‘चैन से सोना है तो जाग जाओ’
‘सन्नाटे को चीरती सनसनी सन्न कर देती है
इंसान को’
‘वारदात’ में आपका स्वागत है-
ये कुछ ऐसी लाइन्स हैं जो हिंदी न्यूज़ टेलीविजन के दर्शकों के दिलो-दिमाग पर
बरसों से छा चुकी हैं। ये टैगलाइन्स हैं टेलीविजन के समाचार चैनलों पर प्रसारित
होनेवाले क्राइम शोज़ के। 21वीं सदी की शुरुआत के साथ ही भारत में निजी समाचार
चैनलों का जो उत्थान शुरु हुआ, उसमें खांटी समाचार के प्रसारण के साथ-साथ कई
विधाएं जुड़ती चली गईं। इसी कड़ी में सुन 2002 के बाद तमाम हिंदी न्यूज़ चैनलों पर
अपराध आधारित कार्यक्रमों की बाढ़ आ गई। तकरीबन हर समाचार चैनल पर एक न एक स्लॉट
क्राइम शो के नाम कर दिया गया। खासकर रात 11 बजे का स्लॉट जब प्राइम टाइम खत्म हो
रहा होता है और सुबह नॉन प्राइम टाइम के स्लॉट रात वाले शो को रिपीट करने के लिए
तय रखे गए। ज़ी न्यूज़ के क्राइम शो क्राइम रिपोर्टर, तत्कालीन स्टार न्यूज़ के शो
सनसनी, आजतक के वारदात, जुर्म, हत्यारा कौन, और एसीपी अर्जुन जैसे कार्यक्रमों के
अलावा अन्य चैनलों के डायल 100, पर्दाफाश जैसे अपराध समाचारों पर आधारित कार्यक्रमों
ने टेलीविजन समाचारों के दर्शकों के बीच अच्छी पकड़ बना ली। शाय़द यही वजह थी कि
सरकारी समाचार चैनल दूरदर्शन न्यूज़ भी अपराध के मायाजाल से खुद को अलग नहीं रख
सका और DD पर भी रंगे हाथ जैसे क्राइम शो प्रसारित
होने लगे। जाहिर है क्राइम शो TRP यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स के मनोविज्ञान
की उपज थे, लिहाजा ये काफी परवान चढ़ और शुरुआत के बाद से तकरीबन 10 साल गुजर जाने
के बाद भी ज्यादातर समाचार चैनलों पर इनका जलवा कायम है और 24 घंटे के FPC
में
इनकी खास जगह अब भी बरकरार है। हालांकि एनडीटीवी इंडिय़ा और आईबीएन7 जैसे कुछ
चुनिंदा न्य़ूज़ चैनलों का क्राइम शो से मोहभंग भी हुआ या यूं कहें कि खुद को कुछ
अलग दिखाने की होड़ में कई चैनलों ने क्राइम शो को नमस्कार कर लिय़ा और उनका
प्रसारण बंद भी कर दिया। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि अपराध से जुड़े समाचार टीवी
चैनलों से गायब हो गए। समाज में अपराध होते हैं लिहाजा समाचार चैनलों के बुलेटिन
से लेकर प्रोग्रामिंग तक का अहम हिस्सा ये समाचार रहते ही हैं। लेकिन समाचार
चैनलों पर समाचार से इतर अपराध को अहमियत देने की आखिर क्या वजहें हैं। टेलीविजन
मीडिय़ा के विश्लेषक इस मुद्दे पर काफी चर्चाएं आए दिन करते रहते हैं और इसके पक्ष-विपक्ष
काफी बातें सामने आती रहती हैं। इस सिलसिले में यहां कुछ बिंदुओं और कुछ सवालों पर
चर्चा जरूरी समझता हूं।
सबसे बड़ा सवाल ये है कि जब अपराध से जुड़े मामले समाचार की श्रेणी
में आते हैं, तो इन्हें बुलेटिन में जगह देने के अलावा अलग से इनके लिए खास
कार्यक्रम की जरूरत आखिर क्यों पड़ी? इसके पक्ष में कई
तर्क दिए जाते हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि रोजाना अपराध से जुड़ी खबरों की आवक
इतनी ज्यादा होती है कि इनके लिए एक पूरा बुलेटिन भी छोटा पड़ जाए। लिहाजा शुरुआती
दौर में क्राइम रिपोर्टर जैसे बुलेटिन में अपराध से जुड़ी तमाम बड़ी खबरों को समाहित
करने की दिशा में काम शुरु हुआ। रात के 11 और साढ़े 11 बजे के स्लॉट्स में
प्रसारित होने वाले इस तरह के बुलेटिन का सबसे बड़ा दर्शक वर्ग निम्न और मध्यम
कामकाजी वर्ग हुआ करता था और मेरी समझ में आज भी वही इसका सबसे बड़ा दर्शक वर्ग
है। गुजरते वक्त के साथ बुलेटिन की परिकल्पना और प्रस्तुति में भी बदलाव आया और इस
तरह के क्राइम बुलेटिन्स ने क्राइम शो का रूप ले लिया, जिनमें किसी एक या दो बड़ी
अपराध कथाओं के तमाम पहलुओं का तानाबाना बुनने की कोशिश शुरु हुई। आज के दौर में
आम तौर पर क्राइम शो किसी एक अपराध कथा पर ही केंद्रित होते हैं। एक बुलेटिन में
10 कहानियों की जगह , कैमरा हर दिन किसी एक बड़े आपराधिक मामले के इर्द-गिर्द ही
घूमने लगा है। हर दिन प्रस्तुति अलग किस्म की होती है। नए किस्म की नाटकीयता होती
है। अपराध का पोस्टमॉर्टम करने के लिए सीधी सपाट खबरिया स्टोरी की जगह अब खास
ट्रीटमेंट वाली स्क्रिप्ट , स्पेशल इफेक्ट्स, ग्राफिक्स, एनिमेशन और यहां तक कि
अपराध-विशेष के रिक्रिएशन तक का इस्तेमाल करके स्टोरीज़ तैयार की जाती हैं। मकसद
आमतौर पर यही होता है कि दर्शक को खबर के ज्यादा से ज्यादा करीब ले जाया जा सके,
उसे सोचने को मजबूर किया जा सके, उसे कमिंग अप के बाद की स्टोरी देखने के लिए
बांधा जा सके, उसमें खबर की तह तक जाने का कौतूहल पैदा हो । लेकिन दूसरे पहलू को
देखें, तो ये किसी न किसी रूप में खबर से बढ़कर मनोरंजन का एक जरिय़ा है जिसमें
रहस्य-रोमांच से लेकर मिर्च-मसाला तक वो सब कुछ होता है, जो किसी मुंबइया थ्रिलर
में देख सकते हैं। प्रस्तुति का तरीका थोड़ा हट कर होता है, लिहाजा वो टेलीविजन का
क्राइम शो होता है, फिल्म नहीं होती। लेकिन इसके जरिए इस पेशे से जुड़े लोगों को अपनी
क्रिएटिविटी दिखाने की तमाम दमित इच्छाएं काफी हद तक पूरी होती हैं या फिर दूसरे
तरीके से देखें, तो वो अपने दायित्व का हरसंभव निर्वहन करने की कोशिश करते हैं।
क्राइम बुलेटिन से क्राइम शो तक के सफर की चर्चा हो रही है तो हिंदी
एंटरटेनमेंट टेलीविजन चैनलों पर प्रसारित होनेवाले क्राइम शोज़ को भी भुलाया नहीं
जा सकता। सीआईडी, क्राइम पैट्रोल, सावधान इंडिया- ये कई ऐसे कार्यक्रम हैं, जो
अपराध की खबरों से ही ताल्लुक रखते हैं- कल्पना कम और खबरों से ही ज्यादा प्रेरित
होकर इन कार्यक्रमों के एपिसोड तैयार किए जाते हैं। ऐसे में सवाल ये है कि अपराध
आधारित मनोरंजन जब एंटरटेनमेंट शो पर मिल रहा है, तो समाचार चैनलों पर इनकी जरूरत
क्यों? इसका जवाब ये है कि समाचार चैनलों पर
प्रसारित होने वाले क्राइम शो में तात्कालिकता होती है- हाल-फिलहाल की खबर का
विश्लेषण होता है और नाटकीयता के जरिए मनोरंजन का तड़का भी, लिहाजा अपराधों में
दिलचस्पी रखनेवाले दर्शकों के लिए ये ज्यादा सहज तरीके से उपलब्ध समाचार आधारित
मनोरंजन की खिचड़ी है। एंटरटेनमेंट चैनलों पर प्रसारित होनेवाले शोज़ का मकसद अलग
है और समाचार चैनलों पर प्रसारण का मकसद अलग। समाचार चैनल समाचार से दूर नहीं हो
सकते, भले ही कितनी भी नाटकीयता का पुट कार्यक्रमों में क्यों न डाला जाए, लेकिन USP
खबर
होने की वजह से खबर से हटकर कार्यक्रम का ढांचा और कलेवर पेश करना मूल मानसिकता को
खत्म करने की ओर बढ़ना होगा। इसके पीछे कुछ तो NBA जैसे संगठनों की ओर
से तैयार की गई आत्मसंयम की कठोर नीतियां भी हैं, जो समाचार चैनलों को सीमा से
बाहर नहीं जाने देतीं, तो काफी हद तक बजटीय आर्थिक सीमाएं भी जो कम से कम खर्च में
ज्यादा से ज्यादा बेहतर प्रॉडक्ट देने के लिए चैनलों के नियंताओं को मजबूर कर देती
हैं। ऐसे में समाचारीय तात्कालिकता के दायरे में रहते हुए अपनी कल्पनाशीलता और
क्रिएटिव क्षमता का इस्तेमाल करते हुए समाचार चैनलों के स्वनामधन्य पत्रकार,
प्रोड्यूसर 4 से 5 पैकेज तैयार करके हर रोज एक नया कार्यक्रम पेश करने की ड्यूटी
निभाते हुए अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देते हैं। अपराध समाचारों के साथ पूरा
इंसाफ करने की कोशिश में क्राइम डेस्क का पूरा अमला जुटा होता है और शो ऑन एयर
होने पर लोग चैन की सांस लेते हैं।
यहां तक बात अपराध समाचारों के शो तक के सफर के बारे में हुई और अब जरा
विचार करें कि टेलीविजन पर बुलेटिन से लेकर खास स्लॉट आधारित कार्यक्रमों तक में
अपराध समाचारों को जितना और जिस तरह दिखाया जाता है, इसका आम दर्शक और समाज पर भला
असर क्य़ा पड़ता है। आज के दौर में चोरी-डकैती से ज्यादा बलात्कार और छेड़खानी के
समाचार आम हो गए हैं। रेप शब्द तो जैसे समाचार चैनलों की खबर पट्टियों से हटता ही
नहीं- ऐसे में जाहिरा तौर पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर आपके साथ आपका छोटा
बच्चा टीवी समाचार देख रहा हो, तो वो भी य़े जरूर पूछ सकता है कि पापा, ये रेप-वेप
क्य़ा होता है। भारतीय मध्यवर्गीय समाज की पारिवारिक संरचना में इस सवाल का जवाब
देना किसी के लिए भी दुष्कर हो सकता है। लेकिन जिस तरह टेलीविजन पर सैनिटरी नैपकिन
या कंडोम के एड देखकर बच्चे सवाल नहीं पूछते और ये सबके लिए सर्वग्राह्य हो चुके
हैं, लगता है काफी हद तक वैसे ही रेप और छेड़खानी जैसे जुमले भी सबकी समझदारी में
बैठ और पैठ गए हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि सैनिटरी नैपकिन या कंडोम के एड प्रसारित
करने का मकसद लोगों को इनके बारे में शिक्षित करना भी है, इनकी जरूरत के बारे में
सजग करना भी है, लेकिन अपराध-जनित समाचारों में जो जुमले , जो शब्द अक्सर देखने
में आते हैं, वो किस हद तक शिक्षित कर सकते हैं नहीं, पता, लेकिन एक भय का माहौल
जरूर पैदा कर देते हैं। याद आता है फिल्म शोले पर आधारित वो चुटकुला, जिसमें मां
रोते हुए बच्चे को चुप कराने के लिए कहती है- सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा। कहीं,
हमारे समाचार चैनलों के समाचार हमारे लिए ऐसा माहौल तो नहीं बना रहे कि बच्चों को
कहना पड़े- घर से नहीं निकलना, कुछ भी हो सकता है। भारत में टीवी के समाचार चैनलों
की अवधारणा और खासकर उन पर क्राइम बुलेटिन और क्राइम शो पेश करने की विचारधारा
पश्चिम से आय़ातित है। अमेरिका जैसे देशों में इसका कैसा असर है, इस पर विमर्श करते
हुए Journal of Communication के March 2003 अंक के
पेज नंबर 88 पर Daniel Romer,
Kathleen Hall Jamieson
और
Sean Aday ने
Television News and the Cultivation of Fear of Crime शीर्षक लेख में लिखा है-
“Why has
the public persisted in believing that violent crime is a widespread na-
tional problem in the U.S. despite
declining trends in crime and the fact that crime
is concentrated in urban locations?
Cultivation theory suggests that widespread
fear of crime is fueled in part by
heavy exposure to violent dramatic programming
on prime-time television. Here we
explore a related hypothesis: that fear of crime is
in part a by-product of exposure to
crime-saturated local television news. To test
this, as well as related and
competing hypotheses, we analyzed the results of a
recent national survey of perceived
risk; a 5-year span of the General Social Survey
(1990–1994); and the results of a
recent survey of over 2,300 Philadelphia resi-
dents. The results indicate that
across a wide spectrum of the population and inde-
pendent of local crime rates,
viewing local television news is related to increased
fear of and concern about crime.
These results support cultivation theory’s pre-
dicted effects of television on the
public.”[1]
जाहिर है, अमेरिकी
समाज के बारे में Daniel Romer,
Kathleen Hall Jamieson
और
Sean Aday का अध्ययन अलग हो सकता है, लेकिन एक बात
और ध्यान देने की है कि भारत और अमेरिका दुनिया के बड़े लोकतंत्र हैं, पूंजीवादी
विचारधारा से प्रेरित हैं। अमेरिका विकसित देशों की श्रेणी में है औऱ भारत
विकासशील – लिहाजा आम आदमी अमेरिका को हर मामले में आदर्श के रूप में देखता है ,
अमेरिकी ढर्रे से प्रभावित भी होता है तो Cultivation
theory का
जो नतीजा अमेरिका के लिए है, क्या वो भारत पर लागू नहीं हो सकता। इसके पक्ष और
विपक्ष दोनों में राय हो सकती है- अपने-अपने अलग-अलग विचार हो सकते हैं, ये गहन
विमर्श का विषय है। अमेरिका के ही एक और अध्ययन को देखें तो ये बात साफ हो जाती है
कि टेलीविजन, अपराध और इंसाफ का कितना गहरा संबंध है। Connie L. McNeely ने अपने लेख PERCEPTIONS OF THE CRIMINAL
JUSTICE SYSTEM:
Television Imagery and Public
Knowledge in the United States में लिखा है-
‘While
certainly there are other sources of information, research has suggested that a
majority of people in the United States receive much of their impressions and
knowledge of the criminal justice system through the media, in particular
through entertainment television viewing (Surette
1992). Indeed, in some ways, the most direct "contact" that most
persons have with the criminal justice system is through the "television
experience." This point is very much in keeping with depictions of
increasingly "postmodern" life in which the authority of the family
and school has greatly waned (Saney
1986), and television is progressively the principal means of (or replacement
for) "social contact" and socialization (Giddens
1981; Laywood
1985). Furthermore, research on television as an agent of socialization and
source of knowledge and information has indeed been very suggestive along these
lines, for both children and adults (Gerbner and Gross 1976a,
1976b;
Altheide 1985; Roberts
and Doob 1990; Drucker
1989).’[2]
McNeely का विचार काफी हद तक सही लगता है। खासकर
अगर हम अपने देश में अपराध समाचारों की ऐसी कवरेज पर ध्यान दें, जिसे ‘मीडिया
ट्रायल’ कहा जाता है, तो साफ हो जाता है कि कहीं
न कहीं सही या गलत का सिद्धांत तय करने में मीडिया या यूं कहें कि टेलिविजन का
खासा योगदान रहता है। ऐसे आरोप भी अक्सर लगते हैं और किसी भी मामले को गति देने
में टेलीविजन कवरेज की भूमिका से इंकार भी नहीं किया जा सकता। भले ही इसके अच्छे
और बुरे – दोनों ही पहलू हैं, जिनका ध्यान अपराध समाचारों की कवरेज से लेकर उन्हें
स्पेशल शो के दायरे में लाने तक रखा जाना चाहिए। न्यूज़ टेलीविजन का काम समाचार
देना है, और अपनी इस भूमिका से वो अलग नहीं हो सकते । अपराध भी समाचार का हिस्सा
ही हैं ये बात दोहराते हुए एक बार फिर यही कहना पड़ता है कि कहीं टेलीविजन समाचार
चैनल अपने मूल उद्देश्य से भटक तो नहीं रहे। सीमा का उल्लंघन भी अपराध की श्रेणी
में आता है, ऐसे में TV पर अपराध न हो, इसका ख्याल जरूर रखा
जाना चाहिए।
-
कुमार कौस्तुभ
10.04.2013, 18.23 PM
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