Tuesday, April 30, 2013

TV समाचार में साहित्य की ‘नो एंट्री’!




                साहित्य समाज का दर्पण है- ये उक्ति भारतीय टेलीविजन के किस दर्शक ने भला नहीं सुनी होगी? खासकर औपचारिक पढ़ाई-लिखाई करनेवाले हिंदी पट्टी के तमाम टीवी दर्शकों को किसी न किसी स्तर पर साहित्य की इस परिभाषा से जरूर परिचित होना पड़ा होगा। लेकिन आज के दौर में टेलीविजन के समाचार चैनल ही जैसे समाज का आईना बन चुके हैं और साहित्य को आम लोगों से दूर करते जा रहे हैं, ऐसा भी कुछ लोगों का मानना है। मैं य़े तो नहीं मानता कि टेलीविजन चैनल साहित्य को आम लोगों से दूर कर रहे हैं, लेकिन ये भी सत्य है कि समाचार चैनलों को साहित्य को आम लोगों से जोड़ने के लिए जो भूमिका निभानी चाहिए, वो नहीं निभाई जा रही है। वास्तव में देखें तो साहित्य कभी समाचार चैनलों का हिस्सा बना ही नहीं। अखबारों में साहित्य को जरूर जगह मिलती रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रिंट मीडिया होने के चलते लिखित साहित्य अखबारों के ढांचे में फिट बैठता है और साथ ही इसकी एक बड़ी औऱ दूसरी वजह ये भी है कि साहित्य उन तमाम पाठकों को अखबारों से जोड़ने का काम करता रहा है, जो साहित्य में दिलचस्पी रखते रहे हैं। तीसरी एक और वजह ये है कि फिल्मी मनोरंजन के विकास से पहले साहित्य ही लोगों के बौद्धिक विलास और मनबहलाव का भी अहम जरिया हुआ करता था लिहाजा अखबारों में साहित्यिक विधाओं- कहानियों और कविताओं को जगह मिलना लाजिमी था। ये परंपरा आज भी किसी न किसी स्तर पर जारी है। चौथी एक बड़ी वजह ये कि हिंदी समाचार जगत के तमाम पुरोधा मूलतः साहित्यकार ही रहे- चाहे वो भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र से लेकर मुंशी प्रेमचंद जैसे प्रगतिशील लेखक और गणेशशंकर विद्यार्थी और बाबूराव विष्णु पराड़कर या माखनलाल चतुर्वेदी , रामवृक्ष बेनीपुरी और शिवपूजन सहाय जैसे सुधी पत्रकार रहे हों, या फिर बाद के दौर के सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय और रघुवीर सहाय जैसे महामना संपादक या कमलेश्वर और मनोहर श्याम जोशी जैसे भारतीय टेलीविजन के संस्थापक-स्तंभ। जाहिरा तौर पर साहित्यिक संस्कार औऱ पृष्ठभूमि होने की वजह से अखबारों औऱ प्रिंट मीडिया में साहित्य को जगह देना काफी हद तक इन महानुभावों के लिए एक भावनात्मक जरूरत रही होगी, तो आम पाठकों के लिए स्वस्थ मनोरंजन उपलब्ध कराने की एक नीति भी। हालांकि आज के दौर में अखबारों से भी साहित्य की उपस्थिति घटती जा रही है, लेकिन , वो अब भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। सप्ताह में कम से कम एक दिन परिशिष्ट का एक या आधा पन्ना तमाम अखबारों में साहित्य को समर्पित होता ही है। इसके पीछे भी शायद यही वजह हो सकती है कि अखबारों में काम करनेवाले तमाम संपादकों और पत्रकार बंधुओं का साहित्य के प्रति सहज अनुराग हो। रही बात खबरें दिखानेवाले टेलीविजन समाचार चैनलों की, तो यहां भी तमाम ऐसे संपादक हैं, जिनका न सिर्फ साहित्य से नाता है, बल्कि उसमें गहरी पैठ भी है। शाजी जमां, विनोद कापड़ी, अजीत अंजुम, अमिताभ जैसे कई वरिष्ठ संपादक अच्छे कथाकार भी हैं, तो रवि पाराशर और राणा यशवंत जैसे संपादक गण कविता के क्षेत्र में खासी दखल रखते हैं। आशुतोष कथाकार और कवि भले न हों, लेकिन उनके अखबारी लेखन से साफ झलकता है कि साहित्य की कितनी गहरी समझ उन्हें है और साहित्य से उनका कितना गहरा नाता है। प्रियदर्शन, अनंत विजय, आलोक श्रीवास्तव जैसे कितने ही अन्य लोग जो समाचार चैनलों के संपादकीय विभागों से जुड़े हुए हैं, उन्हें साहित्य के क्षेत्र में किसी पहचान की आवश्यकता नहीं। और ये भी सच है कि आज कल आधे से ज्यादा हिंदी पत्रकार किसी न किसी रूप से साहित्य से जुड़े हुए हैं चाहे वो पढ़ाई के स्तर पर हो, या दिलचस्पी के स्तर पर। लेकिन साहित्य का दुर्भाग्य ये है कि मीडिया का विकास हुआ, खासकर टेलीविजन के समाचार चैनलों का विस्तार हुआ, लेकिन साहित्य को छोटे पर्दे के खबरिया परिदृश्य में जगह नहीं मिली। पहले कह चुका हूं और ये सर्वविदित है कि खबर के तौर पर साहित्य कभी टेलीविजन चैनलों का हिस्सा नहीं रहा। सरकारी चैनल दूरदर्शन पर साहित्य की चर्चा सिर्फ पत्रिका कार्यक्रम के जरिए होती है, वो भी दूरदर्शन के समाचार चैनल पर नहीं दिखता। लोकसभा और राज्यसभा टीवी जैसे करंट अफेयर्स के सरकारी चैनलों पर भी साहित्य से जुड़े कार्यक्रम हैं, लेकिन उनकी प्रस्तुति इतनी नीरस और सीमित तरीके की होती है कि सिर्फ साहित्य में रुझान रखने वाले लोग ही उन्हें देखना पसंद करते हैं या फिर ऐसे लोग, जो किसी न किसी रूप में कार्यक्रम से जुड़े हों। लिहाजा ऐसे कार्यक्रम चंद लोगों के बौद्धिक विलास या कमाई का जरिया बनकर रह जाते हैं और आम टेलीविजन दर्शकों पर कोई छाप नहीं छोड़ पाते, उन्हें अपने साथ जोड़ भी नहीं पाते, क्योंकि उनका मकसद वो होता ही नहीं, जो वास्तव में होना चाहिए। मनोरंजन चैनलों पर साहित्यिक विधाओं पर आधारित कार्यक्रम बखूबी बनते हैं, लेकिन उनके जरिए किसी साहित्यकार या लेखक की चर्चा होती हो, ऐसा कभी नहीं दिखा। हां, इतना जरूर है कि अगर प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु या भीष्म साहनी जैसे लेखक की रचनाओं पर बने किसी सीरियल का प्रमोशन हो, तो दर्शकों की दिलचस्पी उसे देखने में जग जाती है। लेकिन आजकल चुंकि नाटकीयता औऱ मसाला मनोरंजन का दौर है, लिहाजा प्रोफेशनल तरीके से टीवी के लिए सीरियल लिखनेवालों की बहुतायत है, और वो जैसी जरूरत होती है, वैसा लिखते हैं और वही छोटे  पर्दे पर पेश होता है, कोई प्रोड्यूसर अब शायद ही कभी इस बात पर माथापच्ची करने की कोशिश करे कि किसी नामचीन लेखक की किसी कृति को क्या टीवी पर पेश किया जा सकता है? इसकी अपनी वजहें हो सकती हैं जो विमर्श का विषय है। लेकिन सवाल ये है कि समाचार चैनलों पर साहित्य का निषेध क्यों? अगर किसी संपादक को कोई स्क्रिप्ट पसंद न आए तो वो ये बात तो बड़ी आसानी से कह सकते हैं कि ये तो साहित्य है, और साहित्यिक भाषा या शब्दावली भी बड़ी आसानी से समाचार आधारित कार्यक्रमों में इस्तेमाल होती देखी जा सकती है, जिस पर समाचार चैनलों के संपादकीय प्रभारियों का नियंत्रण बड़ा मुश्किल होता है, क्योंकि ऐसी भाषा या शब्दों के चयन के पीछे तर्क यही होता है कि इस तरह की स्क्रिप्ट की भाषा दर्शकों को सुनने में अच्छी लगेगी, उन्हें बांधेगी और चैनल पर रुकने को मजबूर करेगी। यानी साहित्यिक पुट वाली भाषा की अहमियत तो कुछ हद तक समाचार चैनलों में भी है, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता और इसका ज्वलंत उदाहरण कई ऐसे मौकों पर भी देखा जा सकता है जब दर्शकों को झकझोर देनेवाली खबरों को और ज्यादा इमोशनल तरीके से पेश करने के लिए कविताओं की पंक्तियों का इस्तेमाल समाचार आधारित कार्यक्रमों में होने लगता है। ऐसा लगता है जैसे कविता की पूरी किताब स्क्रीन पर उतर आई हो। सवाल है कि साहित्य के इस्तेमाल की इतनी जरूरत और साहित्य से इतना अनुराग तो भी खबरों से साहित्य भला क्यों गायब है? इस सवाल के बड़ी सीधे-सादे जवाब हो सकते हैं- एक तो पहले कह चुका हूं कि कविता-कहानी प्रिंट मीडिया की चीजें हैं, टेलीविजन के पर्दे पर फिट होनेवाली नहीं, क्योंकि अगर किसी को टेक्स्ट देखना हो, तो वो अखबारों या पत्रिकाओं में या इंटरनेट पर बड़े आराम से पढ़ सकता है और .यही नहीं, दिल को बड़ा पसंद आए, तो भविष्य में पढ़ने के लिए सहेजकर अपने पास भी रख सकता है, जो आमतौर पर टेलीविजन समाचारों के दर्शकों के लिए संभव नहीं। दूसरा तर्क यही है कि समाचार चैनलों पर लोग खबर देखना चाहते हैं, साहित्य नहीं, तो भला कविता-कहानी कैसे दिखा सकते हैं। तो फिर वही बुनियादी सवाल है कि क्या साहित्य खबर का स्रोत नहीं हो सकता? क्या दर्शकों को ये जानने का हक नहीं कि साहित्य की दुनिया में क्या हो रहा है, देश में या दुनिया में कौन-से बड़े लेखक क्या लिख रहे हैं  और उनका क्या असर हो रहा है या हो सकता है? कौन सी नई किताबें दर्शकों के पढ़ने के लिए बाजार में आ रही हैं या कौन सी किताबें बेस्टसेलर के रूप में तहलका मचा रही हैं। ये तमाम ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब खबरों के जरिए दिए जा सकते हैं और दर्शकों की उनमें दिलचस्पी भी हो सकती है। लेकिन ऐसा क्यों नहीं होता कि साहित्य खबर का कच्चा माल बन जाए? परोक्ष रूप से देखें तो साहित्य की गाहे-बगाहे टेलीविजन पर चर्चा हो जाती है और साहित्यकार भी खबरों में शुमार हो जाते हैं। लेकिन ऐसा तभी होता है, जब किसी बड़ी साहित्यिक हस्ती को कोई बड़ा पुरस्कार मिल जाए, या फिर उसकी मौत हो जाए। इसके बाद भी वो टेलीविजन की खबरों में आने लायक हैं  या नहीं, ये कुछ और य़ोग्यताओं पर निर्भर करता है, जिन्हें वो पूरा करते हों, तो उन पर खबर चल सकती है, अन्यथा उनका नाम स्क्रीन पर सबसे नीचे चलनेवाली टिकर की पट्टी में 24 घंटे चलाकर मिटा दिया जाता है। मेरा ये मानना है और तमाम लोग इसे स्वीकार भी कर सकते हैं कि मधुशाला और मधुबाला समेत तमाम कालजयी रचनाओं के महान लेखक हरिवंश राय बच्चन के दिवंगत होने पर इतनी चर्चा नहीं हुई होती, अगर वो बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन के पिता न होते। यहां गौर करनेवाली बात ये है कि बच्चन जी के निधन से लेकर अंतिम संस्कार तक टेलीविजन चैनलों पर जो लंबी-चौड़ी कवरेज हुई, उसमें उनकी रचनाओं का नाम मात्र उल्लेख हुआ, और जिन रचनाओं की चर्चा हुई भी, उनमें मधुशाला और मधुबाला जैसी रचनाएं ही रहीं, जबकि साहित्य के तमाम सुधी पाठक अच्छी तरह जानते हैं कि बच्चन जी ने कविता के अलावा गद्य में भी बेहतरीन रचना की है। तो क्या दर्शकों को उन्हें श्रद्धांजलि देते वकत्त उनके कृतित्व के बारे में विस्तार से जानने का हक नहीं था? या टेलीविजन के समाचार चैनलों का ये दायित्व नहीं था कि वो इतने बड़े कद वाले लेखक के कृतित्व से दर्शकों को वाकिफ कराएं? दरअसल, कवरेज का सारा फोकस तो अमिताभ बच्चन थे, और उनका परिवार था जो बच्चनजी के निधन से कितना दुखी था और किस तरह प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा था, ये सभी चैनल दिखाना चाहते थे- इसका तर्क वही, कि दर्शक यही देखना चाहते हैं। कभी किसी ने ये सोचा है कि दर्शक वही देखते हैं, जो आप परोसते हैं। अगर ये बात सोची भी जाती हो, तो कोई जोखिम उठाने को तैयार नहीं होता, क्योंकि प्रसारकों की खुद अपनी दिलचस्पी ही ऐसे मामलों में नहीं होती, वजह चाहे जो भी हो। बच्चन जी को मीडिया में अमर करने का श्रेय उनकी रचनाओं से ज्यादा खुद अमिताभ बच्चन को ही जाता है, क्योंकि सिनेमा जगत के शहंशाह होने के चलते आम दर्शकों की उनमें सीधे-सीधे दिलचस्पी होती है। इसी तरह , बॉलीवुड से जुड़े दूसरे महान लेखक भी अपने उसी कृतित्व के लिए जाने जाएंगे, जिनसे उनका सिने करियर आगे बढ़ा है।  
      किसी लेखक या किसी रचना के खबर बनने का एक और पक्ष है, वो पक्ष है विवाद। टेलीविजन के समाचार चैनलों के लिए विवाद खबरों को जन्म देते हैं। लिहाजा अगर कोई लेखक या उसकी कोई रचना किसी बयान या किसी पंक्ति के चलते किसी बड़े विवाद में पड़ जाए, तो वो समाचार चैनलों की सुर्खियां बन सकते हैं और उन पर घंटों लाइव बहस भी हो सकती है। ऐसा उपन्यासकार विभूति नारायण राय के छिनालवाले बयान पर उठे विवाद के दौरान देखा जा चुका है। ऐसे भी उदाहरण हैं, जब राजनीति या किसी और क्षेत्र के किसी दिग्गज ने अपनी किताब में कोई बड़ा खुलासा कर दिया हो, या किसी विवादास्पद मुद्दे की चर्चा कर दी हो, तो वो किताब और मुद्दा सुर्खियों में आ जाते हैं।  लेकिन ऐसा नियमित तौर पर नहीं होता। और साफ है कि जहां किसी विवाद की गुंजाइश नहीं, वहां खबर भला कैसे बनेगी। ये खांटी पेशेवर खबरिया सोच हो सकती है। साहित्य से जुड़े लोग, बड़े साहित्यकार और आलोचक या कवि यदा-कदा विभिन्न मुद्दों पर प्रतिक्रिया देते भी देखे जा सकते हैं, चुंकि वो भी बुद्धिजीवी वर्ग का हिस्सा होते हैं या फिर जिस मुद्दे पर बात हो रही हो, उससे उनका कुछ संबंध हो, या फिर वो किसी बड़े विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हों या विषय के ज्ञाता और विद्वान। कभी-कभार चुनिंदा किताबों के लोकार्पण से जुड़ी खबरें समाचार चैनलों पर नजर आती हैं, लेकिन बेहद नीरस अंदाज में जिनका मकसद सिर्फ किताब के लेखक या लोकार्पण करने वाली हस्ती का प्रमोशन करना होता है या फिर किसी और कारोबारी या संपादकीय मजबूरी की वजह से उसे बुलेटिन में जगह देना जरूरी होता है। कभी ये जानने या बताने की कोशिश नहीं होती कि अमुक किताब का लोकार्पण हुआ, तो उसमें आखिर है क्या और क्यों दिलचस्प है या नहीं है? बहरहाल, लोकार्पण की खबरें भी 24 घंटे में 4-5 बार चलाकर समाचार चैनल ये तो कह सकते हैं कि हम साहित्यकारों को भी पर्दे पर जगह देते हैं, लेकिन इसका समाचार चैनलों पर नियमित रूप से साहित्य की मौजूदगी या गैर-मौजूदगी से कोई लेना देना नहीं। ये बात खास तौर से समझनी चाहिए कि टेलीविजन के खबरनवीस साहित्य को खबरों की सीमाओं में बांधकर जिस तरीके से देखते हैं, जो काफी हद तक सही नहीं है। जिस तरीके से खेल और मनोरंजन टेलीविजन समाचार चैनलों की खास नियमित विधाएं हैं, उस तरह साहित्य भी टेलीविजन पर चर्चा का विषय हो सकता है और रोजाना न सही, हफ्ते में ही एक बार उस पर आधारित कार्यक्रम पेश किए जा सकते हैं । ऐसी पहल करने की बात उठे भी तो कैसे? इस पर टेलीविजन समाचारों के प्रोड्य़ूसर बड़ी आसानी से सवाल उठा सकते है कि बिना विजुअल के, साहित्य की खबरें तैयार कैसे होंगी? खेलों जैसे दिलचस्प या एंटरटेनमेंट कार्यक्रमों जैसे रंगीन विजुअल कहां से आएंगे? और लेखकों के कटवेज़ और उनकी लंबी-लंबी बातें क्या साहित्यिक खबर पर आधारित कार्यक्रम को उबाऊ नहीं बना देगी? इस सवाल का जबाव ये है कि यदि आपके लिए IPL के फुटेज दिखाने की पाबंदी होती है और आप उसके विकल्प के तौर पर ग्राफिक्स और एनिमेशन के तमाम जुगाड़ करते हैं, तो ऐसा साहित्य के लिए क्यों नहीं हो सकता। अगर आप साहित्य से जुड़ी खबर दिखाना ही चाहते हों, तो आपको स्टोरी की परिकल्पना तो करनी होगी, थोड़ा सोच-विचार और मेहनत करके रास्ता तैयार करना होगा। किसी नई किताब के बारे में खबर दिखाने के लिए आपको उस किताब की तमाम तस्वीरें इस्तेमाल करनी चाहिए, आप किताब के चुनिंदा हिस्सों को भी आकर्षक ग्राफिक्स के जरिए शानदार तरीके से पर्दे पर पेश कर सकते हैं। यही नहीं जिस मुद्दे से जुड़ी किताब हो, उससे जुड़ी जनरल फुटेज का बेहतरीन इस्तेमाल भी आपकी खबर और खबरों पर आधारित कार्यक्रमों में जान डाल सकता है। रही बात लेखकों के लंबे भाषण की, तो उसमें से जरूरी बाइट निकालकर भी काम चलाया जा सकता है। ये सब कोई नई बात नहीं, पहले से इस तरह के प्रयोग या यूं कहें कि खबरों के मुताबिक साहित्यिक रचनाओं और लेखकों का ट्रीटमेंट होता रहा है। सवाल है उस इच्छाशक्ति का जो अब तक समाचार चैनलों से गायब है। ये भी समझना चाहिए कि दर्शकों का एक बड़ा वर्ग उन पाठकों का भी है, जो साहित्य ही नहीं, तमाम किताबों में दिलचस्पी रखते हैं तो आप अगर किताबों और लेखकों को खबर के दायरे में लाते हैं, तो आप उन तमाम पाठकों को भी अपना दर्शक बना सकते हैं, जो आपसे दूर हों। टेलीविजन समाचार चैनलों पर हो रहा प्रसारण विशुद्ध व्यावसायिक तरीके से होता है। एक तरफ प्रसारण सामग्री में बिकाऊ होने की क्षमता आंकी जाती है, तो दूसरी तरफ उनका प्रमोशन भी आक्रामक तरीके से होता है ताकि दर्शक उसे देखने को मजबूर हो जाएं। अगर तमाम खबरों और उन से जुड़े कार्यक्रमों के मामले में ये नजरिया अपनाया जा सकता है, तो साहित्य के मामले में क्यों नहीं। वास्तव में साहित्य टेलीविजन समाचार का एक अछूता क्षेत्र है, जिसका दोहन करने की खास जरूरत है। आज के दौर में हिंदी और अंग्रेजी में किताबें काफी महंगी हैं, इसके बावजूद उनकी बिक्री कम नहीं। बड़े बड़े प्रकाशक कॉरपोरेट का रूप ले चुके हैं, ऐसे में अगर साहित्य को खबरिया चैनलों पर जगह दी जाए, तो उसकी मार्केटिंग भी हो सकती है और तमाम बड़े प्रकाशन घराने आपके साहित्य आधारित कार्यक्रमों को प्रायोजित कर सकते हैं। आइडिया बुरा नहीं है, बशर्ते इस पर काम करने में कोई दिलचस्पी ले। ऐसा शायद इसलिए संभव नहीं लगता क्योंकि आजकल जमाना शॉर्टकट का है, बने बनाए तैयार माल से खेलना समाचार चैनलों के कामकाजियों का शगल बन चुका है। ऐसे में साहित्य के लिए खबरिया चैनलों पर जगह बना पाना आज के दौर में बेहद मुश्किल प्रतीत होता है। पर इतना जरूर कहा जा सकता है, कि अगर इस दिशा में पेशेवर तरीके से पहल की जाए, तो वो बेकार नहीं जाएगी। अगर मैं ये कहूं कि साहित्य भी एक कला है, तो इस पर सवाल उठ सकते हैं और बहस हो सकती है, लेकिन अगर ये भी कहूं कि साहित्य को कलात्मक तरीके से टेलीविजन के समाचार चैनलों पर पेश किया जा सकता है, तो कई लोग सहमत हो सकते हैं, इसका भरोसा जरूर है।
-          कुमार कौस्तुभ
30.04.2013, 2.00 PM

Monday, April 29, 2013

प्रोड्यूसर- प्रसारण के कमांडर




      प्रोड्यूसर यानी टेलीविजन समाचार प्रसारण का कप्तान। समाचार चैनलों में प्रोड्यूसर की भूमिका कितनी अहम होती है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि किसी भी बुलेटिन या शो, जिसकी जिम्मेदारी उस पर होती है, उसकी पूरी कमान – यानी बुलेटिन या शो की परिकल्पना से लेकर उसके ऑन एयर होने तक की पूरी प्रक्रिया के हर पहलू को कार्यान्वित करने का काम प्रोड्यूसर पर होता है। इस तरह प्रसारण से जुड़े तमाम विभाग और हर कड़ी प्रोड्यूसर से जुड़े होते हैं। बात बुलेटिन या शो के आइडियाज़ देने से लेकर उसके विकास और प्रसारण को अंजाम देने तक की है, जिसके कई चरण होते हैं और हर चरण से जुड़े लोगों को काम शो के प्रोड्यूसर के मुताबिक करना पड़ता है, ठीक वैसे ही, जैसे चैनल के प्रमुख – संपादक या न्यूज़ डायरेक्टर या फिर मैनेजिंग एडिटर या एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर के तहत और तमाम विभाग काम करते हैं, कुछ-कुछ वैसे ही प्रोड्यूसर भी बुलेटिन या कार्यक्रम के मामले में चैनल की एक यूनिट के प्रसारण की धुरी के तौर पर काम करता है, कुछ स्टाफ और कुछ विभाग उसके मातहत होते हैं, तो बाकियों से उसे तालमेल बिठाकर काम करना पड़ता है। हिंदी में प्रोड्यूसर का पर्याय शब्द है निर्माता यानी कार्यक्रम के निर्माण का जिम्मेदार और प्रस्तुतकर्ता यानी प्रस्तुति के लिए जिम्मेदार। ये शब्द बड़े स्तर पर फिल्म निर्माण से जुड़ा है या यूं कहें कि वहीं से आयात किया गया है, जैसे और भी तमाम ऐसे पदनाम हैं, जो फिल्म से टेलीविजन में आए हैं, क्योंकि दोनों ही प्रसारण प्रणालियों में ऑडियो-वीडियो के इस्तेमाल से जुड़ी कुछ मूलभूत समानताएं हैं, जिनके बारे में सभी जानते हैं औऱ यहां विस्तार से चर्चा की आवश्यकता नहीं। जो फर्क सिनेमा और टेलीविजन के मनोरंजन चैनलों तथा समाचार चैनलों के प्रोड्यूसर में होता है, वो ये है कि समाचार चैनलों में प्रोड्यूसर की भूमिका संपादकीय अधिक है। यानी वो समाचार बुलेटिन और समाचार आधारित कार्यक्रमों के प्रसारण के तकनीकी पक्ष को तो समझता ही है, बुलेटिन और कार्यक्रमों की संपादकीय लाइन तय करने और संपादकीय पक्ष का ध्यान रखने के लिए भी जिम्मेदार होता है। इस रूप में काफी हद तक वो संपादक की भूमिका में भी होता है, लेकिन अंतर यही है कि संपादक पद नाम को धारण करनेवाले लोग आमतौर पर खुद को स्क्रिप्ट लेखन औऱ खबर की लाइन तय करने तक सीमित कर लेते हैं, जबकि प्रोड्यूसर को उसके तकनीकी पहलुओं पर भी बारीकी से नज़र रखनी पड़ती है। इस तरीके से देखें तो समाचार चैनलों में प्रोड्यूसर्स की भूमिका ज्यादा बड़ी है और इसी लिहाज से चैनलों की Hierarchy में प्रोड्यूसर्स के भी तमाम रूप नज़र आते हैं, जिनकी अलग-अलग जिम्मेदारियां होती हैं।
      किसी कार्यक्रम या बुलेटिन का प्रोड्यूसर भले ही एक आदमी हो, लेकिन इस पदनाम से जुड़े और भी तमाम वरिष्ठ स्टाफ होते हैं, जो अलग-अलग भूमिकाओं में काम करते हैं। चुंकि प्रोड्यूसर के साथ तकनीकी पहलू भी जुड़ा है, लिहाज इस पद से जुड़े कामकाज का वर्गीकरण कुछ इस तरीके से किया जा सकता है-
एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर- चैनल के मुख्य संपादकीय कार्यकारी, जो आम तौर पर न्यूज़ डायरेक्टर या मैनेजिंग एडिटर को रिपोर्ट करते हैं और चैनल के संपादकीय और प्रोडक्शन से जुड़े मामलों के प्रभारी होते हैं। एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर ऐसे कई कार्यक्रमों के भी प्रभारी हो सकते हैं, जिनके कांसेप्ट और प्रोडक्शन में उनकी भूमिका हो। आम तौर पर खास कार्यक्रमों के वरिष्ठ निर्माताओं को भी  एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर का दर्जा दे दिया जाता है। लेकिन ये पूरी व्यवस्था अलग अलग चैनलों के प्रबंधन और कामकाज के हिसाब से अलग-अलग हो सकती है। समाचार चैनलों में चुंकि ज्यादातर सीधा प्रसारण होता है, लिहाजा एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर FPC तय करने, उन्हें लागू करने पर ध्यान देने और भविष्य की रूपरेखा तय करने जैसे चैनल ऑपरेशन से जुड़े काम करते हैं। वहीं मनोरंजन चैनलों और ऩॉन-न्यूज़ चैनलों में उनका काम कार्यक्रमों के प्रिव्यू और उन्हें हरी झंडी देने का भी हो सकता है।
डिप्टी एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर- चैनल के प्रमुख कर्ता-धर्ता, संपादकीय अधिकारी या नंबर 2 कार्यकारी हो सकते हैं, जो संपादकीय और प्रोडक्शन के मामले समझते हों और उनसे जुड़े हों।
एसोसिएट एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर- कार्यक्रमों और बुलेटिन्स के रोजाना के मामलों का प्रभार देखते हैं। फॉरवर्ड प्लानिंग करते हैं औऱ शिफ्ट पर भी निगरानी रखते हैं। चैनल के मैनपॉवर के प्रबंधन का भी काम इनके जिम्मे।
सीनियर प्रोड्यूसर- आम तौर पर शिफ्ट के प्रभारी, बुलेटिनों और कार्यक्रमों के प्रसारण के लिए जिम्मेदार, अलग-अलग खास कार्यक्रमों के निर्माण से भी जुड़े हो सकते हैं
एसोसिएट सीनियर प्रोड्यूसर/ प्रोड्यूसर-  सीनियर प्रोड्यूसर के सहयोगी, बुलेटिनों औऱ अलग-अलग खास कार्यक्रमों की तैयारी, निर्माण और प्रसारण की जिम्मेदारी संभालते हैं
एसोसिएट प्रोड्यूसर/ एसिस्टेंट प्रोड्यूसर- चैनल के रोजमर्रा के कामकाज, रनडाउन, टिकर, स्क्रिप्टिंग, पैकेजिंग के कामकाज देखते हैं
रनडाउन प्रोड्यूसर- एसोसिएट प्रोड्यूसर/ एसिस्टेंट प्रोड्यूसर स्तर के स्टाफ, बुलेटिन और कार्यक्रमों के रनडाउन के प्रबंधन का जिम्मा
पैकेजिंग प्रोड्यूसर- प्रोड्यूसर से लेकर एसिस्टेंट प्रोड्यूसर और ट्रेनी स्तर तक के तमाम स्टाफ जिन पर न्यूज़ स्टोरीज़ की पैकेजिंग की जिम्मेदारी हो, वीडियो एडिटर्स से तालमेल बिठाना प्रमुख काम
पैनल प्रोड्यूसर- पैनल कंट्रोल रूम की कमान संभालते हैं, बुलेटिन और कार्यक्रमों को अबाध तरीके से ऑन एयर करने का जिम्मा
लाइन प्रोड्यूसर- आमतौर पर मनोरंजन और नॉन-न्यूज़ करंट अफेयर्स चैनलों में स्टाफ के प्रबंधन का काम देखते हैं
फील्ड प्रोड्यूसर- आउटडोर शूटिंग के प्रबंधन की जिम्मेदारी
      आमतौर पर यही माना जाता है कि टेलीविजन के प्रोड्यूसर्स वीडियो प्रोडक्शन से जुड़े तमाम पहलुओं पर नज़र रखते हैं। लेकिन समाचार चैनलों में खबरों और खबरिया कार्यक्रमों की स्क्रिप्ट लिखना भी उनकी जिम्मेदारियों में शुमार है। मनोरंजन चैनलों में भी प्रोड्यूसर स्क्रिप्ट लेखक हो सकते हैं, क्योंकि उन कार्यक्रमों की रूपरेखा और विकास का हर पहलू उनके दिमाग में होता है जिनसे वो सीधे जुड़े होते हैं, ऐसे में कार्यक्रमों की स्क्रिप्ट तय करना भी उनका ही काम होता है, तो अगर वो अपनी जरूरत के मुताबिक, बढ़िया लिख सकते हैं, तो अपनी इस क्षमता का इस्तेमाल क्यों न करें, लेकिन स्क्रिप्ट कार्यक्रम निर्माण का एक हिस्सा है और बाकी तमाम ऐसे हिस्से हैं, जिन पर प्रोड्यूसर को माथापच्ची करनी पड़ती है, ऐसे में स्क्रिप्ट लिखने के लिए अलग से लोग होते हैं, लेकिन उसे अंतिम रूप देना या उस पर मुहर लगाना तो प्रोड्यूसर के ही हाथों में होता है। समाचार चैनलों में भी स्थिति बहुत भिन्न नहीं है। वजह ये कि आजकल भारत के समाचार चैनलों में खबरों के साथ-साथ खबरों पर आधारित ऐसे कार्यक्रमों की बहुतायत हो गई है, जो डॉक्यूमेंटरी और नायकीयता से भरपूर मनोरंजन चैनलों के कार्यक्रमों से टक्कर लेते हैं। इसके पीछे मानसिकता तो सिर्फ रचनात्मकता यानी Creativity के इस्तेमाल से कुछ अलग कर दिखाने की है, लेकिन इसके चक्कर में समाचार चैनलों को भी प्रोड्यूसर्स की पूरी क्षमता का इस्तेमाल करना पड़ता है, या ऐसे प्रोड्यूसर नियुक्त करने पड़ते हैं, जो समाचारों के प्रसारण के साथ-साथ उन्हें विस्तृत कार्यक्रमों की शक्ल भी दे सकें। 13 दिसंबर 2009 को संसद पर हुए हमलों को लेकर ज़ी न्यूज़ ने बाकायदा फिल्म की शक्ल वाला कार्यक्रम बना डाला, जिसे प्रोड्यूस तो चैनल के प्रोड्यूसर्स ने ही किया था, लेकिन ये कार्यक्रम मनोरंजन और दूसरे टीवी चैनलों के कार्यक्रमों को भी टक्कर देनेवाला था। इस तरह के कई कार्यक्रम गुजरे कई बरसों में समाचार चैनलों पर देखे गए हैं, जिनकी परिकल्पना औऱ डिज़ाइन समाचार से जुड़े प्रोड्यूसर्स ने अपनी रचनात्मक क्षमता का इस्तेमाल करके ही की।
      बात समाचार चैनलों के प्रोड्यूसर्स की हो रही है, तो पहले ये भी जान लेना चाहिए कि बुलेटिन प्रोड्यूसर्स की क्या जिम्मेदारी है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, खबरों की स्क्रिप्ट राइटिंग तो बुलेटिन प्रोड्यूसर के काम में शुमार है ही, पदनाम के मुताबिक उसे बुलेटिन की रूपरेखा पहले तय करनी होती है और ये तय करना होता है कि वो किन खबरों को कितना महत्व देना चाहता है। उसे ये भी ध्यान रखना होता है कि तमाम इस्तेमालशुदा खबरों से जुड़े पैकेज, VO यानी विजुअल्स, SOT यानी बाइट्स और ग्राफिक्स जैसे सारे आइटम समय से और तय डेडलाइन में मिल जाएं। इसके लिए उसे अपने सहयोगी पैकेजिंग के प्रोड्यूसर से तालमेल बिठानी पड़ती है या खुद अपना हाथ-पांव चलाना पड़ता है। इसके अलावा खबरों को पेश करने के मामले में हर खबर के लिए अलग बैकग्राउंड तैयार करने  का चलन है, जिसे समाचार चैनलों की भाषा में सेट’, ‘क्रोमा’, ‘प्लाज़्माजैसे तमाम नाम जरूरत के मुताबिक तकनीकी पहचान के लिए दिए गए हैं। तो प्रोड्यूसर का ये भी काम है कि वो तय करे कि किस खबर के लिए किस तरह के बैकग्राउंड की कैसी डिज़ाइनिंग होनी चाहिए, ताकि एंकर की पृष्ठभूमि के जरिए ही खबर की पहली झलक मिल जाए। इसके लिए तस्वीरों और वीडियो के चयन से लेकर उनके लिए दिए जानेवाले समुचित टाइटल टेक्स्ट के बारे में सोचना औऱ खुद या वरिष्ठों की मदद से उसे तय करना भी प्रोड्यूसर का काम है। बुलेटिन प्रोड्यूर चुंकि खबरों और उनसे जुड़े एंकर लीड्स का लेखक भी होता है, तो उसे ये भी ध्यान रखना पड़ता है कि उनकी भाषा सरल और आसान हो, या तुकबंदियों से भरी लच्छेदार। भारतीय समाचार चैनलों में प्रसारित होने वाले बुलेटिन्स औऱ कार्यक्रमों में आजकल टेक्स्ट्स की भरमार दिखती है, जो टॉप बैंड, लोअर बैंड, ग्राफिक्स ब्रैंड और बार वगैरह के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं, तो उनकी परिकल्पना भी प्रोड्यूसर को ही करनी पड़ती है साथ ही ये भी ध्यान रखना पड़ता है कि उन पर लिखे जानेवाले टेक्स्ट सार्थक, समझने में आसान और देखने में सुंदर हों, उनकी एलाइनमेंट सही हो और आकार भी फिट बैठे। प्रोड्यूसर चुंकि पूरे बुलेटिन का या शो का मालिक होता है, तो ये उसी पर निर्भर करता है कि वो अपने शो को सुंदर और आकर्षक बनाने के लिए उसकी कितनी और किस तरह से सजावट करे। वो चाहे तो शो या हरेक सेगमेंट की शुरुआत और इंट्रोडक्शन के लिए विजुअल, टेक्स्ट और म्यूजिक के मेल से बने स्टिंगया शोओपेनका इस्तेमाल करे या फिर चैनल मोंटाज का या चैनल बंपर का, ये उस पर निर्भर करता है। साथ ही ये प्रोड्यूसर को ही तय करना होता है कि वो पूरे बुलेटिन या शो में एक ही सेट का इस्तेमाल करे या कि अलग-अलग सेट निर्माण करवाए। मकसद यही है कि शो की प्रस्तुति सुंदर दिखनी चाहिए। वैसे , तमाम समाचार चैनलों में उच्च संपादकीय स्तर से इन मामलों को लेकर एकरूपता बनाए रखने के लिहाज से कुछ नियम कायदे तय कर दिए जाते हैं, जिनका पालन प्रोड्यूसर को करना होता और उन्हीं के दायरे में अपनी रचनात्म औऱ संपादकीय क्षमता की नुमाइश करने की चुनौती होती है। बुलेटिन की तैयारी से लेकर प्रसारण तक को अंजाम देने के लिए बुलेटिन प्रोड्यूसर को अपने डेस्क के रनडाउन प्रोड्यूसर से सहयोग मिलता है और उसे पैनल कंट्रोल रूम के पैनल प्रोड्यूसर्स के संपर्क में भी रहना पड़ता है, जो बुलेटिन के तमाम आइटम्स और लाइव एलिमेंट्स को सही तरीके से ऑन एयर कर सकें, इसके लिए उन्हें जरूरी निर्देश समय-समय पर देने पड़ते हैं, ताकि बुलेटिन और शो में प्रवाह बना रहे, कहीं कोई कड़ी टूटे नहीं और एंकर के चेहरे या किसी ग्राफिक प्लेट या चैनल के प्लेट पर फ्रिज होकर आगे के आइटम के लिए इंतजार करने की ऐसी स्थिति न पैदा हो, जब चैनल बिल्कुल मूक जैसा दिखे। लाइव प्रसारण की स्थिति में प्रोड्यूसर्स को फील्ड में मौजूद संवाददाताओं और दूसरे सहयोगियों के संपर्क में रहना पड़ता है। इसके लिए समाचार चैनलों में एसाइनमेंट डेस्क के जरिए संपर्क और तालमेल बिठाने की परंपरा है। लेकिन कई जगह सीधे बुलेटिन प्रोड्यूसर भी संवाददाताओं से फोन पर अपडेट ले सकते हैं और उन्हें लाइव चैट या फोन इन के लिए निर्देश दे सकते हैं। ये व्यवस्था अलग-अलग हो सकती है, सिर्फ ध्यान इस बात का रखना होता है कि सब कुछ तय योजना के मुताबिक ऑन एयर हो, या फिर प्रसारण के बीचो बीच भी योजना में बदलाव हो, तो इसके हर पक्ष से जुड़े लोगों को उसकी समुचित जानकारी और निर्देश हों, ताकि प्रसारण अबाध तरीके से हो सके। इस दौरान उन्हें बुलेटिन की शुरुआत , उसके अंत और कमर्शियल ब्रेक्स की टाइमिंग और अवधि का भी खास ध्यान रखना पड़ता है। ये सब सुचारू रूप से चल सके इसके लिए आम तौर बुलेटिन प्रोड्यूसर अमूमन पैनल कंट्रोल रूम में पैनल प्रोड्यूसर और टेक्निकल डायरेक्टर्स के साथ ही बैठते हैं या फिर टॉकबैक सिस्टम के जरिए संपर्क में रहते हैं, ताकि समय पर सही फैसले ले सकें, और सहयोगियों को अवगत करा सकें। इस मामले में प्रोड्यूसर्स को वक्त और खबरों पर पैनी नजर रखनी पड़ती है। ये एक बड़ी चुनौती है और इसके लिए खबरों की समझ, उन पर पकड़ के साथ साथ उनके प्रति सजगता बेहद जरूरी है। साथ ही प्रसारण के तकनीकी पक्षों की जानकारी तो उन्हें होनी ही चाहिए, जैसा कि पदनाम से ही जाहिर है और इसलिए भी जरूरी है ताकि वो प्रसारण की गलतियों को समझ सकें और सुधार कर सकें, तथा पैनल और टेक्निकल डायरेक्टर्स को ये निर्देश दे सकें कि वो किस तरह आइटम्स का प्रसारण चाहते हैं। आखिरकार प्रोड्यूसर बुलेटिन और शो के किमांडर होते हैं, तो उन्हें इस तरह के निर्देश देने का अधिकार है और इसमें उन्हें कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। बुलेटिन और शो की तैयारी के दौरान प्रोड्यूसर्स को एंकर्स के संपर्क में भी रहना चाहिए औऱ उन्हें अपने आइडियाज़ से अवगत कराना चाहिए वो प्रसारण में कैसी प्रस्तुति और किस तरह की रफ्तार देखना चाहते हैं। एंकर्स को बुलेटिन या शो की हार्ड कॉपी यानी प्रिंटेड लिंक भी मुहैया करा देने चाहिए, ताकि वो प्रस्तुति से पहले उन्हें पढ़कर जानकारी अपने दिलो-दिमाग में जमा सकें। चाहे समाचार बुलेटिन हों या फिर खबरों पर आधारित कार्यक्रम, उन्हें प्रमोट करने या खबरों के बीच उनके विज्ञापन की भी आजकल जबर्दस्त परिपाटी है। तो प्रोड्यूसर को ही ये भी तय करना पड़ता है कि उसे अपने शो को किस तरह प्रमोट करना है। इसके लिए आजकल कमिंग अप बैंड, कमिंग अप ड्रॉप-अप्स, कमिंग अप कट आउट्स, प्रोमो, यानी प्रोमोशनल पैकेज़ वगैरह का इस्तेमाल होता है, जिनकी परिकल्पना बुलेटिन प्रोड्यूसर ही करता है और ग्राफिक्स और प्रोमो सेक्शन से जुड़े प्रोड्यूसर उनका निर्माण करते हैं। साथ ही अगली स्टोरी या अगले शो के लिए ‘Teaser’ तैयार करना भी प्रोड्यूसर का काम है। यहां ध्यान देने की बात ये भी है कि एक बुलेटिन या शो की कमान एक आदमी के हाथों में हो, लेकिन उसके सहयोग के लिए तमाम प्रोड्यूसर पदनाम वाले स्टाफ होते हैं, जो मुख्य प्रोड्यूसर के कहे मुताबिक, निर्देशानुसार, उसके सहयोग के लिए बुलेटिन या शो के छोटे-छोटे हिस्सों का निर्माण करते हैं। तो एक शो के प्रोड्यूसर से भी तमाम प्रोड्यूसर्स की कड़ियां जुड़ी होती हैं और प्रमुख कार्यकारी की जिम्मेदारी तालमेल बिठाए रखना है, ताकि काम तय डेडलाइन में पूरा हो सके।
      बुलेटिन या शो के लिए जिम्मेदार प्रोड्यूसर आमतौर पर ऐसे लोग होते हैं, जिन्हें इलेक्ट्रानिक मीडिया में विभिन्न स्तरों पर काम करने का कई साल का अनुभव होता है। पत्रकारिता का कोर्स पूरा करने के बाद समाचार चैनलों में कई स्तरों पर नौकरी करने के बाद लोग प्रोड्यूसर के स्तर तक पहुंचते हैं, लिहाजा अनुभव काफी मायने रखता है, क्योंकि इसके जरिए बुलेटिन और शो निर्माण के हर पक्ष की जानकारी और रिपोर्टिंग, संपादकीय, स्क्रिप्ट लेखन, ऑडियो-वीडियो एडिटिंग, ग्राफिक्स जैसे कई पहलुओं पर पकड़ बनाने का मौका मिलता है जिसक समग्र इस्तेमाल बुलेटिन या शो के निर्माण और प्रस्तुति का मौका मिलने पर होता है। सबसे अहम बात है फैसले लेने की क्षमता, जो अनुभव से ही आती है, क्योंकि आपके अनुभव और उस पर आधारित आपके कौशल के प्रदर्शन से ही चैनल के वरिष्ठ कार्यकारी आप पर भरोसा करते हैं और काम करते-करते वरिष्ठों के अनुभवों को देखते हुए आप भी ये समझ पाते हैं कि कब क्या फैसला लेना चाहिए। समाचार चैनल में कभी कोई अजूबा मौका आए, या ऐसे हालात हों, जिनसे कभी आप रू-ब-रू न हुए हों, ऐसा कम ही होता है, आम तौर पर प्रसारण से जुड़ी एक जैसी समस्याएं ही थोड़े-बहुत बदलाव के साथ रोजाना सामने आती हैं, लिहाजा आपको अपने अनुभव से उनसे पार पाने का मौका मिल सकता है। अगर कोई नई समस्या सामने आए, तो वरिष्ठ सहयोगियों या संपादकों से सलाह लेकर उनसे निपटा जा सकता है। मनोरंजन चैनलों या सिनेमा से अलग समाचार चैनलों के प्रोड्यूसर्स का काम ज्यादा पत्रकारीय है, लिहाजा उनकी नजरें खबरों और टेलीविजन प्रसारण के लिहाज से उनकी ट्रीटमेंट पर होनी चाहिए। टेलीविजन प्रसारण टीम वर्क है, लिहाजा उनमें अपनी न्यूज़ प्रोडक्शन टीम के साथ मिलकर काम करने की क्षमता भी होनी चाहिए। अच्छे न्यूज़ या बुलेटिन प्रोड्यूसर की खासियत ये है कि उसके काम समय पर पूरे हों, और संगठित तरीके से हों, बुलेटिन या शो में कोई बिखराव न हो और तारतम्य बना रहे। उनमें कठिन शेड्यूल और भारी तनाव भरे माहौल में भी कम से कम वक्त में आइटम्स तैयार करने, स्टोरीज़ लिखने, दूसरे विभागों से तालमेल बिठाने, आगे की योजनाएं बनाने और कुल मिलाकर बिना घबराहट के, शांति से काम करने की क्षमता होनी चाहिए।
      समाचार चैनलों के प्रोड्यूसर्स का काम चुंकि खबरों से जुड़ा है, लिहाजा उन्हें अपने स्रोतों से आनेवाली खबरों पर नजर रखनी चाहिए, साथ ही एजेंसियों और वायर्स से आनेवाली खबरों पर भी उनकी निगाह रहे, ये जरूरी है। वो वीडियो, ऑडियो खुद एडिट करना जानते हों, तो उनका काम आसान हो जाता है। और सबसे बड़ी बात कि उनमें मल्टी टास्किंगऔर वन-मैन आर्मी की तरह काम करने की भी क्षमता होनी चाहिए, यानी जब जहां जैसी जरूरत हो, वहां अपना हाथ डाल सकें, ताकि काम रुके नहीं। प्रोड्यूसर पर्दे के पीछे के बड़े खिलाड़ी होते हैं, जिन्हें टेलीविजन पर आम दर्शकों के सामने कोई पहचान नहीं मिलती, लेकिन उनके बिना चैनल चल पाना भी संभव नहीं। ऐसे में इनकी अहमियत समझी जा सकती है और प्रसारण उद्योग का जिस तरह से विस्तार हो रहा है, उसमें ये भी उम्मीद की जा सकती है कि प्रोड्यूसर की चुनौतियों और जरूरतों –दोनों में इजाफा होगा।
-          कुमार कौस्तुभ
29.04.2013, 11.38 AM

Sunday, April 28, 2013

जो खबर बनाते हैं...




संवाददादाता खबरें लाते हैं, खबरें निकालते हैं, समाचार संगठनों को देते हैं, और मौका पड़ने पर खबरों की खबर लेते भी हैं, लेकिन टीवी के समाचार चैनलों में बड़ी संख्या ऐसे संपादकीय कर्मचारियों की भी होती है, जो वास्तविक तौर पर खबरों के बीच जीते हैं और खबरें बनाते हैं। जी हां, बात स्क्रिप्ट राइटर और कॉपी राइटर या न्यूज़ राइटर की हो रही है। अमूमन न्यूज़ डेस्क पर काम करनेवाली इस जमात को न तो सरकारी या वैधानिक तौर पर पत्रकार का दर्जा मिलता है, ना ही खबरों की बाइलाइन, ना ही वो अहमियत जो संवाददाताओं को मिलती है। लेकिन ये कहना अतिशयोक्ति न होगी कि स्क्रिप्ट राइटर/ कॉपी राइटर /न्यूज़ राइटर ही खबरों को असल में प्रसारण योग्य आइटम का स्वरूप देते हैं। चाहे वो स्टोरी पैकेज हो, या एंकर लीड या बाइट का लीड इन या विजुअल्स और ग्राफिक्स का विवरण देने के लिए लिखी गई खबर का हिस्सा- इनका खबरिया स्वरूप और इन्हें खबरिया भाषा देने का काम स्क्रिप्ट लिखनेवालों के ही जिम्मे होता है। औपचारिक तौर पर स्क्रिप्ट राइटर/ कॉपी राइटर /न्यूज़ राइटर के पद अब समाचार चैनलों में कम ही पाए जाते हैं, क्योंकि ये काम मूल रूप से प्रोड्यूसर कैटेगरी के लोगों पर ही आ गया है, लेकिन ऐसे तमाम लोग जो खबरों और खबरों पर आधारित कार्यक्रमों की स्क्रिप्ट्स लिखने से जुड़े होते हैं, उनकी वास्तविक पहचान इसी रूप में होती है। समाचार चैनलों में काम करनेवाले ऐसे चुनिंदा लोग जिनकी भाषा पर जबर्दस्त पक़ड़ मानी जाती है, स्क्रिप्ट लिखने और कॉपियों की जांच करने का काम करते हैं। आम तौर पर वरिष्ठ और मध्यम दर्जे के लोगों को ये जिम्मेदारी दी जाती है, जिन्हें समाचार माध्यमों खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम करने का अनुभव हो। वैसे नए नवेले कर्मचारियों में भी जिनकी भाषा पर ठीक-ठाक पकड़ होती है और खबरों की समझदारी भी, उन्हें स्क्रिप्ट लिखने या कॉपी लिखने का काम दिया जाता है।
स्क्रिप्ट राइटर को भले ही रिपोर्टर जैसी पहचान न मिले, लेकिन, इस खास जिम्मेदारी की अहमियत इस बात से भी समझी जा सकती है कि जब भी किसी समाचार चैनल में आप नौकरी के लिए जाते हैं, तो वहां आपके सामान्य़ ज्ञान और खबरिया समझ के साथ-साथ स्क्रिप्ट लिखने की क्षमता भी जांची जाती है, वो भले ही लिखित परीक्षा के रूप में हो, या फिर आपके पूर्व कार्यानुभव से बनी पहचान की बदौलत। इसी आधार पर आमतौर पर चैनलों में नौकरी के लिए चयन होता है और उसमें मजबूती या कमजोरी के लिहाज से स्क्रिप्ट और दूसरे कामों की जिम्मेदारी का बंटवारा होता है। यहां तक कि रिपोर्ट्स से भी ये अपेक्षा की जाती है कि वो खबरों की स्क्रिप्ट खुद लिखें। लेकिन ऐसा आमतौर पर नहीं होता लिहाजा खबरों को काट-छांट और मांजकर प्रसारण के लायक बनाने का जिम्मा स्क्रिप्ट लिखनेवाले पर आ जाता है।
 समाचार चैनलों में कामकाज वस्तुत: खबरिया प्रबंधन से अधिक जुड़ा है, लिहाजा ये मानकर नहीं चला जा सकता कि यहां काम करनेवालों की भाषा पर ऐसी पकड़ हो, कि वो साहित्यकारों को भी टक्कर दे दे, लेकिन इतना तो है ही कि समाचार चैनलों की जरूरत के मुताबिक, लिखने का काम जरूर आना चाहिए। इसीलिए परंपरा स्क्रिप्ट लेखन का टेस्ट लेने की भी चली आ रही है। माना जाता है कि आमतौर पर हिंदी पट्टी से आनेवालों लोगों की हिंदी पर पकड़ अच्छी ही होती है, उनका वाक्य विन्यास अच्छा होता है, ठीक वैसे ही जैसे अंग्रेजी चैनलों में अंग्रेजी माध्यम में पढ़े लिखे लोग चाहिए होते हैं और अन्य भाषाओं में उनके जानकार। लेकिन हिंदी समाचार चैनलों में असल जांच शब्दों की वर्तनी के मामले में होती है यानी परंपरा और चलन के मुताबिक शब्दों की वर्तनी में आप कितनी गलतिय़ां करते हैं या नहीं। हालांकि आज के दौर में परंपराएं ढहती जा रही हैं और चलन में जो कुछ ज्यादा हो, उसी पर मुहर लगाने का रिवाज चल पड़ा है, ऐसे में शुद्धतावादी दृष्टिकोण जारी रख पाना कठिन होता है क्योंकि उसे अक्सर चुनौतिय़ां मिलती हैं औऱ अपने को सही साबित करने के तर्क-वितर्क और कुतर्क में पड़ना सुधी जन जरूरी नहीं समझते । ऐसे में शब्दों की सही वर्तनी किसी वरिष्ठ सहयोगी की समझ और जानकारी से तय होती है या फिर इसके लिए गूगल सर्चका सहारा लिया जाता है, जहां जिस वर्तनी की बहुतायत हो, उसे सही मानकर झगड़ा खत्म कर दिया जाता है। आजकल न तो समाचार चैनलों में किताबों लायब्रेरी की जगह रही, जहां आपको हिंदी के शब्दकोश और थिसॉरस में वर्तनी और अर्थ तलाशने को मिले, ना ही आपके पास इतना वक्त होता है कि आप कहीं और से एक शब्द की समस्या का निदान तलाश सकें। ऐसे में सब कुछ स्क्रिप्ट लिखनेवाले और उसे चेक करनेवाले वरिष्ठ के विवेक पर निर्भर करता है और जो कुछ चलन में आ जाता है, वही सही मान लिया जाता है। दसेक साल पहले तक अखबारों के समान समाचार चैनलों में भी स्टाइल बुक के आधार पर चलने की परंपरा थी, जिनमें तमाम अधिक व्यवहार में आनेवाले शब्दों की सही या चैनल में स्वीकार्य वर्तनियां दी गई रहती थीं, और कर्मचारियों को उन्हीं का इस्तेमाल करना पड़ता था, ताकि प्रसारण में टेक्सट की एकरूपता बनी रहे। लेकिन आज के दौर में ये परंपरा खत्म हो चुकी है, लिहाजा जिम्मेदारी हरेक व्यक्ति की खुद की है कि वो किस आधार पर किसी शब्द या वर्तनी का इस्तेमाल कर रहा है और क्या वो संस्थान में स्वीकार्य है?
बहरहाल वर्तनी के विवाद से जूझना स्क्रिप्ट लिखनेवालों के रोजमर्रा के काम में शामिल है। लेकिन इससे बड़ा या यूं कहें कि जरूरी जो मुद्दा है, वो खबरों का है। अनुभवी संवादादाओं की ओर से भेजी जानेवाली जानकारियों में आमतौर पर खबरें स्पष्ट होती हैं औऱ उनका एंगल तय होता है। लेकिन बाकी तमाम संवाददाताओं की ओर से आनेवाली जानकारियों के पुलिंदे से खबर निचोड़ना तो वास्तव में न्यूज़ डेस्क पर बैठे खबर लिखनेवाले शख्स पर ही निर्भर होता है। यही नहीं, अंग्रेजी या दूसरी भाषाओं के आइटम से अपने लिए खबर निकालना भी स्क्रिप्ट राइटर की जिम्मेदारी है। हां, इस काम में वो न्यूज़ डेस्क और चैनल के वरिष्ठ सहयोगियों की मदद ले सकता या खबर का एंगल तय करने में उनसे अपने विचार की मंजूरी ले सकता है। मसलन, उदाहरण के तौर पर रोजाना आनेवाली हादसों से जुड़ी खबरों की बात करें, तो उनमें समानता दिखती है। ऐसे में ये कहना कि अमुक जगह हादसा हुआ है, ये खबर नहीं है। खबर तो हादसे में हुए नुकसान, उसकी प्रचंडता और उसके असर से बनती है यानी अगर किसी हादसे में काफी संख्या में लोग मारे गए, या फिर ऐसा हादसा हुआ, ऐसी टक्कर हुई , जो पहले कभी या आमतौर पर देखी नहीं गई, या हादसे में किसी मशहूर शख्सियत की जान गई..ये तमाम ऐसे एंगल हो सकते हैं, जो खबर की पहली लाइन में होने चाहिए। कच्ची स्क्रिप्ट में अमूमन ये सब स्पष्ट नहीं होता औऱ होता भी है, तो कौन सी लाइन पहले होनी जरूरी है, और कौन सी बाद में, ये तो स्क्रिप्ट या कॉपी लिखनेवाले को ही तय करना पड़ेगा। इसी तरीके से अगर किसी खबर से जुड़ा कार्यक्रम तैयार करना हो. तो उसे कितने हिस्सों में यानी कितनी स्टोरीज़ में बांटा जाए और हरेक स्टोरी में क्या एंगल हो, किस तरह के विवरण दिए जाएं, कितनी नाटकीयता हो, कितना भावात्मक लहजा हो और क्या क्रम हो, ये पूरी योजना प्रोड्यूसर के साथ मिलकर या फिर खुद स्क्रिप्ट राइटर को तय करनी पड़ती है ताकि कार्यक्रम में आइट्म्स का तालमेल बना रहे और कहीं कुछ बिखरता हुआ नज़र न आए। इसके अलावा आजकल एक बात और ध्यान देने लायक है कि एक ही खबर को तमाम अलग-अलग किस्म के, अलग अलग मूड के, अलग-अलग फॉरमेट वाले बुलेटिन्स या समाचार आधारित कार्यक्रमों में इस्तेमाल किया जाता है, ऐसे में उनकी स्क्रिप्ट भी उसी हिसाब से बदलनी होती है। मसलन, स्टोरी पैकेज के लिए खबर की डेढ़ मिनट की जो स्क्रिप्ट होगी, उसे न्यूज़ शतक में हेडलाइन के अंदाज में लिखी 5 लाइनों में समेटना होगा, तो मध्यम फटाफट अंदाज वाले स्पीड न्यूज़ बुलेटिन में 6-7 लाइनों में। अगर आप टेलीविजन पर समाचार के अलग-अलग बुलेटिन देखते हैं, तो फर्क आसानी से समझ सकते हैं। उसी एक खबर को 10 हिस्सों में तोड़कर न्यूज़ टिकर और न्यूज़ स्क्रॉल में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसे में भाषा तो बदल जाएगी। कहीं सीधी-सपाट लाइनें होंगी, तो कहीं विस्तार होता, और कहीं तुकबंदी के मेलवाली भाषा जिसमें प्रवाह हो। तो लिखनेवाला एक ही आदमी हो, या अलग-अलग लोग हों, उन्हें इस फर्क को समझना होता है और जरूरत के मुताबिक स्क्रिप्ट लिखनी होती है। आमतौर पर अभ्यास में आने पर इन बारीकियों की ओर ध्यान नहीं जाता, लेकिन वास्तविकता यही है और इसका कोई किताबी सिद्धांत शायद ही कहीं मिले, क्योंकि ये आवश्यकता और अनुभव के आधार पर विकसित की गई पद्धति है, जो हरके समाचार चैनल में अलग-अलग हो सकती है, क्योंकि नकल करने से हर कोई बचना चाहता है, और अपनी खास शैली विकसित करना चाहता है। पर ये भी सच्चाई है कि आजकल स्क्रिप्ट लेखन के लिए ऐसी प्रोफेशनल ट्रेनिंग भी नहीं मिलती जिनमें इतनी बारीकी बताई जाए और इस तरह से स्क्रिप्ट लेखन के ढांचे बने बनाए हों, जो हर चैनल में चलनेवाले हों। तो ये स्क्रिप्ट लेखक की समझदारी और नए-नए तरीके विकसित करने की उसकी सोच पर ही निर्भर करता है कि वो किस बुलेटिन या कार्यक्रम के लिए किस तरह स्क्रिप्ट लिखे। इस मामले में किसी तरह की आलोचना या किसी नएपन को सराहे जाने की गुंजाइश तब तक नहीं होती, जब तक कि कोई नया तरीका लगातार प्रैक्टिस में न देखा जाए। और एक कड़वी सच्चाई तो ये भी है कि आज के दौर में इतने ज्यादा प्रयोग हो रहे हैं और टेलीविजन समाचार प्रसारण की रफ्तार इतनी तेज़ हो चुकी है कि वीडियो और ऑडियो के बीच स्क्रिप्ट की पहचान ही सीमित होती जा रही है। स्क्रिप्ट की अहमियत उन मौकों पर झलकती है, जब खबर वीडियो और ऑडियो के स्तर पर कमजोर हो या सीमित हो या फिर खास कार्यक्रम के तानेबाने में उसका ट्रीटमेंट किया जा रहा हो, तभी दर्शक ठहरकर स्क्रिप्ट की लाइनें सुनने औऱ खबर की प्रासंगिकता के बारे में सोचने और विचार करने पर मजबूर होता है। यहां ये भी बात ध्यान देने की है कि खबर के ट्रीटमेंट की परिकल्पना भी स्क्रिप्ट के हिसाब से ही तय होती है न कि ट्रीटमेंट के हिसाब से स्क्रिप्ट लिखी जाती है, क्योंकि आखिर वीडियो के अलावा टेक्स्ट और ग्राफिक्स से जुड़े दूसरे तत्व भी तो स्क्रिप्ट का ही हिस्सा होते हैं, जो खबर की परतें खोलने, उसे समझने लायक बनाने में मददगार होते हैं।

        समाचार चैनलों के लिए स्क्रिप्ट या कॉपी लेखन की सीमा है और ये सीमा खबरों पर केंद्रित रहने, उन्हीं के इर्द-गिर्द रहने की है। लेकिन ये समझना और जानना जरूरी है कि आखिर स्क्रिप्ट राइटर या कॉपी राइटर का पदनाम आया कहां से। मूल रूप से ये टर्म सिनेमा और रंगमंच की पैदाइश है, जहां एक्शन और तस्वीरों को शब्दों में ढालने की कोशिश होती है या फिर शब्दों के मुताबिक तस्वीरों और एक्शन का सिक्वेंस तैयार किया जाता है। टेलीविजन समाचार भी चुंकि विजुअल माध्यम है, यानी खबरों को वीडियो और तस्वीरों के जरिए पेश करना है, तो यहां भी उनके मुताबिक शब्दों का और शब्दों के मुताबिक वीडियो और तस्वीरों का तालमेल बिठानेवाले खास लोगों की जरूरत होती है जो न्यूज़ राइटर कहलाते हैं। अब के दौर में चुंकि समाचार प्रसारण में भी नाटकीयता और कल्पनाशीलता का काफी इस्तेमाल होने लगा है, ऐसे में अच्छे स्क्रिप्ट राइटर्स की जरूरत बढ़ी है। यानी ऐसे लोग जो खबरों को खबरों तक सीमित न रखें, बल्कि उन्हें विस्तार दें, और ड्रामे या फिल्म के तानेबाने में उन्हें पेश करने की कोशिश करें। खबर आधारित ऐसे कार्यक्रमों की योजना और परिकल्पना भले ही प्रोड्यूसर्स की जिम्मेदारी है, लेकिन उन्हें शब्दों में पिरोना तो अच्छे स्क्रिप्ट लेखक ही जानते हैं जो प्रोड्यूसर्स की ओर से बताई गई लाइन पर शानदार स्क्रिप्ट तैयार करते हैं। कई बार तो अच्छे प्रोड्यूसर्स खुद ही बेहतरीन स्क्रिप्ट्स भी लिखते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी परिकल्पना के मुताबिक शो को साकार करने में इससे मदद मिलती है। समाचारों से जुड़े छोटे कार्यक्रमों के मामले में अक्सर प्रोड्यूसर्स ही पूरी स्क्रिप्ट लिखते पाए जाते हैं। वैसे ये व्यवस्था सुविधा और आपसी तालमेल पर आधारित हैं। लेकिन इतना जरूर है कि स्क्रिप्ट चाहे जो भी लिखे, उसे विषय वस्तु और पृष्ठभूमि की पुख्ता जानकारी होनी चाहिए और तथ्यों की जानकारी भी दुरुस्त होनी चाहिए, तभी वो कार्य़क्रम के साथ न्याय कर सकेगा, अन्यथा लच्छेदार भाषा की हवाबाजी के जरिए वो कार्यक्रम को कुछ भावनात्मक भले ही बना सकता है, लेकिन उसमें गहराई नहीं होगी और मजबूती नहीं होगी, ये तय है। ऐसे में खबर आधारित कार्यक्रम की स्क्रिप्ट लिखनेवालों के लिए ये भी जरूरी है कि उनके सामने खबर से जुड़ा रिसर्च भी हो, जिसमें तमाम पहलुओं की जानकारी हो। अब कौन सी सामग्री कितनी और कहां इस्तेमाल करनी है, ये तो पाककला के विशेषज्ञ के समान स्क्रिप्ट लेखक को ही तय करना होगा, नहीं तो जो कार्यक्रम बनेगा और परोसा जाएगा, वो दर्शकों के लिए बदहजमी पैदा कर सकता है। खबरों और उनसे जुड़े कार्यक्रमों की सधी हुई स्क्रिप्ट के लिए जरूरी है सुसंगत और दमदार भाषा, कम से कम शब्दों का ज्यादा से ज्यादा बातें कहने के लिए उचित इस्तेमाल, कल्पना और भावना को जाहिर करने के लिए शब्दों के बजाय़ विजुअल, ग्राफिक, एनिमेशन और ऑडियो से जुड़े तत्वों के इस्तेमाल की गुंजाइश छोड़ना। मौजूदा दौर में सीधी और सरल भाषा में स्क्रिप्ट लिखने का चलन है, ताकि वो तमाम दर्शक वर्ग की समझ में आ सके। साहित्यिक और लच्छेदार विशेषणों और उपमाओं से भरपूर भाषा को समाचार चैनलों के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता। साथ ही, तत्सम और संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग भी आमतौर पर वर्जित है, इनकी जगह, वैकल्पिक उर्दू या अंग्रेजी के ऐसे शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है, जो आम बोलचाल में चलन में हों। इस तरह एक बात तो स्पष्ट है कि आप किसके लिए स्क्रिप्ट लिख रहे हैं, कौन सा दर्शक वर्ग आपकी खबर या कार्यक्रम देखने और समझनेवाला है। लेकिन गौर करनेवाली बात ये भी है कि भाषा का विन्यास खबर की विधाओं के हिसाब से बदलता है। यानी जिस तरह के शब्द और वाक्य़ हार्ड न्यूज़ के लिए इस्तेमाल होते हैं, वैसे ही खेल या मनोरंजन या सॉफ्ट किस्म की खबरों में इस्तेमाल नहीं होते। खेलों से जुड़ी अपनी शब्दावली होती है, कारोबार के मामलों की खबरों के लिए भी कुछ खास शब्दों का इस्तेमाल होता है, मनोरंजन और कोर्ट कचहरी की खबरों के लिए इस्तेमाल होनेवाले शब्दों में भी काफी भिन्नता होती है, जिनकी समझ, जानकारी और इस्तेमाल का तरीका स्क्रिप्ट राइटर के पास होना बहुत जरूरी है और यही वजह भी है कि सारे स्क्रिप्ट राइटर हर विधा की स्क्रिप्ट नहीं लिख पाते। मनोरंजन की खबरें लिखनेवालों के लिए खेल और कारोबार की खबरें लिखना दुरूह होता है, वहीं सामान्य खबरें लिखनेवालों के लिए खेल और मनोरंजन की स्क्रिप्ट लिखना मुश्किल हो सकता है। वैसे फील्ड में ऐसे स्क्रिप्ट राइटर्स की भी कमी नहीं, जो हरफनमौला हैं, और हर विधा में बेहतरीन स्क्रिप्ट लिख पाते हैं। लेकिन ऐसा कैसे संभव है
? ये कोई जादू नहीं। इसका जवाब ये है कि अगर आप पढ़ाकू किस्म के आदमी हैं औऱ तमाम किस्म की खबरें पढ़ने, अखबारों को चाट डालने में दिलचस्पी रखते हैं, तो इसका सीधा असर आपकी लेखन क्षमता पर भी पड़ता है, आपका शब्द भंडार मजबूत होता है, हर मुद्दे की समझदारी विस्तृत होती है जिससे आप जरूरत और अभ्यास की बदौलत हर तरह की स्क्रिप्ट लिख सकते हैं, दूसरों की लिखी हुई स्क्रिप्ट को मांज भी सकते हैं। खासकर खबरों की दुनिया में काम करनेवालों और स्क्रिप्ट से जुड़े लोगों के लिए तो ये बेहद जरूरी है कि वो हर किस्म की खबरें और दूसरी सामग्री पढ़ने में दिलचस्पी रखें, तभी उनका भाषा ज्ञान समृद्ध होगा और वो स्क्रिप्ट लेखन पर पकड़ बना सकते हैं।
हिंदी टेलीविजन समचार जगत से जुड़े स्क्रिप्ट लेखकों की अंग्रेजी पर भी पकड़ जरूरी है, कम से कम इतनी पकड़ कि वो अंग्रेजी में लिखे अखबारी आइटम को आसानी से समझ सकें, और हर शब्द के लिए उन्हें डिक्शनरी पलटने की जरूरत न हो। ऐसा इसलिए क्योंकि हिंदी समाचारों का एक बड़ा स्रोत अंग्रेजी माध्यम में खबर देनेवाली एजेंसियां हैं। उनके आइटम से खबर निकालना या खबर बनाने के लिए अंग्रेजी के आइटम का इस्तेमाल और अनुवाद आम बात है और ये काम अच्छी तरह से तभी हो सकता है जबकि लिखनेवालों की दोनों भाषाओं पर पकड़ हो। इसके लिए भी ये जरूरी है कि आप सिर्फ हिंदी ही नहीं, अंग्रेजी के अखबार और पत्रिकाएं पढ़ने में दिलचस्पी रखें। इससे आपकी जानकारी भी बढ़ेगी और भाषा को समझने औऱ उसके उपयोग की ताकत भी। आमतौर पर हिंदी समाचार माध्यमों में ऐसा पाया जाता है कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़े लिखे लोग हिंदी में शानदार तरीके से काम करते हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि हिंदी पर तो उनकी पकड़ मातृभाषा होने की वजह से रहती ही है, अंग्रेजी माध्यम में औपचारिक पढ़ाई से उनकी अंग्रेजी की समझ भी बेहतरीन होती है, जिसका उन्हें न सिर्फ स्क्रिप्ट लेखन में बल्कि समाचार चैनलों के व्यावहारिक कामकाज और अपनी खुद की अभिव्यक्ति में भी फायदा मिलता है और वो ज्यादा तेजी से उन्नति के पथ पर अग्रसर होते हैं। देश में सरकारी कामकाज के लिए और संपर्क भाषा के तौर पर भी अंग्रेजी का वर्चस्व है, लिहाजा अंग्रेजी पर पकड़ हो तो आप हिंदी टेलीविजन समाचार की वैतरणी भी आसानी से पार कर सकते हैं और न सिर्फ खबरों की स्क्रिप्ट बल्कि अपनी जिंदगी की भी बेहतरीन स्क्रिप्ट लिख सकते हैं। है ना कमाल की बात।
भाषा पर पकड़ हो तो खबर से आप आगे भी बढ़ सकते हैं और पत्रकारिता से शुरुआत करके क्रिएटिव दुनिया में हाथ आजमा सकते हैं। आजकल खबर से तमाम लोग विज्ञापन और जनसंपर्क के क्षेत्र में भी काम कर रहे है, इसकी वजह है भाषा पर उनकी मजबूत पकड़। लेखन के साथ-साथ आइडियाज़ के स्तर पर अगर आपका दिमाग तेज़ चलता है तो एंटरटेनमेंट और फिक्शन या नॉन-फिक्शन प्रोग्रामिंग के क्षेत्र में आपके लिए जगह बन सकती है। दिक्कत यही है कि लेखन को कुल मिलाकर गौण मान लिया जाता है, और दूसरे तमाम पहलू ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं, जो आगे बढ़ने में आपकी सीढ़ी का काम करते हैं। लेकिन ये बात समझनी पड़ेगी कि अगर आपमें भाषा के सही इस्तेमाल की क्षमता है, तो आपका काम कितना आसान हो जाएगा, आप न सिर्फ अपने लिये या दूसरों के लिए अच्छी स्क्रिप्ट लिख सकते हैं, बल्कि आप सही तरीके से संवाद भी स्थापित कर सकते हैं, Communicate कर सकते हैं, और दूसरों को प्रभावित कर सकते हैं, जिसमें आपका ही फायदा है। तो कहने का मतलब ये है कि अगर आपमें स्क्रिप्ट लेखन की क्षमता है, तो उसे निखारने औऱ उसका सार्थक इस्तेमाल करने की जरूरत है, तभी आप सच्चे अर्थों में खबर बना सकते हैं औऱ खुद भी सुर्खियों में आ सकते हैं, जैसा कि इन दिनों बॉलीवुड के कई महारथियों के मामले में देखने को मिल रहा है। तो आप स्क्रिप्ट राइटिंग को सिर्फ समाचार चैनल तक सीमित देखते हैं, या इसके विस्तार में जाना चाहते हैं, ये भी वैसे ही तय होगा, जैसे खबर की स्क्रिप्ट और उस पर आधे या एक घंटे के कार्यक्रम का तानाबाना- तय आपको करना है।
-कुमार कौस्तुभ
28.04.2013, 5.02 PM