Saturday, December 28, 2013

TV पर ‘नायक’ का निर्माण और विध्वंस



अप्रैल 2011, अगस्त 2011- अन्ना हजारे का आंदोलन
जून 2012 – योगगुरु रामदेव का रामलीला मैदान में ड्रामा
दिसंबर 2012 – निर्भया आंदोलन
दिसंबर 2013- अरविंद केजरीवाल का शपथ ग्रहण
......
......
-ये कुछ ऐसी घटनाएं हैं, जब दिल्ली के जंतर मंतर, तिहाड़ जेल, रामलीला मैदान, राजपथ, राष्ट्रपति भवन जैसी जगहों पर अपार जनसमुदाय का मुजाहिरा टेलीविजन समाचार चैनलों पर हुआ। इसमें कोई दो राय नहीं कि ये सब घटनाएं तमाम बड़े मुद्दों और विवादों से जुड़ी रहीं और इनके जरिए समाज और देश को नई दिशा भी मिली। लेकिन जो एक बात नोट करने लायक है वो ये कि इन घटनाओं और इनसे जुड़ी परिस्थितियों के समाचार चैनलों पर प्रसारण से ये भी साफ हुआ है कि मीडिया किस तरह किसी शख्सियत को समाज का नायक बनाने की हैसियत रखता है। ऐसा नहीं है कि अन्ना हजारे जनलोकपाल आंदोलन के पहले चर्चित नहीं थे, या फिर योगगुरु रामदेव को लोग जानते नहीं थे, या अरविंद केजरीवाल की देश में कोई पहचान नहीं थी। लेकिन उपरोक्त तमाम घटनाक्रम के दौरान इन शख्सियतों को टेलीविजन मीडिया पर जिस तरह दिखाया और देखा गया उससे उनका आभामंडल और विस्तृत हुआ।
कहना न होगा कि इसका सबसे ज्यादा फायदा अरविंद केजरीवाल को मिला, जो दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के नायक बनकर उभरे और उन्हें अपनी आम आदमी पार्टी की सरकार बनाने का मौका मिला। केजरीवाल ही नहीं, उनके 6 साथी मंत्रियों और 27 साथी विधायकों को भी एकबारगी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिल गई। ऐसे तमाम लोग जो कभी साधारण जीवन बिताते हुए जनता के बीच थे, वो जनता के नायक बनकर पर्दे पर आने लगे। केजरीवाल के सहयोगी मंत्री मनीष सिसोदिया की पत्नी सीमा सिसोदिया ने उनके मंत्री बनने पर प्रतिक्रिया में ये गलत नहीं कहा कि अब आम आदमी VIP बना है। केजरीवाल भी रामलीला मैदान के मंच से यही कहते रहे कि उनकी जीत जनता की जीत है। वैसे, नेताओं की ऐसी भाषा कोई नई नहीं। चुनाव जीतनेवाला हर नेता अपनी जीत को जनता की जीत ही बताता है भले ही वो बाद में जनता के दुख-दर्द में साथ रहे या नहीं। बहरहाल, दिल्लीवासियों की आशाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अपने वादों और इरादों की बदौलत केजरीवाल और उनके साथी देश में नए तरीके से नायकबन कर उभरे, इसमें कोई शक नहीं। और इसमें भी कोई शक नहीं कि उन्हें टेलीविजन के समाचार चैनलों ने बहुत ज्यादा जगह दी, जिससे उन्हें कई बार दिक्कतों का भी सामना करना पड़ा। मसलन, अपने एक विधायक की कथित नाराजगी की खबर आने पर आम आदमी पार्टी के नेता योगेंद्र यादव को तो यहां तक कहना पड़ा कि हम लोग अभी राजनीति में नए हैं और काफी सीख रहे हैं, आप मीडियावालों ने हमें काफी अटेंशन दिय़ा है, जिसके हम लायक नहीं और हमें समय दिया जाना चाहिए। लेकिन चुंकि चुनाव में आम आदमी पार्टी दूसरी बड़ी पार्टी बनी और बीजेपी के इंकार के बाद सरकार बनाने पहुंची तो उसके नेता तो टेलीविजन के सितारे होने ही थे। टेलीविजन को उनकी हर धड़कन सुननी थी, उनके हर कदम को कैमरे कैद करना चाहते थे, और जाहिर है वही खबर थे  लिहाजा उन्हें देखना औऱ दिखाना तो टेलीविजन के समाचार चैनलों का कर्तव्य बन गया।
पलटकर देखें तो केजरीवाल की जननायक की छवि तो जनलोकपाल आंदोलन की शुरुआत से ही अन्ना हजारे के साथ आंदोलन में बनने लगी थी। इससे पहले वो एक एनजीओ चलानेवाले आरटीआई कार्यकर्ता थे। लेकिन जनहित के एक बड़े सवाल को लेकर वो जब रामलीला मैदान और जंतर मंतर पर उतरे तो टेलीविजन कैमरों के फोकस में रहना लाजिमी था। आमतौर पर देखा जाए तो जंतर-मंतर का इलाका क्षेत्रफल के हिसाब से बहुत बड़ा नहीं है और रामलीला मैदान का इलाका बड़ा है, लेकिन इन जगहों पर जनसमुदाय की जो विशालता टीवी चैनलों के स्क्रीन पर दिखती है उससे ये सही-सही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता किस किसी भी आंदोलन में आखिर कितने सौ, या हजार या लाख लोग जमा हुए। इसका कोई आंकड़ा भी आमतौर पर नहीं होता। लेकिन टेलीविजन के कैमरों की पहुंच, पकड़ औऱ तकनीक जनसमुदाय को जनसैलाब में बड़ी आसानी से बदल सकती है। खासकर जब क्रेन और जिम्मी जिबजैसे उपकरणों का इस्तेमाल हो, तो किसी भी जगह जमा जनसमुदाय का बड़ा से बड़ा स्वरूप स्क्रीन पर नज़र आता है। और इसीलिए कई बार जनसैलाब की मौजूदगी के आंकड़ों पर विरोधी पक्षों की ओर से सवाल भी उठते हैं, जैसा कि पटना के गांधी मैदान में 27 अक्टूबर 2013 को नरेंद्र मोदी की रैली को लेकर हुआ। तो ये कह पाना तब तक मुश्किल होता है कि आखिर कहीं, किसी सभा में कितने लोग पहुंचे जब तक कि इसके पुख्ता आंकड़े न मौजूद हों। लेकिन, ये तो जाहिर है कि संख्या लाखों में न भी हो तो हजारों में हो सकती है जो आधुनिक तकनीकों के जरिए सिनेमा की तरह से और बड़ी नजर आती है। तो ऐसे जनसमुदायों या जनसैलाब को संबोधित करनेवाले तो उनके नायक होंगे ही, जिनके हर नारे को जनता दोहराएगी और साथ में नारे लगाएगी।
दिसंबर-जनवरी 2012 के निर्भया आंदोलन में आम आदमी के आक्रोश का जो ज्वार दिल्ली के इंडिया गेट और राजपथ से लेकर राष्ट्रपति भवन तक उमड़ा, उसने कई लोगों को जयप्रकाश आंदोलन तक की याद दिला दी। जयप्रकाश आंदोलन के गवाह बहुतेरे लोग रहे होंगे। लेकिन उस आंदोलन की तस्वीरों का रिकॉर्ड मुश्किल से खोजने से मिलेगा। परंतु, आधुनिक दौर में टेलीविजन के विस्तार ने इस तरह के आयोजनों का रिकॉर्ड रखना बड़ा आसान कर दिया है। इसके साथ ही ये भी स्पष्ट है कि ऐसे आंदोलनों में शामिल जनज्वार का स्वरूप न सिर्फ देश के कोने-कोने में एक साथ देखा जा सकता है, बल्कि उस स्वरूप की विशालता का भी अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। निर्भया आंदोलन के लाइव प्रसारण ने आम आदमी के नायकत्व को खुलकर जाहिर किया, जिसकी बदौलत सरकार गैंग रेप जैसी घटनाओं पर रोक लगाने के लिए कड़े कानून बनाने और त्वरित कार्रवाई के लिए मजबूर हुई।

दूसरा एक और पक्ष टेलीविजन पर जनसमुदाय में नायकके निर्माण का यह भी है कि एक कैमरे से ली जा रही लाइव तस्वीरें एक ही वक्त में देश और दुनिया के करोड़ों टेलीविजन स्क्रीन पर देखी जाती हैं। 125 करोड़ की आबादी वाले देश में आबादी का दशांश भी तो कम से कम किसी भी वक्त लाइव प्रसारित हो रहे भाषण सुनता ही है और जाहिर है उससे प्रभावित भी होता है। चाहे नरेंद्र मोदी हों, य़ा केजरीवाल या अन्ना हजारे या मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेता, जो देश के बारे में, देश के लोगों से जुड़े मुद्दों पर कुछ भी कहते हैं, तो लोग उन्हें सुनने में दिलचस्पी रखते हैं और ये दिलचस्पी बार-बार बढ़ती जाती है, भले ही एक ही तरह की बात भाषणों में दोहराई जाती हो। वजह ये कि टेलीविजन समाचार माध्यम भाषणों के खबरिया मुद्दे निकाल-निकालकर पट्टियों के माध्यम से भी स्क्रीन पर लगातार प्रसारित करते रहते हैं। चुंकि टेलीविजन समाचार ताजा खबरों से जिंदा रहता है, लिहाजा हर बार भाषणों से कोई न कोई नई बात, नई प्रतिक्रिया, नया संदेश, नया विवाद, नया आरोप, नया मुहावरा- कुछ न कुछ नया निकालने की पूरी कोशिश होती है ताकि लोगों की दिलचस्पी उसमें बनी रहे। जो अच्छे वक्ता होते हैं, उनके भाषण लोग यूं भी सुनना पसंद करते हैं, ऐसा पहले से देखा जाता रहा है, चाहे वो अटल बिहारी वाजपेयी रहे हों, या चंद्रशेखर या कोई और बड़े नेता। नेताओं के भाषणों में राष्ट्रहित की किसी घोषणा की उम्मीद कम ही रहती है। लेकिन अपने विरोधियों की खिंचाई और अपने मुद्दे सशक्त तरीके से जनता के सामने रखने की उनकी कोशिश को टेलीविजन समाचार प्रसारण की प्रक्रिया और सरल बना देती है। जाहिर है, नायक के निर्माण में मदद मिलती है।
तीसरा पक्ष है नेताओं के बर्ताव, उनके क्रियाकलापों का प्रसारण, जो उनकी छवि बनाने और बिगाड़ने में कारगर साबित होता है। राहुल गांधी गरीब महिला कलावती के घर जाते हैं, दलित के यहां खाना खाते हैं, सुरक्षा घेरे तोड़कर लोगों से मिलते हैं, बात करते हैं, मंच पर बोलते हुए कुर्ते की बांहें चढ़ाते हैं। नरेंद्र मोदी वाजपेयी के समान पॉज लेकर भाषण देते और गांधी-नेहरु परिवार के प्रति अपने आक्रोश और इजहार करते पाए जाते हैं। अरविंद केजरीवाल सादगी का संदेश देने के लिए अपने समर्थकों के साथ दिल्ली मेट्रो से रामलीला मैदान का सफर तय करते हैं। सरकारी गाड़ी औऱ लाल बत्ती वाली गाड़ी के बजाय पुरानी नीली वैगन आर कार से सफर करते हैं। हर कदम पर टेलीविजन के कैमरे मौजूद रहते हैं। नेताओं का पीछा करते हैं। उनकी हर गतिविधि को रिकॉर्ड करने से लेकर MTU, TVU और OB वैन्स के जरिए लाइव प्रसारित करने को उतावले रहते हैं। आम लोगों की दिलचस्पी इन गतिविधियों में न भी हो तो भी जितनी तेजी औऱ जितनी प्रधानता से उन्हें स्क्रीन पर दिखाया जाता है, उससे जाहिर होता है कि उस वक्त की खबर तो यही है।
सवाल है कि क्या तमाम नेताओं की सभी गतिविधियां, सारे बर्ताव लोग पसंद कर सकते हैं? उन्हें आखिरकार इतनी प्रमुखता से दिखाने की क्या आवश्यकता? एक तरह से देखें तो इसके पीछे खबरों में आगे निकलने की होड़ है, तो दूसरी तरफ खबरों की बदलती परिभाषा का मामला है। तीसरा मामला पब्लिसिटी का है, जो टेलीविजन के समाचार चैनल नेताओं को मुफ्त में देते रहते हैं। पब्लिसिटी सकारात्मक भी हो सकती है और नकारात्मक भी- दर्शक क्या पसंद करते हैं, जनता को क्य़ा पसंद है, वो खुद तय करे, समाचार चैनल तो हर तस्वीर, सारा विजुअल खबरों के ढांचे में रखकर पेश कर देते हैं। अगर किसी नेता का कोई बर्ताव निंदनीय भी है, तो भी उसे स्क्रीन पर अधिकाधिक समय देकर रावणया रॉबिनहुडबनाया जा सकता है या फिर अगर कोई अच्छी गतिविधि है, तो वो तो उसकी हीरो वाली छवि ही पेश करेगी। नायक या प्रतिनायक, हीरो या एंटी-हीरो जो भी इमेज टेलीविजन के जरिए सामने आए, उसे पसंद और नापसंद करनेवालों की समाज में अलग-अलग तादाद हो सकती है, लेकिन कुछ गलत भी हो रहा हो तो लोग उसे देखेंगे क्योंकि क्या हो रहा है, उसमें दिलचस्पी होती है और क्यों हो रहा है, उसमें भी दिलचस्पी होती है। दिल्ली में अपराध पर या भ्रष्टाचार पर शीला दीक्षित का कोई नकारात्मक बयान आया, तो उसे भी प्रमुखता से दिखाया गया औऱ लोगों ने उस पर प्रतिक्रिया दी, और केजरीवाल ने बिजली-पानी सस्ते करने के वादे किए, तो उसे भी खूब दिखाया गया क्योंकि वो भी कुछ ऐसा कहते दिखे, जो आम नहीं खास बात है।
कहने का मतलब ये है कि टेलीविजन समाचारों में चुनिंदा शख्सियतों का प्रमुखता से प्रसारण उनकी इमेज बनाने और बिगाड़ने में बराबर भूमिका अदा करता है। किसी शख्सियत में अगर चिंगारी है, तो उसे टेलीविजन समाचार भड़काने में मददगार होते हैं और इस तरीके से वो नायक या प्रतिनायक बन पाते हैं। नेता से नायक के निर्माण की प्रक्रिया में पहले अखबारों का भी ऐसा ही योगदान होता था, आज भी है, इससे इंकार नहीं है। लेकिन चुंकि टेलीविजन 24 घंटे प्रसारित होनेवाला सशक्त समाचार माध्यम है, लिहाजा उसका असर ज्यादा होना स्वाभाविक है। ये असर जब नकारात्मक होता है तो नायक का ध्वंस होता है औऱ वो अर्श से फर्श पर जाता दिखता है। इसके अनेकानेक उदाहरण दिखते रहे हैं औऱ जिस तरह टेलीविजन समाचारों का विस्तार हो रहा है, उससे निस्संदेह और भी ऐसे नतीजे सामने आएंगे, जिनके बारे में हमारे नायक कभी कल्पना नहीं कर सकते, अगर नायकों को जमीनी हकीकत का भान न रहे।
-कुमार कौस्तुभ

No comments: