Monday, December 30, 2013

सोशल मीडिया का संसार और संसार में सोशल मीडिय़ा-1



अपनी पैदाइश के तकरीबन 10 साल में फेसबुक और 5 साल के अंदर ट्विटर ने इंटरनेट का इस्तेमाल करनेवाले करोड़ों लोगों के बीच न सिर्फ अपनी खास जगह बनाई है बल्कि उनके लिए अपनी बात कहने का सबसे बड़ा हथियार बन गया है। न तो फेसबुक को दुनिया में लानेवाले मार्क ज़ुकेरबर्ग, डस्टिन मोस्कोवित्ज़, एडुआर्डो सवेरिन, एंड्र्यू मैकोलुम और क्रिस ह्युजेज़ और ना ही ट्विटर के संस्थापकों इवान विलियम्स, नोआ ग्लास, जैक डोर्सी और बिज़ स्टोन ने कभी ये सोचा होगा कि इन सोशल साइट्स का असर इतना व्यापक होगा, जितना अब दिख रहा है, क्योंकि इनके साथ ही या आसपास शुरु किए गए गूगल के ओरकुट, रीडिफ़ के कनेक्शन्स जैसे सोशल नेटवर्किंग साइट्स दुनिया में इंटरनेट के उपभोक्ताओं पर वैसा असर नहीं दिखा सके। इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि फेसबुक और ट्विटर को अत्याधुनिक तकनीक वाले मोबाइल फोन का सहारा मिला और दूरदर्शी तरीके से इनमें समय के साथ तकनीकी और यूज़र फ्रेंडली बदलाव भी किए गए। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि 21वीं सदी के पहले दशक के अंत तक और दूसरे दशक की शुरुआती दौर में फेसबुक और ट्विटर सामाजिक आंदोलनों के सशक्त हथिय़ार के रूप में उभरे।
चाहे वो 2011 के अरब स्प्रिंग से जुड़े आंदोलन हों या 2013 तक भारत में राजनीतिक जनजागरण से जुड़े मामले हों, फेसबुक और ट्विटर का बेशुमार इस्तेमाल सर्वत्र देखा गया। ये बात तो साफ है कि इक्कीसवीं सदी के नए दौर में दुनिया के जिस-जिस कोने में आंदोलन हुए या राजनीतिक बदलाव हुए, उनकी पृष्ठभूमि वही थी, जो हमेशा रहती है- यानी मौजूदा व्यवस्था से नाराजगी, सत्तारूढ़ दलों से नाराजगी, बदलाव की आकांक्षा, शोषण के विरूद्ध आवाज उठाने की कोशिश- चाहे वो मिस्र हो, या भारत की राजधानी दिल्ली- हर जगह फेसबुक और ट्विटर सूचनाओं और विचारों के त्वरित प्रसार और लोगों को एकजुट करने के लिए सशक्त माध्यम साबित हुए। सोशल मीडिया के जरिए मिस्र की होस्नी मुबारक सरकार के खिलाफ जनज्वार पैदा करनेवाले कार्यकर्ता भी मानते हैं कि इंटरनेट पर मौजूद ये माध्यम उनके लिए सबसे ज्यादा उपयोगी साबित हुए हैं। मिस्र के कार्यकर्ता वाएल ग्होनिम का तो साफ कहना है कि "अगर आप लोगों को आजाद कराना चाहते हैं तो उन्हें इंटरनेट दे दीजिए"
यानी अब रोटी, कपड़े और मकान के लिए सड़कों पर लड़ी जानेवाली लड़ाइयां इंटरनेट के जरिए चलनेवाली सोशल साइट्स के जरिए लड़ी जाएंगी! ये वक्तव्य विरोधाभासी हो सकता है क्योंकि इसके निहितार्थ यदि नहीं समझे गए तो मतलब गलत निकाले जा सकते हैं। आखिर, जिन लोगों को खाने के लाले पड़ रहे हों, वो भला इंटरनेट का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं? साफ जाहिर है, इंटरनेट और सोशल मीडिया का इस्तेमाल करनेवाले समाज के वो लोग हैं, वो तबका है, जिनके पास कम से कम कुछ वक्त गुजारे के लिए साधन जरूर मौजूद है। ऐसे सैकड़ों लोग एक दूसरे से मिले बगैर इंटरनेट पर मौजूद सोशल मीडिय़ा प्लेटफॉर्म के जरिए अपनी बातें आपस में शेयर करते हैं और उस आंदोलन का ढांचा तैयार करते हैं, जो अंत में सड़कों पर, चौक-चौराहों पर निकले जनसैलाब के जरिए अंजाम तक पहुंचता है।
100 लोग 1000 लोगों को 1000 लोग लाखों लोगों को आंदोलन के लिए प्रेरित करते हैं और तब जाकर आंदोलन अपनी वही शक्ल लेता है, जो हम सदियों से देखते सुनते आए हैं। यानी एक तरीके से देखें तो सोशल मीडिया सिर्फ एक जरिया ही तो है, वैसा ही जरिया जैसे पहले पर्चे, पैम्फलेट और लाउडस्पीकर या समाज के विभिन्न वर्गों, एक-दूसरे से जनसंपर्क- हुआ करते थे। ये कतई नहीं सोचा जा सकता है कि घर के बंद कमरे या दफ्तर के बंद केबिन में कंप्यूटर पर सोशल मीडिया के जरिए अपनी बात दुनिया तक पहुंचा दी- तो बदलाव आ जाएगा। उसके लिए तो सड़कों पर उतरना ही पड़ता है, रैलियां करनी पड़ती हैं, घेराव करने पड़ते हैं, लाठियां और आंसू गैस के गोले भी खाने पड़ते हैं- ठीक वैसे ही, जैसे 50 या 100 बरस पहले किसी इलाके में हुआ हो। दुनिया की बात छोड़ दें और सिर्फ देश की ही बात करें तो भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी घटनाएं हों या जयप्रकाश आंदोलन हो, या फिर मंडल कमीशन विरोधी आंदोलन, या फिर जनलोकपाल के समर्थन में या निर्भया गैंग रेप खिलाफ आंदोलन- सबकी परिणति सड़कों पर ही आकर हुई है। लेकिन, जनसमुदाय को एक जुट करने के तरीके 1857 से लेकर 2013 तक बदलते रहे हैं।
सभी जानते हैं कि भारत में सिपाही विद्रोह की तैयारी की पृष्ठभूमि में रोटियां एक जगह से दूसरी जगह भेजकर आंदोलन की अलख जगाई गई, तो स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े और आंदोलनों के लिए जनता को जगानेवाले पर्चे और अखबार सात समंदर पार तक से पहुंचाए गए। जयप्रकाश आंदोलन, मंडल कमीशन विरोधी आंदोलन तक प्रचार तंत्र और अगुवाई करनेवाले नेताओं का नेटवर्क भी बड़ा हो गया था और अखबारों के जरिए सूचना पहुंचाने और पर्चे बांटने की सुविधा भी सरल हो गई थी। 21वीं सदी में भारत के अहम आंदोलन जनलोकपाल और निर्भया के लिए जनजागरण में इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका रही इससे इंकार नहीं किय़ा जा सकता। यानी कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि तरीका बदल गया, हथियार बदल गए, लेकिन जंग तो मैदान में ही लड़ी जा रही है। अफसोस इस बात का है सूचना तंत्र और माध्यमों के सशक्त होने के बावजूद सत्ता पक्ष या सत्ता में बैठे लोग आंदोलन की हवा को या तो भांप नहीं पाते या फिर जानबूझकर उस वक्त का इंतजार करते हैं, जबकि सड़क पर संग्राम सुनिश्चित हो जाए।
सवाल है कि क्या सरकारी सूचना तंत्र सोशल मीडिया के मुकाबले नाकाम साबित हुए हैं या फिर सरकारी पक्ष को कभी सोशल मीडिया से उठ रही चिंगारी के असर का अंदाजा नहीं रहा? या फिर सरकारें इतनी संवेदनाहीन रही हैं कि जनभावनाओं को नजरअंदाज कर दें? वजहें और भी हो सकती हैं। परंतु, सोशल मीडिया की सशक्तता से सत्ता पक्ष अनजान है, य़े नहीं कहा जा सकता। न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया के और हिस्सों में भी सरकार के झंडाबरदार अब सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। चाहे वो बराक ओबामा हों, या फिर मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, नरेंद्र मोदी हों या ईरान के हसन रूहानी हों या सीरिया के बशर अल असद- इंटरनेट पर सभी नेताओं से लेकर तानाशाहों तक का प्रचार तंत्र बखूबी सक्रिय है जो अपने प्रतिद्वंद्वियों और विरोधिय़ों को बगैर वक्त गंवाए निशाने पर लेता रहता है। सिर्फ सरकारी तंत्र ही नहीं, सरकार समर्थक और व्यक्तियों की ओर से भी सोशल मीडिय़ा पर अपने विचार, वार-पलटवार, आरोप-प्रत्यारोप पल भर में पोस्ट करने में कोई दिक्कत नहीं क्योंकि 140 शब्दों से लेकर पन्नों तक में अपनी हर बात, हर भड़ास इंटरनेट की दुनिय़ा में बिखेरने की सुविधा मोबाइल फोन तक पर उपलब्ध हैं यानी कि आज जब भी जहां हों, जिस वक्त और जिस परिस्थिति में हों, अपनी बात बखूबी, बड़ी आसानी से दूसरों तक पहुंचा सकते हैं।
सोशल मीडिया के संजाल के जरिए आपकी बात दूसरे से होते हुए तमाम ऐसे लोगों तक पहुंच सकती है जो आपसे परिचित नहीं, लेकिन आपके विचार उनमें नई ऊर्जा का संचार कर सकते हैं, आपको आंदोलित कर सकते हैं, आपको नई सूचना से परिचित करा सकते हैं, आपको मदद मुहैया करा सकते हैं और यहां तक कि आपके खिलाफ दुश्मनों की फौज भी खड़ी कर सकते हैं। इसके तमाम उदाहरण रोज ही ट्विटर और फेसबुक पर नेताओं और सामाजिक शख्सियतों के बयानों, विचारों और उन पर दी जानेवाली प्रतिक्रियाओं में मिलते हैं जिनमें भाषा और सोच की तमाम मर्यादाओं का उल्लंघन होता हुआ भी दिखता है औऱ व्यक्तिगत आक्षेप भी सहज ही सामने आते हैं। चुंकि फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया साइट्स के जरिए सीधे-सीधे एक-दूसरे को अपनी बातें , अपने विचार आपस में शेयर करने की सुविधा होती है, साथ ही, अगर सेटिंग सार्वजनिक हो, तो तमाम और जुड़े लोगों तक भी एक-दूसरे की आपसी बातें और विचार विनिमय आसानी से पहुंच सकते हैं लिहाजा जो कुछ एक खास दायरे में रहना चाहिए वो भी सबके सामने आने लगता है। कई बार ये स्थिति हद तोड़ती हुई दिखती है जब व्यक्ति विशेष की छवि खराब करने के लिए सोशल मीडिया का बेजा इस्तेमाल होने लगता है। उदाहरण देने की जरुरत नहीं, चाहे कांग्रेस और बीजेपी का आपसी झगड़ा हो, या नरेंद्र मोदी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी से लेकर अभिषेक मनु सिंघवी और खुर्शीद अनवर जैसे लोगों से जुड़े मामले जिनकी तह में जाने की जरूरत नहीं, लेकिन ये शख्सियतें सोशल मीडिय़ा के माध्यम से जिन रूपों में चर्चा में आई हैं, उनसे सोशल मीडिया के इस्तेमाल सवालों के घेरे में रहा है। इसको लेकर सोशल मीडिय़ा के इस्तेमाल को नियंत्रित करने, उस पर लगाम लगाने की मांगें भी खूब उठी हैं। इस दिशा में कोशिशें भी होने लगी हैं, लेकिन इंटरनेट एक ऐसी सुविधा है, जो अब सर्वजनसुलभ है और कौन किस तरह से इसका उपयोग करे, इसकी आजादी भी सबको है और इसके लिए रास्ते भी बहुत हैं। आपत्तिजनक सामग्रियों को सेंसर करने या सर्वजनसुलभ होने से रोकने के लिए गूगल, फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल साइट्स के कर्ता-धर्ताओं को सरकारों की ओर से निर्देश दिए जाते रहे हैं, उनकी ओर से कदम भी उठाए जाते रहे हैं। चीन जैसे देशों में तो सरकार की ओर से कई साइट्स पर भी पाबंदी लगाने की खबरें आती रही हैं, लेकिन दुनिया जितनी बड़ी है और इंटरनेट आधारित इन सुविधाओं का जिस तरीके से विस्तार हुआ है, ऐसे में सूचनाओं (चाहे वो जैसी भी हों) के प्रसार को नियंत्रित करना दुरूह ही साबित हुआ है।
फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, पिइंटेरेस्ट, व्हाट्सअप, वीचैट, इंस्टाग्राम जैसे तमाम सोशल मीडिया माध्य़म और ऐसे तमाम कितने ही और इंटरनेट आधारित माध्यम लोगों को एक-दूसरे से जुड़ने और अपनी बातें साझा करने की सुविधा दे रही हैं। इन जैसे सैकड़ों रास्ते अब इंटरनेट की तरंगों पर उपलब्ध हैं और रोजाना सृजित भी किए जा रहे हैं। ऐसे में किस मानसिकता से इनका इस्तेमाल हो, इसका नियमन और नियंत्रण हो, ये समाज-व्यवस्था पर ही निर्भर करता है, सिर्फ तानाशाही रवैये या जबरिया तरीके से इन्हें रोकना मुनासिब नहीं। स्वस्थ विचार विनिमय़ की परंपरा हमें अपने-आपमें ही विकसित करनी होगी, अन्यथा सोशल मीडिया का ये संसार भी उन बुराइयों से अछूता नहीं रह सकता, जो समाज में पहले से मौजूद हैं।
-          कुमार कौस्तुभ

Saturday, December 28, 2013

TV पर ‘नायक’ का निर्माण और विध्वंस



अप्रैल 2011, अगस्त 2011- अन्ना हजारे का आंदोलन
जून 2012 – योगगुरु रामदेव का रामलीला मैदान में ड्रामा
दिसंबर 2012 – निर्भया आंदोलन
दिसंबर 2013- अरविंद केजरीवाल का शपथ ग्रहण
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-ये कुछ ऐसी घटनाएं हैं, जब दिल्ली के जंतर मंतर, तिहाड़ जेल, रामलीला मैदान, राजपथ, राष्ट्रपति भवन जैसी जगहों पर अपार जनसमुदाय का मुजाहिरा टेलीविजन समाचार चैनलों पर हुआ। इसमें कोई दो राय नहीं कि ये सब घटनाएं तमाम बड़े मुद्दों और विवादों से जुड़ी रहीं और इनके जरिए समाज और देश को नई दिशा भी मिली। लेकिन जो एक बात नोट करने लायक है वो ये कि इन घटनाओं और इनसे जुड़ी परिस्थितियों के समाचार चैनलों पर प्रसारण से ये भी साफ हुआ है कि मीडिया किस तरह किसी शख्सियत को समाज का नायक बनाने की हैसियत रखता है। ऐसा नहीं है कि अन्ना हजारे जनलोकपाल आंदोलन के पहले चर्चित नहीं थे, या फिर योगगुरु रामदेव को लोग जानते नहीं थे, या अरविंद केजरीवाल की देश में कोई पहचान नहीं थी। लेकिन उपरोक्त तमाम घटनाक्रम के दौरान इन शख्सियतों को टेलीविजन मीडिया पर जिस तरह दिखाया और देखा गया उससे उनका आभामंडल और विस्तृत हुआ।
कहना न होगा कि इसका सबसे ज्यादा फायदा अरविंद केजरीवाल को मिला, जो दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के नायक बनकर उभरे और उन्हें अपनी आम आदमी पार्टी की सरकार बनाने का मौका मिला। केजरीवाल ही नहीं, उनके 6 साथी मंत्रियों और 27 साथी विधायकों को भी एकबारगी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिल गई। ऐसे तमाम लोग जो कभी साधारण जीवन बिताते हुए जनता के बीच थे, वो जनता के नायक बनकर पर्दे पर आने लगे। केजरीवाल के सहयोगी मंत्री मनीष सिसोदिया की पत्नी सीमा सिसोदिया ने उनके मंत्री बनने पर प्रतिक्रिया में ये गलत नहीं कहा कि अब आम आदमी VIP बना है। केजरीवाल भी रामलीला मैदान के मंच से यही कहते रहे कि उनकी जीत जनता की जीत है। वैसे, नेताओं की ऐसी भाषा कोई नई नहीं। चुनाव जीतनेवाला हर नेता अपनी जीत को जनता की जीत ही बताता है भले ही वो बाद में जनता के दुख-दर्द में साथ रहे या नहीं। बहरहाल, दिल्लीवासियों की आशाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अपने वादों और इरादों की बदौलत केजरीवाल और उनके साथी देश में नए तरीके से नायकबन कर उभरे, इसमें कोई शक नहीं। और इसमें भी कोई शक नहीं कि उन्हें टेलीविजन के समाचार चैनलों ने बहुत ज्यादा जगह दी, जिससे उन्हें कई बार दिक्कतों का भी सामना करना पड़ा। मसलन, अपने एक विधायक की कथित नाराजगी की खबर आने पर आम आदमी पार्टी के नेता योगेंद्र यादव को तो यहां तक कहना पड़ा कि हम लोग अभी राजनीति में नए हैं और काफी सीख रहे हैं, आप मीडियावालों ने हमें काफी अटेंशन दिय़ा है, जिसके हम लायक नहीं और हमें समय दिया जाना चाहिए। लेकिन चुंकि चुनाव में आम आदमी पार्टी दूसरी बड़ी पार्टी बनी और बीजेपी के इंकार के बाद सरकार बनाने पहुंची तो उसके नेता तो टेलीविजन के सितारे होने ही थे। टेलीविजन को उनकी हर धड़कन सुननी थी, उनके हर कदम को कैमरे कैद करना चाहते थे, और जाहिर है वही खबर थे  लिहाजा उन्हें देखना औऱ दिखाना तो टेलीविजन के समाचार चैनलों का कर्तव्य बन गया।
पलटकर देखें तो केजरीवाल की जननायक की छवि तो जनलोकपाल आंदोलन की शुरुआत से ही अन्ना हजारे के साथ आंदोलन में बनने लगी थी। इससे पहले वो एक एनजीओ चलानेवाले आरटीआई कार्यकर्ता थे। लेकिन जनहित के एक बड़े सवाल को लेकर वो जब रामलीला मैदान और जंतर मंतर पर उतरे तो टेलीविजन कैमरों के फोकस में रहना लाजिमी था। आमतौर पर देखा जाए तो जंतर-मंतर का इलाका क्षेत्रफल के हिसाब से बहुत बड़ा नहीं है और रामलीला मैदान का इलाका बड़ा है, लेकिन इन जगहों पर जनसमुदाय की जो विशालता टीवी चैनलों के स्क्रीन पर दिखती है उससे ये सही-सही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता किस किसी भी आंदोलन में आखिर कितने सौ, या हजार या लाख लोग जमा हुए। इसका कोई आंकड़ा भी आमतौर पर नहीं होता। लेकिन टेलीविजन के कैमरों की पहुंच, पकड़ औऱ तकनीक जनसमुदाय को जनसैलाब में बड़ी आसानी से बदल सकती है। खासकर जब क्रेन और जिम्मी जिबजैसे उपकरणों का इस्तेमाल हो, तो किसी भी जगह जमा जनसमुदाय का बड़ा से बड़ा स्वरूप स्क्रीन पर नज़र आता है। और इसीलिए कई बार जनसैलाब की मौजूदगी के आंकड़ों पर विरोधी पक्षों की ओर से सवाल भी उठते हैं, जैसा कि पटना के गांधी मैदान में 27 अक्टूबर 2013 को नरेंद्र मोदी की रैली को लेकर हुआ। तो ये कह पाना तब तक मुश्किल होता है कि आखिर कहीं, किसी सभा में कितने लोग पहुंचे जब तक कि इसके पुख्ता आंकड़े न मौजूद हों। लेकिन, ये तो जाहिर है कि संख्या लाखों में न भी हो तो हजारों में हो सकती है जो आधुनिक तकनीकों के जरिए सिनेमा की तरह से और बड़ी नजर आती है। तो ऐसे जनसमुदायों या जनसैलाब को संबोधित करनेवाले तो उनके नायक होंगे ही, जिनके हर नारे को जनता दोहराएगी और साथ में नारे लगाएगी।
दिसंबर-जनवरी 2012 के निर्भया आंदोलन में आम आदमी के आक्रोश का जो ज्वार दिल्ली के इंडिया गेट और राजपथ से लेकर राष्ट्रपति भवन तक उमड़ा, उसने कई लोगों को जयप्रकाश आंदोलन तक की याद दिला दी। जयप्रकाश आंदोलन के गवाह बहुतेरे लोग रहे होंगे। लेकिन उस आंदोलन की तस्वीरों का रिकॉर्ड मुश्किल से खोजने से मिलेगा। परंतु, आधुनिक दौर में टेलीविजन के विस्तार ने इस तरह के आयोजनों का रिकॉर्ड रखना बड़ा आसान कर दिया है। इसके साथ ही ये भी स्पष्ट है कि ऐसे आंदोलनों में शामिल जनज्वार का स्वरूप न सिर्फ देश के कोने-कोने में एक साथ देखा जा सकता है, बल्कि उस स्वरूप की विशालता का भी अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। निर्भया आंदोलन के लाइव प्रसारण ने आम आदमी के नायकत्व को खुलकर जाहिर किया, जिसकी बदौलत सरकार गैंग रेप जैसी घटनाओं पर रोक लगाने के लिए कड़े कानून बनाने और त्वरित कार्रवाई के लिए मजबूर हुई।

दूसरा एक और पक्ष टेलीविजन पर जनसमुदाय में नायकके निर्माण का यह भी है कि एक कैमरे से ली जा रही लाइव तस्वीरें एक ही वक्त में देश और दुनिया के करोड़ों टेलीविजन स्क्रीन पर देखी जाती हैं। 125 करोड़ की आबादी वाले देश में आबादी का दशांश भी तो कम से कम किसी भी वक्त लाइव प्रसारित हो रहे भाषण सुनता ही है और जाहिर है उससे प्रभावित भी होता है। चाहे नरेंद्र मोदी हों, य़ा केजरीवाल या अन्ना हजारे या मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेता, जो देश के बारे में, देश के लोगों से जुड़े मुद्दों पर कुछ भी कहते हैं, तो लोग उन्हें सुनने में दिलचस्पी रखते हैं और ये दिलचस्पी बार-बार बढ़ती जाती है, भले ही एक ही तरह की बात भाषणों में दोहराई जाती हो। वजह ये कि टेलीविजन समाचार माध्यम भाषणों के खबरिया मुद्दे निकाल-निकालकर पट्टियों के माध्यम से भी स्क्रीन पर लगातार प्रसारित करते रहते हैं। चुंकि टेलीविजन समाचार ताजा खबरों से जिंदा रहता है, लिहाजा हर बार भाषणों से कोई न कोई नई बात, नई प्रतिक्रिया, नया संदेश, नया विवाद, नया आरोप, नया मुहावरा- कुछ न कुछ नया निकालने की पूरी कोशिश होती है ताकि लोगों की दिलचस्पी उसमें बनी रहे। जो अच्छे वक्ता होते हैं, उनके भाषण लोग यूं भी सुनना पसंद करते हैं, ऐसा पहले से देखा जाता रहा है, चाहे वो अटल बिहारी वाजपेयी रहे हों, या चंद्रशेखर या कोई और बड़े नेता। नेताओं के भाषणों में राष्ट्रहित की किसी घोषणा की उम्मीद कम ही रहती है। लेकिन अपने विरोधियों की खिंचाई और अपने मुद्दे सशक्त तरीके से जनता के सामने रखने की उनकी कोशिश को टेलीविजन समाचार प्रसारण की प्रक्रिया और सरल बना देती है। जाहिर है, नायक के निर्माण में मदद मिलती है।
तीसरा पक्ष है नेताओं के बर्ताव, उनके क्रियाकलापों का प्रसारण, जो उनकी छवि बनाने और बिगाड़ने में कारगर साबित होता है। राहुल गांधी गरीब महिला कलावती के घर जाते हैं, दलित के यहां खाना खाते हैं, सुरक्षा घेरे तोड़कर लोगों से मिलते हैं, बात करते हैं, मंच पर बोलते हुए कुर्ते की बांहें चढ़ाते हैं। नरेंद्र मोदी वाजपेयी के समान पॉज लेकर भाषण देते और गांधी-नेहरु परिवार के प्रति अपने आक्रोश और इजहार करते पाए जाते हैं। अरविंद केजरीवाल सादगी का संदेश देने के लिए अपने समर्थकों के साथ दिल्ली मेट्रो से रामलीला मैदान का सफर तय करते हैं। सरकारी गाड़ी औऱ लाल बत्ती वाली गाड़ी के बजाय पुरानी नीली वैगन आर कार से सफर करते हैं। हर कदम पर टेलीविजन के कैमरे मौजूद रहते हैं। नेताओं का पीछा करते हैं। उनकी हर गतिविधि को रिकॉर्ड करने से लेकर MTU, TVU और OB वैन्स के जरिए लाइव प्रसारित करने को उतावले रहते हैं। आम लोगों की दिलचस्पी इन गतिविधियों में न भी हो तो भी जितनी तेजी औऱ जितनी प्रधानता से उन्हें स्क्रीन पर दिखाया जाता है, उससे जाहिर होता है कि उस वक्त की खबर तो यही है।
सवाल है कि क्या तमाम नेताओं की सभी गतिविधियां, सारे बर्ताव लोग पसंद कर सकते हैं? उन्हें आखिरकार इतनी प्रमुखता से दिखाने की क्या आवश्यकता? एक तरह से देखें तो इसके पीछे खबरों में आगे निकलने की होड़ है, तो दूसरी तरफ खबरों की बदलती परिभाषा का मामला है। तीसरा मामला पब्लिसिटी का है, जो टेलीविजन के समाचार चैनल नेताओं को मुफ्त में देते रहते हैं। पब्लिसिटी सकारात्मक भी हो सकती है और नकारात्मक भी- दर्शक क्या पसंद करते हैं, जनता को क्य़ा पसंद है, वो खुद तय करे, समाचार चैनल तो हर तस्वीर, सारा विजुअल खबरों के ढांचे में रखकर पेश कर देते हैं। अगर किसी नेता का कोई बर्ताव निंदनीय भी है, तो भी उसे स्क्रीन पर अधिकाधिक समय देकर रावणया रॉबिनहुडबनाया जा सकता है या फिर अगर कोई अच्छी गतिविधि है, तो वो तो उसकी हीरो वाली छवि ही पेश करेगी। नायक या प्रतिनायक, हीरो या एंटी-हीरो जो भी इमेज टेलीविजन के जरिए सामने आए, उसे पसंद और नापसंद करनेवालों की समाज में अलग-अलग तादाद हो सकती है, लेकिन कुछ गलत भी हो रहा हो तो लोग उसे देखेंगे क्योंकि क्या हो रहा है, उसमें दिलचस्पी होती है और क्यों हो रहा है, उसमें भी दिलचस्पी होती है। दिल्ली में अपराध पर या भ्रष्टाचार पर शीला दीक्षित का कोई नकारात्मक बयान आया, तो उसे भी प्रमुखता से दिखाया गया औऱ लोगों ने उस पर प्रतिक्रिया दी, और केजरीवाल ने बिजली-पानी सस्ते करने के वादे किए, तो उसे भी खूब दिखाया गया क्योंकि वो भी कुछ ऐसा कहते दिखे, जो आम नहीं खास बात है।
कहने का मतलब ये है कि टेलीविजन समाचारों में चुनिंदा शख्सियतों का प्रमुखता से प्रसारण उनकी इमेज बनाने और बिगाड़ने में बराबर भूमिका अदा करता है। किसी शख्सियत में अगर चिंगारी है, तो उसे टेलीविजन समाचार भड़काने में मददगार होते हैं और इस तरीके से वो नायक या प्रतिनायक बन पाते हैं। नेता से नायक के निर्माण की प्रक्रिया में पहले अखबारों का भी ऐसा ही योगदान होता था, आज भी है, इससे इंकार नहीं है। लेकिन चुंकि टेलीविजन 24 घंटे प्रसारित होनेवाला सशक्त समाचार माध्यम है, लिहाजा उसका असर ज्यादा होना स्वाभाविक है। ये असर जब नकारात्मक होता है तो नायक का ध्वंस होता है औऱ वो अर्श से फर्श पर जाता दिखता है। इसके अनेकानेक उदाहरण दिखते रहे हैं औऱ जिस तरह टेलीविजन समाचारों का विस्तार हो रहा है, उससे निस्संदेह और भी ऐसे नतीजे सामने आएंगे, जिनके बारे में हमारे नायक कभी कल्पना नहीं कर सकते, अगर नायकों को जमीनी हकीकत का भान न रहे।
-कुमार कौस्तुभ

Monday, December 23, 2013

TV पर कार्टून का कड़वा सच




मम्मा मैं घर आ गया..
तुम मुझसे छुपाते क्यों हो? छुपाते क्यों हो, बताओ, बताओ?”
हमने खाना खा लिया..
मुझे बचाओ..
एं.. मैं भी तो बहुत अच्छा हूं
अब मैं इतना भी कुछ खास नहीं मम्मा
मम्मा मुझे बचाओ..”
अब मैं तुझे नहीं छोड़ूंगा..
इसको तो घर से भगाना ही पड़ेगा...
अब तो तेरी बैंड बजना तय है..”
अब आएगा असली मज़ा..
अब तो मैं इसकी बैंड बजाके ही रहूंगा..
अब एक बाइट तो ले लूं रे बाबा..

-          ये कुछ ऐसे संवाद हैं, जो आप आए दिन अपने बच्चों से सुनते होंगे...असल में इस तरह की मिलती-जुलती लाइनें आप बच्चों पर केंद्रित टीवी चैनलों हंगामा, डिज़्नी, कार्टून नेटवर्क, डिस्कवरी किड्स, निक जैसे तमाम चैनलों पर भी आनेवाले कार्यक्रमों डोरेमॉन, हॉरिड हेनरी, शिनचैन, ऑगी एंड द कॉकरोचेज के हिंदी वर्जन में सुन सकते हैं, जिन्हें आपके और हमारे बच्चे नकल करके सीखते हैं और घर में या दोस्तों के बीच आपसी बातचीत में अक्सर बोलते पाए जाते हैं। चाहे वो फिल्मी डायलॉग्स पर आधारित संवाद हों, या कार्टून्स के संवादों में फिल्मी एक्टर्स की आवाज की नकल- बच्चों की मासूमियत भरी जुबान से ऐसे संवाद सुनकर कई बार हंसी आती है, आनंद भी आता है, हैरानी भी होती है कि बच्चे कितनी आसानी से ऐसी बातें बोल लेते हैं जिनका असल में मतलब उन्हें शायद ही समझ में आता हो..और गहराई से सोचें, तो ये भी लगता है कि आखिर बच्चों का मनोरंजन करनेवाले ये तमाम टीवी चैनल आखिर हमारे बच्चों की भाषा को किस ओर ले जा रहे हैं।

80 के दशक तक, जब भारतीय घरों में टेलीविजन की वैसी घुसपैठ नहीं थी, जैसी आज हो गई है, तब के दौर में बच्चों को बोलचाल सिखाने में भी वक्त लगता था। आमतौर पर बच्चे अपने पारिवारिक लोगों, मां, पिता, भाई-बहनों, दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, बुआ, ताई, मौसी और घर में आनेवाले लोगों की बोलचाल के शब्द सुनकर बोलना सीखते थे। आमतौर पर उनकी जुबान तोतली होती थी और उम्र बढ़ने के साथ आवाज साफ होती थी। लेकिन 21वीं सदी के इस दौर में न तो बच्चों की तुतली आवाज सुनने को मिलती है, ना ही उन्हें इस तरह बोलचाल की भाषा सिखाने की जरूरत पड़ती है। समाज में आए बदलावों के साथ ही संयुक्त पारिवारिक संस्था के खत्म होने से बच्चों का विकास और उनका लालन-पालन कामकाजी माता-पिताओं के लिए बड़ी चुनौती बन गया। ऐसे में टेलीविजन एक वरदान के रूप में उभरा, जिसने घर में एकांत को खत्म किया और न सिर्फ परिवार के बड़ों बल्कि बच्चों को भी वक्त गुजारने का सुगम जरिया मुहैया करा दिया। अब तो घरेलू महिलाओं को भी वक्त गुजारने के लिए सीरियल देखना होता है, तो दूसरी तरफ, अपने कामकाज के दौरान बच्चों की दखल से बचने के लिए उन्हें टीवी के कार्टून सीरियलों में उलझाना भी आम बात हो गई है। ब़ड़े शहरों से लेकर छोटे शहरों और कस्बों तक तकरीबन हर घर में टेलीविजन अपनी अनिवार्य जगह बना चुका है और अब ये सिर्फ जानकारी या मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि घर के ऐसे सदस्य के रूप में मौजूद है, जिसके बिना कम से कम महिलाओं और बच्चों का काम बिल्कुल नहीं चलता। एक शॉर्टकट के तौर पर, बच्चों और महिलाओं के लिए टेलीविजन वक्त काटने का जरिया जरूर बन गया है। और इस तरीके से देखें तो टेलीविजन अपने मूल उद्देश्यों से भटकता दिख रहा है। वजहें क्य़ा हो सकती हैं , इस पर विचार जरूरी है।

टेलीविजन का सबसे बड़ा और बुरा असर बच्चों की भाषा, उनकी बोलचाल की शैली और उनके मानसिक विकास पर देखा जा सकता है। जापान से आयातित कार्टून कैरेक्टर डोरेमॉन, नोबिता, शिनचैन, के साथ-साथ हेनरी, ट्रांसफॉर्मर्स इत्यादि अपने हाव-भाव और मुद्राओं से हमारे बच्चों के प्यारे जरूर बन गए हैं, लेकिन उनके जरिए जो कंटेंट परोसा जा रहा है, वो किस हद तक खतरनाक हो सकता है, इसका अंदाजा भुक्तभोगी ही लगा सकते हैं। 5 से 10 साल तक की उम्रसीमा के बच्चे न सिर्फ टीवी पर प्रसारित इन कार्टून कैरेक्टर्स के कद और वय के हिसाब से उन्हें अपने बराबर का पाते हैं और पीयर ग्रुप के हिसाब से खुद के करीब मानते हुए उन्हें अपने-आप से जोड़ने लगते हैं। इस मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के तहत बच्चे न सिर्फ उनसे बोलना सीखते हैं, उनके वाक्य विन्यास (जैसा ऊपर के उदाहरणों में दिया गया है) सीखते और आत्मसात करते हैं, बल्कि  उनकी बोलने की शैली भी अपनाने लगते हैं जिससे उनकी अपनी मौलिकता नष्ट होने लगती है। आमतौर पर कहा जाता है कि बच्चों का दिमाग कुम्हार की मिट्टी के समान होता है, जिसे जिस तरीके से ढाला जाए, वो उस तरीके से ढल जाता है। ये बात टेलीविजन के कार्टून कैरेक्टर्स के असर के मामले में सटीक बैठती है।

यूं तो बच्चों के विकास की सबसे बड़ी पाठशाला उनका अपना घर ही होता है। लेकिन, आज के दौर में, खासतौर से मेट्रो में बसे परिवारों में 12 से 18 घंटे घर से बाहर रहनेवाले कामकाजी पिताओं को बच्चों के साथ वक्त गुजारने के मौके कम मिलते हैं और घरेलू कामकाज से लेकर महिला समाज और किटी पार्टीज़ में उलझी आधुनिक माताओं को भी बच्चों पर ध्यान देने में दिलचस्पी नहीं दिखती। ऐसे में बच्चों को उलझाने का बुद्धू बक्साउनके कोमल और साफ दिमाग में अतिक्रमण किस तरह करता है, इसके उदाहरण रोजाना आप अपने बच्चों की बोली और उनके हाव-भाव में आ रहे बदलावों में देख सकते हैं। चुनिंदा ज्यादा संवेदनशील बच्चों के तो सपने में भी नोबिता, डोरेमॉन, जियान, शिनचैन, हेनरी और ट्रांसफॉर्मर्स के कैरेक्टर दिखाई देते हैं जिनसे कई बार डरने और नींद में बाते करने के मामले में भी देखने में आ चुके हैं। अब बच्चों को ये कहके डराने की जरूरत नहीं पड़ती कि सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा”, संवेदनशील बच्चा तो जियान जैसे कार्टून किरदार से ही डर सकता है।

ये तो बच्चों पर कार्टून कैरेक्टर के नकारात्मक असर का एक पहलू है। दूसरे एक और पहलू पर विचार करना इस लिहाज से जरूरी हो जाता है कि कहीं टीवी के कार्टून कैरेक्टर्स के जरिए हम नन्हें बच्चों को असमय किशोर या जवान तो नहीं बना रहे। देखा जा रहा है कि बच्चों का मानसिक विकास जिस क्रम में होना चाहिए, उससे कहीं ज्य़ादा तेजी से हो रहा है। बात कार्टून सीरियलों में लड़के-लड़कियों के संबंधों को लेकर हो रही है। बच्चों का शायद कोई भी ऐसा कार्टून सीरियल टेलीविजन पर नहीं देखा जा रहा जिसमें बच्चों और बच्चियों के बराबरी की बात हो, उनमें कोई भेद न हो। जब भी कोई कहानी कही जाती है और उसमें चार बच्चों के बीच कोई बच्ची होती है, तो कहानी का एक एंगल उस बच्ची को पटाने का जरूर रहता है, या तो सब बच्चे किरदार उस एक बेचारी बच्ची पर फिदा होते हैं और अपने-अपने तरीके से उसे अपने दिल की रानी मानते हुए अपनी बनाने की कोशिश में रहते हैं या फिर उसे किसी मुसीबत से निकालकर उसे अपना असर दिखाने की कोशिश में दिखते हैं। यहां तक कि शिनचैन जैसे किरदार तो अपनी टीचर्स के भी प्रेम संबंधों के गवाह बनते या उन्हें सहयोग करते दिखते हैं। आखिर बच्चों की कहानियों में ये सब दिखाना कितना जायज है, जो किशोरावस्था, या जवानी के दिनों में होता है। क्या ऐसी कार्टून कहानियों के लेखक कहीं न कहीं अपनी दबी भावनाओं का इजहार करते और उस लक्ष्मणरेखा का अतिक्रमण करते नहीं दिखते जो बच्चों के दिलोदिमाग पर न बुरा तो कोई अच्छा असर कतई नहीं डाल सकता। शिजूका को लेकर नोबिता और सूनियो का जो बर्ताव रहता है, या डोरेमॉन, डोरेमी या किसी और बिल्ली को देखकर जिस तरह बर्ताव करता है, क्या वो सब बच्चों की कहानियों का हिस्सा होना चाहिए? मुद्दा बहस का है और इसके तमाम पहलुओं पर विचार हो सकता है।

अगर यहां हम मोटू-पतलू, चाचा चौधरी, बिल्लू, छोटा भीम जैसे कुछ भारतीय कार्टूनों की बात करें, तो साफ है कि चाहे पारंपरिक तौर ही या फिर अपनी स्वस्थ सोच की बदौलत हमारे यहां बच्चों को वो सब समय से पहले बताने की जरूरत नहीं दिखी, जो उन्हें उचित वक्त पर जानना चाहिए। सवाल ये है कि क्या जापान या विदेशों में इसका ख्याल नहीं रखा जाता कि किस उम्र के बच्चों के लिए किस तरह की कहानियां बननी चाहिए? या फिर कार्टून आयात करके उन्हें अपने यहां दिखाते वक्त टीवी चैनलों ने कोई सीमा रेखा तय नहीं की? या फिर इसके लिए माता-पिता और अभिभावक सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं कि वो ये तय नहीं करते कि उनके 5 साल के बच्चे को क्या देखना चाहिए और 15 साल के लड़के को क्या देखना चाहिए? कहीं न कहीं कमी तो जरूर है। हाल के दिनों में शिनचैन नाम के किरदार के चटपटेसंवादों को लेकर सवाल उठे, जिसके बाद उसमें कुछ बदलाव किए गए, ऐसा प्रतीत होता है। लेकिन इस दिशा में अभी और भी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है, ताकि कार्टून किरदार मनोरंजन तक ही सीमित रहें, या फिर उनके जरिए बच्चे अगर कुछ सीखें, तो ऐसा जो उनके विकास में मददगार हो, न कि ऐसी चीजें, जो उनके विकास को बाधित करें। बच्चों के कार्यक्रम प्रसारित करनेवाले टीवी चैनलों के लिए आचार संहिता होनी चाहिए। उन्हें कार्यक्रमों पर भी ये पट्टी देनी चाहिए कि अमुक कार्यक्रम अमुक उम्रसीमा तक के बच्चों के लिए है। ठीक वैसे ही, जैसे सेंसर बोर्ड वयस्क और गैर-वयस्क फिल्मों की सीमा तय करता है, उसी तरीके से बच्चों के लिए बननेवाले टीवी कार्यक्रमों का भी रेगुलेशन होना जरूरी लगता है।

कुछ प्रमुख कार्टून किरदारों की बात करें तो, देखते हैं कि डोरेमॉन का प्रमुख किरदार नोबिता एक ऐसा बच्चा है, जो हमेशा पढ़ाई से जी चुराता है और अपने रोबोट डोरेमॉन की मदद चाहता है। वहीं, जियान और सूनिय़ो भी नकारात्मक किरदार हैं। एक किरदार देगी-सूगी है, जो बच्चों के लिए आदर्श हो सकता है, लेकिन उसे तो सीरियल में बहुत कम फुटेज मिलती है। वहीं शिनचैन और हेनरी जैसे किरदार एक से बढकर एक शरारतें करते दिखते हैं। क्या ये ही हमारे बच्चों के आदर्श हो सकते हैं? कुछ लोगों को लग सकता है कि पारंपरिक भारतीय कार्टूनों में बाल किरदार कम हैं, या फिर वो धार्मिक किस्म के हैं। सवाल है कि बच्चों के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा ये तो बच्चे तय नहीं करेंगे, ये तो बड़ों को ही तय करना होगा, ताकि उन्हें अच्छा इंसान बना सकें। अगर, धार्मिक या चाचा चौधरी जैसे किरदारों से नफरत है, तो नए किरदार गढ़ने से किसने रोका है, जो बच्चों को खेल-खेल में कुछ मानवीय मूल्यों, कुछ अच्छाई, भलाई की सीख दे। विदेशों से ही आयातित टॉम एंड जेरी और मिकी माउस जैसे और भी किरदार हैं, जो जबर्दस्त मनोरंजन करते हैं और शिक्षा भी देते हैं। जरूरत है ऐसे किरदारों को बढ़ावा देने की, ना कि ऐसे किरदारों को थोपने की, जो अपनी उल-जुलूल और बेतुकी कहानियों से मनोरंजन और स्वस्थ विकास के बजाय बच्चों के कोमल मस्तिष्क में ऐसी भावनाओं का बीजारोपण करें, जो उनके लिए फायदेमंद नहीं हो सकतीं।

सिर्फ बच्चों के ही कार्टून सीरियल नहीं, बड़ों के सीरियल से भी बच्चे बड़ी जल्दी कई लाइनें सीख लेते हैं और बाउंसर अभिभावकों पर पड़ता है। आप टीवी पर सीरियल देखते हैं तो बच्चे भी आपके साथ होते हैं। ऐसे में कपिल के कॉमेडी नाइट्स की लाइनें बच्चे को याद हो जाना और उनका उन्हें दोहराना कोई बड़ी बात नहीं। कुछ लोगों को ये अच्छा भी लग सकता है, लेकिन जैसा ऊपर विचार किया गया, ये अच्छा लगना कितना बुरा हो सकता है, इसका अक्सर हम-आप अंदाजा नहीं लगा सकते। साफ है कि माता-पिता और अभिभावकों को ये बखूबी समझना होगा कि बच्चों में समझदारी विकसित करने से ही आ सकती है, चाहे वो रोजाना आपको, आपकी रूटिन को देखकर हो, आपके चाल-ढाल को देखकर हो या आपके द्वारा दिए गए माहौल से हो। नन्हें बच्चों में समझदारी खुद ब खुद आसमान से नहीं टपक सकती, जैसे सैटेलाइट के जरिए प्रसारित होनेवाले कार्टून सीरियलों का कंटेंट- अगर ये मान लिया जाए, कि चार घंटे रोजाना कार्टून देखने से कोई असर नहीं पड़नेवाला, तो आप गलत हो सकते हैं। या तो आपको ये तय करना होगा और नियंत्रित करना होगा कि आपका बच्चा क्या देखे और किसे अपना आदर्श- रोल मॉडल माने । या फिर बेलगाम तरीके से प्रसारित हो रहे कंटेंट के परिणाम भुगतने को भी तैयार रहना होगा, हो सकता है आपको कभी बच्चे की कोई बात अच्छी न लगे और आप उस पर बरस पड़ें। लेकिन, बरसने से पहले पलभर ठहर कर ये सोच लें कि आखिर बच्चे के मन में वो बात आई कहां से, क्य़ा है उसका प्रेरणास्रोत, अन्यथा नतीजा आपके हक में नहीं रहेगा।
-कुमार कौस्तुभ के साथ शुभांग श्रीवत्स