अप्रैल
2013..क्रिकेट के IPL
सीज़न 6 के मुकाबले
जारी हैं..समाचार चैनलों पर खेलों के बुलेटिन IPL -6 की खबरों से भरे पड़े हैं ..वहीं एक समाचार
चैनल राजधानी दिल्ली के गली-मुहल्ले में लोगों की क्रिकेट के प्रति दीवानगी को
दिखा रहा है..इस रूप में नहीं कि क्रिकेट के फैंस IPL मुकाबलों या अपने चहेते खिलाड़ियों और टीमों के
बारे में कुछ कहते दिखें, उनकी जीत का जश्न और हार का मातम मनाते दिखें..यहां तो
क्रिकेट के दीवाने खुद छोटे पर्दे पर चौक-छक्के लगाते दिख रहे हैं। ये दिल्ली
एनसीआर के चैनल दिल्ली आजतक की खास पेशकश है। IPL टीम दिल्ली डेयरडेविल्स के साथ मिलकर दिल्ली आजतक
ने दिल्ली के गली-मुहल्लों और पार्कों में खेले जानेवाले क्रिकेट को करंट अफेयर्स कार्यक्रम
के दायरे में ला दिया है। सवाल है कि आखिर मकसद क्या है इस मुहिम का...क्या खबरों
का टोटा पड़ गया, जो इस तरह की स्टोरीज़ समाचार आधारित चैनल पर चल रही हैं? कुछ लोगों का मानना
है कि इससे बढ़िया तो IPL के
बुलेटिन ही दिखा देते। लेकिन नहीं, दिल्ली आजतक दिल्ली-NCR का चैनल है, दिल्ली-NCR से जुड़ी चैनल की
पहचान है और दिल्लीवालों से जुड़ी हर खबर दिखाना इसका मकसद है और सभी जानते हैं कि
क्रिकेट भले ही खेल है, लेकिन खबरों के दायरे में तो आता ही है, तो अगर
दिल्लीवालों की दिलचस्पी इस खेल को खेलने में दिख रही है, तो ये दिल्ली आजतक के
लिए भला क्यों न खबर हो? बात
वाजिब है, खबर की खबर, खेल का खेल और मनोरंजन का मनोरंजन हो रहा है फ्लैश क्रिकेट
की इस खास मुहिम के जरिए। एक बात और है, जिस पर आम तौर पर ध्यान नहीं जाता। एक तरफ
यहां खेल और दिल्ली वालों की खबर दिखाने का मकसद पूरा हो रहा है, तो दूसरी तरफ
दर्शकों को चैनल से जोड़ने की ये एक इंटरैक्टिव मुहिम भी तो है। आखिर दिल्लीवाले दुनियाभर
की खबरों की कवरेज चैनलों पर देखते हैं, तो क्या उन्हें खुद खबरों में आने की चाहत
नहीं होती, वो भी पॉजिटिव और मनोरंजक तरीके से? बिल्कुल होगी और यही मौका लोगों को दिल्ली आजतक दे रहा है। लोगों को
क्रिकेट खेलने और खेल के प्रति अपनी दीवानगी के इजहार का मौका मिलता है और उसकी
कवरेज चैनल पर होती है..लोगों को बाद में उसका प्रसारण भी देखने को मिलता है- किसी
के चौके-छक्के दिखते हैं, तो किसी की बाइट दिखती है...यानी कुल मिलाकर लोगों के
लिए खुद के टीवी पर दिखने का ये एक शानदार और यादगार मौका बन जाता है, जिसका फायदा
उठाना हर आम दिल्लीवाला चाहेगा। जाहिर है, लोगों की इस भावना का फायदा चैनल को भी
मिलता है और उसके दर्शकों की संख्या में बढ़ोतरी तो हो ही जाती है, कम से कम जिस
दिन जिस इलाके के फ्लैश क्रिकेट मैच की कवरेज होती है, उस दिन वहां के पनवाड़ी से
लेकर सेठ जी तक, बाबू साहब से लेकर मोहन ढाबेवाले तक...कॉलेज में पढ़नेवाले
बंटी-बबली से लेकर उनके भैया-भाभियों, चाचे-चाचियों और दादी-नानियों तक जो दूसरे
इलाकों में भी रहते हैं, सभी टीवी पर नजरें गड़ाए रहते हैं ताकि अपने लोगों की झलक
चंद सेकेंड के लिए ही सही पर्दे पर देख सकें। इस तरह आम दर्शकों से जुड़ने और
उन्हें चैनल से जोड़ने की ये मुहिम टीआरपी की होड़ में भी काफी कामयाब साबित हो
सकती है, इसका पूरा भरोसा चैनल की मार्केटिंग टीम को तो होगा ही। साथ ही दिल्ली
डेयरडेविल्स टीम जैसे इसके जो प्रायोजक और सहयोगी भी अपना फायदा देखते हैं क्योंकि
लोगों के बीच उनका भी प्रचार इसके जरिए होता है। अगर चैनल को प्रायोजक से आर्थिक
फायदा हो रहा है, तो वो भी एक अतिरिक्त रिवार्ड प्वाइंट है, क्योंकि स्टोरी कवरेज
तो चैनल वैसे भी करते हैं, इस कार्यक्रम की स्टोरीज़ को एक मुहिम से जोड़ दिया गया
है। कुछ बड़े स्तर पर देखें, तो एनडीटीवी का यूनिवसिर्टी क्रिकेट लीग औऱ ग्रीनेथॉन
और एबीपी पर बेस्ट सिटी अवॉर्ड्स जैसी मुहिम भी आम लोगों को चैनल से जोड़ने और
चैनल के लिए विज्ञापन रेवेन्यू जुटाने का असरदार जरिया साबित होती रही हैं। कई
चैनलों पर आनेवाले पर्सन ऑफ द इयर और एचीवमेंट अवॉर्ड्स जैसे कार्यक्रम भी ऐसी ही
मुहिम की श्रेणी में आ सकते हैं, जिनका मकसद चैनल का प्रचार करना ज्यादा ही दिखता
है।
समाचार
चैनलों की दुनिया में फ्लैश क्रिकेट, यूसीएल, ग्रीनेथॉन जैसे कार्यक्रमों के
प्रसारण चैनलों को दर्शकों से जुड़ने और उन्हें चैनल से जोड़ने की नई शुरुआत नहीं
हैं। इससे पहले भी तमाम मौके ऐसे आए हैं, जब समाचार चैनलों की मार्केटिंग के लिए
इस तरह की मुहिम का सहारा लिया गया हो, चाहे वो सीरियस घटनाएं रही हों, या फिर
सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दे, जिनके लिए मुहिम खड़ी करके एक तरफ जहां समाचार
चैनलों को खुद को सरकारों से जुड़े दिखाने का मौका मिलता है, वहीं चैनल की
अच्छी-खासी पब्लिसिटी भी होती है। चाहे मुंबई में 26/11 के आतंकी हमले के
बाद की आतंकवाद के खिलाफ जंग छेड़ने की मुहिम हो, या फिर ‘दामिनी’ और ‘गुड़िया’ को इंसाफ दिलाने की मुहिम- इनकी प्रस्तुति
अलग-अलग तरीके से हो सकती है, कहीं बड़े स्तर पर, तो कहीं छोटे स्तर पर- भीड़ जमा
करके या फिर सिर्फ मुद्दे पर खबरिया पहलुओं से जुड़ी स्टोरीज़ दिखा करके चैनल अपनी
मुहिम को धार देते हैं। लेकिन इनका मूल उद्देश्य साफ है और इसके अलग-अलग सकारात्मक
और नकारात्मक दोनों ही पहलू हैं। एक तरह से देखा जाए तो ये समाचार चैनलों की सामाजिक
भूमिका पर सवाल उठाने वाली बात हो गई। आप कहेंगे कि समाचार चैनल अगर मुहिम के रूप
में किसी मुद्दे को न उठाएं तो वो दब भी सकता है और उस पीड़ा, उस जुल्म को भुला
दिया जा सकता है, जिसके लिए समाज में मुहिम खड़ी करने की जरूरत होती है। समाचार
चैनल चाहे जिस तरह से भी हो मुद्दों को उठाते हैं, उन पर चर्चा जारी रखते हैं, तभी
तो जागरुकता बढ़ती है और जरूरी कार्रवाइयां होती हैं, जिन्हें ‘खबर का असर’ कहा जाता है और तमाम
चैनल उसका क्रेडिट लेना भी नहीं भूलते। ये ‘नेकी कर दरिया में डाल’ वाली स्थिति कतई नहीं है। मुद्दे को पब्लिक भले ही दो दिन में भूल
जाए, लेकिन अगर महीनों बाद उस पर कोई कार्रवाई हुई, तो चैनल उसे अपनी जीत बताते
नहीं थकते। मकसद ये बताना है कि तमाम मुद्दों को सड़क तक उतारने की मुहिम खड़ी
करने में चैनलों का फायदा ही है, कोई नुकसान नहीं और अगर इन मुहिम को प्रायोजक मिल
गए, तो बल्ले-बल्ले यानी और भी खर्चों की कोई चिंता नहीं। तो एक तो मुहिम शुरु
करने से दर्शक चैनल से जुड़ते हैं, लोग तारीफ भी करते हैं कि अमुक चैनल ने अमुक
मुद्दे को कितने जोरशोर से उठाया और अगर उस पर सार्थक कार्रवाई होती है, तो पीड़ित
को भी फायदा होता है। प्रायोजक मिलने से पैसे भी मिलते हैं यानी चैनल की मार्केटिंग
भी हो जाती है। यहां एक पहलू और भी महत्वपूर्ण है, वो ये कि जब किसी समाचार चैनल की
ओर से किसी भी मुद्दे पर कोई कैंपेन या कोई मुहिम छेड़ी जाती है, तो आखिर चैनल पर
प्रसारण के लिए उसे कितना वक्त दिया जाता है? आमतौर पर देखा जाता है कि
आतंकवाद जैसे मुद्दों पर बड़े कार्यक्रम, रैलियों, कैंडल मार्च, शपथ जैसी कई घंटे
की तैयारी हो, तो एक दिन के प्राइम टाइम स्लॉट में कई घंटे उसके सीधे प्रसारण पर
खर्च कर दिए जाते हैं और अगले दिन उसके संपादित हिस्से भी कम से कम घंटे-दो घंटे
रिपीट तो हो ही जाते हैं। इसके अलावा मुहिम अलग-अलग शहरों पर केंद्रित है, तो बड़े
शहरों की बड़ी कवरेज और लाइव प्रसारण के लिए भी कई घंटों के स्लॉट तय करने पड़ते
हैं। तीसरा तरीका है स्टोरी कवरेज का, यानी हफ्ते-दस दिन या महीने भर तक या जब तक
मुद्दा ठंडा न पड़ जाए, तब चलने वाली मुहिम से जुड़ा हो, तो आधे घंटे का बुलेटिन
या फिर बुलेटिन का एक हिस्सा ही उक्त मुद्दे के नाम कर दिया जाता है और मुहिम लंबे
समय तक अपनी खास ब्रांडिंग के साथ चलती रहती है। इसमें शुरुआती दो तरीकों के जरिए पब्लिक
को चैनल से जोड़ने और चैनल की पब्लिसिटी में काफी सुविधा होती है। कार्यक्रम बड़े
स्तर के होते हैं, तो बड़ी संख्या में लोग जुड़ते हैं, जानी-मानी हस्तियां भी आती
हैं और मुद्दे के साथ साथ चैनल की पहल की भी जय-जय होती है। तीसरा तरीका मुद्दे से
ज्यादा जुड़ा है और अगर खबर मजबूत है, तो चैनल को उसे छोड़ना मुश्किल हो जाता है।
इस तरीके से कई बार चैनल अपनी जरूरत और अपने फायदे के मुद्दों पर भी कवरेज करते
हैं, मसलन 2003 से 2005 के बीच ज़ी न्यूज़ चैनल पर दो ऐसे मुद्दों पर लंबे समय तक
मुहिम चली जिनका सरोकार सामाजिक भी था और लोगों की दिलचस्पी के भी विषय मुद्दे के
तौर पर उठाए गए थे। 2004 का एक अहम मुद्दा था पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ‘गुड़िया’ नाम की महिला का, जिसे
दो लोग अपनी पत्नी बनाने का हक जता रहे थे, पहला पति फौज में था और लड़ाई के दौरान
उसके मारे जाने की खबर आई थी, जिसके बाद दूसरे शख्स के साथ उसका निकाह पढ़वा दिया
गया, लेकिन पहला पति भी सलामत लौट आया तो सवाल उठ खड़ा हुआ कि आखिर ‘किसकी गुड़िया?’ वो किसके साथ
जिंदगी गुजारेगी ..तमाम पंचायतों से होते हुए ये मुद्दा न्यूज़ चैनल तक पहुंचा और
चैनल ने भी इस पर लाइव पंचायत बिठा दी। लेकिन न्यूज चैनल अदालत या पंचायत तो हो
नहीं सकते लिहाजा लंबे समय तक चली मुहिम का अंत छोटे पर्दे के एक शानदार ड्रामे के
रूप में हुआ। ‘गुड़िया’ आज इस दुनिया में
नहीं है, लेकिन उसकी कहानी को समाचार चैनल ने जिस तरीके से उठाया, उसके भले ही
अच्छे-बुरे जो भी पहलू हों, लेकिन उसे भारतीय समाचार चैनलों के इतिहास में हमेशा
याद किया जाएगा। ज़ी न्यूज़ पर ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ही एक और लड़की ‘मुंजरिन’ की स्टोरी लंबे समय
तक कवर होती रही, क्योंकि उसे कोई रहस्यमय बीमारी थी। चैनल की ओऱ से स्टोरी को
उठाने पर भी उसके रहस्य का कोई खास नतीजा निकला हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता और ये
मुहिम अचानक ही खत्म भी हो गई, आज ‘मुंजरिन’
किस हालत में है, ये कोई नहीं जानता लेकिन ये बात जरूर रही कि मुद्दा इतना दिलचस्प
था कि उसकी स्टोरीज़ का और उस पर कार्यक्रमों का प्रसारण लंबे समय तक चलता रहा। समाचार
चैनलों के साथ आजकल दिक्कत ये भी है कि कोई मुद्दा उठाया जाता है, लेकिन उसे लंबे
समय तक फॉलो कर पाना संभव नहीं होता। ऐसे में कई बार जोर-शोर से उठाए गए मुद्दे
बेनतीजा खत्म हो जाते हैं। हालांकि ऐसा भी देखने में आया है कि जेसिका लाल
हत्याकांड और प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड जैसे मुद्दे टेलीविजन पर बार-बार मरकर
जिंदा होते रहे, जिसकी वजह से उनके मुकदमे अंजाम तक पहुंच गए। आजकल सोशल मीडिया का
उत्थान हो रहा है, लेकिन टेलीविजन के समाचार चैनल किसी भी मुद्दे को उठाने के लिए अब
भी सबसे सशक्त माध्यम बने हुए हैं, क्योंकि इनके जरिए मुद्दे के हर पहलू का विस्तार
से विश्लेषण होता है और घंटे दर घंटे खबर से लेकर बहस-मुसाहिबों तक मुद्दा जिंदा
रहता है और दर्शक भी उससे जुड़े रहते हैं क्योंकि देश-दुनिया तक समाचार चैनलों का
इतना विस्तार हो चुका है कि सुदूर इलाकों के लोग भी उनसे जुड़े रह सकते हैं। इस
मायने में इंटरनेट और सोशल मीडिया की पहुंच कुछ कम है क्योंकि कम से कम भारत में
तो फिलहाल वो सिर्फ पढ़े-लिखे और तथाकथित ‘इलीट’
समुदाय
के ही इस्तेमाल में है। ऐसे में समाचार चैनलों को उन दर्शकों से भी जुड़ने का मौका
मिलता है, जो भले ही पढ़े-लिखे और चैनलों की भाषा में उन पर अपनी बातें रखने में
नहीं सक्षम हों, लेकिन खबर देखने में दिलचस्पी रखते और जाहिरा तौर पर उसका कुछ असर
तो उनके दिलो-दिमाग पर तो होता ही होगा। और इसी असर का फायदा न्यूज़ चैनलों को
होता है क्योंकि दर्शकों को जिन चैनलों पर खबरों का सेलेक्शन और प्रस्तुति अच्छे
लगते हैं, वो उन्हें देखना पसंद करते हैं। तो यूं कहें कि मुद्दों को उठाकर उनसे
खेलने वाले समाचार चैनल दोनों ही तरह से फायदे में रहते हैं, एक तरफ तो विलुप्त हो
चुकी मिशन पत्रकारिता का अक्स इनकी मुहिम में दिखता है, तो दूसरी तरफ कारोबार की
कला भी झलकती है। जरूरत है थोड़ा ईमानदार होने की और मुद्दों पर आधारित पत्रकारिता
को मुहिम में बदलने की तैयारी सोच-समझकर करने की ताकि पहल सार्थक हो और उनका
दूरगामी नतीजा निकले, न कि हफ्ते-दस दिन बाद चैनल भी मुद्दे को भूल जाएं और दर्शक
भी।
-कुमार कौस्तुभ
25.04.2013, 5.10 PM
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