Friday, April 19, 2013

न्यूज़ रूम बनाम ‘वॉर रूम’




न्यूज़ रूम – यानी खबरों की फैक्ट्री। टेलीविजन समाचार की दुनिया में खबरों का केंद्र होता है न्यूज़ रूम। ये वो जगह है जहां खबरें सबसे पहले आती हैं और फिर उन्हें प्रसारण के लिए तैयार किया जाता है। इस मायने में समाचार चैनलों में कामकाज का वो केंद्र होता है जहां संपादक, पत्रकार, संवाददाता, प्रोड्यूसर और समाचार प्रसारण से जुड़े तमाम कर्मचारी खबरों को जमा करने और उन्हें तराशकर प्रसारित करने का काम करते हैं। इस लिहाज से ये टेलीविजन चैनल में सबसे ज्यादा गहमागहमी वाला इलाका होता है जिसका क्षेत्रफल किसी बड़े हॉल के बराबर हो सकता है। शानदार लाइटिंग और एयरकंडिशनिंग वाले किसी शीशमहल के एक ही फ्लोर पर चंद बंद और पचासों खुले केबिन, सैकड़ों की संख्य़ा में कंप्यूटर वर्कस्टेशन, और इतने ही टेलीविजन स्क्रीन्स के अलावा हर एंगल से तस्वीरें लेनेवाले कैमरों से सज्जित हॉल आजकल आधुनिक न्यूज़ रूम की रूपरेखा पेश करते हैं। बाहर से देखने पर समाचार चैनल का ये हिस्सा जितना चमकदार और आकर्षक लगता है, अंदर जाने पर भी स्थिति देखने में वैसी ही होती है, लेकिन कामकाज के मायने में ये जगह सबसे ज्यादा डायनेमिक होती है, इसमें दो राय नहीं। इसका सबसे बढ़िया नज़ारा ब्रेकिंग न्यूज़ की स्थिति में देखा जा सकता है, जब चैनल के हर विभाग के स्टाफ खबर के पीछे भागते नज़र आते हैं और खबर को प्रसारण के अंजाम तक सबसे पहले पहुंचाने के लिए पूरे जोश के साथ जोर-शोर से लगे होते हैं। ऐसे हालात में भारतीय चैनलों के न्यूज़ रूम में शोर-शराबा भी आम बात है।
समाचार प्रसारण की दुनिया में न्यूज़ रूम का सिद्धांत पश्चिमी देशों के समाचार संगठनों और आधुनिक टेक्नॉलॉजी की देन है। वैसे तो ये भी माना जाता है कि न्यूज़ रूम का सिद्धांत जनसंपर्क माध्यमों की उपज है, जहां से खबरों को खबरनवीसों तक पहुंचाने का काम किया जाता था। लेकिन मौजूदा दौर में व्यावहारिक तौर पर देखें तो समाचारों की संपादकीय व्यवस्था और तकनीकी सुविधाओं में तालमेल बिठाने के लिए न्यूज़ रूम की शुरुआत मानी जा सकती है। यूं तो न्यूज़ रूम भी समाचार चैनल के दफ्तर का वैसा ही एक हिस्सा है जैसे अखबारों के दफ्तर होते हैं। लेकिन रोजमर्रा के कामकाज के लिहाज से आधुनिक समाचार चैनलों के न्यूज़ रूम को इस तरीके से डिज़ाइन किया जाता है ताकि खबरों के प्रवाह और उनके प्रसारण का सिस्टम सरल रेखा में गतिशील हो। अखबारों में इंटरनेट के जरिए ऑनलाइन न्यूज़ की घुसपैठ से अब न्यूज़ रूम की रूपरेखा कमोबेश एक जैसी दिखती है, लेकिन टेलीविजन चैनलों के न्यूज़ रूम में फर्क ये होता है कि वहां ऑडियो-वीडियो संपादन, प्रसारण के कंट्रोल रूम और स्टूडियो से हर पल सीधा संपर्क रहता है, जबकि अखबारों में प्रिंटिंग का काम एक समय सीमा के बाद का है और इससे हरेक कर्मचारी का मतलब नहीं होता। समाचार चैनलों में हर स्टाफ किसी न किसी तरीके से प्रसारण से जुड़ा होता है, लिहाजा न्यूज़ रूम में सबकी सक्रियता एकसमान रूप से देखी जा सकती है। हालांकि समाचार चैनल के संगठन और प्रबंधन के मुताबिक न्यूज़ रूम में कर्मचारियों और अधिकारियों की hierarchy होती है औऱ इसी के मुताबिक अलग-अलग स्तर पर काम होता है।  न्यूज़ रूम में आमतौर पर समाचार चैनल के संपादकीय़ विभाग से जुड़े लोगों के काम करने का इंतजाम होता है। यहां चैनल के एडिटर इन चीफ और मैनेजिंग एडिटर से लेकर प्रोड्यूसर्स और ट्रेनी और इंटर्न्स –सभी कांम में जुटे देखे जा सकते हैं। इस तरीके से अगर समाचार चैनलों की संपादकीय व्यवस्था पर नज़र डालें तो क्रम कुछ ऐसा बनता है-
                   एडिटर इन चीफ / मैनेजिंग एडिटर
                                ।---------------।
एग्जेक्यूटिव एडिटर      टेक्निकल हेड
                       ।-कैमरा/वीडियोएडिटिंग/साउंड/फीड
एसाइनमेंट हेड/ इनपुट एडिटर--------------आउटपुट/ न्यूज़ एडिटर/ एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर
                                              
एडिटर-------एसोसिएट एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर     एसोसिएट एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर
                                             
कॉरेसपोंडेंट/ रिपोर्टर/एंकर  सीनियर प्रोड्यूसर/ शिफ्ट इंचार्ज       सीनियर प्रोड्यूसर/ शिफ्ट इंचार्ज                                                      
            एसो. एडिटर/ प्रोड्यूसर      प्रोड्यूसर/स्क्रिप्ट/पैकेजिंग स्टाफ
                                              
सहायक प्रोड्यूसर/ प्रोडक्शन एग्जेक्यूटिव/ ट्रेनी   एसि.प्रोड्यूसर/ प्रोडक्शन एग्जेक्यूटिव/ ट्रेनी

      टेलीविजन समाचार चैनलों का न्यूज़ रूम एक बड़ा वर्कप्लेस होते हुए भी कई हिस्सों में बंटा दिखता है। दरअसल ये आधुनिक दफ्तरी कार्यप्रणाली के प्रबंधन का असर है जिसके तहत काम का बंटवारा अलग-अलग विभागों, जिन्हें चैनल में डेस्क के नाम से जानते हैं, को सौंप दिया जाता है। मसलन रिपोर्टिंग डेस्क खबरें जुटाने का काम करता है, तो एसाइनमेंट डेस्क उन्हें न्यूज डेस्क तक पहुंचाने का। न्यूज़ डेस्क से जुड़ा कॉपी डेस्क खबरों की स्क्रिप्टिंग का काम देखता है, तो पैकेजिंग डेस्क से जुड़े लोग उनकी ऑडियो-वीडियो एडिटिंग की प्रक्रिया पूरी करते हैं। रिपोर्टिंग से भी जुड़े कई डेस्क होते हैं- राष्ट्रीय मसलों से जुड़ी खबरों के लिए नेशनल ब्यूरो और पॉलिटिकल डेस्क, अपराध की खबरों के लिए क्राइम डेस्क, महानगरों के लिए मेट्रो डेस्क, मनोरंजन की खबरों का जिम्मा एंटरटेनमेंट डेस्क पर होता है, तो बिजनेस से जुड़ी खबरें बिजनेस डेस्क और खेल से जुड़ी खबरें स्पोर्ट्स डेस्क देखता है। इसके अलावा एक रिसर्च डेस्क भी होता है, जो एक तरफ सभी विभागों को किसी भी जरूरी मुद्दे पर शोध-सामग्री मुहैया कराता है, तो साथ ही तमाम समाचार चैनलों की मॉनिटरिंग भी करता है, ताकि ये पता लगाया जा सके कि कौन सी खबर किस चैनल ने उठाई, हमने उठाई, कहां हम आगे रहे और कहां पिछड़े, किन चैनलों पर प्राइम टाइम में कौन सी खबरों को प्रमुखता दी गई। एसाइनमेंट डेस्क जहां एक ओर अलग-अलग रिपोर्टिंग डेस्क की खबरों को न्यूज़ डेस्क को सौंपता है, वहीं दूसरी एजेंसियों और स्रोतों से आनेवाले समाचार का भी प्रबंधन करता है। इसके अलावा हर दिन कौन सी प्रमुख खबरों के प्रसारण की तैयारी होगी और आनेवाले दिन का क्या एजेंडा होगा, ये भी एसाइनमेंट डेस्क की मार्फत ही तय होता है। एसाइनमेंट डेस्क तमाम ब्यूरो के संपर्क में रहता है और खबरों से जुड़े सीधे प्रसारण और कवरेज के लिए कैमरा यूनिट और आउटडोर ब्रॉडकास्टिंग वैन इत्यादि को भी तैनात करने और उनके प्रबंधन का जिम्मा एसाइनमेंट डेस्क पर ही होता है। इसके अलावा एसाइनमेंट डेस्क न्यूज़ डेस्क की ओर से किसी खास खबर पर मांगी गई इनपुट सामग्री मुहैया कराने का भी इंतजाम करता है। खास खबरों पर खास कार्यक्रमों की तैयारी के लिए न्यूज़ डेस्क से ही जुड़ा स्पेशल डेस्क भी कई चैनलों में बनाया जाता है, साथ ही आम चुनाव, बजट और कई हफ्ते चलनेवाली खास घटनाओं को लेकर भी समय-समय पर खास डेस्क बनाए जाते हैं और विशेषज्ञ जानकार पत्रकारों और समाचार कर्मियों को वहां तैनात किया जाता है।
समाचार चैनलों में न्यूज़ रूम साल के 365 दिन, सातों दिन , चौबीसों घंटे चालू रहता है, यहां शिफ्टों में काम होता है और कामकाज के बंटवारे और शिफ्ट की जरूरतों के मुताबिक संपादकों से लेकर नीचे तक के स्टाफ की संख्या निर्धारित होती है जिन पर रोजाना के कामकाज को अंजाम देने की तैयारी होती है। हर आनेवाले दिन के लिए एक दिन पहले डे प्लान बनाने की परंपरा है, जिसमें अगले दिन की प्रमुख खबरों की कवरेज और एजेंडे का जिक्र होता है और इसके साथ ही ये तय हो जाता है कि अगले 24 घंटों के लिए मोटामोटी किस तरह से बुलेटिन और कार्यक्रमों की तैयारी करनी है, किन खबरों को कितना महत्व देना है, किस तरह कवरेज होनी चाहिए। लेकिन हमेशा ये पहले से तय नहीं होता कि खबर कब और कहां से आएगी। ऐसे में असलियत में कोई खबर आने पर कितनी तेजी से उस पर काम होता है, यही तय करना न्य़ूज़ रूम की सबसे बड़ी प्राथमिकता होती है और यही सबसे बड़ी चुनौती भी होती है कि अपनी संपादकीय नीतियों के दायरे में किस खबर को किस तरीके से पेश करना है, कौन सी खबर बड़ी है और उसे कितना विस्तार दिया जा सकता है। इस सिलसिले में तैयारी के लिए अमूमन हरेक समाचार चैनल में रोजाना सुबह 11 बजे तक संपादकों और वरिष्ठ स्टाफ की बैठक होती है जिसमें दिन की खबरों के मुताबिक प्राइम टाइम और रात तक के बुलेटिन और कार्यक्रमों का एजेंडा तय किया जाता है। संचार माध्यमों का काफी विकास हो चुका है और अगर तमाम जरूरी लोग एक साथ एक जगह न मिल सकें, तो अब मोबाइल फोन और वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए भी बैठकें आसान हो गई हैं। ऐसे में इस तरह की बातचीत फोन और कांफ्रेंसिंग के जरिए भी हो जाती है और न्यूज़ रूम का कामकाज सुचारू रूप से चलता रहता है। ऐसी बैठकें दोपहर और शाम के वक्त भी होती हैं जिनमें विकसित हो रही खबरों और आनेवाली खबरों के एजेंडे पर विचार होता है। समाचार चैनलों में एजेंडा तय करने की ये शैली काफी हद तक उस वॉर रूम के सिद्धांत से मेल खाती है, जहां सेना के जनरल अपने कारिंदों के साथ बैठकर रणनीति बनाते हैं। खबरों की दुनिया में भी गलाकाट जंग रोजाना चलती रहती है इसलिए समाचार चैनलों के रणनीतिकार भी केबिन में रोजाना अपनी बैठकों के दौरान खबरों से खेलने की रणनीतिय़ां तय करते रहते हैं। नए आइडियाज़ पर बात होती है। किसी खबर के क्या-क्या एंगल होंगे, उसकी ब्रैंडिंग क्या होगी, खबर से जुड़े कार्यक्रमों के शीर्षक क्या होंगे, उन पर कहां-कहां से इनपुट आएगा, किन विशेषज्ञों से उस पर चर्चा होगी, खबर पर बातचीत के लिए कौन से लोग मेहमान के तौर पर स्टूडियो में बुलाए जा सकते हैं- इन तमाम मुद्दों पर बनी रणनीतियों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए न्यूज़ रूम के एक कोने से दूसरे कोने तक तमाम स्टाफ सक्रिय देखे जा सकते हैं। समाचारों का निर्माण और प्रसारण सतत प्रक्रिया है, लिहाजा न्यूज़ रूम के स्टाफ को चैन कहां- एक खबर को अंजाम तक पहुंचाया , तो दूसरी खबर आ गई और उस पर काम शुरु..ये प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है। कोई भी स्टाफ लगातार चौबीस घंटे काम नहीं कर सकता , इसलिए फैक्ट्रियों की तरह ही न्यूज़ रूम में शिफ्टों में काम कराने की व्यवस्था है ताकि बचा हुआ और आगे का काम अगली शिफ्ट के स्टाफ देखें और आगे की तैयारी करें, हैंडओवर-टेकओवर की व्यवस्था हरेक शिफ्ट के शुरु और अंत में लागू होती है और तमाम बातें रिकॉर्ड में दर्ज रहें, कोई जरूरी बात मिस न हो जाए, इसलिए आंतरिक ई-मेल के जरिए न्यूज़ ग्रुप में उन्हें सर्कुलेट करने की भी परिपाटी है। न्यूज रूम के अलग-अलग विभागों के बीच भी ई-मेल के जरिए ही जानकारियों के आदान-प्रदान और जरूरी मुद्दों पर वार्तालाप की प्रक्रिया है, ताकि हर दफ्तरी मामले का लिखित रिकॉर्ड मौजूद रहे और हर आदमी की जवाबदेही तय रहे। न्यूज़ रूम की ये पूरी व्यवस्था किसी लिखित किताबी ज्ञान का परिणाम नहीं है, बल्कि आधुनिक तकनीकी और संचार सुविधाओं के विकास और इस्तेमाल से हासिल अनुभव के जरिए ये व्यवस्था बनाई गई है जिसमें निरंतर सुधार और बदलाव की गुंजाइश रहती है।                           
भारत में पिछले तीन-चार दशकों में टेलीविजन समाचार प्रसारण के विकास के साथ ही संपादकीय व्यवस्था में भी काफी बदलाव आए हैं और इसका सीधा असर टेलीविजन न्यूज़ रूम पर देखा जा सकता है।  खास कर कंप्यूटरों और इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ने से एक तरफ जहां कर्मचारियों की क्षमता के उपयोग में बदलाव आए हैं, वहीं काम काफी हद तक आसान होते जा रहे हैं। पहले जहां कई काम के लिए अलग-अलग लोग रखे जाते थे, वहीं अब एक कर्मचारी अकेले कई काम करने में सक्षम पाया जाता है। कामकाज निपटाने में लगनेवाला समय भी काफी घट गया है जिससे तय डेडलाइन में खबर से जुड़ी चीजों की तैयारी आसान हो गई है। स्मार्टफोन और इंटरनेट आधारित टैबलेट कंप्यूटरों का इस्तेमाल बढ़ने के साथ ही न्यूज़ रूम का दायरा भी अब सिमटने लगा है और ऐसा वक्त भी आते देर नहीं लगनेवाली है जब न्यूज़ रूम की  वॉर रूम जैसी रणनीति बनाने की व्यवस्था हथेलियों पर पड़े फोन और टैबलेट पर निर्भर हो जाए। अमेरिकन जर्नल्जिम रिव्यू के लेख Reinventing the Newsroom  में इस स्थिति की चर्चा की गई है और इसके पड़नेवाले असर के बारे में कहा गया है-
‘Some journalists are already talking about the "virtual newsroom," where reporters and editors connect electronically and don't even need a place to gather. Other editors foresee the newsroom as a giant information factory, turning out material not just for a newspaper but for specialty publications, audio text, faxes, cable broadcasts, databases and who-knows-what else.’[1]

इसके बावजूद समाचार प्रसारण की व्यावहारिक प्रणाली को अंजाम देने के लिए न्यूज़ रूम का दफ्तरी रूप चलन में रहेगा बल्कि इसका और विकास होगा और ये समाचार प्रसारण केंद्र की महती भूमिका अदा करने लगेगा। अभी भी कई समाचार चैनलों के बुलेटिन आधारित कार्यक्रमों के दौरान न्यूज़-रूम से खबरों के सीधे प्रसारण देखने को मिलते हैं, जिनमें आम दर्शक न्य़ूज़ रूम मे काम कर रहे लोगों की झलक देख सकते और अपने मन में एक छवि बना सकते हैं कि आखिर समाचार चैनलों के न्यूज़ रूम कैसे होते हैं, लेकिन कैमरे के जरिए टीवी स्क्रीन पर जो दिखता है, वो सिर्फ झलक भर है, पूरी खबर तो न्यूज़ रूम के उन तमाम हिस्सों में छिपी रहती है, जो कैमरे की जद में नहीं आते। न्यूज़ रूम समाचार चैनल का ऐसा हिस्सा है, जहां चौबीसों घंटे बात सिर्फ खबरों की होती है, बाकी गॉशिप या दूसरे मुद्दे चाय की दुकानों पर या कैंटीन में डील किए जाते हैं। खबरों के माहौल में खबरों की चर्चा सार्थक है और ये स्टाफ के वक्त का सदुपयोग भी है।
न्यूज़ रूम की व्यवस्था से जुड़ा एक बड़ा मुद्दा है खबरों से जुड़े फैसले लेने का। न्यूज़ रूम के बड़े अधिकारी हमेशा यहां मौजूद नहीं रहते, लिहाजा शिफ्ट प्रभारियों पर खबरों के प्रसारण और ट्रीटमेंट के फैसले लेने की जिम्मेदारी होती है। आम तौर पर वो इसके लिए अधिकृत भी होते हैं, लेकिन कुछ मौके ऐसे भी आते हैं, जब वरिष्ठ संपादकीय प्रमुखों की हरी झंडी मिले बगैर खबर ऑन एयर नहीं की जा सकती। ये एक उदाहरण भर है सिर्फ ये बताने के लिए कि न्यूज रूम की व्यवस्था कितनी सरल और पारदर्शी हो। या तो हर एक खबर के बारे में हमेशा प्रमुख संपादकीय सहयोगियों का निर्देश कार्यकारी स्टाफ को मिलता रहे, या फिर उनके विवेक पर भरोसा बनाए रखा जाए। मौजूदा दौर में भारतीय समाचार चैनलों के तमाम प्रमुख संपादकीय अधिकारी इस मामले में दोनों ही तरह की स्थिति लेकर चलते दिखते हैं। अब जमाना बुजुर्ग संपादकों का नहीं है। अधिकतर संपादकीय प्रमुख युवा पीढ़ी से आते हैं जिनकी खबरों के प्रति पैशन, उसकी भूख इतनी तेज़ है और खबरें सूंघने का , उन्हें पकड़ने का अनुभव इतना गहरा है कि वो एक तरफ तो ज्यादातर वक्त दफ्तर में ही गुजारते दिखते हैं और 24X7 वक्त फोन पर जरूर उपलब्ध होते हैं । ऐसे में जूनियर कर्मचारियों का काम आसान रहता है, लेकिन साथ ही उन्हें खबरों के बारे में अपनी राय भी देने की आजादी रहती है, जिससे एडिटोरियल जजमेंट में सुविधा होती है। न्यूज़ रूम में अलग-अअलग विभागों में काम बांटकर जिम्मेदारी तय़ कर दी जाती है, ऐसे में संपादकीय प्रमुख के लिए खुद हर पहलू पर पैनी और सरसरी नजर रखने की जरूरत होती, उसमें खुद को पूरी तरह शामिल करने की नहीं। अमेरिकन जर्नलिज्म रिव्यू के लेख Reinventing the Newsroom में इस स्थिति की चर्चा की गई है और कहा गया है कि नए तरीके के न्यूज़ रूम की व्यवस्था की शुरुआत कुछ इस तरह से हो सकती है- Leaders will set direction and try to create the culture for change. Newspeople will run the newsroom.’ [2]मैनपॉवर और संसाधनों का बेहतरीन इस्तेमाल हो सके इसके लिए जरूरी है हर स्टाफ की क्षमता के मुताबिक उससे काम लिया जाए। कमजोर स्टाफ की क्षमता बढ़ाने के लिए विभागों में परिवर्तन और ड्यूटी की विविधता पर ध्यान दिया जा सकता है। वहीं , ऊर्जावान स्टाफ की क्षमताओं का सदुपयोग भी उन्हें नए-नए मौके देकर किया जा सकता है। अखबारों में ऑनलाइन एडिशन का चलन शुरु होने पर न्यूज़ रूम की व्यवस्था में कुछ इस तरह के बदलाव आए हैं। वहां काम करनेवालों की भूमिका बड़ी होने लगी है। वहां एक संपादकीय प्रमुख नीतियां बनाने और लागू करने का काम करता है, तो उसके दो वरिष्ठ सहयोगी कामकाज पर नजर रखने का। और कामकाज को अंजाम देने के लिए विशेषज्ञ पत्रकार हर डेस्क पर मौजूद होते हैं, जो अपने कनिष्ठ सहयोगियों से काम पूरे करवाते हैं टीम लीडर की भूमिका में। टेलीविजन न्यूज रूम में भी नई तकनीक और कंप्यूटर आधारित ऑटोमेशन सिस्टम लागू होने से कुछ ऐसी ही व्यवस्था देखने को मिल रही है। लेकिन अखबार के मुकाबले टेलीविजन प्रसारण का फलक बड़ा होता है लिहाजा इसमें जटिलताएं भी कम नहीं हैं। बेहतरीन स्थिति तभी देखने को मिल सकती है जब पूरा का पूरा स्टाफ पूरी तरह अपनी जिम्मेदारियों को समझे औ उनका निर्वाह करे। न्यूज़ रूम में अगर भीड़ ज्यादा है और स्टाफ लापरवाह, तो अच्छे नतीजे नहीं देखने को मिलेंगे। कम स्टाफ में भी काम को बेहतरीन तरीके से अंजाम दिया जा सकता है, बशर्ते स्टाफ काम का जानकार हो और काम के प्रति समर्पित हो। ये न्यूज रूम की आदर्श स्थिति है, जो अक्सर देखने को नहीं मिलती। ऐसे में न्यूज़ रूम खबरिया रणनीति बनाने वाले वॉर रूम से अलग हटकर ऐसी जंग का मैदान बनने लगता है, जहां सहयोगियों के बीच कामकाज को लेकर ही तनाव बढ़ता है औऱ वैमनस्य की स्थिति पैदा होती है। एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में भी ऐसे तनाव और वैमनस्य आम बात हैं, लेकिन स्वस्थ प्रतियोगिता का माहौल रहे, तो फायदा संगठन को और न्यूज रूम को ही होगा।
-          कुमार कौस्तुभ
19.04.2013. 6.00 PM




[2] http://www.ajr.org/Article.asp?id=1677

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