Monday, December 16, 2013

हिंदी समाचार पत्रिकाओं का भविष्य



-कुमार कौस्तुभ
क्या भारत में हिंदी समाचार पत्रिकाओं का वजूद खतरे में है? क्या इंडिया टुडे जैसी समाचार पत्रिकाओं के पाठक वर्ग में कमी आ रही है? क्या हिंदी समाचार पत्रिकाएं स्तरीयता खोती जा रही हैं? ऐसे तमाम सवाल इन दिनों प्रासंगिक हैं। भारत में टेलीविजन समाचार चैनलों के उत्थान के बावजूद समाचार पत्रों ने तो अपनी जगह पाठकों के बीच बरकरार रखी है, लेकिन समाचार पत्रिकाओं की सेहत में गिरावट देखी गई है। 2010 और बाद के रीडरशिप सर्वे को देखें तो साफ पता चलता है कि हिंदी पाठक वर्ग में इंडिया टुडे और आउटलुक हिंदी जैसी समाचार पत्रिकाओं की अव्वल जगह नहीं। इनके बजाय, सरस सलिल जैसी चलताऊ सामग्री देने वाली पत्रिका सर्वेक्षणों में लगातार टॉप पर रही है तो दूसरा नंबर प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयोगी प्रतियोगित दर्पण जैसी पत्रिका का रहा है। ऐसे में हिंदी समाचार पत्रिकाओं पर सवाल उठना लाजिमी है।
यूं तो हिंदी समाचार पत्रिकाओं के बंद होने का सिलसिला 80 के दशक के अंत में ही शुरु हो गया था, जब टेलिविजन के समाचार चैनल अस्तित्व में लगभग नहीं थे। लगभग 50 साल चली समाचार पत्रिका धर्मयुग को 1989 में बंद कर दिया गया। इसी दौर में मशहूर समाचार पत्रिका साप्ताहिक हिंदुस्तान भी बंद हो गई। संडे मेल और हिंदी संडे ऑब्जर्वर जैसे अखबार और समाचार पत्रिकाओं के मिले-जुले रूप भी इन पत्रिकाओं की जगह न ले सके और जल्द ही बंद हो गए। उस वक्त हिंदी की चर्चित समाचार पत्रिकाओं के बंद होने के पीछे कारोबारी समस्याएं मानी जा सकती हैं। 80 के दशक में इंडिया टुडे का हिंदी संस्करण बाजार में आ चुका था और उसने हिंदी पट्टी में जबर्दस्त पैठ बनाई थी। वैसे मौलिक विश्लेषण के बजाय अनुवाद आधारित पत्रिका होने की वजह से इंडिया टुडे हिंदी की लगातार आलोचना भी हुई, लेकिन चमक-दमक भरे प्रेजेंटेशन के साथ-साथ अनुवाद में भी मौलिक विश्लेषण का मुलम्मा चढ़ाकर इंडिया टुडे ने हिंदी पट्टी के पाठक वर्ग पर ऐसा कब्जा कर लिया जिसे तोड़ना किसी भी दूसरी समाचार पत्रिका के लिए मुश्किल रहा । 80 के दशक में इलाहाबाद से प्रकाशित समाचार पत्रिका माया की भी हिंदी पट्टी पर जबर्दस्त पकड़ थी, लेकिन इंडिया टुडे सबको पीछे छोड़कर आगे निकल गई। इसी की तर्ज पर काफी आगे चलकर अंग्रेजी आउटलुक का भी हिंदी संस्करण प्रख्यात पत्रकार आलोक मेहता के संपादन में 90 के दशक में शुरु हुआ था, लेकिन वो भी वैसी पहचान न बना सका। हालांकि इंडिया टुडे हिंदी के उद्भव ने हिंदी पट्टी में उसके आकार-प्रकार की और भी पत्रिकाओं के प्रकाशन की बुनियाद खड़ी की, जिनमें से बहुतेरी आज भी प्रकाशित हो रही हैं और नई पत्रिकाएं भी आने लगी हैं, लेकिन इंडिया टुडे की जगह लेना उसके जैसी पत्रिकाओं के लिए मुमकिन नहीं हो सका। सरस सलिल और प्रतियोगिता दर्पण जैसी पत्रिकाओं ने इंडिया टुडे और उसके जैसी समाचार पत्रिकाओं को रीडरशिप सर्वे में भले ही पछाड़ा हो, लेकिन ये तो बिल्कुल साफ है कि उनका कंटेंट अलग है और उसके मुताबिक पाठक वर्ग भी अलग है। ऐसे में समाचार पत्रिकाओं से उनकी कोई तुलना हो ही नहीं सकती।
जहां तक हिंदी की समाचार पत्रिकाओं के भविष्य का सवाल है, तो उस पर विचार करने से पहले ये भी समझना होगा कि आखिर समाचार पत्रिकाओं की जरूरत ही क्य़ों पड़ी। धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाएं जिस दौर में शुरु हुई थीं उस दौरान आम लोगों तक समाचारों की पहुंच का एकमात्र सुलभ माध्यम था रेडियो। समाचार पत्र छपते तो जरूर थे, लेकिन दूर-दराज के इलाकों के पाठकों तक उनका पहुंच पाना तो 80 के दशक तक मुश्किल था। ऐसे में लोगों को समाचारों की जानकारी रेडियो के जरिए तो होती थी, लेकिन समाचार आधारित विमर्श की भूख शांत नहीं हो पाती थी। ऐसी परिस्थिति में शुरु की गई समाचार पत्रिकाओं ने बड़ा पाठक वर्ग बनाया क्य़ोंकि देर से ही सही दूर-दराज के लोगों तक समाचारों के विश्लेषण पहुंचाने में वो सफल रहीं। कहना न होगा कि इन पत्रिकाओं ने काफी हद तक नए कलेवर में उन राजनीतिक और सामाजिक पत्रिकाओं की भी जगह ली जिन्हें गांधी, नेहरू और बड़े नेताओं का संरक्षण हासिल था। कारोबारी घरानों से निकली इन पत्रिकाओं का विस्तार दिनमान, रविवार जैसी पत्रिकाओं के साथ हुआ लेकिन शाय़द कारोबारी समस्याओं की वजह से ही ये चल न सकीं। परंतु, जनमानस में समाचार विश्लेषणों के जरिए खबरिया नजरिये को पेश करने की जो कोशिश इन पत्रिकाओं ने की, उससे समाचार-संवाद की आम जन की भूख जरूर तृप्त हुई, साथ ही बड़े स्तर पर पत्रकारीय गतिविधियों को भी बढ़ावा मिला। धर्मवीर भारती, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, उदयन शर्मा, एसपी सिंह जैसे नामवर साहित्यकार और पत्रकार इन पत्रिकाओं से जुड़े और स्वतंत्र भारत में हिंदी पत्रकारिता को नया आय़ाम दिया ।
स्वतंत्रता पूर्व और स्वतंत्रता आंदोलन के बाद देश में प्रकाशित होनेवाली हिंदी समाचार पत्रिकाओं में बड़ा फर्क देखा जा सकता है। स्वतंत्रता पूर्व की पत्रिकाएं जहां स्वतंत्रता आंदोलन के मिशन से ओतप्रोत थीं, वहीं स्वतंत्रता के बाद शुरु हुई पत्रिकाओं की पैकेजिंग कुछ इस तरह से की गई कि समाज के हर तबके और परिवार के हर सदस्य के लिए ये उपयोगी हों। बहुधा, ऐसी पत्रिकाओं में समाचार और विचार के साथ-साथ पूरे परिवार के लिए उपयोगी सामग्री पेश की जाती थी। समाचारों से जुड़ी कवर स्टोरी के अलावा मानवीय संवेदना परक खबरों, सम-सामयिक महत्व की सामग्री और खेल-खिलाड़ी, कारोबार, विज्ञान, सिनेमा, कला-संस्कृति-साहित्य की हलचल के साथ-साथ महिलाओं और बच्चों के लिए भी इन पत्रिकाओं में गिनी-चुनी सामग्री जरूर रहती थी जिसके चलते परिवार के हर सदस्य को हर सप्ताह इन पत्रिकाओं का इंतजार रहता था। रविवार और दिनमान जैसी चुनिंदा पत्रिकाओं को छोड़ दें, तो धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाएं तो हर परिवार के लिए संग्रहणीय हो चली थीं। आज भी साप्ताहिक तौर पर प्रकाशित होनेवाली ऐसी तमाम पत्रिकाओं में पैकेजिंग का चलन कमोबेश वही है, हालांकि अब बच्चों और महिलाओं के लिए अलग-अलग ढेर सारी पत्रिकाएं चल रही है, लेकिन काफी हद तक आज भी कोशिश ये होती है कि पत्रिकाएं पूरे परिवार के लिए हों।
सवाल ये है कि जब समाचार पत्रिकाएं पूरे परिवार के लिए साप्ताहिक पैकेजपेश कर ही रही हैं, तो फिर उनके वजूद पर संकट क्यों? इसका उत्तर यही हो सकता है कि एक तरफ टेलीविजन समाचार चैनलों का बढ़ता असर, तो दूसरी तरफ समाचार पत्रों का क्षेत्रीयकरण ऐसी पत्रिकाओं को अपना ग्रास बना रहा है। 80 के दशक के बाद से समाचार पत्रों का जबर्दस्त क्षेत्रीय विस्तार हुआ है। इक्कीसवीं सदी में प्रिंटिंग की आधुनिक सुविधाओं के आने से तमाम राष्ट्रीय समाचार पत्र क्षेत्रीय भी नहीं, बल्कि शहर आधारित होकर रह गए हैं। यानी अब अखबारों की प्राथमिकता उस इलाके की खबरों को प्रमुखता देने की है, जहां से उनके अधिकतर पन्ने प्रकाशित हो रहे हैं, न कि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय य़ा राज्य स्तर के मसलों को। हां, पहले पन्ने पर राष्ट्रीय या राज्य स्तर की खबरें प्रमुख हो सकती हैं, लेकिन बाकी पन्नों पर तो मसलन बिहार में पटना, भागलपुर या मुजफ्फरपुर से जुड़े इलाकों की ही छोटी-से-छोटी खबर को जगह मिलेगी। इस तरह प्रकाशन के विस्तार से अखबारों के प्रसार को भी बढ़ावा दिया गय़ा है। जिन जगहों पर दिल्ली से प्रकाशित अखबार एक दिन बाद पहुंचते थे, अब उन्हीं अखबारों के क्षेत्रीय संस्करण सुबह-सुबह पहुंच जाते हैं। जाहिर है, लोगों तक खबरों की पहुंच अखबारों के जरिए आसान हो गई है और उसी तरीके से उनसे जुड़े विश्लेषणों की भी। दूसरा माध्यम हैं टेलीविजन के समाचार चैनल, जो राष्ट्रीय और अंतराराष्ट्रीय से लेकर अपने लक्षित क्षेत्रों की हर बड़ी-छोटी खबर तेजी से प्रसारित करने को तैयार रहते हैं। यही नहीं, समाचारों के विश्लेषण भी लगातार दिखते हैं, जिनसे पाठकों-दर्शकों को व्यापक सोच का दायरा मिलता है।
खबरों को जनता तक पहुंचाने की इस होड़ की चर्चा इंटरनेट माध्यमों की बात किए बगैर अधूरी रहेगी। अब तमाम अखबार और समाचार चैनल इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। तो जहां भी जिस व्यक्ति के पास कंप्यूटर या फिर यहां तक कि मोबाइल के जरिए इंटरनेट की सुविधा हासिल है, वो खबरों और उनसे जुड़ी सामग्रियों ही नहीं, अपनी पसंद की तमाम बौद्धिक और मनोरंजक सामग्रियों को एक क्लिक के जरिए हासिल कर सकता है। ऐसे में, पत्रिका के लिए हफ्तेभर इंतजार क्यों करना? जिस तरह की सामग्री पत्रिका में हफ्तेभर बाद हासिल होगी, उसे इंटरनेट पर जब जी चाहे हासिल कर सकते हैं और पत्रिका को घर में जमा करके कबाड़ इकट्ठा करने की भी जहमत नहीं, सारी सामग्री वर्चुअल स्पेस में भंडारित रहेगी, जब जी चाहे, आसानी से खोजकर इस्तेमाल भी कर सकते हैं। ये ऐसी स्थिति पैदा हो गई है, जिसे समाचार से जुड़ी ही नहीं, बल्कि, खेल, महिलाओं और बच्चों से जुड़ी पत्रिकाओं के भी कागजी रूप की अंतिम घड़ी माना जा सकता है। वक्त को पहचानते हुए इंडिया टुडे जैसे प्रकाशन समूहों ने पत्रिकाओं के वजूद को बचाए रखने की कोशिश भी शुरु कर दी है और उनके डिजिटल संस्करण निकालने लगे हैं, जिन्हें अच्छे डिस्काउंट पर ग्राहकों को दिया जा रहा है। यानी एक तरह से देखें तो ये इंटरनेट आधारित पत्रिकाओं को बढ़ावा देने की कोशिश भी है ताकि प्रिंट संस्करण बंद करके खर्चे घटाए जा सके। पिछले दिनों अमेरिकी पत्रिका न्यूज़वीक ने इसकी पहल की और अब भारत में भी इसकी तैयारी होती दिख रही है।
सवाल ये है कि डिज़िटाइजेशन से क्या फर्क आएगा, क्या पत्रिकाएं मर जाएंगी? पारंपरिक पत्रिकाओं का क्या स्वरूप रहेगा? एक समय ये भी बातें उछ रही थीं कि इंटरनेट के आने से पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय खत्म हो सकता है। कुछ ऐसा ही पत्रिकाओं के संदर्भ में भी सोचा जा सकता है। लेकिन, मेरा मानना है कि दिल्ली अभी दूर है और जमीनी हकीकत कुछ और है। इंटरनेट ने पत्रिकाओं को प्रकाशन का नया आधार जरूर दिया है। देश ही नहीं दुनिया भर में कोने-कोने में बैठे लोगों तक पहुंचने का अवसर दिया है। ऐसे में पत्रिकाओं के लिए इसका इस्तेमाल सुखद है। रही बात उन पाठकों की जो अब भी इंटरनेट की सुविधा से महरूम हैं, तो उनके लिए पत्रिकाओं के प्रकाशकों को सोचना होगा और ऐसे पाठकों से जुड़े रहने, उनकी जरूरत पूरी करने के लिए नए सिरे से सोचना होगा। सीधी सी बात ये है कि भारत अभी अमेरिका नहीं हुआ है और इंटरनेट की उपलब्धता यहां अब भी काफी बड़े क्षेत्र के लोगों में नहीं है। ऐसे में एक बड़ा पाठक वर्ग है, जिसे अपने साथ जोड़ना पत्रिकाओं का दायित्व भी है और उनके कारोबारी हितों के लिए जरूरी भी।

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