Friday, April 5, 2013

TV स्क्रीन पर अखबार!


सुनने में आपको भले ही अजूबा लगे, लेकिन रोज ब रोज आप देखें तो साफ हो जाएगा कि भारतीय न्यूज़ टेलीविजन की एक बड़ी सच्चाई यही है कि अब आपका टेलीविजन स्क्रीन अखबार की शक्ल ले चुका है। अखबार यानी खबरों का पुलिंदा, खबरों से भरे पन्ने, काले हरफों से भरपूर सफेद पन्ने। स्टील तस्वीरें। ढेर सारे विज्ञापन। सही है न आपको यही सब तो न्यूज़ चैनलों पर दिखता है। फर्क सिर्फ इतना है कि कागजी अखबार में खबरें उतनी तेजी से अपटेड नहीं होतीं, जितनी तेजी से टेलीविजन या इंटरनेट की खबरी वेबसाइट पर होती हैं। खबरी वेबसाइट शायद अखबारों के ज्यादा करीब हैं क्योंकि उनमें पेज बदलने की या एक पन्ने से दूसरे पन्ने पर जाने और पिछले पन्ने पर फिर से वापसी की सहूलियत होती है, जो टेलीविजन में नहीं होती। टेलीविजन न्यूज़ चैनल के स्क्रीन का हर पन्ना आम तौर पर नया होता है, कुछ न कुछ नयापन लिये होता है, पिछले पन्ने या गुजर चुकी खबरों पर वापसी तब तक वापसी नामुमकिन होती है, जब तक कि न्यूज़ चैनल की ओर से किसी खास प्रयोजनवश या फिर FPC  यानी फिक्स्ड् प्वाइंट चार्ट की मजबूरी के तहत उसे रिपीट न किया जाए। पुराना माल दोहराते वक्त भी अपडेट करने की पूरी गुंजाइश रहती है और ऐसा होता भी है यानी बात फिर वही कि टेलीविजन का हर बुलेटिन किसी न किसी रूप में नया होता है, ताजा होता, बासी नहीं होता, हां उबाऊ हो सकता है क्योंकि उसकी अपनी सीमाएं हैं और दर्शकवर्ग की अपनी उम्मीदें और आकांक्षाएं हैं, जिन पर हमेशा खरा उतरना न तो संभव है, ना ही इसके पीछे कोई मजबूरी होती है। अगर आपने टेलीविजन पर एक बार कोई बुलेटिन देखा तो आखिर एक या दो या चार घंटे बाद उसमें कितना नयापन हो सकता है- ये कई चीजों पर निर्भर करता है। पहली बात ये कि बुलेटिन रिपीट करने तक कितनी नई खबरें उसमें शामिल की गई हैं। दूसरी बात ये कि कितनी पुरानी खबरों में नए बिन्दु जुड़े हैं और तीसरी और सबसे अहम बात ये कि बुलेटिन का कलेवर और प्रस्तुति कितना बदला है। प्रस्तुति तो एंकर या प्रेजेंटर के बदलने के साथ बदल सकती है- देखना ये होगा कि अलग-अलग एंकर किसी एक खबर को कितने तरीकों से पेश करते हैं- हालांकि ये भी काफी हद तक प्रस्तुतकर्ता यानी प्रोड्यूसर और बुलेटिन तैयार करनेवालों पर निर्भर करता है कि क्या वो एंकर को स्टूडियो लीड कुछ बदलाव के साथ पढ़ने के लिए दे रहे हैं, क्या वो स्टोरी पैकेज में या हरेक आइटम में किसी न किसी स्तर पर कुछ वैल्यू एडिशन करके बुलेटिन में शामिल कर रहे हैं या फिर जैसे का तैसा उसे रिपीट कर दे रहे हैं। ऐसी स्थिति आमतौर पर रात के बुलेटिन या समाचार आधारित शो को सुबह के वक्त रिपीट करने में अक्सर देखी जाती है , लिहाजा वही दर्शक जिसने रात का बुलेटिन या कोई शो देखा हो, वो सुबह उसी प्रस्तुति को देखने के लिए चैनल पर रुक नहीं सकता- ये आदर्श स्थिति है, जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता। हां, ये सच है कि आप अपने मनमुताबिक किसी भी बुलेटिन या शो को नहीं देख सकते, लेकिन आप अखबार के हर पन्ने को जब जी चाहे, अपनी इच्छानुसार पढ़ जरूर सकते हैं। ये तो टेलीविजन और अखबार का बुनियादी फर्क है जो हमेशा बरकरार रहेगा । लेकिन जब ये कहा जाता है कि टेलीविजन न्यूज़ चैनल अखबार की जगह ले रहा है, तो कई और बिंदुओं पर विचार करना जरूरी हो जाता है।
अखबार और टेलीविजन के बीच घटती दूरी का सबसे बड़ा उदाहरण है उन खबरों को न्यूज चैनलों पर परोसा जाना, जो सुबह के अखबार में छप चुकी होती हैं। सवाल उठता है कि क्या अखबार टेलीविजन न्य़ूज़ चैनलों पर हावी हो रहे हैं। विस्तार से गौर करें तो ये बात काफी हद तक ठीक लगती है। आमतौर पर भारत में टेलीविजन के न्यूज़ चैनलों की रोजाना दशा और दिशा अखबारी खबरें तय करती हैं। वजह – क्या टेलीविजन के पत्रकारों के पास वो खबरें सुबह तक नहीं होतीं, जो अखबारों के पास रात को ही आ जाती हैं, जिससे वो उन्हें छाप कर पाठकों तक पहुंचा देते हैं, क्या टेलीविजन पत्रकारों को खबरों की परख नहीं, समझ नहीं या उन पर पकड़ नहीं? – वजहें चाहे जो भी हों, लेकिन बड़ा सच ये है कि अखबारी खबरों, खासकर राजनीतिक खबरों के आधार पर ही आमतौर पर टेलीविजन का डेप्लान तैयार होता है और सुबह 6 बजे से मध्यरात्रि तक उन्हीं खबरों की बाल की खाल निकाली जाती है, जिन्हें अखबार पहले ही छाप चुके होते हैं। टेलीविजन न्यूज़ चैनलों की अपनी सीमाएं हैं। ऐसा माना जाता है कि विजुअल मीडियम होने की वजह से टेलीविजन के पत्रकारों को अपनी किसी भी खबर को चलाने के लिए तस्वीरों और ध्वनि का सहारा लेना पड़ता है ताकि खबर की सत्यता प्रमाणित हो सके। तस्वीरें किसी घटना की हो सकती हैं, या दस्तावेजों के रूप में हो सकती हैं, या फिर किसी खास व्यक्तिविशेष की आवाज के जरिए किसी खबर को पुष्ट किया जा सकता है। लेकिन जब कोई खबर अखबार में छप चुकी होती है तो उसे इस्तेमाल करने के लिए किसी विजुअल या ऑडियो रिसोर्स की बाध्यता नहीं होती क्योंकि खबर की पुष्टि हो चुकी होती है और आम तौर पर खंडन तभी होता है जब खबर आरोप-प्रत्यारोपों से जुड़ी हो। भले ही टेलीविजन की अपनी सीमा है, और कितनी भी दलीलें क्यों न दी जाएं लेकिन अखबारी खबरों का इस्तेमाल कहीं न कहीं इस कड़वी सच्चाई को जरूर दर्शाता है कि टेलीविजन पत्रकारिता अखबारी पत्रकारिता से कहीं न कहीं पिछड़ जरूर रही है। तमाम आधुनिक संसाधनों और सुविधाओं के होते हुए अखबारी खबरों का इस्तेमाल ये साफ कर देता है कि टीवी पत्रकार खबरों की दौड़ में पीछे रह जाते हैं। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक खबरों के मामले में ऐसा अक्सर देखने को मिलता है। हां, दुर्घटना और हादसों से जुड़ी खबरों के मामले में टीवी जरुर आगे निकल जाता है और वो खबरें पहले टीवी पर फिर अखबारों में देखने को मिलती हैं – जिसकी वजह ये है कि अखबार की भी अपनी सीमा है और जिम्मेदारी है दिनभर की खबरों को समेटकर अगली सुबह पाठकों के सामने पेश करने की। जमाना बदल गया है और हमारे पास खबर हासिल करने के तमाम संसाधन हैं, ऐसे में अखबार की कोई बड़ी खबर बासी भले ही लगे, लेकिन अक्सर अखबार टेलीविजन को पछाड़ते दिखते हैं और आगे भी निकल जाते हैं क्योंकि वही टेलीविजन प्रोग्रामिंग का एजेंडा तय करते हैं।
अखबार और टेलीविजन में दूर होते फर्क का दूसरा अहम नमूना है टीवी स्क्रीन पर बढ़ता टेक्स्ट का चलन। टेलीविजन पत्रकारिता के छात्रों को सबसे पहले आमतौर पर यही पढ़ाया जाता है कि टेलीविजन ऑडियो-विजुअल माध्यम है और टेलीविजन पर समाचारों की प्रस्तुति का मकसद है तस्वीरों और आवाज के माध्यम से खबरों की प्रस्तुति, खासकर ये सिद्धांत सामने आता रहा है कि टेलीविजन में शब्दों का कम से कम इस्तेमाल हो और विजुअल और ऑडियो के जरिए ही खबरी घटनाक्रम को बयां करने की प्रैक्टिस हो। सैद्धांतिक तौर पर ये स्थिति बेहद महत्वपूर्ण है, दुनियाभर के टेलीविजन न्यूज़ चैनलों में इसका पालन होता है और कोशिश ये होती है कि दर्शकों को खबरी घटनाक्रम से ज्यादा से ज्यादा जोड़ा जाए। विजुअल ताकतवर हों, आवाज दमदार हो, तो खबर का हर पहलू खुद-ब-खुद खुलकर सामने आ सकता है- ये सिद्धांत भी काफी अहम है। लेकिन हर खबर के लिए विजुअल और ऑडिय़ो तत्व मौजूद हों, ये संभव नहीं। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए ग्राफिक्स और एनिमेशन के इस्तेमाल की परंपरा शुरु हुई, ताकि जिन बातों को कहने के लिए तस्वीरें न हों, उन्हें ग्राफिक्स और एनिमेशन के जरिए बयां किया जाए। ग्राफिक्स और एनिमेशन ने अपनी इस भूमिका को हद से ज्यादा निभाय़ा है। बल्कि कहना न होगा कि समाचार प्रस्तुति में उन्होंने नए आयाम भी जोड़े हैं। खबरों से लेकर बुलेटिन और खास कार्यक्रमों तक को नया और आकर्षक कलेवर देने में ग्राफिक्स और एनिमेशन से जुड़े तत्वों की बेहतरीन भूमिका है। साथ ही, जहां तक खबरों का सवाल है तो हर पल बदलते फ्रेम के साथ बदलते दर्शकों को घटनाक्रम से जोड़े रखने, उससे इंट्रोड्यूस कराने में टेक्स्ट यानी शब्दों की भूमिका भी कम नहीं । और यही वो स्थिति है जो टेलीविजन को अखबार के और करीब ले जाती है। अगर आप टेलीविजन के न्य़ूज बुलेटिन की किसी स्टोरी को देखें तो उसमें कई ऐसे तत्व नजर आते हैं जहां टेक्स्ट की प्रमुखता है – टॉप बैंड, लोअर बैंड, नेम सुपर/एस्टन, चैप्टर प्लेट, प्वाइंटर प्लेट्स, टू विंडो, थ्री विंडो, फोर विंडो वगैरा तमाम चीजें आजकल किसी भी आम या खास न्यूज स्टोरी पैकेज के अभिन्न अंग दिखते हैं। इनके अलावा, जैकेट, नाउ शोइंग बग, कमिंग अप बैंड, चैनल लोगो, टाइम बैंड, टिकर, न्यूज स्क्रॉल आदि-आदि तो हमेशा स्क्रीन पर दिखनेवाली चीजें हैं। यानी कुल मिलाकर स्क्रीन का 50 से साठ फीसदी हिस्सा टेक्स्ट आधारित इन्हीं ग्राफिक्स एलिमेंट्स के नाम हो जाता है । ये चीजें स्क्रीन पर आती जाती रहती हैं लिहाजा विजुअल्स की निरंतरता को प्रभावित करती हैं। दर्शक बार-बार डिस्टर्ब होता है और स्टोरी से नहीं जुड़ पाता ऐसा कई लोगों का मानना है । वैसे कई टेलीविजन विशेषज्ञ ये भी मानते हैं कि स्क्रीन पर जल्दी-जल्दी बदलाव दिखता है तो नयापन दिखता है और दर्शक ऊबता नहीं। मान्यताएं अलग-अलग हो सकती हैं। लेकिन इस सच्चाई से कतई इंकार नहीं किय़ा जा सकता है कि स्क्रीन पर विजुअल से ज्यादा टेक्स्ट का दिखना किसी टेबलॉयड को पढ़ने से कम नहीं जिसमें बड़ी तस्वीरें और छोटे-बड़े टेक्स्ट से पेज भरा होता है।
भारत में न्यूज़ टेलीविजन अब भी संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। एक तरफ टीआरपी की होड़ में गलाकाट प्रतियोगिता और उससे जुड़ी नकल की भेड़चाल है, तो दूसरी ओर अपने-अपने स्क्रीन को अलग दिखाने की कोशिश । ऐसे में टेलीविजन और अखबार की बढ़ती करीबी या बढ़ता तालमेल खबरों के हिसाब से भले ही जरूरी हो, लेकिन मजबूत टेलीविजन पत्रकारिता के लिहाज से कतई प्रासंगिक नहीं है।
-          कुमार कौस्तुभ, 05.04.2013, 17.49 PM

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