साहित्य समाज का
दर्पण है- ये उक्ति भारतीय टेलीविजन के किस दर्शक ने भला नहीं सुनी होगी? खासकर औपचारिक
पढ़ाई-लिखाई करनेवाले हिंदी पट्टी के तमाम टीवी दर्शकों को किसी न किसी स्तर पर
साहित्य की इस परिभाषा से जरूर परिचित होना पड़ा होगा। लेकिन आज के दौर में टेलीविजन
के समाचार चैनल ही जैसे समाज का आईना बन चुके हैं और साहित्य को आम लोगों से दूर
करते जा रहे हैं, ऐसा भी कुछ लोगों का मानना है। मैं य़े तो नहीं मानता कि टेलीविजन
चैनल साहित्य को आम लोगों से दूर कर रहे हैं, लेकिन ये भी सत्य है कि समाचार चैनलों
को साहित्य को आम लोगों से जोड़ने के लिए जो भूमिका निभानी चाहिए, वो नहीं निभाई
जा रही है। वास्तव में देखें तो साहित्य कभी समाचार चैनलों का हिस्सा बना ही नहीं।
अखबारों में साहित्य को जरूर जगह मिलती रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रिंट मीडिया
होने के चलते लिखित साहित्य अखबारों के ढांचे में फिट बैठता है और साथ ही इसकी एक
बड़ी औऱ दूसरी वजह ये भी है कि साहित्य उन तमाम पाठकों को अखबारों से जोड़ने का
काम करता रहा है, जो साहित्य में दिलचस्पी रखते रहे हैं। तीसरी एक और वजह ये है कि
फिल्मी मनोरंजन के विकास से पहले साहित्य ही लोगों के बौद्धिक विलास और मनबहलाव का
भी अहम जरिया हुआ करता था लिहाजा अखबारों में साहित्यिक विधाओं- कहानियों और
कविताओं को जगह मिलना लाजिमी था। ये परंपरा आज भी किसी न किसी स्तर पर जारी है। चौथी
एक बड़ी वजह ये कि हिंदी समाचार जगत के तमाम पुरोधा मूलतः साहित्यकार ही रहे- चाहे
वो भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र से लेकर मुंशी प्रेमचंद जैसे प्रगतिशील लेखक और
गणेशशंकर विद्यार्थी और बाबूराव विष्णु पराड़कर या माखनलाल चतुर्वेदी , रामवृक्ष
बेनीपुरी और शिवपूजन सहाय जैसे सुधी पत्रकार रहे हों, या फिर बाद के दौर के
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय और रघुवीर सहाय जैसे महामना संपादक या
कमलेश्वर और मनोहर श्याम जोशी जैसे भारतीय टेलीविजन के संस्थापक-स्तंभ। जाहिरा तौर
पर साहित्यिक संस्कार औऱ पृष्ठभूमि होने की वजह से अखबारों औऱ प्रिंट मीडिया में
साहित्य को जगह देना काफी हद तक इन महानुभावों के लिए एक भावनात्मक जरूरत रही
होगी, तो आम पाठकों के लिए स्वस्थ मनोरंजन उपलब्ध कराने की एक नीति भी। हालांकि आज
के दौर में अखबारों से भी साहित्य की उपस्थिति घटती जा रही है, लेकिन , वो अब भी
पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। सप्ताह में कम से कम एक दिन परिशिष्ट का एक या आधा
पन्ना तमाम अखबारों में साहित्य को समर्पित होता ही है। इसके पीछे भी शायद यही वजह
हो सकती है कि अखबारों में काम करनेवाले तमाम संपादकों और पत्रकार बंधुओं का
साहित्य के प्रति सहज अनुराग हो। रही बात खबरें दिखानेवाले टेलीविजन समाचार चैनलों
की, तो यहां भी तमाम ऐसे संपादक हैं, जिनका न सिर्फ साहित्य से नाता है, बल्कि उसमें
गहरी पैठ भी है। शाजी जमां, विनोद कापड़ी, अजीत अंजुम, अमिताभ जैसे कई वरिष्ठ
संपादक अच्छे कथाकार भी हैं, तो रवि पाराशर और राणा यशवंत जैसे संपादक गण कविता के
क्षेत्र में खासी दखल रखते हैं। आशुतोष कथाकार और कवि भले न हों, लेकिन उनके
अखबारी लेखन से साफ झलकता है कि साहित्य की कितनी गहरी समझ उन्हें है और साहित्य
से उनका कितना गहरा नाता है। प्रियदर्शन, अनंत विजय, आलोक श्रीवास्तव जैसे कितने ही अन्य लोग जो
समाचार चैनलों के संपादकीय विभागों से जुड़े हुए हैं, उन्हें साहित्य के क्षेत्र
में किसी पहचान की आवश्यकता नहीं। और ये भी सच है कि आज कल आधे से ज्यादा हिंदी
पत्रकार किसी न किसी रूप से साहित्य से जुड़े हुए हैं चाहे वो पढ़ाई के स्तर पर हो, या दिलचस्पी के स्तर
पर। लेकिन साहित्य का दुर्भाग्य ये है कि मीडिया का विकास हुआ, खासकर टेलीविजन के
समाचार चैनलों का विस्तार हुआ, लेकिन साहित्य को छोटे पर्दे के खबरिया परिदृश्य
में जगह नहीं मिली। पहले कह चुका हूं और ये सर्वविदित है कि खबर के तौर पर साहित्य
कभी टेलीविजन चैनलों का हिस्सा नहीं रहा। सरकारी चैनल दूरदर्शन पर साहित्य की
चर्चा सिर्फ पत्रिका कार्यक्रम के जरिए होती है, वो भी दूरदर्शन के समाचार चैनल पर
नहीं दिखता। लोकसभा और राज्यसभा टीवी जैसे करंट अफेयर्स के सरकारी चैनलों पर भी
साहित्य से जुड़े कार्यक्रम हैं, लेकिन उनकी प्रस्तुति इतनी नीरस और सीमित तरीके
की होती है कि सिर्फ साहित्य में रुझान रखने वाले लोग ही उन्हें देखना पसंद करते
हैं या फिर ऐसे लोग, जो किसी न किसी रूप में कार्यक्रम से जुड़े हों। लिहाजा ऐसे कार्यक्रम
चंद लोगों के बौद्धिक विलास या कमाई का जरिया बनकर रह जाते हैं और आम टेलीविजन
दर्शकों पर कोई छाप नहीं छोड़ पाते, उन्हें अपने साथ जोड़ भी नहीं पाते, क्योंकि
उनका मकसद वो होता ही नहीं, जो वास्तव में होना चाहिए। मनोरंजन चैनलों पर
साहित्यिक विधाओं पर आधारित कार्यक्रम बखूबी बनते हैं, लेकिन उनके जरिए किसी साहित्यकार
या लेखक की चर्चा होती हो, ऐसा कभी नहीं दिखा। हां, इतना जरूर है कि अगर प्रेमचंद और
फणीश्वरनाथ रेणु या भीष्म साहनी जैसे लेखक की रचनाओं पर बने किसी सीरियल का
प्रमोशन हो, तो दर्शकों की दिलचस्पी उसे देखने में जग जाती है। लेकिन आजकल चुंकि
नाटकीयता औऱ मसाला मनोरंजन का दौर है, लिहाजा प्रोफेशनल तरीके से टीवी के लिए
सीरियल लिखनेवालों की बहुतायत है, और वो जैसी जरूरत होती है, वैसा लिखते हैं और
वही छोटे पर्दे पर पेश होता है, कोई
प्रोड्यूसर अब शायद ही कभी इस बात पर माथापच्ची करने की कोशिश करे कि किसी नामचीन
लेखक की किसी कृति को क्या टीवी पर पेश किया जा सकता है? इसकी अपनी वजहें हो
सकती हैं जो विमर्श का विषय है। लेकिन सवाल ये है कि समाचार चैनलों पर साहित्य का
निषेध क्यों? अगर किसी संपादक को
कोई स्क्रिप्ट पसंद न आए तो वो ये बात तो बड़ी आसानी से कह सकते हैं कि ये तो
साहित्य है, और साहित्यिक भाषा या शब्दावली भी बड़ी आसानी से समाचार आधारित
कार्यक्रमों में इस्तेमाल होती देखी जा सकती है, जिस पर समाचार चैनलों के संपादकीय
प्रभारियों का नियंत्रण बड़ा मुश्किल होता है, क्योंकि ऐसी भाषा या शब्दों के चयन
के पीछे तर्क यही होता है कि इस तरह की स्क्रिप्ट की भाषा दर्शकों को सुनने में
अच्छी लगेगी, उन्हें बांधेगी और चैनल पर रुकने को मजबूर करेगी। यानी साहित्यिक पुट
वाली भाषा की अहमियत तो कुछ हद तक समाचार चैनलों में भी है, इस बात से कोई इंकार
नहीं कर सकता और इसका ज्वलंत उदाहरण कई ऐसे मौकों पर भी देखा जा सकता है जब
दर्शकों को झकझोर देनेवाली खबरों को और ज्यादा इमोशनल तरीके से पेश करने के लिए कविताओं
की पंक्तियों का इस्तेमाल समाचार आधारित कार्यक्रमों में होने लगता है। ऐसा लगता
है जैसे कविता की पूरी किताब स्क्रीन पर उतर आई हो। सवाल है कि साहित्य के
इस्तेमाल की इतनी जरूरत और साहित्य से इतना अनुराग तो भी खबरों से साहित्य भला
क्यों गायब है? इस सवाल के बड़ी
सीधे-सादे जवाब हो सकते हैं- एक तो पहले कह चुका हूं कि कविता-कहानी प्रिंट मीडिया
की चीजें हैं, टेलीविजन के पर्दे पर फिट होनेवाली नहीं, क्योंकि अगर किसी को
टेक्स्ट देखना हो, तो वो अखबारों या पत्रिकाओं में या इंटरनेट पर बड़े आराम से पढ़
सकता है और .यही नहीं, दिल को बड़ा पसंद आए, तो भविष्य में पढ़ने के लिए सहेजकर
अपने पास भी रख सकता है, जो आमतौर पर टेलीविजन समाचारों के दर्शकों के लिए संभव
नहीं। दूसरा तर्क यही है कि समाचार चैनलों पर लोग खबर देखना चाहते हैं, साहित्य
नहीं, तो भला कविता-कहानी कैसे दिखा सकते हैं। तो फिर वही बुनियादी सवाल है कि
क्या साहित्य खबर का स्रोत नहीं हो सकता? क्या दर्शकों को ये जानने का हक नहीं कि साहित्य की दुनिया में क्या
हो रहा है, देश में या दुनिया में कौन-से बड़े लेखक क्या लिख रहे हैं और उनका क्या असर हो रहा है या हो सकता है? कौन सी नई किताबें दर्शकों
के पढ़ने के लिए बाजार में आ रही हैं या कौन सी किताबें बेस्टसेलर के रूप में
तहलका मचा रही हैं। ये तमाम ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब खबरों के जरिए दिए जा सकते
हैं और दर्शकों की उनमें दिलचस्पी भी हो सकती है। लेकिन ऐसा क्यों नहीं होता कि
साहित्य खबर का कच्चा माल बन जाए? परोक्ष रूप से देखें तो साहित्य की गाहे-बगाहे टेलीविजन पर चर्चा हो
जाती है और साहित्यकार भी खबरों में शुमार हो जाते हैं। लेकिन ऐसा तभी होता है, जब
किसी बड़ी साहित्यिक हस्ती को कोई बड़ा पुरस्कार मिल जाए, या फिर उसकी मौत हो जाए।
इसके बाद भी वो टेलीविजन की खबरों में आने लायक हैं या नहीं, ये कुछ और य़ोग्यताओं पर निर्भर करता
है, जिन्हें वो पूरा करते हों, तो उन पर खबर चल सकती है, अन्यथा उनका नाम स्क्रीन
पर सबसे नीचे चलनेवाली टिकर की पट्टी में 24 घंटे चलाकर मिटा दिया जाता है। मेरा ये
मानना है और तमाम लोग इसे स्वीकार भी कर सकते हैं कि मधुशाला और मधुबाला समेत तमाम
कालजयी रचनाओं के महान लेखक हरिवंश राय बच्चन के दिवंगत होने पर इतनी चर्चा नहीं
हुई होती, अगर वो बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन के पिता न होते। यहां गौर
करनेवाली बात ये है कि बच्चन जी के निधन से लेकर अंतिम संस्कार तक टेलीविजन चैनलों
पर जो लंबी-चौड़ी कवरेज हुई, उसमें उनकी रचनाओं का नाम मात्र उल्लेख हुआ, और जिन
रचनाओं की चर्चा हुई भी, उनमें मधुशाला और मधुबाला जैसी रचनाएं ही रहीं, जबकि
साहित्य के तमाम सुधी पाठक अच्छी तरह जानते हैं कि बच्चन जी ने कविता के अलावा
गद्य में भी बेहतरीन रचना की है। तो क्या दर्शकों को उन्हें श्रद्धांजलि देते
वकत्त उनके कृतित्व के बारे में विस्तार से जानने का हक नहीं था? या टेलीविजन के
समाचार चैनलों का ये दायित्व नहीं था कि वो इतने बड़े कद वाले लेखक के कृतित्व से
दर्शकों को वाकिफ कराएं? दरअसल,
कवरेज का सारा फोकस तो अमिताभ बच्चन थे, और उनका परिवार था जो बच्चनजी के निधन से
कितना दुखी था और किस तरह प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा था, ये सभी चैनल दिखाना चाहते
थे- इसका तर्क वही, कि दर्शक यही देखना चाहते हैं। कभी किसी ने ये सोचा है कि
दर्शक वही देखते हैं, जो आप परोसते हैं। अगर ये बात सोची भी जाती हो, तो कोई जोखिम
उठाने को तैयार नहीं होता, क्योंकि प्रसारकों की खुद अपनी दिलचस्पी ही ऐसे मामलों
में नहीं होती, वजह चाहे जो भी हो। बच्चन जी को मीडिया में अमर करने का श्रेय उनकी
रचनाओं से ज्यादा खुद अमिताभ बच्चन को ही जाता है, क्योंकि सिनेमा जगत के शहंशाह
होने के चलते आम दर्शकों की उनमें सीधे-सीधे दिलचस्पी होती है। इसी तरह , बॉलीवुड
से जुड़े दूसरे महान लेखक भी अपने उसी कृतित्व के लिए जाने जाएंगे, जिनसे उनका
सिने करियर आगे बढ़ा है।
किसी
लेखक या किसी रचना के खबर बनने का एक और पक्ष है, वो पक्ष है विवाद। टेलीविजन के
समाचार चैनलों के लिए विवाद खबरों को जन्म देते हैं। लिहाजा अगर कोई लेखक या उसकी
कोई रचना किसी बयान या किसी पंक्ति के चलते किसी बड़े विवाद में पड़ जाए, तो वो
समाचार चैनलों की सुर्खियां बन सकते हैं और उन पर घंटों लाइव बहस भी हो सकती है।
ऐसा उपन्यासकार विभूति नारायण राय के ‘छिनाल’ वाले
बयान पर उठे विवाद के दौरान देखा जा चुका है। ऐसे भी उदाहरण हैं, जब राजनीति या
किसी और क्षेत्र के किसी दिग्गज ने अपनी किताब में कोई बड़ा खुलासा कर दिया हो, या
किसी विवादास्पद मुद्दे की चर्चा कर दी हो, तो वो किताब और मुद्दा सुर्खियों में आ
जाते हैं। लेकिन ऐसा नियमित तौर पर नहीं
होता। और साफ है कि जहां किसी विवाद की गुंजाइश नहीं, वहां खबर भला कैसे बनेगी। ये
खांटी पेशेवर खबरिया सोच हो सकती है। साहित्य से जुड़े लोग, बड़े साहित्यकार और
आलोचक या कवि यदा-कदा विभिन्न मुद्दों पर प्रतिक्रिया देते भी देखे जा सकते हैं,
चुंकि वो भी बुद्धिजीवी वर्ग का हिस्सा होते हैं या फिर जिस मुद्दे पर बात हो रही
हो, उससे उनका कुछ संबंध हो, या फिर वो किसी बड़े विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हों
या विषय के ज्ञाता और विद्वान। कभी-कभार चुनिंदा किताबों के लोकार्पण से जुड़ी
खबरें समाचार चैनलों पर नजर आती हैं, लेकिन बेहद नीरस अंदाज में जिनका मकसद सिर्फ
किताब के लेखक या लोकार्पण करने वाली हस्ती का प्रमोशन करना होता है या फिर किसी
और कारोबारी या संपादकीय मजबूरी की वजह से उसे बुलेटिन में जगह देना जरूरी होता
है। कभी ये जानने या बताने की कोशिश नहीं होती कि अमुक किताब का लोकार्पण हुआ, तो
उसमें आखिर है क्या और क्यों दिलचस्प है या नहीं है? बहरहाल, लोकार्पण की खबरें भी 24 घंटे में 4-5 बार चलाकर समाचार चैनल
ये तो कह सकते हैं कि हम साहित्यकारों को भी पर्दे पर जगह देते हैं, लेकिन इसका
समाचार चैनलों पर नियमित रूप से साहित्य की मौजूदगी या गैर-मौजूदगी से कोई लेना
देना नहीं। ये बात खास तौर से समझनी चाहिए कि टेलीविजन के खबरनवीस साहित्य को खबरों
की सीमाओं में बांधकर जिस तरीके से देखते हैं, जो काफी हद तक सही नहीं है। जिस
तरीके से खेल और मनोरंजन टेलीविजन समाचार चैनलों की खास नियमित विधाएं हैं, उस तरह
साहित्य भी टेलीविजन पर चर्चा का विषय हो सकता है और रोजाना न सही, हफ्ते में ही
एक बार उस पर आधारित कार्यक्रम पेश किए जा सकते हैं । ऐसी पहल करने की बात उठे भी
तो कैसे? इस पर टेलीविजन
समाचारों के प्रोड्य़ूसर बड़ी आसानी से सवाल उठा सकते है कि बिना विजुअल के, साहित्य
की खबरें तैयार कैसे होंगी? खेलों जैसे दिलचस्प या एंटरटेनमेंट कार्यक्रमों जैसे रंगीन विजुअल
कहां से आएंगे? और लेखकों के
कटवेज़ और उनकी लंबी-लंबी बातें क्या साहित्यिक खबर पर आधारित कार्यक्रम को उबाऊ नहीं
बना देगी? इस सवाल का जबाव ये
है कि यदि आपके लिए IPL के
फुटेज दिखाने की पाबंदी होती है और आप उसके विकल्प के तौर पर ग्राफिक्स और एनिमेशन
के तमाम जुगाड़ करते हैं, तो ऐसा साहित्य के लिए क्यों नहीं हो सकता। अगर आप
साहित्य से जुड़ी खबर दिखाना ही चाहते हों, तो आपको स्टोरी की परिकल्पना तो करनी
होगी, थोड़ा सोच-विचार और मेहनत करके रास्ता तैयार करना होगा। किसी नई किताब के
बारे में खबर दिखाने के लिए आपको उस किताब की तमाम तस्वीरें इस्तेमाल करनी चाहिए,
आप किताब के चुनिंदा हिस्सों को भी आकर्षक ग्राफिक्स के जरिए शानदार तरीके से
पर्दे पर पेश कर सकते हैं। यही नहीं जिस मुद्दे से जुड़ी किताब हो, उससे जुड़ी
जनरल फुटेज का बेहतरीन इस्तेमाल भी आपकी खबर और खबरों पर आधारित कार्यक्रमों में
जान डाल सकता है। रही बात लेखकों के लंबे भाषण की, तो उसमें से जरूरी बाइट निकालकर
भी काम चलाया जा सकता है। ये सब कोई नई बात नहीं, पहले से इस तरह के प्रयोग या यूं
कहें कि खबरों के मुताबिक साहित्यिक रचनाओं और लेखकों का ट्रीटमेंट होता रहा है।
सवाल है उस इच्छाशक्ति का जो अब तक समाचार चैनलों से गायब है। ये भी समझना चाहिए
कि दर्शकों का एक बड़ा वर्ग उन पाठकों का भी है, जो साहित्य ही नहीं, तमाम किताबों
में दिलचस्पी रखते हैं तो आप अगर किताबों और लेखकों को खबर के दायरे में लाते हैं,
तो आप उन तमाम पाठकों को भी अपना दर्शक बना सकते हैं, जो आपसे दूर हों। टेलीविजन
समाचार चैनलों पर हो रहा प्रसारण विशुद्ध व्यावसायिक तरीके से होता है। एक तरफ
प्रसारण सामग्री में बिकाऊ होने की क्षमता आंकी जाती है, तो दूसरी तरफ उनका
प्रमोशन भी आक्रामक तरीके से होता है ताकि दर्शक उसे देखने को मजबूर हो जाएं। अगर
तमाम खबरों और उन से जुड़े कार्यक्रमों के मामले में ये नजरिया अपनाया जा सकता है,
तो साहित्य के मामले में क्यों नहीं। वास्तव में साहित्य टेलीविजन समाचार का एक अछूता
क्षेत्र है, जिसका दोहन करने की खास जरूरत है। आज के दौर में हिंदी और अंग्रेजी
में किताबें काफी महंगी हैं, इसके बावजूद उनकी बिक्री कम नहीं। बड़े बड़े प्रकाशक
कॉरपोरेट का रूप ले चुके हैं, ऐसे में अगर साहित्य को खबरिया चैनलों पर जगह दी जाए,
तो उसकी मार्केटिंग भी हो सकती है और तमाम बड़े प्रकाशन घराने आपके साहित्य आधारित
कार्यक्रमों को प्रायोजित कर सकते हैं। आइडिया बुरा नहीं है, बशर्ते इस पर काम
करने में कोई दिलचस्पी ले। ऐसा शायद इसलिए संभव नहीं लगता क्योंकि आजकल जमाना
शॉर्टकट का है, बने बनाए तैयार माल से खेलना समाचार चैनलों के कामकाजियों का शगल बन
चुका है। ऐसे में साहित्य के लिए खबरिया चैनलों पर जगह बना पाना आज के दौर में बेहद
मुश्किल प्रतीत होता है। पर इतना जरूर कहा जा सकता है, कि अगर इस दिशा में पेशेवर
तरीके से पहल की जाए, तो वो बेकार नहीं जाएगी। अगर मैं ये कहूं कि साहित्य भी एक
कला है, तो इस पर सवाल उठ सकते हैं और बहस हो सकती है, लेकिन अगर ये भी कहूं कि
साहित्य को कलात्मक तरीके से टेलीविजन के समाचार चैनलों पर पेश किया जा सकता है,
तो कई लोग सहमत हो सकते हैं, इसका भरोसा जरूर है।
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कुमार कौस्तुभ
30.04.2013, 2.00 PM
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