Wednesday, December 9, 2009

50 Years of DR SK Sinha Women`s College, Motihari

One of oldest educational institutions of Champaran and one and only women`s college of Motihari - DR SK Sinha Women`s College is completing its 50 years. The anniversary of this college is going to be celebrated soon. We will give details regarding the college and realted programmes. We also invite memories of its alimuni on http://chalochamparan.blogspot.com/
Pls respond.

Thursday, November 12, 2009

चंपारण चिंतनः मौलिक साहित्य(कविता)


वन की व्यथा
कट रहे वन उपवन
बना जीवन विजन
सुख शांति का आगार
बना कारागार
साकार बने निर्जन
न रहे, वन सघन
न रहे, लता-विटप-सुमन
न रहे, बनपाखी कूंजन-गुंजन
न रहे, स्वजन-परिजन, अमन
व्यथा जन-जन
मन की कहे-
अनमने-भरे-तपे, दुखे
तपोधन-तपोवन।
कटे, कट रहे, वन-उपवन।
व्यथा सबकी कहे,
सूखे-झुलसे
जले वन
कटे, कट रहे, वन-उपवन।
-डॉ. राम स्वार्थ ठाकुर

Thursday, October 29, 2009

कैसे बचेगी 'बेतिया राज' की धरोहर?

बेतिया राज के नाम से यूं तो चंपारण का बच्चा-बच्चा परिचित होगा, लेकिन अब इस खानदान की धरोहर और इसके अवशेष खत्म होने की राह पर हैं। शायद वो दिन दूर नहीं, जब इस राजवंश की गाथा इतिहास के पन्नों में सिमट जाए। सन १२४४ में जैथरिया वंश की शख्सियत गंगेश्वर देव के वंशज अगर सेन ने इस राजवंश की नींव रखी। अगर सेन को मुगल सम्राट शाहजहां ने राजा की पदवी से नवाजा था और १६५९ में इस पदवी को सुशोभित करनेवाले उनके वंशज राजा गज सिंह ने बेतिया में अपना महल बनवाया जिसके साथ ही चलन में आ गया इस परिवार का नाम बेतिया राज। ४०० साल पुराने इस राजवंश की तमाम धरोहरें बेतिया में अंतिम सांसें ले रही हैं। इन्हें देखनेवाला इस परिवार का कोई नहीं बचा और सरकार ने इसकी संपत्ति और अवशेषों की देखरेख के लिए जो रिसीवर नियुक्त कर रखा है, वो भी शायद कागजी जिम्मेदारी ज्यादा निभा रहे हैं। हाल ही में दैनिक जागरण के पटना संस्करण के इंटरनेट एडिशन में छपी खबर ने बेतिया राज की धरोहरों की जो दास्तां बयां की है, उसे पढ़कर हकीकत का पता चलता है। ये रिपोर्ट हम ज्यों की त्यों यहां पेश कर रहे हैं-
" ऐतिहासिक बेतिया राज के मंदिरों एवं उसके अन्य धरोहरों पर चोरों की नजर है। जिससे पौराणिक धरोहरों पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण इस राज की संपदा को संरक्षित रखने की दिशा में कोई सशक्त सरकारी पहल नहीं दिख रही है। आखिर कैसे हो डंडे वाले चौकीदार से कैसे हो बेतिया राज के अरबों की संपत्तियों की रखवाली। हाल में ऐतिहासिक कालीबाग मंदिर में हुई चोरी की घटना ने फिर एक बार इस कमजोर सुरक्षा तंत्र पर सवाल खड़ा कर दिया है। यह परिपाटी रही है कि चोरी की घटनाओं के बाद विभागीय प्रक्रिया पूरी कर ली जाती रही है और भविष्य में इनकी सुरक्षा भाग्य भरोसे छोड़ दिया जाता रहा है। उत्तराधिकारी एवं सरकार की लड़ाई के बीच इस राज की धरोहरों को कोर्ट आफ वार्डस के नियंत्रण में रखा गया है। जिसकी प्रशासनिक नियंत्रण एवं सुरक्षा की जिम्मेवारी पूरी तरह बिहार सरकार के उपर है। सरकारी नियंत्रण के बावजूद राज की अरबों की संपत्तियों की सुरक्षा एक-दो सिपाहियों की जिम्मे है। चोरी की घटनाओं पर जरा गौर करें तो नब्बे के दशक में बेतिया राज के खाजाना के मजबूत चादर काटकर कीमती आभूषणों, पत्थर आदि की चोरी कर ली गयी थी। इस मामले में बेतिया राज की ओर से दो करोड़ की संपत्ति की चोरी कर लिये जाने का मामला नगर थाने में दर्ज कराया गया था। फिर ऐतिहासिक कालीबाग मंदिर में 1996 में अज्ञात चोरों ने मुख्य मंदिर के समक्ष से बटुक भैरव की मूर्ति चुरा ली थी। इस मामले में बेतिया राज की ओर से नगर थाने में मामला दर्ज कराया गया था। इस क्रम में 2000 के दशक में भी राजा के समय के फोटो और खिलौनों समेत अन्य अंतरराष्ट्रीय कीमत के सामग्री की चोरी भी की गयी। लेकिन सभी चोरी के मामले आज तक पुलिस के अनुसंधान और सीआईडी की जांच में फंसे हुए हैं। कोई नतीजा नहीं निकल सका है। इस संपत्ति पर चोरों की गिद्ध दृष्टि इस माह में पड़ी। पिछले सप्ताह राज के अभिलेखागार में चोरी की घटना हुई। इस बाबत राज प्रबंधक सह अपर समाहर्ता ने नगर थाने में प्राथमिकी दर्ज करायी। इस घटना में दरवाजे की छिटकीनी काट कर खोला गया। लेकिन चोरों ने इस घटना में कौन सी परिसंपत्तियों की चोरी की, इस पर केवल संभावना ही व्यक्त की जा सकती है। बता दें कि इस अभिलेखागार में बेतिया राज के जमीन एवं परिसंपत्तियों से संबंधित दस्तावेज रखा गया है। प्राथमिकी में चोरी गये सामग्री का विवरण अंकित नहीं होने से सब कुछ रहस्यमय बना हुआ है। "
सवाल उठता है कि क्या बेतिया राज की धरोहरों और अवशेषों की सुरक्षा जरूरी नहीं, अगर जरूरी है, तो फिर इसकी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार कौन हैं, क्या सरकार और प्रशासन को इनके सदुपयोग की कोई चिंता नहीं हुई, सरकार चाहे तो बेतिया राज से जुड़े स्मारकों और महल के अवशेषों को पर्यटन से जोड़कर इन्हें दुनिया के सामने पेश कर सकती है, लेकिन जरूरत इच्छाशक्ति और स्वार्थरहित मानसिकता की है, जो शायद वर्तमान हालात में सरकार और प्रशासन के पास नहीं है।

Saturday, October 24, 2009

फिर याद आया छठ पर्व



चंपारण में सूर्य की उपासना का महापर्व छठ हमेशा की तरह इस बार भी भरपूर उत्साह के साथ मनाया गया। चार दिन का ये पर्व अब संपन्न हो गया है। पर्व के तीसरे दिन शनिवार शाम इलाके की तमाम नदियों के किनारे बने घाटों पर डूबते सूर्य को पहला अर्घ्य दिया गया। दूसरा अर्घ्य रविवार तड़के दिया गया। पूर्वांचल का ये एक ऐसा पर्व है जिसमें हिस्सा लेने दूर-दूर बसे लोग अपने घर वापस आते हैं। लिहाजा संयुक्त परिवारों के लिए ये मिलन का अनूठा पर्व है जिसमें तमाम रिश्तेदार- दादा-पोते, भाई-भतीजे, नाना-नाती सभी को अरसे बाद मिलने का मौका मिलता है। लिहाजा धार्मिक आस्था और परंपरा के साथ-साथ बरसों से ये पर्व पारिवारिक गेट-टुगेदर का रूप ले चुका है...साल-दर-साल अपने पुश्तैनी इलाकों से दूर रह रहे लोग भी इस मौके पर अपने घर जरूर आते हैं।
पूर्वी चंपारण के मुख्यालय मोतिहारी शहर में छठ पर्व के लिए पिछले कई दिनों से तैयारी की गई। शहर में मोतीझील, धनौती नदी और दूसरे जलाशयों के किनारे कम से कम 25 घाट तैयार किए गए। रघुनाथपुर, मेनरोड वृक्षेस्थान, धर्मसमाज चौक व रोईग क्लब समेत तमाम घाटों पर प्रशासन ने सफाई और दूसरे इंतजाम करने की कोशिश की।
उधर, नेपाल से सटे रक्सौल इलाके में भी तमाम जलाशयों के किनारे बने घाटों पर साफ-सफाई और सजावट काम किया गया। रक्सौल में आश्रम रोड, छठिया घाट, सूर्य मंदिर, भकुआ ब्रहमस्थान, नागा बाबा मठ, कौड़ीहार चौक, कुड़िया घाट, परेउवा, कोइरिया टोला नहर चौक, कस्टम कार्यालय के पास बने घाटों को सजा कर छठ पूजा के लिए तैयार किया गया। यही नहीं, रक्सौल से सटे नेपाल के वीरगंज में घड़िअर्वा पोखरी, छपकैया, नगवा में भी छठ पूजा के लिए घाटों का कायाकल्प किया गया। सबसे बड़ी समस्या इस मौके पर नदियों और जलाशयों में साफ पानी की है जिसके लिए नेपाल पर निर्भर रहना पड़ता है।
पश्चिमी चंपारण के जिला मुख्यालय बेतिया में और आसपास घर-घर में छठ पूजा की तैयारी का उत्साह चरम पर दिखा। छठ पूजा को लेकर बेतिया के बाजारों में रौनक नज़र आई। साथ ही जरूरी सामानों पर महंगाई की मार भी..लेकिन आस्था के प्रतीक इस पर्व के लिए कोई कोताही नहीं..लोग अपनी सामर्थ्य के मुताबिक पर्व मनाने में जुटे रहे। प्रशासन और निजी संगठनों ने शहर में तमाम घाटों पर पूजा और सुरक्षा के व्यापक इंतजाम किए।

क्या है छठ पर्वः "माना जाता है कि 'छठी मईया' सूर्य की शक्ति हैं। कामना का मंगल उत्सव है यह महापर्व। पुरातन संस्कृति में सूर्य को शक्ति का पर्याय माना गया है। पर्व के साथ हमारी कृषि संस्कृति का जुड़ाव और उसके बिम्ब लोकगीत में देखने हो तो छठी मईया के गीत सुनिए। जिनमें बांस की बहंगी तो है ही केरवा का घवद भी है। 'कांच ही बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाए..केरवा जे फरेल घवद से ओह प सुग्गा मेडराय।..(http://ishare.rediff.com/music/BhojpuriDevotional/KANCH-HI-BAANS-KE-BAHANGIYA/10089286)... मन की श्रद्धा और पवित्रता का कोई जोर ही नहीं है। सुग्गा यानी तोते को भी केला के घौद पर बैठने की इजाजत नहीं है। पवित्रता और कृषि जीवन का समागम देखना हो तो छठ व्रत में इस्तेमाल की जानेवाली चीजों की बारीकियों पर ध्यान देना होगा। बांस का सूप, बांस की टोकरी, हल्दी के पौधे, चावल-गेंहू तो कद्दू-अदरख, नींबू-नारियल, ईख और न जाने क्या-क्या। सूर्य चूंकि जाग्रत देवता हैं। पर्यावरण और ऋतुचक्र के स्वामी हैं, इसलिए हम अस्ताचलगामी सूर्य को अ‌र्घ्य देते है। सूर्य के इस तेजस्वी स्वरुप की कामना भी लोकगीतों में है। वैदिक परंपरा में भी कई मंत्र ऐसे हैं जो सूर्य को समर्पित है। विष्णु पुराण का एक आख्यान है कि सूर्य ने विश्वकर्मा की पुत्री तथा बाद में छाया से विवाह किया पहली पत्‍‌नी से जो पुत्र प्राप्त हुआ वह यम था। इसलिए सूर्य की उपासना वाला यह पर्व दीर्घ जीवन की कामना करता है। जिसे सुनते ही मन में रागात्मक श्रद्धा का स्पंदन होने लगता है। रोम-रोम कांच बांस की बहंगी की तरह डोलता है और मन की पवित्रता धरा पर भी झिलमिलाने लगती है। वे लोकगीत जिसके समवेत गायन मात्र से अलौकिक उर्जा का संचार हमारे मन को विभोर कर देता है। नहाय खाय से शुरू सूर्योपासना के महान पर्व छठ के चार दिवसीय अनुष्ठान के दूसरे दिन खरना संपन्न होता है। खरना पर व्रती दिन भर उपवास रख विधिपूर्वक मिट्टी के चूल्हे पर प्रसाद बनाते हैं, जिसके बाद रात में पूजा-अर्चना कर भगवान को भोग लगा, प्रसाद ग्रहण किया जाता है। घर-घर में गुंजायमान छठी मईया के गीतों के बीच महिलायें छठ पूजा के लिए प्रसाद बनाने में जुटी रहती हैं। इसके बाद आता है पहले अर्घ्य का दिन जब अस्ताचलगामी सूर्य को अ‌र्घ्य दिया जायेगा। इसके लिए कोसी का सामान, नारियल, सूप, दउरा, फल, गन्ना, मिट्टी के हाथी व अ‌र्घ्य में इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री से बाजार पट जाते हैं। पर्व के आखिरी दिन तड़के उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और इसके बाद लोग घाटों पर प्रसाद ग्रहण करते हुए अपने-अपने घर रवाना होते हैं। जाति-पांति, यहां तक कि धर्म से भी परे आस्था की बदौलत तमाम लोग इस पर्व में हिस्सा लेते हैं..सूर्य देवता और छठी मईया के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए कई लोग घरों से डंडवत लेटते हुए घाट तक पहुंचते हैं और पानी में खड़े होकर अर्घ्यदान करते हैं। ( छठ के महात्म्य की जानकारी कई समाचार पत्रों से साभार)

Sunday, October 18, 2009

"जहां आज भी आदिम युग में जीते हैं लोग"


ये है थरुहट की हकीकत
दीपावली के दिन नेट पर अखबार दैनिक जागरण के पन्ने पलटते हुए इस खबर पर नजर पड़ी- "जहां आज भी आदिम युग में जीते हैं लोग" - जिक्र पश्चिम चंपारण जिले के थारु बहुल इलाके दोन का है। आजादी के बासठ साल बाद इस इलाके की याद सरकार को आई हो, ऐसा नहीं है। ये भी कुछ लोग संयोग ही मान सकते हैं कि बिहार में चुनाव करीब है, इसलिए सरकार ने इस इलाके की सुध ली है और जिले के थारु बहुल इलाके की कई पंचायतों को मॉडल घोषित किया है। कारण चाहे जो भी हो, लेकिन आज फिर ये इलाका चर्चा में हैं। अखबार लिखता है- "आदर्श पंचायत के तौर पर घोषित रामनगर प्रखंड का नौरंगिया व बनकटवा करमहिया पंचायत। यहां के लोग आज भी आदिम युग में जीते हैं। ...आजादी के इतने लंबे अंतराल के बाद भी इस इलाके में लोग बिजली, स्वच्छ पानी, शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं।" अखबार ये भी लिखता है कि चुनाव के समय नेताओं को दोन की याद आती है और लंबी-लंबी घोषणाएं होती है, लेकिन चुनाव बाद योजना को देखने कोई नहीं आता। नौरंगिया पंचायत की आबादी 12,000 एवं बनकटवा करमहिया की आबादी 13,500 है। दोनों पंचायतों को आदर्श पंचायत का दर्जा भी मिला है। लेकिन इलाके में सिर्फ चौदह फीसदी लोग हीं शिक्षित हैं और हैरत की बात ये भी है कि पांच सौ घरों की बस्ती शेरवा दोन, दो सौ की परेवा दह, दो सौ की चम्पापुर, 70 घरों की 150 घरों की शीतलबाड़ी गांव के किसी भी व्यक्ति ने सरकारी नौकरी का मुंह नहीं देखा। - जाहिर है, इसका मौका तो आगे मिलेगा भी नहीं क्योंकि नरेगा के तहत 100 दिन रोजगार की गारंटी मिलेगी..सरकारी नौकरी की नहीं..बेचारा गरीब बाल-बच्चों का पेट पालेगा, उन्हें बड़ा करेगा और फिर मजदूर ही बना सकेगा, सरकारी बाबू नहीं..क्योंकि सरकारी दफ्तर की कुंजी तो उन लोगों के हाथ में है जो पटना और दिल्ली में बैठते हैं र पांच साल में एक बार दरस दिखा देते हैं..दे देते हैं वादों के पिटारे, दिखा जाते हैं सपने...गांवों के लोगों के हवाले से अखबार लिखता है कि दोन व थरुहट के लोग इलाके में स्कूल-कॉलेज बनाने के लिए जमीन भी देने को तैयार हैं। लेकिन शिक्षा मिलेगी तो वो सवाल भी उठेंगे जिनके जवाब देना नता-नौकरशाहों के लिए शायद मुमकिन नहीं..ऐसे में बदलाव की झलक दिखलाकर अपना काम निकालना भला कौन नहीं चाहेगा...

Wednesday, October 14, 2009

THE KEROSENE BOY

A cycle of four poems-On Choti & Bari Diwali 2009, A third humble gift to Motihari, India

By Anant Kumar
tr. from the German by
Prof. Dr. Marilya Veteto Reese, North Arizona University, Flagstaff-AZ, USA


1. The Birth

While it rained
in Mango village
someone
tore through his mother’s womb

her husband ran
yes ran in thunder and lightning

for the doctors of Motihari sat
behind closed doors

Indra let it pour today:
some whored
some caressed

we lay in puddles
screaming
powerless

the village women massaged
cold hands, rigid feet

while Shiva opend the eyes
yes opened by Shiva
the woman was revived


2. Girlboy

In school
I am teased
Because I am a girlboy.

Mama, she was saddened
A bit--
When she saw the little man.
She’d hoped for a girl.

Bapu was glad
Not of my little man
But because he had-
Both, me and my Amma.

So I am:
Just mama’s child.
Girl and boy.


3. Big and Little

Three of us
quite small
quite little


Motihari grows apace
shops and stores
many children


At the big depot
where we live is
the diesel engines bring
the trains there
from big cities
from Bombay from Delhi

Motiharis misery
in German snapshots
snakes
that frighten me
Japanese do films.

4. The Kerosene Boy

Daytimes
my Daddy
carries mail
while I’m sitting
here in school

Evenings
shopkeeper
he
and his salesman
I

sells fresh produce
Mama
and kerosene
I
at the biggest circle
where lovely women up on
giant billboards

when nighttimes
the lamps flicker
and it is fragrant
children work at
lessons for school

Quite good
That’s me in maths
Especially
fond of English.
Sudhir Kumar is my name
I am
9
............................................
ABOUT ANANT KUMAR:

Anant Kumar, a writer in the German language, was born in Bihar. His birth place is Katihar where his father Prof. Major R. Prasad served the Indian Army. He did his schooling at Zila School Motihari and his father taught Psychology at M. S. College Motihari.

He learnt German as a Foreign Language in New Delhi, before he came to Germany. Between 1992 and 1999, he studied German Literature and Linguistics. He wrote his Masters Thesis on the epic MANAS of Alfred Doeblin at the University of Kassel, Germany. Besides regular contributions to literary magazines and periodicals, he is the author of twelve books of poetry and prose in German. He has received several awards in contemporary German literature and is a member of German Writers Association. www.anant-kumar.de

This English translation is done by Prof. Dr. Marilya Veteto Reese (North Arizona University, Flagstaff-AZ, USA). http://jan.ucc.nau.edu/mvc/html/cv.html

Tuesday, October 13, 2009

अनंत कुमार की साहित्य यात्रा

जिंदगी के अनुभवों की कड़िय़ां
चंपारण से गहरा रिश्ता रखनेवाले जर्मन भाषा के भारतीय लेखक अनंत कुमार का साहित्य जिंदगी के अनुभवों को बांटती है। पिछले दिनों Albert-Schweitzer-School में अपने प्रेज़ेंटेशन के दौरान करीब 25 छात्रों और अन्य लोगों के सामने उन्होंने अपनी कुछ कहानियां और कविताएं पेश कीं। इस दौरान उन्होंने अपनी पुस्तक "India I: Sweet" से चुनिंदा कहानियां भी पेश कीं। इनमें से एक कहानी संतरे बेहद पसंद करनेवाले एक बच्चे के बारे में थी जिसके पिता संतरे पसंद नहीं करते थे( ये कहानी आप पिछले पोस्ट्स में पढ़ चुके हैं)
इसके बाद श्री कुमार ने एक कुत्ते के बारे में अपनी कहानी सुनाई, लेकिन भाषा और सांस्कृतिक विविधता के कारण लोगों की इस पर अलग-अलग प्रतिक्रियाएं मिलीं।
इस प्रेजेंटेशन की आखिरी कहानी एक चोर के बारे में थी जिसने चोरी छोड़कर सामान्य जीवन बिताना शुरू कर दिया था। लेकिन जीवन के अंतिम दिनों में उसने फिर चोरी शुरू कर दी। मौत के बाद देवताओं के बीच ये विमर्श शुरू हुआ कि उसे स्वर्ग में भेजा जाए या नर्क में भेजने की सजा दी जाए। आखिरकार सबसे बड़े देवता ने उसे वापस धरती पर भेजने का फैसला किया। श्रोताओं को कहानी पसंद आई और इस पर बहस भी हुई कि आखिर क्यों एक चोर को दोबारा नई जिंदगी देकर धरती पर भेजा गया।
जर्मनी में इस तरह के साहित्य-संवादों की परंपरा सराहनीय है..भारत में भी ऐसी परंपरा है, लेकिन जरूरत है इसके विस्तार की ताकि साहित्य से लोगों को गहराई से जोड़ा जा सके और उनकी दिलचस्पी बरकरार रखी जा सके।

Monday, October 12, 2009

अनंत कुमार का सफरनामा

जर्मनी में मोतिहारी से जुड़े प्रतिष्ठित लेखक अनंत कुमार के यात्रा वृत्तांत की तस्वीरें नीचे दिए गए लिंक पर देखी जा सकती हैं-

http://www.carl-von-weinberg-schule.de/jsp/epctrl.jsp?con=CVWS000223&cat=CVWS000000&mod=CVWS000000&pri=CVWS

Wednesday, October 7, 2009

मिनी चंबल में नरेगा


मिनी चंबल के नाम से चर्चित रहे वाल्मिकीनगर के जंगलों में पहुंचा नरेगा यानी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम और जंगल के किनारे बसे गांवों के लोगों को जंगलों में भी मिलेगा रोजगार। हाल में दैनिक जागरण में छपी खबर की मानें तो प्रशासन जंगल में नरेगा लागू करके एक ही तीर से दो लक्ष्य साधना चाहता है। पहला लक्ष्य तो गांववालों को रोजगार मुहैया कराना है, दूसरा जंगल को सुरक्षित रखना। इसेक लिए ग्रामीण विकास विभाग और वन विभाग मिल-जुलकर काम कर रहे हैं। नरेगी के तहत गांववालों को जंगल में वन कर्मियों के साथ-साथ गश्ती के काम में लगाने की योजना है। साथ ही तालाब साफ करने,झाड़ी साफ करने, बाड़ लगाने जैसे तमाम काम में देहाती श्रमशक्ति का इस्तेमाल हो सकेगा। प्रशासन के प्रयास सराहनीय हैं, बशर्ते इन्हें तरीके से लागू किया जाए और जिन लोगों को इनका फायदा मिलनेवाला है, वो जंगल को अपना समझकर इन्हें बचाए रखने की मंशा रखें। न्यूनतम रोजगार के रास्ते मोटा फायदा उठाने की मंशा रखनेवालों के लिए जंगल की राह खोलना खतरे से खाली नहीं होगा। इलाके में जंगलों को अवैध तरीके से काटने की घटनाएं आम हैं। सभी जानते हैं कि जंगलों को काटने और तबाह करनेवाले परदेस से नहीं आते ऐसे में रक्षक ही भक्षक बन जाए तो कोई बड़ी बात नहीं..सबसे बड़ी चुनौती नीति को लागू करने की इच्छाशक्ति और लोगों में जंगल को जीवन से जोड़ने की भावना को जगाना है, जो शायद सरकारी योजनाओं से परे है।

Monday, October 5, 2009

Future of Tharus will change?

Kya din bahurenge tharuhat ke?
थारू जनजाति भारत के सीमावर्ती नेपाल तराई इलाके से लेकर चंपारण के अंचलों तक फैली है। पश्चिमी चंपारण जिला प्रशासन ने हाल ही में थारुओं के विकास के लिए थारू विकास प्राधिकार बनाने का फ़ैसला किया है। साथ ही सरकारी स्तर पर थारू बहुल इलाकों में शिक्षा-दीक्षा की सुविधाएं बढ़ाने पर भी जोर दिया जा रहा है। ऐसे में सवाल ये है कि क्या चंपारण के थारुओं की दशा में बदलाव आएगा और क्या संस्कृति को बचाते हुए उनके दिन बहुरेंगे?

Friday, October 2, 2009

Reflection

The Mosques on the Banks of the Ganges: Apart or Together?[i]

(On 2nd October, 2009, A second humble gift to Motihari, India)

By Anant Kumar
tr. from the German by
Prof. Dr. em. Rajendra Prasad Jain (JNU, India/ Univ. of Muenster, Germany)

These days, like most Europeans, I too think very often about the Muslims. This, despite the fact that, in contrast to the adherents of Mohammed, neither my ancestors nor the numerous gods of my country ever had anything to do with the Occident. On the other hand, however, thousands of mosques are situated on the banks of the Ganges together with millions of Hindu temples. From Benares to Calcutta. And it is not uncommon on that thickly populated Indo-Gangetic Plain that one brother starts to hate the other only because he wears different clothes. Or one worships another God, or eats a different kind of meat. It often happens that siblings fight one another. Even unto death.

After the deaths on September 11 I thought less – if at all, then only marginally – about Muslims, but a great deal more about the unscrupulous terrorists who could recruit at will from various groups of people, minorities, nations… And as a human being I felt blind hatred against the organizations, groups of people, countries … whose pictures were repeatedly flashed in the aftermath. And gradually the common denominator became more and more evident to me, i.e., that all of them were Muslims.

I became more confused and uncertain and tried to find solace in the writings of my western ideals, who are poets and thinkers. With great care I read an interview with the philosopher Gadamer, who himself had had to live through the most devastating wars of mankind, entitled “I am very frightened.” His answer to the question of the ‘Acceptable Future of all Religions’ was a help to me, viz., that it is possible to come to terms with everything, except the religion of the Arabs.[ii] I read the paragraph again.

As far as I can remember I had had a similar discussion with my elder brother in Delhi (during my studies in New Delhi). At that time we had reacted to a report in India Today, India’s Der Spiegel, which read: “Throughout the world the nations and cultures have had conflicts with the Muslims, irrespective of whether they were in a minority, as in India, or a majority, as in Indonesia.” Then, the report appeared to us, two students of the Indian middle class, like a scientific observation and simultaneously as a logical explanation of certain evil situations. And we believed it.

In my small hometown, Motihari, in Eastern India, where George Orwell saw the light of day, and where, in 1917, Gandhi started his Satyagraha movement,[iii] the Muslims are in a minority. And in my childhood and youth I, a Hindu, had an interesting relationship with them. We went to school together and they were my playmates.

Every now and then, however, conflicts did take place between adherents of the two major religions of India, between Muslims and Hindus. Special security measures were adopted during those tense days and weeks. Parents forbade their children to go into areas where mosques were situated.

There was a small Muslim ghetto, about as large as the northern part of Kassel, called the agarwa.[iv] In this area lived a large Muslim joint family. My father, a Hindu, was related to this family. Yes, ‘related’ is the correct expression, as my father, a strict disciplinarian in his own family, was looked upon in that Muslim family as the most beloved and generous of uncles. The children of that family told me that only as young men did they get to know that my father was neither a Muslim nor a blood relative. He spoke excellent Urdu[v] and in his wardrobe one could find several well-cut sherwanis.[vi]

But we children belonged, on the one hand, to a Western-oriented era, and simultaneously to modern, progressive India, in which Pakistan and its Muslims were considered arch enemies.

My brother and I were particularly fond of Muslim festivals, especially on account of the delicious sweets prepared on these occasions. My mother comes from a strictly vegetarian Hindu family, and at home even today no meat is cooked. But we brothers had early on discovered the joys of eating meat. At such functions the Muslims prepared for their Hindu guests and neighbours dishes made from goat’s meat. Just thinking about them even now my mouth starts watering. I can well remember the day when we visited the family late in the evening on Eid-ul-Azha[vii] and the meat had all been consumed. I was upset and both my brother and I wore downcast expressions. My aunt realised why and immediately asked her daughters, or her daughter-in-law, to prepare a fresh meat dish just for us. I was overjoyed!

Even as a child I was a revolutionary and, as a result, quite early on I moved away from my family. I spent the last years of school in cities thousands of miles away. The visits to my family were few and far between in those days, partly due to strained relations within the family, and partly due to the extreme competition at school, which entailed much work. It was the same with my elder brother. We did our best to get the best grades and results in order to be able to rise in the hierarchy of the Indian bourgeoisie.

In New Delhi my brother met his school friend, a Muslim by the name of Aquil Ahmad, once again. Both became bosom pals after this meeting. One of the important reasons for this was that Aquil was a student of Urdu literature, and Urdu poetry was my brother’s favourite reading in his leisure hours, although he was a student of Mathematics. He now lives and works successfully in the United States. I experienced the intensity of this relationship only incidentally, as I was a diligent student in the Foreign Languages Department at a different university. In due course I learnt that Aquil had lost his father as a child. He thus referred to my father as Uncle or sometimes even Baba,[viii] as we children did. Especially during the last few years, after we had emigrated to two different countries for higher studies, he took to calling my father Baba.

In 1993 I was working as a trainee in the Volkswagen factory in Kassel when I unexpectedly received news that my father was on his deathbed. I took the next plane out and when I landed in Delhi, in a state of shock, Aquil, the Muslim friend, arranged for my speedy travel to Patna in Eastern India. I did not arrive in time to see my father alive, but as a Hindu son I carried out his last rites according to Hindu tradition on the banks of the Ganges. At all the long complicated funeral ceremonies Aquil was the one who coordinated everything, working tirelessly like a well-oiled machine.

My colleague Dirk Schümer wrote the following in the FAZ : ‘What is Islam actually? I must admit that till now this question has only marginally interested me and I cannot for the life of me remember when the Mohammedan era began. 620? 628?’[ix] At first I thought his lines partly ironical, partly complaining. Then I imagined how it would look if in a public discussion, say on a television talk show, I suggested my understanding of his lines. I saw my colleague become irritated. He started refuting my interpretation: No! No! ... You have completely misunderstood me. I neither want to complain, nor to ignore Islam… But it is my right (and also possible) not to understand everything in this world. Suggest italics to indicate Schümer’s imaginary response.

Those same questions go through my head. But my case is more justified, surely, as I come from a country in which religion is seldom taught in schools. Furthermore, although a deeply religious and educated man, I have read only a fraction of the numerous Hindu sacred texts – the Vedas, the Upanishads and the Epics.

I saw on CNN a Muslim woman academic bemoaning the fact that Muslims, a third of the world’s population, remain misunderstood; that the rest of the world had to understand the Muslims, or else peaceful coexistence between nations would remain a utopian idea.

Hindus do not constitute even a third of the world’s population, and Buddhists are even fewer in number. I try in vain to imagine an international constellation in which temple bells would peal in Europe for millions of cow-worshippers and their billions of gods.

For me, as a writer educated in Europe, it is even more difficult to end this article with the opinion of the European philosopher Gadamer. ‘I don’t know, but I believe in our world as we know it, and I do not need any written explanation for that. It is really very difficult for a European to understand that it is not always so for others.’[x] Yes, very difficult, even if my colleagues like Mr. Schümer were to find Buddha, Krishna, Rama … and the cows very interesting and fascinating.

To comfort myself I let my thoughts drift to the mosques on the banks of the Ganges, especially since I – living in the country of my choice, like some of my western colleagues – am not concerned either with mosques or with Islam.



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[i] Almost 150 million Muslims live in India (as many as in Pakistan).

[ii] Die Welt, 25/09/2001

[iii] Satyagraha: civil disobedience for the sake of truth.

[iv] Agarwa: a foreign, Urdu-Persian term for the Hindus who account for 81% of the population.

[v] Urdu: official language of Pakistan, also spoken in large parts of India. It is related to the Indian national language, Hindi, but contains more.

[vi] Sherwani: a long coat for men with the collar buttoned at the neck in Mughal fashion.

[vii] Eid-ul-Azha: The second most important festival of the Muslims

[viii] Baba: Persian for father; an affectionate term for father in India.

[ix] FAZ, 30/09/2001

[x] Die Welt, 25/09/2001



ABOUT ANANT KUMAR:



Anant Kumar, a writer in the German language, was born in Bihar. His birth place is Katihar where his father Prof. Major R. Prasad served the Indian Army. He did his schooling at Zila School Motihari and his father taught Psychology at M. S. College Motihari.



He learnt German as a Foreign Language in New Delhi, before he came to Germany. Between 1992 and 1999, he studied German Literature and Linguistics. He wrote his Masters Thesis on the epic MANAS of Alfred Doeblin at the University of Kassel, Germany. Besides regular contributions to literary magazines and periodicals, he is the author of twelve books of poetry and prose in German. He has received several awards in contemporary German literature and is a member of German Writers Association. www.anant-kumar.de



This English translation is done by Prof. Dr. em. Rajendra Prasad Jain (Jawaharlal Nehru University, New Delhi) who taught also at the University of Muenster, Germany.





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Hessisch-Saechsische Lit.Tage 2009:Carl-von-Weinberg-Schule, Ffm:
http://www.carl-von-weinberg-schule.de/jsp/epctrl.jsp%3Bjsessionid=92C81794B94B7E9F91F547437B44F591?con=CVWS000223&cat=CVWS000000&mod=CVWS000000&pri=CVWS
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Adolfstraße 1, Wohnung 11, 34121 Kassel, Germany
www.anant-kumar.de , www.autorenhessen.de/autoren/kumar

VS Hessen, LIT Hessen e.V.
Else-Lasker-Schüler-Gesellschaft, Wuppertal
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Thursday, October 1, 2009

सो जाएंगे सिनेमाघर...

मोतिहारी के दो पुराने सिनेमाहॉल बंद होने की कगार पर है। दैनिक जागरण में इस सिलसिले में खबर पढ़कर एक बार फिर अपने शहर की पुरानी यादें ताजा हो गईं। करीब पांच से दस किलोमीटर के दायरे में फैले मोतिहारी शहर में गिनती के सिनेमाहॉ़ल हैं और हमारे जीवन की शुरुआत इन्हीं सिनेमाहॉल्स से जुड़ी है। पायल, संगीत, माधव, रॉक्सी और चित्रमंदिर- ये वो सिनेमाहॉल हैं, जहां मैंने फिल्में देखने के शगल की शुरुआत की..पहले मां और परिवारवालों के साथ, रिश्तेदारों-नातेदारों के साथ और फिर बाद में अपने दोस्तों-सहपाठियों के साथ। रॉक्सी वो सिनेमाहॉल है जिसमें अपने दोस्त प्रसून चौधरी के साथ 80 के आखिरी दशक में मैंने कई हॉरर फिल्में देखी होंगी..हैरत की बात ये है कि उस वक्त भी खस्ताहाल रहा ये सिनेमाहॉ़ल अब तक चलता रहा है..सुना था पिछले दिनों काफी वक्त बंद रहने के बाद ये फिर से शुरु हुआ था..लेकिन अब एक बार फिर ये बंदी की हालत में पहुंच चुका है...वही हाल चित्रमंदिर का,..शहर के मशहूर बलुआ चौक पर बना ये हॉल..अपने जमाने में चर्चित फिल्में दिखा चुका है.. वक्त के थपेड़ों ने शायद इसकी महलनुमा इमारत को तो नहीं हिलाया, लेकिन शायद इसके मालिकों के लिए अब इसे चलाना मुमकिन नहीं ..इन दोनों सिनेमाहॉल्स में बिजली गुल होने पर हम जनरेटर से लाइन आने का इंतजार भी किया करते थे..लेकिन अब वक्त बदल चुका है..शायद सिनेमाहॉल चलाना इन छोटे शहरों में फायदेमंद कारोबार नहीं रहा..टेलीविजन और वीडियो के बढ़े असर के साथ-साथ शहर में गुंडागर्दी के बढ़ते आलम ने लोगों की सिनेमा देखने सिनेमाहॉल जाने की आदत पर असर डाला है..मोतिहारी जैसे छोटे शहर में सिनेमाहॉल सिनेप्लेक्स में तब्दील नहीं हो सके..और मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो भी सकेगा..क्योंकि इसके पीछे शहर की अर्थव्यवस्था और सामाजिक परिस्थितियां जिम्मेदार हो सकती हैं..अखबार की खबर के मुताबिक, राक्सी सिनेमा हाल पर 2006 से टैक्स बकाया है। वहीं वर्ष 2004 से हॉल के नवीकरण का मामला भी लंबित है। रॉक्सी पर बिजली विभाग का भी काफी बकाया है..ऐसा ही हाल चित्रमंदिर सिनेमाह़ल का भी है। पायल और संगीत दोनों हॉल एक ही कॉम्प्लेक्स में हैं और एक ही मालिक के हैं..जाहिर है मालिक की व्यापार बुद्धि की कुशलता के चलते दोनों हॉ़ल अब भी बेहतर हालत में चल रहे हैं और शहर के निम्न-मझोले तबके के लोगों के मनोरंजन का अड्डा बने हुए हैं। लेकिन, शहर में सिनेमाहॉल्स का जो हाल है, वो एक तरह से मोतिहारी में सिनेमा देखने की प्रवृति-संस्कृति और संस्कार पर सवाल खड़े करता है..इस सिलसिले में विस्तार से फिर कभी..फिलहाल तो आइए ..अपने शहर में सिनेमाहॉल की स्थिति पर थोड़ा दुखी हो लें..क्योंकि आज यहां चाहे जो भी हालात हों...हमने सिनेमा देखने का शगल तो यहीं से शुरू किया ...(खबर दैनिक जागरण की वेबसाइट www.jagran.com पर पढ़ सकते हैं..

Wednesday, September 30, 2009

चंपारण चिंतन-1 (चंपारण से जुड़े लोगों का मौलिक साहित्य)

उत्सव
-डॉ. रामस्वार्थ ठाकुर
आज शाम जब ऑफिस से लौटा तो अपनी कॉलोनी निराला निवेश में एक उत्सवी समां देखने को मिला। दिन के नौ बजे इसका कोई संकेत नहीं मिला था। इसलिए इसे देखकर कुछ सोचने को बाध्य हुआ। उत्सव को आनंदोत्सव भी कहते हैं, मतलब जिस समारोह को खुशी, प्रसन्नता, आनंद से मनाया जाए- वह आनंदोत्सव है। खैर, घर आकर कपड़े उतारा और काम में लग गया। सोचता रहा- यह उत्सव निष्प्रयोजन नहीं हो सकता। हमारे यहां उत्सव भी उपलक्ष्य सापेक्ष व्यापार है। अवश्य इसका कोई कारण होगा। फिर किनकी ओर से मनाया जा रहा है, क्यों मनाया जा रहा है आदि-आदि तमाम सवाल उठने लगे मन में। अपने भीतर प्रश्नों का समाधान नहीं मिला तो नल पर बर्तन मांजती हुई दाई से पूछ बैठा- ये उत्सव कैसा है, किसकी ओर से मनाया जा रहा है। देखा दाई बर्तन मांजने में तन्मय है, उत्सव का उसके मनप्राण पर कोई असर नहीं पड़ा। यह उत्सव मेरे अथवा दाई के लिए नहीं है। य़ह कुछ खास लोगों के लिए है। देखता हूं- दूर-दूर से आमंत्रित लोग आए हैं, आ भी रहे हैं, कारें लगी हैं, पूरा शामियाना आगंतुकों की चहल-पहल, कहकहों-हंसी ठहाकों से गूंज रहा है। कहीं किसी टेबल पर प्लेटों में मिठाइयां परोसी जा रही हैं, तो कहीं पूड़ियां-कचौरियां। ये सब ठीक है। लेकिन, सोचता हूं- क्या इस उत्सव में कोई ऐसा भी व्यक्ति आया है जिससे उत्सव करनेवाले का कोई संबंध न हो..आप कहेंगे, कैसा बेतुका सवाल है- हर व्यक्ति का अपना परिचय क्षेत्र है, रिश्ते-नाते हैं। ऐसे में किसी अपरिचित को कौन बुलाकर अपने यहां खिला-पिला सकता है- मैं इस विचार से थोड़ा असहमत हूं। हम उत्सव मनाते हैं केवल अपनों को सुखी करने और अपने सुख के लिए, क्यो कोई दूसरों को सुखी बनाने के लिए भी उत्सव आयोजित करता है..क्या है कोई ऐसा उत्सव जिसमें आजीवन दुखी रहनेवालों को भी सुख के सुअवसर सुलभ कराने का प्रयास किया जाए..सुभोजन कराए जाएं..सुविधाएं बांटी जाएं..हमारे यहां उत्सव के ऐसे पूप अब तक विकसित नहीं किए गए हैं..अभी तक हमारी सभ्यता का आचरण सुखी को ही सुख पहुंचाने तक सीमित रहा है, जो अपूर्ण है, अधूरा है। उत्सव तो वही सार्थक है, जो हारे-थके-सुख-सुविधाविहीन लोगों को प्रसन्नता बांटने के लिए हो। अब आप उत्सव से दूर उस दाई की मनोदशा का दुखद अनुभव कर सकते हैं जो जीवनयापन के लिए चंद रुपये कमाने की कोशिश में उत्सव से परे अपने काम में जुटी थी।

Wednesday, September 23, 2009

चंपारण भूमि-2

‘टेका’
-प्रो. रामस्वार्थ ठाकुर
मुगल सम्राट औरंगजेब ने भी अपनी जिंदगी की आखिरी रात में जीने के लिए दवा की जगह दुआ मांगी थी। भारतवर्ष की आध्यात्मिक देवभूमि के चप्पे-चप्पे में इस दुआ, श्रद्धा, आशीष, आस्था के प्रतीक चिह्न मिलते हैं। जगह-जगह बड़े-बड़े तीर्थ तो हैं ही, छोटे-बड़े गांवों कस्बों में भी ऐसे स्थान हैं जहां जीवन में मुसीबतों से हारे-थके लोगों को राहत मिलती है, मन को चैन और आराम मिलता है, शंका-समाधान होता है। विज्ञान की दृष्टि में जो भ्रम है, अज्ञान है, अंधविश्वास और आडंबर है, भारत के गांवों में वही आस्था का रूप हो सकता है। देहात के लोगों के लिए माटी का ‘पीड़िया’(पिंड, पीड़ी, मूर्ति, प्रतीक) ही भगवान है। चंपारण जिले में बड़कागांव पंचायत में ऐसा ही एक प्रतीक है ‘टेका’। टेका का मतलब यहां वैसे तो देवी-देवता के पूजा स्थल से है, जहां सप्ताह में एक दिन दूर-दूर से लोग इकट्ठा होते हैं और ‘भगता’ नाम के पुजारी देवी-देवता की पूजा करते हैं और आगंतुकों की आधि-व्याधि संबंधी शंकाओं का समाधान भी करते हैं। ‘भगता’ नाम के पुजारी इसी गांव के मूल निवासी और गृहस्थ होते हैं। 50 से भी अधिक वर्षों के लंबे समय से अपनी महिमा के कारण यह ‘टेका’ लोक-विश्रुत है। इस गांव में इस ‘टेका’ के संस्थापक मुख्य ‘भगता’ कुछ ही वर्ष पूर्व तक जीवित थे। वे स्वयं अपनी दैवी सिद्धि के बारे में बतलाते थे कि कैसे उनका देवी से साक्षात्कार हुआ और देवी ने प्रसन्न होकर उनको आश्रय कर रहने या ठहरने या आम भाषा में टेकने की इच्छा जाहिर की और इसी के साथ ‘टेका’ का जन्म हुआ। बाबूलाल ओझा नाम के इस गृहस्थ ब्राह्मण ने कथित दैवी निर्देश में ‘टेका’ को स्थापित किया और जीवन पर्यन्त नियमित रूप से इसका आयोजन करते रहे। आम लोग गवाह हैं कि यह उनकी निःस्वार्थ लोक सेवा थी । समस्य़ा-समाधान अथवा आधि-व्याधि दूर हो जाने पर देवी की पूजा के लिए लोग कुछ धन या वस्तुएं प्रतीकात्मक रूप से दिया करते थे। इस ‘टेका’ का भव्य और विशाल रूप दशहरे के दौरान दिखाई पड़ता था – लगातार 9 दिनों तक यहां दिन-रात देवी की पूजा होती थी और श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती थी। आदि भगता बाबूलाल ओझा एक सज्जन, मृदुभाषी, नम्र और सहिष्णु व्यक्ति थे और देवी की अपनी कथित शक्ति-कृपा के माध्यम से वो गांववालों और दूरागत श्रद्धालुओं का कल्याण किया करते थे। यद्यपि अब वो संसार में नहीं हैं, लेकिन ‘टेका’ अब भी उनके दिशा-निर्देशों के मुताबिक लगता है। कहते हैं उन्होंने अपने कनिष्ठ पुत्र को देवी सेवा और ‘टेका’ लगाने का दायित्व दे रखा है। उनके पुत्र भी पूरी श्रद्धा-निष्ठा से अपने पिता के निर्दिष्ट-प्रदत्त दायित्व के निर्वाह में तत्पर हैं। इसमें संदेह नहीं कि इस टेका की दैवी शक्ति में लोक-आस्था अत्यंत गहरी है। प्रचार-विज्ञापन के इस युग में भी यह टेका केवल लोक-आस्था पर ही टिका हुआ पूजित-सम्मानित स्थल है।
नोट- देश में कितनी ही जगहों पर, सुदूर देहाती अंचलों में ‘टेका’ जैसे आय़ोजनों की परंपरा देखी जा सकती है, जहां ओझा-गुनी-पुजारी दैवी शक्तियों के जरिए लोगों के कष्ट दूर करने का दावा करते हैं और लोक आस्था के बल पर उनका काम भी चलता रहता है। कई जगहों पर ऐसी परंपराओं ने भोले-भाले अनजान लोगों के शोषण का रूप भी ले लिया। कहां कितनी सच्चाई है, ये अनुसंधान का विषय है। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि चंपारण के ग्रामीण अंचल बड़कागांव जैसे इलाकों में सैकडों बरसों से चली आ रही ‘टेका’ जैसे आय़ोजनों की परंपरा अपने आप में सबसे अलग है।

Saturday, September 19, 2009

चंपारण भूमि-1

‘तीन बांध’
-प्रो. रामस्वार्थ ठाकुर
चंपारण में या और भी कहीं ऐसा क्षेत्र शायद ही कहीं हो, जहां तीन बांध होने के प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद हों। बिहार के पकड़ीदयाल अनुमंडल के बड़कागांव पंचायत में यह प्रमाण देखा जा सकता है। बड़कागांव के पश्चिम में लगभग 10 किलोमीटर लंबे क्षेत्र में सिकरहना नदी का पूर्वी किनारा है। इस नदी से पूरब का क्षेत्र हमेशा बाढ़ से तबाह होता रहा है। हहराज, भेड़ियाही, गोंढ़वा, कुंअवा, ठिकहां, फुलवार, हरकबारा, बड़कागांव आदि आवासी ग्रामीण क्षेत्र इस नदी के सीधे प्रभाव में रहते आए हैं। वर्षा में जब भी बाढ़ आती है, यह पूरा क्षेत्र जलमग्न हो जाता है। अंग्रेज शासन में इस बाढ़ के नुकसान को देखा और महसूस किया गया। फलतः सरकार की ओर से समय-समय पर बांध बनवाए गए। आज यहां बड़कागांव से उत्तर दिशा में दो बांधों के टूटने के अवशेष मौजूद हैं। पता नहीं किन कारणों से ये बांध उत्तर दिशा में ही पूरब से पश्चिम की ओर बंधवाए गए, जबकि नदी का बहाव उत्तर से दक्षिण- गांव के पश्चिम में है। बड़कागांव और अन्य सभी गांवों में नदी का पानी पश्चिम से घुसता था और पूरे क्षेत्र में फैल जाता था। पूर्व के दोनों बांध देश की आजादी से पहले ही बनाए गए थे। ये दोनों बांध कब और क्यों टूटे ये अभिलेख से खोज के विषय हो सकते हैं। अभी इन दोनों भग्न बांधों के अवशेष मौजूद हैं जो यूं तो सरकारी जमीन है, लेकिन इन पर अवैध कब्जा है। बताते हैं कि बांधों की सरकारी जमीन का ये अवैध कब्जा कम से कम सौ एकड़ का है। देश की स्वाधीनता के बाद देश में आम चुनाव के वक्त इस क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या सिकरहना नदी की बाढ़ से बचाव की ही थी। पहले आम चुनाव में जीतकर विधायक बने कांग्रेस के श्री गदाधर सिंह ने कड़ी मिहनत से इलाके में एक नए बांध के प्रस्ताव को पास करवाकर कार्यान्वित भी करवाया जो आज बड़कागांव के पश्चिम में सिकरहना नदी के पूर्वी किनारे को बांधता हुआ उत्तर से दक्षिण तक गया है। यह यहां इस क्षेत्र का तीसरा बांध है। इस बांध से इलाके को हर साल आनेवाली बाढ़ से सुरक्षा जरूर मिली, लेकिन मूल रूप से इस क्षेत्र की नैसर्गिक बनावट जल ग्रहण की है, इस कारण बारिश ज्यादा होने पर इलाके को बाढ़ जैसे समस्या से जूझना पड़ता ही है। 2007 में भी पूरा इलाका बारिश के पानी की बाढ़ से ही डूब गया था। ऐसे में जरूरत पूर्व में टूटे दो बांधों के संदेशों को सुनने और समझने की है।

Wednesday, September 16, 2009

Papa and Oranges (A humble gift to Motihari, India)

BY ANANT KUMAR
Maybe my father had something against oranges. Maybe because he never expressed his disinterest for the yellow juicy fruits to us, Mother and children. In any case, he never brought home oranges. Instead, apples and bananas were heaped in the kitchen. That these two, that is to say apples and bananas, were his favorite, we children knew.
We had a large private garden for vegetables and fruit in that little East Indian town of Motihari. In it grew all sorts of seasonal vegetables, and on the edge of the field numerous banana trees were planted. In the hot monsoon region no apples grow, after all. They come from the northern Himalayas, where the climate is more temperate and the land is hillier.
Oranges didn t grow at our place either. They came from the western part of India to us. It was said that there were many orange plantations in the vicinity of Nagpur, but I never saw any orange tree as a child, though I wished to fervently: fragrant trees full of juicy fruit!
As a child, I liked them very much, also because the humid summer lasts a long time in India just as the drizzly German winter does. So my dry child s throat yearned for sweet fresh orange juice. And my second-eldest sister, Mukta, liked citrus fruits very much. We siblings squeezed the stinging juice from the orange peel into each other s eyes mischievously. We considered it good for the eyes, just like the tears from cutting up onions.
Oranges were available at home only occasionally, if someone other than Papa bought fruit or had brought it as a present.
Fruit was plentiful in Motihari. Sometimes a little more expensive, sometimes a little more affordable. At the Mina bazaar in the center of the town there were countless fruit shops. Papa bought fruit from a fat, rich merchant on the main street. I did not like this man at all. Not only because of his gigantic belly, but above all because of his manner. The fat man gave me the impression of being unlikeable and lucre-lusty. But he had more luck than other merchants. The location of his shop was perfect and the rich and illiterate merchant had good clientele from the middle and richer levels of society.
I do not know to this day what the cultured people of my town saw in that puffed out belly and on the even more puffed out posterior of that merchant. I suspect perhaps that the old law of capitalism was at play there. To wit, that money makes one more interesting and attractive. So the rich man got even richer. Whether his brain developed further is doubtable.
That there were so many subspecies of orange is something I didn t learn until I was in Germany. Clementines, mandarins and oranges I eat here now and again. But such a yearning for citrus as in my childhood does not exist. Perhaps the reason is that my throat here, in the cold of Europe, rarely experiences thirst. In contrast to hot Motihari.
But the desire for an overloaded orange tree awakens in me now and then. And tragically, oranges are not cultivated in Germany. They come from Spain. Perhaps I will one day read my poems in Spain beneath an orange tree.
Contrary to expectations, Papa died very young. And he still owes me an answer as to why he could not abide oranges.
I feel sometimes like a magician and to top it all off, I am a poet. Perhaps I should conjure up Papa some day and get the answers to my question.
Yet I know, if Papa is here, that I would have forgotten my question. And he would bring apples and bananas home again. Yes, no oranges, my dears. And I will teasingly make fun of his apples and bananas, for I grew up to be almost as big as he.
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ABOUT ANANT KUMAR:
Anant Kumar, a writer in the German language, was born in Bihar. His birth place is Katihar where his father Prof. Major R. Prasad served the Indian Army. He did his schooling at Zila School Motihari and his father taught Psychology at M.S. College Motihari.
He learnt German as a Foreign Language in New Delhi, before he came to Germany. Between 1992 and 1999, he studied German Literature and Linguistics. He wrote his Masters Thesis on the epic MANAS of Alfred Doeblin at the University of Kassel, Germany. Besides regular contributions to literary magazines and periodicals, he is the author of twelve books of poetry and prose in German. He has received several awards in contemporary German literature and is a member of German Writers Association.www.anant-kumar.de
His works, i.e. short stories, essays and poems, have been translated into English by Prof Marilya Reese, NAU, AZ-USA (http://jan.ucc.nau.edu/mvc/html/cv.html )

Thursday, September 10, 2009

Orwell`s Champaran

"George Orwell, author of books Animal Farm and Nineteen Eighty-Four, was born in Motihari in 1903. His father Richard Walmesley Blair was a deputy posted in the opium department in Bihar. However, when he was one year old, George left for England with his mother and sister.



Until recently, the town of Motihari was largely unaware of its connection to Orwell. In 2003, Motihari discovered its role in Orwell's life when a number of journalists arrived in the city for what would have been Orwell's hundredth birthday. Local officials are making plans for the construction of a museum on Orwell's life."
(source: http://wapedia.mobi/en/Motihari?t=3.#3.)

MAHATMA GANDHI`s CHAMPARAN

"Resurgence in the history of Bihar came during the struggle for India's independence. It was from Bihar that Mahatma Gandhi launched his civil-disobedience movement, which ultimately led to India's independence. At the persistent request of a farmer, Raj Kumar Shukla, from the district of Champaran, in 1917 Gandhiji took a train ride to Motihari, the district headquarters of Champaran. Here he learned, first hand, the sad plight of the indigo farmers suffering under the oppressive rule of the British. Alarmed at the tumultuous reception Gandhiji received in Champaran, the British authorities served notice on him to leave the Province of Bihar. Gandhiji refused to comply, saying that as an Indian he was free to travel anywhere in his own country. For this act of defiance he was detained in the district jail at Motihari. From his jail cell, with the help of his friend from South Africa days, C. F. Andrews, Gandhiji managed to send letters to journalists and the Viceroy of India describing what he saw in Champaran, and made formal demands for the emancipation of these people. When produced in court, the Magistrate ordered him released, but on payment of bail. Gandhiji refused to pay the bail. Instead, he indicated his preference to remain in jail under arrest. Alarmed at the huge response Gandhiji was receiving from the people of Champaran, and intimidated by the knowledge that Gandhiji had already managed to inform the Viceroy of the mistreatment of the farmers by the British plantation owners, the magistrate set him free, without payment of any bail. This was the first instance of the success of civil-disobedience as a tool to win freedom. The British received, their first "object lesson" of the power of civil-disobedience. It also made the British authorities recognize, for the first time, Gandhiji as a national leader of some consequence. What Raj Kumar Shukla had started, and the massive response people of Champaran gave to Gandhiji, catapulted his reputation throughout India. Thus, in 1917, began a series of events in a remote corner of Bihar, that ultimately led to the freedom of India in 1947.




Sir Richard Attenborough's award winning film, "Gandhi", authentically, and at some length, depicts the above episode. (Raj Kumar Shukla is not mentioned by his name in the film, however.) The two images here are from that film. The bearded gentleman, just behind Gandhiji, in the picture on the left, and on the elephant at right, is Raj Kumar Shukla.


Gandhiji, in his usual joking way, had commented that in Champaran he "found elephants just as common as bullock carts in (his native) Gujarat"!!"

(SOURCE: HISTORY OF BIHAR, http://gov.bih.nic.in/profile/history.htm)