Sunday, December 15, 2013

साहित्यिक पत्रिकाओं का ‘दृश्यांतर’



हिंदी पाठक वर्ग में साहित्यिक पत्रिकाओं का अहम स्थान है। एक ओर जहां हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाएं आम जनों से लेकर साहित्यिक अभिरुचि के लोगों और साहित्य के छात्रों की आवश्यकता पूर्ति करती रही हैं, उन्हें न सिर्फ पढ़ने के लिए साहित्यिक सामग्री मुहैया कराती रही हैं, बल्कि उनकी अपनी लेखन संबंधी साहित्यिक गतिविधियों को मंच भी प्रदान करती रही हैं, वहीं दूसरी ओर, हिंदी की बहुत-सी साहित्यिक पत्रिकाओं ने साहित्य के साथ-साथ राजनितिक और सामाजिक मुद्दों पर विमर्श को स्थान देकर अलग स्थान बनाया है। इस सिलसिले में चर्चा करते हुए साहित्यिक पत्रिकाओं का वर्गीकरण कुछ इस तरह से किया जा सकता है- एक तो शुद्ध साहित्यिक पत्रिकाएं, जिनमें बड़ी संख्या देश के कोने-कोने से निकलनेवाली अनियतकालीन पत्रिकाओं की है। दूसरी- खास विचारधारा की रुझानवाली पहल, वसुधा जैसी तमाम पत्रिकाएं जिनसे वामपंथी रुझान वाले साहित्यकार जुड़े और उन्हें अपनी बात हर तरह से जाहिर करने का मंच इन पत्रिकाओं ने दिया। तीसरी- साहित्य की ऐसी पत्रिकाएं, जो कमर्शियल भी हैं और सरोकारी भी- ऐसी पत्रिकाओं में पहले पहल सारिका थी, जो टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप की ओर से चलाई जाती थी और कमर्शियल वजहों से ही बंद भी हो गई और अब हंस, कथादेश जैसी पत्रिकाएं हैं, जो सरोकारी होने के साथ-साथ प्रकाशकों के कमर्शियल हितों की भी पूर्ति कर रही हैं। इन पत्रिकाओं को सीधे-सीधे कमर्शियल इसलिए नहीं कहा जा सकता कि अगर सिर्फ मुनाफे का ख्याल रखा जाता, और सरोकारों को छोड़ दिया जाता तो इनका भी अंतिम समय आ चुका होता, लेकिन सरोकारों को साथ लेकर भी ये पत्रिकाएं प्रकाशकों पर बोझ नहीं हैं इसलिए कमर्शियल लिहाज से भी इनकी गणना की जा सकती है।
हंस और कथादेश जैसी कई पत्रिकाएं आधुनिक दौर की खांटी साहित्यिक पत्रिकाओं में शुमार हैं जिनमें न सिर्फ प्रतिष्ठित लेखकों, साहित्यकारों की रचनाएं पढ़ने को मिलती रही हैं, बल्कि, नए और उभरते लेखकों को भी बढ़ने का भरपूर अवसर मिला। ऐसी पत्रिकाओं में सारिका की किन्हीं परिस्थितियों में अकाल मृत्यु भले ही हो गई, लेकिन हंस को पुनर्जीवित करने का काम मशहूर साहित्यकार राजेंद्र यादव ने किया और अपने पूरे जीवनकाल में करीब 27 वर्षों तक वे इस पत्रिका को शानदार तरीके से चलाते रहे। 1930 में वाराणसी से मुंशी प्रेमचंद की ओर से शुरु की गई हंस पत्रिका का प्रकाशन मुंशी प्रेमचंद की मृत्यु के बाद काफी समय बंद रहा। 1986 से फिर इस पत्रिका को कथाकार राजेंद्र यादव ने मासिक रूप में निकालना शुरु किया और जीवनपर्यंत प्रकाशित करते रहे। अक्टूबर 2013 में अपने निधन तक राजेंद्र यादव हंस के प्रकाशन के लिए इतना ठोस आधार छोड़ गए कि इस नामी पत्रिका को जारी रखना कोई मुश्किल नहीं, लेकिन राजेंद्र जी के बाद का दृश्यांतरहंस को किस ओर ले जाएगा कहना मुश्किल है। निस्संदेह कहा जा सकता है कि साथी साहित्यिकों और खुद अपने माध्यम से राजेंद्र यादव हंस को बहस के एक मंच के रूप में स्थापित करने में सफल रहे। हिंदी साहित्य के कविता-कहानी से इतर स्त्री-पुरुष संबंधों, दलित विमर्श और कई सामाजिक समस्याओं से जुड़े पहलुओं पर अपने और साथी साहित्यकारों के विचार-वितान के जरिए राजेंद्र जी ने हंस के मंच पर गर्मागर्म बहसें करवाईं जिनकी वजह से वे खुद भी चर्चा में रहे और पत्रिका तो चर्चित होनी ही थी। राजेंद्र जी ने हंस का पाठक वर्ग बनाया और मेरा ऐसा मानना है कि पत्रिका को बिकाऊ बनाए रखने के लिए उन्होंने ऐसे तमाम जतन किए जिससे लोगों की दिलचस्पी उसमें बनी रहे। हिंदी साहित्य के स्तंभ के रूप में राजेंद्र जी ने न सिर्फ सम्मानित और प्रतिष्ठित साहित्यकारों को ही स्थान दिया, बल्कि नए लोगों को भी उन्होंने पत्रिका में जगह दी और उनके साहित्यिक उद्भव और विकास का सहारा बने, ऐसा कहा जाए तो अनुचित न होगा। हंस के लिए कहानियों और कविताओं के चयन को लेकर राजेंद्र जी पर यदा-कदा कुछ सवाल भी उठे, लेकिन ये उनकी अपनी सोच का मामला था, इसपर टिप्पणी की आवश्यकता नहीं। हंस से अलग होकर साहित्यकार हरिनारायण ने कथादेश नाम से पत्रिका लांच की और वो जल्द ही हंस को टक्कर देने लगी। कथादेश भी अपने नाम के अनुरूप कहानियों पर केंद्रित पत्रिका ही रही है, लेकिन इसमें भी मुद्दों पर बहस को पर्याप्त जगह दी जाती रही है। सारिका की कमी पूरी करने में ये दोनों पत्रिकाएं काफी हद तक सफल रही हैं, खासकर उन पाठकों के लिए जो किसी धारा से न जुड़े हों। साथ ही आसानी से इन पत्रिकाओं का सुलभ होना भी आम पाठकों के लिए आकर्षक रहा है, क्योंकि पत्रिकाएं तो हिंदी में बहुत सी हैं, जिनमें कहानियां और कविताएं छपती हैं, लेकिन अपने-अपने आयाम हैं। पहल, तद्भव जैसी शुद्ध साहित्यिक पत्रिकाएं मासिक न होने और आसानी से बुक स्टॉल पर उपलब्ध न होने के कारण खास पाठक वर्ग की पत्रिकाएं होकर रह गईं। इन जैसी ढेर सारी साहित्यिक पत्रिकाएं लघु पत्रिकाओं की श्रेणी में आती हैं, अनियतकालीन तरीके से प्रकाशित होती हैं और इनका भी खास पाठक और लेखक वर्ग है, जो इनकी परंपरा को जिंदा रखे हुए है।
बात साहित्यिक पत्रिकाओं के दृश्यांतर की हो रही है, तो यहां हंस और कथादेश जैसी पत्रिकाओं के कंटेंट पर विचार जरूरी हो जाता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है – हंस को आगे बढ़ाने में राजेंद्र जी के अपने आभामंडल और उनके जरिए शुरु की गई बहसों का अहम योगदान माना जा सकता है। राजेंद्र जी के समकालीन साहित्यिकों में मोहन राकेश और कमलेश्वर की अपनी-अपनी दुनिया थी। नामवर सिंह का अपना क्षेत्र है। उनके समकालीन ऐसे तमाम साहित्यकार रहे हैं, जो अपनी रचनाओं के लिए चर्चित रहे, लेकिन साहित्यिकों को जैसा मंच राजेंद्र जी ने दिया, वैसा शायद किसी ने नहीं। राजेंद्र जी हंस के सब कुछ थे, तो जाहिर है, पत्रिका में जो कुछ छपता रहा, वो उनकी सहमति से ही छपता रहा। चाहे वो होना-सोना..’ हो, या फिर तथाकथित खुलेपन से भरपूर कोई कहानी, स्त्री विमर्श और महिलाओं के साथ शोषण, उनकी आजादी जैसे मुद्दों के नाम पर कहानियों में भरी तमाम ऐसी बातें, जिन्हें पारंपरिक तौर पर कोई खुलकर नहीं कहता। ये हिंदी साहित्य के यथार्थवाद का दौर है, आधुनिक साहित्य का दौर है, तमाम रूढ़ियों से हम आजाद हो चुके हैं, तो फिर कागज पर वो सब लिखने में काहे की परहेज, जो अंधेरे बंद कमरे में होता रहा है (और आज के आधुनिक दौर में तो सरेआम भी होता है)। फिल्मों में भी तमाम बंदिशों का लोप हो रहा है, तो साहित्य में क्यों न हो। मेरा ये मानना हैकि राजेंद्र जी ने अपनी विचारधारा और कारोबारी रणनीति के तहत ऐसे लेखन को मंच दिया और बढ़ावा दिया, जिसमें सभ्य सुसंस्कृत शब्दों में वो सब सामने लाया जाए, जिसे आमतौर पर समाज में खुलेआम नहीं कहा-देखा-सुना जाता हो और संपूर्ण में से एक ऐसे पाठक वर्ग की भी उन दबी हुई इच्छाओं की पूर्ति हो, जो अजंता-एलोरा-खजुराहो की मूर्ति देखकर पूरी हो सकती हैं। उसके लिए छिपाकर पढ़ी जानेवाली कोई किताब पढ़ने की जरूरत न हो, बल्कि साहित्यिक पत्रिका के आवरण में ही वो सब उपलब्ध हो, जो भारत में सेंसर बोर्ड की अनुमति के बाद दिखाई जानेवाली अंग्रेजी फिल्मों में होता है। दिवंगत राजेंद्र जी और उनके द्वारा मंच पर जगह पानेवाले तमाम लेखक-रचनाकार ऐसा मानते होंगे कि जो कुछ वो प्रकाशित करते रहे हैं या लिखते रहे हैं वो यथार्थ है, कोरी कल्पना नहीं है, लेकिन पढ़नेवाला पाठक वर्ग तो चंद लफ्जों में ही उस यथार्थ की कल्पना करके अपनी क्षुधा-पूर्ति कर सकता है। हंस ही नहीं कथादेश और दूसरी पत्रिकाओं में भी इस तरह के कथा-लेखन को जगह मिलती रही है। नवंबर 2013 से शुरु हुई पत्रिका दृश्यांतर में भी ऐसी रचना दिखी और ऐसा लगा कि संपादक महोदय राजेंद्र जी के शिष्य होने की वजह से उनकी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। जाहिर है, अगर राजेंद्र जी ने कारोबारी सोच के तहत ऐसी रचनाओं को जगह दी होगी, तो दृश्यांतर को भी हिंदी के बाजार में हिट होने में देर नहीं लगेगी। लेकिन सवाल है कि कोई लेखक अपनी इच्छा के तहत कुछ भी लिखे, प्रकाशक कुछ भी छापे, क्या सरोकारी पत्रिकाओं को भी सिर्फ इस नाम पर वो सब छापना चाहिए कि ये अमुक के शोषण, उसके साथ हुई बेरहमी की दास्तां है। अगर ये सब छापना ही है, तो उस चोले में क्यों। लेखकों का मत अलग हो सकता है- कोई अपनी आत्मकथा लिख रहा है, तो उसका कुछ हिस्सा ऐसा हो सकता है, जिसमें ऐसी कोई बात खुलेआम चित्रित की गई हो, जो पर्दे में रहनी चाहिए, या उसे दूसरे तरीके से भी कहा जा सकता है। अगर प्रस्तुति प्रेम कविता या प्रेम कहानी है, तो उसमें आपके कर्मों के उद्दाम विश्लेषण से कोई शिकायत नहीं, क्योंकि आपको आत्मानुभवों के वर्णन की पूरी छूट है। बहरहाल, मुद्दा विवादास्पद है और इसके जरिए पूरे साहित्य लेखन को लेकर बहस हो सकती है, इस नाचीज लेखक को संघी या दक्षिणपंथी करार दिया जा सकता है। लेकिन, सरसरी तौर पर देखें, ये जरूर कहा जा सकता है कि आज के दौर की साहित्यिक पत्रिकाओं का कंटेट तो किसी असाहित्यिक आम आदमी को भी साहित्यिक बनने के लिए प्रेरित कर सकता है। देखना होगा कि मीडिया के मायालोक में राजेंद्र जी के जाने के बाद साहित्यिक पत्रिकाओं का दृश्यांतरकैसा रंग लाता है।
साहित्य तो राजनीतिक और सामयिक पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होता रहा है। गुजरे दौर में आम पाठकों के लिए साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, दिनमान जैसी पत्रिकाओं में भी सामग्री मुहैया कराई जाती थी, जिस परंपरा को अब भी हिंदी इंडिया टुडे, आउटलुक हिंदी, शुक्रवार जैसी न जाने कितनी ही साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रिकाओं ने जिंदा रखा हुआ है। लेकिन, साहित्यिक पत्रिकाओं की कविता-कहानी का साहित्यिक कंटेट जैसा है, वैसा शायद इन सामयिक पत्रिकाओं में न मिले। आम पाठकों की अभिरुचि का साहित्य, कविता, कहानी तो कादंबिनी, सरिता, मुक्ता जैसी पत्रिकाओं में भी भरपूर मात्रा में उपलब्ध रहता आया है, जिस साहित्य को शायद हिंदी साहित्य के इतिहास में कभी जगह नहीं मिली और न मिलेगी। लेकिन, कमर्शियल लिहाज से देखें तो ये पत्रिकाएं हंस और कथादेश जैसी पत्रिकाओं से कहीं आजे हैं। गंभीर पत्रिकाओं में भारतीय विद्या भवन की ओऱ से प्रकाशित नवनीत नाम की पत्रिका है, जिसमें साहित्य और मिलती-जुलती सामग्री होती है। लेकिन, शायद अधिक प्रचार-प्रसार न होने से लंबे समय से निकल रही ये पत्रिका उतनी लोकप्रिय या यूं कहें कि सुलभ नहीं है। मामला मार्केटिंग का है और कहा जाता है कि मीडिया में कंटेंटही किंगहै, तो सुधी पाठकों को साहित्यिक पत्रिकाओं के दृश्यांतर पर नज़र रखनी होगी।

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