिन उन पर गंभीरता नहीं दिखाई जाती। मूर्ति
के मुताबिक, 1980 के बाद से टेलीविजन समाचारों में ऐसी खबरों की चर्चा शुरु हुई,
लेकिन वो अब भी असल मुद्दे से दूर हैं।[2]
हालांकि टेलीविजन समाचार चैनलों पर खबर आधारित बहसों में ऐसे तमाम मुद्दों पर
गरमागरम चर्चाएं होती हैं। लेकिन समय सीमा की बाध्यता और मिशन पत्रकारिता के तौर
पर ऐसी खबरों से जुड़ा कोई नेक मकसद प्रसारण से जुड़ा न होने की वजह से ‘बात
से निकलती तो जरूर है, लेकिन बहुत दूर तलक’ नहीं जाती। जाहिर
है, समाचार चैनलों की सीमा खबर दिखाने की है, न तो समाज बदलने की कोई मुहिम खड़ा
करना उनका मकसद है, ना ही ऐसी कोई मजबूरी, लिहाजा खबर में जब तक जान होती है, तब
तक उसे निचोड़ लेने की हरसंभव कोशिश होती है। अब ये तो स्थिति कुछ वैसी ही है जैसे
समुद्र में बड़ी मछली छोटी मछलियों को खा जाती है, तो जिस पल भी खबरिया नजरिए से
कोई बड़ी घटना समाचार चैनलों के सामने आती है, तो दूसरी तमाम खबरें उसके सामने गौण
ही नहीं वरन dead हो
जाती हैं और अक्सर ऐसा देखने को मिलता है, किसी खबर के साथ बड़े स्तर पर खेलने की
सारी तैयारी धरी की धरी रह जाती है, जब कोई और उससे या सबसे बड़ी खबर मंच पर आ
जाती है। टेलीविजन समाचारों में ये हर रोज की प्रक्रिया है, लिहाजा इसको लेकर कोई
उदास नहीं होता, और कोई खुश भी नहीं होता, सभी गीता के वचन का अघोषित पालन करते हुए
फल की इच्छा किए बगैर अपना काम किए जाते हैं, किसी खबर से दिल नहीं लगाते। .
[2]
http://books.google.co.in/books?id=Apl5KxlNw8wC&pg=PA35&lpg=PA35&dq=rape+issues+on+television+news&source=bl&ots=5h05mwbKMW&sig=pJWvAfY14TXcEyFhk3iPn5XuQBY&hl=en&sa=X&ei=7EVyUf2IF4_rrQediIFw&ved=0CGwQ6AEwCTgU#v=onepage&q=rape%20issues%20on%20television%20news&f=false
No comments:
Post a Comment