पत्रकारिता
की पढ़ाई करने के बाद पहली बार जब एक अखबार के दफ्तर में ट्रेनी के तौर पर काम
करने गया, तो एक वरिष्ठ सहयोगी ने कुछ अंग्रेजी के न्यूज़ आइटम हाथ में पकड़ाते
हुए कहा – लीजिए, इससे एक कहानी बना दीजिए। सुनकर अचंभा हुआ कि भला अखबार के
न्यूज़ डेस्क पर कहानी का क्या काम? मैं फीचर या साहित्य के पन्ने पर काम करने
तो गया नहीं था। साथ ही, पत्रकारिता से पहले साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते कल्पनालोक
से जुड़ी कहानी की अलग अवधारणा मन में थी। कथानक, नायक, नायिका, अन्य पात्र,
क्लाइमेक्स, सुखद या दुखद अंत- कहानी के ये तमाम तत्व मन में उमड़ने-घुमड़ने लगे।
सामने गंभीर चुनौती थी- कभी कहानी तो लिखी नहीं, तो खबरनवीशी में आकर क्या कहानी
ही लिखनी होगी। काम की शुरुआत हुई और जब पेशे में उतरा तो कहानी की असली कहानी कुछ
इस तरह समझ में आई कि खबरनवीश के लिए हर खबर एक कहानी होती है। हर रिपोर्टर अपनी ‘स्टोरी’
फाइल
करता है। न्यूज़ डेस्क के लोग उस ‘स्टोरी’ को छापने या
दिखाने लायक बनाने के लिए मांजते हैं। कहना न होगा कि हर खबर की एक कहानी होती है,
हर खबर के पीछे कोई न कोई कहानी होती है या फिर यूं भी समझें कि हर खबर एक कहानी कहती
है , कई कहानियों का तानाबाना बुनती है।
अखबार
के लिए भी खबर एक कहानी होती है और टेलीविजन के लिए भी वो स्टोरी के सिवा कुछ नहीं
होती। अखबार के बाद टेलीविजन में काम करने का मौका मिला तो वहां भी कहानी से पीछा
नहीं छूटा बल्कि कहानी का और बड़ा फलक सामने आया। कहानी गढ़ने की कला पर
साहित्यकार, रचनाकार और आलोचक चाहे कितनी भी माथापच्ची क्यों न कर लें, लेकिन
टेलीविजन और समाचार माध्यमों में किस तरह कहानी गढ़ी जाती है उसका राज़ वही लोग
जानते हैं जो साहित्य से भी जुड़े हैं और मीडिया से भी। साहित्य में कहानी कला के
विकास का इतिहास आपको पढ़ने को मिल जाएगा, लेकिन पत्रकारिता में कहानीकारिता का
इतिहास अलिखित है। खासकर टेलीविजन पत्रकारिता में कहानीकारिता का इतिहास लिखना भी
बेहद मुश्किल और दुरुह काम है। कभी इस ओर शायह ही किसी पत्रकार का ध्यान गया हो कि
न्यूज़ डेस्क पर कहानीकारिता का किस तरह रोज विकास हो रहा है, रोज नए प्रतिमान बन
रहे हैं, रोज नई कला सामने आ रही है, रोज नए फॉर्मूले पेश किए जा रहे हैं।
फॉर्मूले इसलिए क्योंकि एक बने-बनाए ढर्रे पर, एक खास ढांचे में खबर को मांजकर कहानी
बनाने की परंपरा आमतौर पर देखने को मिलती है जिसका सटीक उदाहरण है टेलीविजन स्टोरी
की पैकेजिंग। 3 VO 2 बाइट और
एक PTC के फ़ॉर्मूले पर टीवी की कहानी लिखने का तरीका आम हो चला है। हालांकि रोजाना इसमें हर
स्क्रिप्ट राइटर अपने मनमुताबिक, या खबर की मांग के मुताबिक बदलाव करता है, कुछ नए
एलिमेंट जोड़ता है, कुछ घटाता है और अपनी ड्यूटी निभाता है। टेलीविजन में नौकरी की
शुरुआत पर मेरा पाला जब ‘स्टोरी’ लिखने से
पड़ा तो मेरे एक तत्कालीन बॉस, जो अब न्यूज़ टेलीविजन की दुनिया के एक बड़े नामों
में शुमार हैं, उन्होंने मेरा लिखा देखकर मेरी लंबी चौड़ी क्लास ली। मेरी ही नहीं,
वो पूरे चैनल के लिक्खाड़ों की टोली को खबरिया कहानी-कला की बारीकियां बताते थे और
उन्हें सही तरीके से स्टोरी लिखने की ताकीद करते रहते थे। इसी क्रम में चैनल में स्क्रिप्ट
लेखन की दुनिया के दिग्गज जुगनू शारदेय को भी बुलाया गया था, जो डेस्क के लोगों को
लिखना सिखाते थे और समय-समय पर उनका इम्तिहान लेते रहते थे। टीवी कहानीकारिता की
इस ट्रेनिंग के दौरान मुझे सबसे पहले ABC का फॉर्मूला बताया गया और साथ ही ये भी
कहा गया कि ये स्टोरी लिखने का आधुनिक तरीका है जो आजतक जैसे चैनलों में इस्तेमाल
किया जाता है। पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान हमें अखबार और टेलीविजन की स्क्रिप्ट
लिखने के जो तौर-तरीके बताए गए थे, वो बेकार साबित हो रहे थे। टेलीविजन के नए
मुर्गे को बांग देने में मुश्किल आ रही थी। बड़ी तैयारी और पढ़ाई के साथ बुने गए
तमाम सपने चकनाचूर होते दिख रहे थे। पढ़ाई के दौरान दूरदर्शन समाचार के तत्कालीन
संपादक श्री आलोक देशवाल ने टीवी की खबर लिखने की जो ट्रेनिंग दी थी, बात उससे
काफी आगे बढ़ रही थी। किताबों और अन्य स्रोतों से स्क्रिप्ट लिखने की जो
सैद्धांतिक समझ पैदा हुई थी, उनकी चर्चा न्यूज़ राइटिंग की किसी भी किताब में मिल
सकती है। लेकिन यहां तो व्यावहारिक तरीके से खबर को कहानी में बदलने की चुनौती
सामने थी। ऐसे में संपाकद की फजीहत झेलते हुए ABC का जो फ़ॉर्मूला सामने आया, वो बड़े काम का
साबित हुआ। आप सोच रहे होंगे कि खबर की स्क्रिप्ट लिखने का ये ABC
फॉर्मूला क्या है?
सीधी सरल भाषा में A का मतलब Action, B का मतलब खबर का ब्रैकग्राउंडर और C
का
मतलब Conclusion यानी आगे की ओर इशारा। ये फॉर्मूला तार्किक तौर
पर बड़ा सुलझा हुआ लगा और जैसा कि पहले कहा जा चुका है, आधुनिक खबर लेखन के लिहाज
से भी फिट बैठता था।
21वीं
सदी के शुरुआती दौर में भारतीय टेलीविजन समाचार में जिस तरह के बदलाव आ रहे थे,
उनमें और भी नए प्रयोगों की गुंजाइश थी। इसकी बानगियां हमें आगे चलकर देखने को
मिलीं। बात बुलेटिन से आगे बढ़ी और खबर विशेष पर स्पेशल शोज़ तक पहुंची तो खबरिया कहानी
यानी न्यूज़ स्क्रिप्ट लिखने के मायने और बदले। इसके साथ ही तब से अब तक खबर की
तमाम विधाओं – राजनीति, अपराध, खेल, मनोरंजन के क्षेत्रों में भी कहानियों की अपनी
मांग के मुताबिक लेखन कला विकसित होती चली गई। खबर का विकास हुआ, कहानी परवान चढ़ी
लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में भाषा कहीं पीछे छूटती सी चली गई। दरअसल, निजी समाचार
चैनलों में समाचार प्रसारण की बुनियाद में वो भाषा थी, जो साहित्यिक तो कतई नहीं
थी, लेकिन सीधी और सरल होने और आम जनमानस की समझ के करीब पहुंचने का दावा करती थी।
हार्ड न्यूज में साहित्यिक और लच्छेदार भाषा का प्रवेश निषेध हो चुका था, तर्क ये
था कि ये भाषा किताबी है और आम दर्शकों की समझ से बाहर है, लिहाजा कहानी कहने में
हमें ऐसी भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए, जो बच्चे से लेकर बूढ़े तक, रिक्शॉवाले से
लेकर दफ्तर के साहब तक- सबकी समझ में आए। लिहाजा हिंदी के साथ अंग्रेजी और उर्दू
के शब्दों का इस्तेमाल बढ़ा। ये खबर की कहानी की भाषा का विकास था- लेकिन इस भाषा
पर पकड़ रखनेवाले तमाम ऐसे लोग न्यूज़ डेस्क पर आने लगे, जिन्हें न हिंदी ठीक से
लिखने आती थी, न उर्दू के शब्दों को देवनागरी में सही-सही लिखने आता था। अंग्रेजी
के शब्दों को भी देवनागरी में उतारने का ढर्रा बेखटके चल पड़ा। समझने लायक भाषा
सामने लाने की इस पूरी प्रक्रिया में सबसे ज्यादा नुकसान वर्तनी का हुआ और हद तो
ये हो गई कि किसी मानक रूप को इस्तेमाल न करने की हठधर्मिता के चलते टीवी के
भाषाविदों ने काफी हद तक वर्तनी में सही-गलत बदलाव को भी भाषा के विकास से जोड़कर
देखना शुरु कर दिया। ये प्रक्रिया अब भी चल रही है , लेकिन भाषा विमर्श को पीछे छोड़कर
खबर की कहानीकारिता पर फिर से बात करें तो मौजूदा दौर में यही बात देखने को मिल
रही है कि सिर्फ 10 साल में टेलीविजन समाचार की कहानी का इतना विकास हो चुका है कि
अब ABC जैसे फॉर्मूले पीछे छूट गए हैं और कोई निश्चित तरीका नहीं रहा जिस पर
टिककर खबर को कहानी का रूप दिया जा सके। समाचार चैनलों की बहुतायत, टीआरपी की
गलाकाट प्रतिद्वंद्विता और बाजारोन्मुख पत्रकारिता ने व्यावहारिक तौर पर ‘प्रोड्यूसर
को जो अच्छा लगे, वही कहानी’ का फॉर्मूला अंगीकार कर लिया है। इसी को
ध्यान में रखकर किसी भी बुलेटिन या कार्यक्रम की परिकल्पना तय़ होती है और कहानी गढ़ने
की वही दिशा होती है, जो शो प्रोड्यूसर पसंद करता है। ऐसे में प्रोड्यूसर के पास
अपनी कल्पनाशीलता को रचनात्मक अंजाम तक पहुंचाने की भरपूर गुंजाइश रहती है और कई
लोग इस तरीके से काम भी करते हैं, जो अक्सर सराहे जाते हैं। लिहाजा कहना न होगा कि
खबर की कहानीकारिता में अब मैदान खुला है और जो जैसा चाहे, वैसा करने की पूरी छूट
है, कोई बंदिश नहीं है, सिर्फ ख्याल इसी बात का रखना है कि जो कुछ आप पेश करने जा
रहे हैं वो अच्छा लगे। अब सवाल है कि किसको अच्छा लगे- तो जाहिर सी बात है
सैद्धांतिक तौर पर आपको अपने दर्शक वर्ग के हितों , उनकी आकांक्षाओं और अपने संगठन
के हितों का ख्याल रखना ही होगा। आपको सजग रहकर ये सोचना पड़ेगा कि आपकी कहानी कितनी
कसी हुई है और किसी के लिए किसी तरीके से उबाऊ तो नहीं। ये भी ध्यान रखना होगा कि
आपने खबर से जुड़े तत्वों को कहानी में समाहित किया है या नहीं। साथ ही सबसे बढ़कर
ये भी ध्यान रखना होगा कि क्या आप अपनी कहानी में कहीं कोई बात दोहरा तो नहीं रहे
हैं और अगर ऐसा कर रहे हैं, तो क्या उसकी कोई खास जरूरत है और अगर जरूरत है तो
दोबारा किसी बात को कहने के लिए आपने क्या नया तरीका इस्तेमाल किया है। ये सब कुछ
ऐसे बिंदु हैं, जिनपर टीवी में खबर की कहानी लिखते समय ध्यान दिया जाए तो न सिर्फ आपको
आत्मिक संतोष मिलेगा , बल्कि आपका प्रॉडक्ट भी बेहतर बनेगा।
ये
तो खबर की कहानी लिखने की कहानी हुई, अब जरा खबर की कहानी के एक दूसरे पहलू पर गौर
कर लें, जो खबर के लिहाज से काफी अहम है। सैद्धांतिक तौर पर खबर की जो भी
परिभाषाएं हों, उनकी गहराई में नहीं जाना चाहता, लेकिन व्यावहारिक तौर पर एक बात कई
बार देखने को मिलती है कि खबर को खबर बनाने में कहानी का अहम योगदान होता है। यानी
खबर के पीछे छुपी कहानी को उभारने के लिए रिपोर्टर क्या क्या करता है और स्क्रिप्ट
राइटर घटनाक्रम को किस तरह कहानी के ढांचे में ढालता है। मसलन चोरी और लूटपाट की
हर घटना खबर हो भी सकती है और नहीं भी। लेकिन अगर खबर एक ऐसी महिला के साथ लूटपाट
और हत्या की हो , जो हाईप्रोफाइल हो, हमेशा सोने के गहनों से लदी रहती हो, तो उसके
बारे में एक खबर कई कहानियों को जन्म दे सकती है। इसके लिए जरूरी है रिपोर्टर की
ओर से वो तमाम तथ्य और जानकारियां जुटाई जाएं, जो कहानी के प्लॉट को तैयार करती हैं
और उसे विकसित करती हैं। खबर बनाने के पीछे भी कई बार कहानी होती है। मसलन आपको
य़ाद होगा किसी इलाके में मीडिया पर एक आदमी को आत्मदाह के लिए उकसाने का आरोप लगा
ताकि सिर्फ एक खबर बन सके। जाहिर है, समाज में खबरों के पीछे की ऐसी कहानियां कई
बड़े सवाल छोड़ जाती हैं और टेलीविजन मीडिया को भी कठघरे में खड़ी करती हैं। ऐसे
में, जरूरत इस बात की है कि हम खबर से कहानी जरूर बनाएं, लेकिन खबर के लिए कोई कहानी
कतई न बनाएं।
-कुमार
कौस्तुभ
11.04.2013,
4.20 PM
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