Wednesday, April 17, 2013

TV पत्रकारिता का पहला पाठ




पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद टेलीविजन की चकाचौध भरी दुनिया में प्रवेश करने पर छात्रों को कई नए अनुभव होते हैं। किसी भी संस्थान में ऑन जॉब ट्रेनिंग या इंटर्नशिप करने के दौरान टेलीविजन पत्रकारिता के व्यवहारिक पहलुओं से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है। इसके साथ ही ये भी पता चलता है कि टेलीविजन के आयताकार पर्दे पर जो कुछ दिखता है उसका फलक असलियत में कितना लंबा-चौड़ा और विस्तृत है। कामकाज के सिलसिले की शुरुआत के साथ ही छात्र टीवी पत्रकारिता के अलग-अलग पहलुओं और बारीकियों से परिचित होते हैं जिनका इस्तेमाल करियर में लगातार होता रहता है। पढ़ाई के दौरान सैद्धांतिक तौर पर टीवी पत्रकारिता के जिन पहलुओं के बारे में सिखाया-पढ़ाया जाता है, उनकी तह में जाने का मौका काम शुरु करने पर ही मिलता है- इसके साथ ही सपनों की दुनिया के सत्य से भी साक्षात्कार होता है और मानसिकता धंधे के हिसाब से बनने लगती है। पहले छात्रों में न उतनी जागरुकता थी, ना ही टेलीविजन समाचार कारोबार का उतना विस्तार था, लिहाजा टेलीविजन पत्रकारिता सिर्फ रिपोर्टिंग और एंकरिंग तक सीमित नहीं है, ये बात न्यूज़ चैनल या प्रॉडक्शन हाउस में जाने पर ही पता चलती थी। इसके साथ ही ये तय हो जाता था कि आपको टेलीविजन पत्रकारिता के किसी भी विभाग में काम करना है, तो मूल पहलुओं पर तो सिद्धहस्त होना ही पड़ेगा। वैसे आसमान से टपके देवदूतों की तरह पर्दे पर चमकने वाले चंद गिने-चुने चेहरों के लिए ये जरूरी नहीं था, लेकिन टीवी पत्रकारिता से जुड़नेवाले आम छात्र के लिए हर पहलू पर पकड़ बनाने की चुनौती होती थी, जो आज के दौर में काफी बढ़ गई है। हालांकि समय के साथ पाठ्यक्रमों में बदलाव हुए हैं, पढ़ाई ज्यादा प्रोफेशनल हो गई है और नौकरी दिलानेवाली डिग्री या डिप्लोमा की पढ़ाई करानेवाले ज्यादातर संस्थानों में सैद्धांतिक कोर्स के अलावा उन व्यावहारिक पक्षों पर भी अधिक ध्यान दिया जाने लगा है, जिनसे काम पर जाने पर छात्रों का सीधा मतलब होता है। आजकल स्पेशलाइजेशन का जमाना है, लिहाजा ये भी अमूमन पहले ही तय हो जाता है कि अमुक छात्र रिपोर्टिंग में जाएगा या डेस्क पर काम करेगा या फिर किसी और विभाग के लायक है। ऐसे में एक धारा में आ जाने के बाद विभाग बदल पाना असंभव तो नहीं, लेकिन मुश्किल जरूर है। दूसरी चुनौती ये है कि आपने जिस विभाग को चुना, उसमें आपकी पकड़ बेहद मजबूत हो, जिसकी कोशिश में कई बरस गुजर जाते हैं और अनुभव के साथ पकड़ बनती भी है, लेकिन तब तक दूसरे क्षेत्र में जाने के लिए देर हो चुकी होती है और एक स्तर पर पहुंचने के बाद ज़ीरो से शुरुआत संभव नहीं होती। वैसे कुछ प्रतिभाशाली लोग ऐसे होते हैं, जो अपने मूल काम के साथ-साथ अपनी पसंद के दूसरे विभाग में पहचान बनाने के लिए अतिरिक्त परिश्रम करते हैं और कई बार उसका नतीजा भी बढ़िया होता है। तो टीवी पत्रकारिता का सबसे पहला पाठ तो यही है कि अपना क्षेत्र चुनें और अगर किसी वजह से पसंदीदा क्षेत्र न मिल सके, तो भी उसमें जगह बनाने के लिए प्रयत्न जारी रखें। मसलन अगर कोई छात्र रिपोर्टिंग करना चाहता है, और उसे डेस्क पर तैनात किया गया, तो भी वह अपनी दिलचस्पी के मुताबिक अतिरिक्त कोशिश कर सकता है। ये कोशिश आइडियाज़ पेश करने से लेकर अपने संपर्कों के इस्तेमाल तक पर निर्भर करती है। आप कितने चमकदार हैं इसकी परख जौहरी तभी करेगा, जब उसकी नज़र आप पर पड़ेगी, और जौहरी की नज़रों में आने के लिए आपको अपने ऊपर पड़ी धूल झाड़कर अपनी चमक और निखारनी होगी, तभी आप अपने उद्देश्य में सफल हो सकते हैं, ये कर्मवादी मान्यता है। भाग्यवादी भले ही जौहरी की परख में आने के लिए किस्मत पलटने का इंतजार कर सकते हैं। लेकिन जमाना विज्ञान, प्रबंधन का है, तार्किक है, लिहाजा ये मानना बेकार नहीं कि आप अपने कर्मों से अपनी किस्मत बदल सकते हैं। खुद को लाइमलाइट में रखने के लिए आपको मेहनत करनी होगी, आपका नजरिया तीक्ष्ण होना चाहिए, आपके हाव-भाव और बर्ताव में आक्रामकता और तेज़ी होनी चाहिए। आलस्य के लिए टेलीविजन में कोई जगह नहीं। संपादकीय पक्ष में हाथ तंग भी हो तो तकनीकी पक्ष में महारत हासिल करना बेहद जरूरी है और काम किसी भी माध्यम में करना हो, अंग्रेजी पर पकड़ बेहद जरूरी है, क्योंकि आपको अपने काम के कच्चे माल का स्रोत अंग्रेजी के जरिए ही मिलेगा।
बहरहाल, बात टीवी पत्रकारिता के पहले पाठ की हो रही थी, तो आपको बता दें कि टेलीविजन समाचारों और करेंट अफेयर्स प्रोग्राम के प्रॉडक्शन हाउस में बतौर ट्रेनी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत करते हुए सबसे पहले जिस शब्द से वास्ता पड़ा वह थी लॉगिंग। टेलीविजन की ग्लैमर भरी दुनिया में जगह बनाने के लिए हसरत भरी निगाहों से न्यूजरूम को निहारते हुए ट्रेनी के लिए लॉगिंग का सबक बेहद ऊबाऊ हो सकता है। ऑडियो-वीडियो टेप के साथ घंटों माथापच्ची और क्लर्क की तरह विजुअल का हिसाब-किताब रखने का काम ऐसा प्रतीत होता है, जैसे किसी टेलीविजन चैनल में नहीं, किसी रूटिन दफ्तर में काम करना हो। ये काम कुछ ऐसा ही है जैसे पढ़ाई शुरु कर रहे बच्चे को तस्वीर बनाने को कहें, तो काफी दिलचस्पी से वो मजे में आड़ी-तिरछी आकृतियां खींचकर आपको दिखा सकता है, लेकिन आप कहें कि वो दो पन्ने लिखना लिखकर दिखाए ताकि हैंडराइटिंग की प्रैक्टिस हो, तो वो भाग जाएगा। सीधे सरल शब्दों में लॉगिंग विजुअल्स के हिसाब-किताब रखने का खेल है। ये काम वैसे तो समाचार चैनलों की लाइब्रेरी से जुड़ा हुआ है, जहां शूट करके लाए गए तमाम वीडियो टेप की फेहरिस्त और पूरी जानकारी रखी जाती है ताकि उन्हें बाद में कभी इस्तेमाल करना हो, तो आसानी से तलाशा जा सके। लेकिन किसी रिपोर्टर या फिर डेस्क पर काम करनेवाले किसी स्क्रिप्ट राइटर या प्रोड्यूसर के लिए भी ये काम काफी महत्वपूर्ण है। इसकी अहमियय इस मामले में है कि जब भी आप किसी स्टोरी की तैयारी करते हैं, तो आपको ये पता होना चाहिए कि उसमें कौन से विजुअल इस्तेमाल होंगे, कौन सी बाइट्स इस्तेमाल होंगी और ये सब कहां मिलेंगे। जाहिर है, यदि किसी रिपोर्टर ने स्टोरी कवर की है, तो उसके शूट टेप में ही ये चीजें होंगी। अब सवाल है कि शूट टेप आधे घंटे से लेकर 3 घंटे तक की रिक़ॉर्डिंग वाले हो सकते हैं और स्टोरी कवरेज के दौरान उनमें शूटिंग भी इतनी या ज्यादा भी यानी कई टेपों में हो सकती है। ऐसे में अगर आपके ऊपर स्टोरी बनाने की जिम्मेदारी है तो आपके लिए सही विजुअल और बाइट तलाशना तब तक काफी मुश्किल और काफी समय खर्च करनेवाला काम होगा, जब तक कि आपके पास आपके इस्तेमाल के लायक जरूरी विजुअल-बाइट की जगह का पता-ठिकाना यानि घंटे, मिनट, सेकेंड और फ्रेम के बारे में जानकारी न मालूम हो। ये काम लॉगिंग के जरिए आसान हो जाता है। वीडियो टेप्स पर रिकॉर्डिंग घंटे, मिनट, सेकेंड और फ्रेम की समयबद्धता में होती है। लॉगिंग वो प्रक्रिया है जिसके तहत टेप पर रिकॉर्डेड वीडियो फुटेज को भली-भांति देखकर उनमें छिपे कंटेंट की जानकारी को टाइमिंग के मुताबिक आगे के इस्तेमाल के लिए कागज पर लिख लिया जाता है। यानी कोई खास विजुअल शॉट्स वो कितने मिनट, कितने सेकेंड और कितने फ्रेम पर है, और कहां से कहां तक कितनी अवधि का है, इसका टाइम कोड कागज पर सारणी बनाकर अंकित करना होगा। स्टोरी की वीडियो एडिटिंग के वक्त ये जानकारी काम आती है और हमें पूरे घंटे या दो घंटे की टेप देखने की जरूरत नहीं होती। साथ ही जितनी जरूरी फुटेज हो, उतनी ही हम अपने काम के लिए अलग कर सकते हैं, उसे टेप से कंप्यूटर में स्टोर कर सकते हैं। ये प्रक्रिया डंपिंग .या इंजेस्टिंग कहलाती है और इसके लिए टेप की लॉगिंग बेहद जरूरी है। लॉगिंग तो कंप्यूटर सिस्टम्स में पड़े वीडियो फुटेज की भी करनी जरूरी होती है, ताकि आप अपनी स्टोरी में उन्हें जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल कर सकें। वीडियो एडिटर को अगर आप ये निर्देश देना चाहते कि कंप्यूटर में पड़े सैकडों-हजारों वीडियो क्लिप्स में से किसी खास शॉट का इस्तेमाल उसे करना है, तो उसे उस क्लिप की आइडेंटिफिकेशन नंबरिंग और शॉट्स के टाइम कोड लॉग करके देने होंगे। यानी क्लोज अप्स, मिड श़ॉट, लांग शॉट, कटवेज़ वगैरा सबकी जानकारी लॉग करके रखी जा सकती है। यही बात बाइट्स के लिए भी लागू होती है कि किसी बाइट का कितना बड़ा हिस्सा कहां से कहां तक इस्तेमाल करने योग्य है, उसके बारे में पता तभी होगा, जब उसका निश्चित टाइम कोड लॉगिंग के जरिए स्टोरी एडिट होने से पहले ही निकाला जाए। अन्यथा काम की एक बाइट निकालने के लिए घंटों लंबा भाषण सुनना पड़ सकता है और इस प्रक्रिया में काफी वक्त बर्बाद हो सकता है। अनुभवी और समझदार रिपोर्टर्स तो कवरेज के दौरान ही इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनके काम की बाइट या विजुअल टेप में कितनी देर पर हो सकते हैं। यानी आधे घंटे की रिकॉर्डिंग में अगर ये अंदाजा हो, कि काम की बाइट 15वें मिनट के आसपास शुरु होती है, तो स्टोरी एडिटिंग में बड़ी आसानी होगी। लिहाजा तमाम संस्थानों में एडिटिंग से पहले टेप या विजुअल-बाइट की लॉगिंग की परंपरा चली आ रही है और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इतनी बड़ी जिम्मेदारी का काम नए ट्रेनी रंगरूटों को अक्सर सौंपा जाता है। इसके पीछे ये मानसिकता नहीं होती कि वो और कुछ नहीं कर सकते, बल्कि ये उनके अनुभव के लिए जरूरी है। टेप की लॉगिंग करते हुए तमाम किस्म के विजुअल्स से परिचित होने का मौका मिलता है, तमाम शख्सियतों और जगहों की जानकारी होती है जिन्हें बार-बार देखने पर आप आगे चलकर आप अपनी याद्दाश्त के मुताबिक खुद पहचान सकते हैं। साथ ही लंबे समय तक टेलीविजन में काम करने के लिहाज से ये भी कम अहम नहीं है कि लॉगिंग करते हुए आपके मानस-पटल पर कई विजुअल्स, और यहां तक कि कार्यक्रमों के बारे में भी ये जानकारी अंकित हो जाती है कि वो किस तारीख को कहां से आए हैं और किस टेप में संग्रहित हैं। ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि इंसान का दिमाग कंप्यूटर है जिससे सिर्फ टेप देखने भर से सारी जानकारी दिमाग में अंकित रह जाए। इसीलिए लॉगिग की प्रक्रिया में तमाम विजुअल्स, कटवेज़ और बाइट्स के टाइमकोड और टेप नंबर का इंडेक्स बनाने की परंपरा है, ताकि आप कभी भी उस दस्तावेज के जरिए अपनी जरूरत का माल निकाल सकें। जैसा पहले कहा गया, शुरुआत में ये काम बड़ा उबाऊ किस्म का लगता है, लेकिन कामकाज के लिहाज से इसका अनुभव काफी मददगार साबित होता है, जब आप एक संस्थान में लंबी पारी खेलते हैं। अगर संस्थान में टेप संग्रह करके रखने की परंपरा है , तो लॉगिंग के दौरान टेप पर भी नंबरिंग की जाती है और उसमें पाए जानेवाले विजुअल-बाइट की संक्षिप्त जानकारी कागज पर लिखकर चिपका दी जाती है, ताकि बरसों बाद भी उसे तलाशने में दिक्कत न हो।
आमतौर पर लॉगिंग की प्रक्रिया इसलिए बोझिल लगती है क्योंकि इस दौरान वीडियो टेप प्लेयर या रिकॉर्डर पर टेप बार-बार चलाकर और रोक कर देखनी पड़ी है और फिर टाइम कोड संबंधी जानकारियां नोट करनी होती हैं। प्लेयर में Play, Stop, Pause, Fast Forward और Rewind के तमाम बटन होते हैं, जिनका इस्तेमाल इस प्रक्रिया में किया जाता है। shuttle control के जरिए विजुअल्स को देखने में आसानी होती है। वहीं jog control के जरिए विजुअल्स को फ्रेम-दर-फ्रेम देखने की सुविधा होती है। लॉगिंग करते वक्त हेडफोन का इस्तेमाल जरूर होना चाहिए, ताकि टेप में रिकॉर्डेड आवाज से आस-पास के दूसरे लोगों के काम में बाधा न पड़े और आप भी अपना काम सुचारू रूप से कर सकें। लॉगिंग समय लेने और थकानेवाली प्रक्रिया है, लेकिन कई बार इसके जरिए आपको दिलचस्प विजुअल्स और पूरे घटनाक्रम के वीडियो देखने का मौका मिलता है, जो स्टोरी तैयार होने के दौरान काट-छांट दिए जाते हैं। ऐसे में घटनाक्रम की वस्तुस्थिति से अवगत होने और खबर की गहराई में जाने का मौका मिलता है। लॉगिंग के बाद आप ये भी तय कर सकते हैं कि शूटिंग किसी जरूरी या खास हिस्से का किस तरह स्टोरी में इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसे में रिपोर्टर्स के लिए खुद भी अपनी कवरेज के टेप की ल़ॉगिंग करना जरूरी माना जाता है। लेकिन आमतौर पर खबरों की भागमभाग में समय की कमी की वजह से रिपोर्टर हर बिंदु पर नजर रखने के लिए लॉगिंग नहीं कर पाते हैं लिहाजा ये जिम्मेदारी डेस्क के साथियों पर आती है, जो स्टोरी को एडिट करते हैं। तो स्टोरी के साथ न्याय हो और कोई अहम बिंदु छूट न जाए इसके लिए स्टोरी एडिटिंग और स्क्रिप्टिंग से जुड़े लोगों के लिए भी लॉगिंग का उतना ही महत्व है। लॉगिंग टीवी पत्रकारिता का पहला पाठ है और इसकी जरूरत अंत तक पड़ती है यानी खबर या कार्यक्रम प्रसारित होने या उसके बाद उनकी मॉनिटरिंग से जुड़े लोगों के लिए भी इसकी जरूरत होती है। एक खबर से जुड़ी कई खबरें आनेवाले दिनों में आगे तक आ सकती हैं, ऐसे में अगर किसी व्यक्ति ने किसी खबर के रॉ मैटिरियल यानी शूट टेप और रिकॉर्डेड सामग्री की लॉगिंग की है, तो खबर की कड़ियों को जोड़ना उसके लिए आसान हो जाता है। ये सतत प्रक्रिया है जिसे टीवी पत्रकारिता में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और ऐसा अभ्यास है जो आपकी स्मरणशक्ति को भी धारदार बना सकता है। भरोसा न हो तो खुद अनुभव करके देखिए।
अब तो ऐसे ‘Logger’ जैसे स़ॉफ्टवेयर भी आ गए हैं, जिनमें टेलीविजन का हर घंटे के कार्यक्रम खुद रिकॉर्ड होकर सर्वर में संग्रहित होते रहते हैं। जब भी जरूरत हो, तब तारीख और समय के आधार पर ‘Logger’ में रिकॉर्डिंग देखी जा सकती है। लेकिन अगर स्टोरी एडिटिंग के लिए कोई सामग्री इस्तेमाल करनी है, तो शूट टेप या लाइब्रेरी टेप की लॉगिंग से ही काम आसान होगा। आजकल टेप पर रिकॉर्डिंग का रिवाज खत्म होता जा रहा है, और कैमरों में कंप्यूटर आधारित रिकॉर्डिंग डिस्क, चिप और माइक्रो SD कार्ड्स का इस्तेमाल होने लगा है, लेकिन 10 -15 साल पहले से बीटा, DG बीटा, हाई-8, से लेकर अब तक DV और मिनी DV टेप्स पर शूटिंग और रिकॉर्डिंग की परंपरा रही है। कई टेलीविजन चैनलों की लायब्रेरीज़ में पड़े ऐसे हजारों टेप्स में देश के तमाम घटनाक्रमों के दस्तावेजी सबूत भरे पड़े हैं, जो जरूरत पड़ने पर तलाशे जाते हैं और इस्तेमाल किए जाते हैं।  
-          कुमार कौस्तुभ
17.04.2013, 5.12 PM

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