Saturday, October 24, 2009

फिर याद आया छठ पर्व



चंपारण में सूर्य की उपासना का महापर्व छठ हमेशा की तरह इस बार भी भरपूर उत्साह के साथ मनाया गया। चार दिन का ये पर्व अब संपन्न हो गया है। पर्व के तीसरे दिन शनिवार शाम इलाके की तमाम नदियों के किनारे बने घाटों पर डूबते सूर्य को पहला अर्घ्य दिया गया। दूसरा अर्घ्य रविवार तड़के दिया गया। पूर्वांचल का ये एक ऐसा पर्व है जिसमें हिस्सा लेने दूर-दूर बसे लोग अपने घर वापस आते हैं। लिहाजा संयुक्त परिवारों के लिए ये मिलन का अनूठा पर्व है जिसमें तमाम रिश्तेदार- दादा-पोते, भाई-भतीजे, नाना-नाती सभी को अरसे बाद मिलने का मौका मिलता है। लिहाजा धार्मिक आस्था और परंपरा के साथ-साथ बरसों से ये पर्व पारिवारिक गेट-टुगेदर का रूप ले चुका है...साल-दर-साल अपने पुश्तैनी इलाकों से दूर रह रहे लोग भी इस मौके पर अपने घर जरूर आते हैं।
पूर्वी चंपारण के मुख्यालय मोतिहारी शहर में छठ पर्व के लिए पिछले कई दिनों से तैयारी की गई। शहर में मोतीझील, धनौती नदी और दूसरे जलाशयों के किनारे कम से कम 25 घाट तैयार किए गए। रघुनाथपुर, मेनरोड वृक्षेस्थान, धर्मसमाज चौक व रोईग क्लब समेत तमाम घाटों पर प्रशासन ने सफाई और दूसरे इंतजाम करने की कोशिश की।
उधर, नेपाल से सटे रक्सौल इलाके में भी तमाम जलाशयों के किनारे बने घाटों पर साफ-सफाई और सजावट काम किया गया। रक्सौल में आश्रम रोड, छठिया घाट, सूर्य मंदिर, भकुआ ब्रहमस्थान, नागा बाबा मठ, कौड़ीहार चौक, कुड़िया घाट, परेउवा, कोइरिया टोला नहर चौक, कस्टम कार्यालय के पास बने घाटों को सजा कर छठ पूजा के लिए तैयार किया गया। यही नहीं, रक्सौल से सटे नेपाल के वीरगंज में घड़िअर्वा पोखरी, छपकैया, नगवा में भी छठ पूजा के लिए घाटों का कायाकल्प किया गया। सबसे बड़ी समस्या इस मौके पर नदियों और जलाशयों में साफ पानी की है जिसके लिए नेपाल पर निर्भर रहना पड़ता है।
पश्चिमी चंपारण के जिला मुख्यालय बेतिया में और आसपास घर-घर में छठ पूजा की तैयारी का उत्साह चरम पर दिखा। छठ पूजा को लेकर बेतिया के बाजारों में रौनक नज़र आई। साथ ही जरूरी सामानों पर महंगाई की मार भी..लेकिन आस्था के प्रतीक इस पर्व के लिए कोई कोताही नहीं..लोग अपनी सामर्थ्य के मुताबिक पर्व मनाने में जुटे रहे। प्रशासन और निजी संगठनों ने शहर में तमाम घाटों पर पूजा और सुरक्षा के व्यापक इंतजाम किए।

क्या है छठ पर्वः "माना जाता है कि 'छठी मईया' सूर्य की शक्ति हैं। कामना का मंगल उत्सव है यह महापर्व। पुरातन संस्कृति में सूर्य को शक्ति का पर्याय माना गया है। पर्व के साथ हमारी कृषि संस्कृति का जुड़ाव और उसके बिम्ब लोकगीत में देखने हो तो छठी मईया के गीत सुनिए। जिनमें बांस की बहंगी तो है ही केरवा का घवद भी है। 'कांच ही बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाए..केरवा जे फरेल घवद से ओह प सुग्गा मेडराय।..(http://ishare.rediff.com/music/BhojpuriDevotional/KANCH-HI-BAANS-KE-BAHANGIYA/10089286)... मन की श्रद्धा और पवित्रता का कोई जोर ही नहीं है। सुग्गा यानी तोते को भी केला के घौद पर बैठने की इजाजत नहीं है। पवित्रता और कृषि जीवन का समागम देखना हो तो छठ व्रत में इस्तेमाल की जानेवाली चीजों की बारीकियों पर ध्यान देना होगा। बांस का सूप, बांस की टोकरी, हल्दी के पौधे, चावल-गेंहू तो कद्दू-अदरख, नींबू-नारियल, ईख और न जाने क्या-क्या। सूर्य चूंकि जाग्रत देवता हैं। पर्यावरण और ऋतुचक्र के स्वामी हैं, इसलिए हम अस्ताचलगामी सूर्य को अ‌र्घ्य देते है। सूर्य के इस तेजस्वी स्वरुप की कामना भी लोकगीतों में है। वैदिक परंपरा में भी कई मंत्र ऐसे हैं जो सूर्य को समर्पित है। विष्णु पुराण का एक आख्यान है कि सूर्य ने विश्वकर्मा की पुत्री तथा बाद में छाया से विवाह किया पहली पत्‍‌नी से जो पुत्र प्राप्त हुआ वह यम था। इसलिए सूर्य की उपासना वाला यह पर्व दीर्घ जीवन की कामना करता है। जिसे सुनते ही मन में रागात्मक श्रद्धा का स्पंदन होने लगता है। रोम-रोम कांच बांस की बहंगी की तरह डोलता है और मन की पवित्रता धरा पर भी झिलमिलाने लगती है। वे लोकगीत जिसके समवेत गायन मात्र से अलौकिक उर्जा का संचार हमारे मन को विभोर कर देता है। नहाय खाय से शुरू सूर्योपासना के महान पर्व छठ के चार दिवसीय अनुष्ठान के दूसरे दिन खरना संपन्न होता है। खरना पर व्रती दिन भर उपवास रख विधिपूर्वक मिट्टी के चूल्हे पर प्रसाद बनाते हैं, जिसके बाद रात में पूजा-अर्चना कर भगवान को भोग लगा, प्रसाद ग्रहण किया जाता है। घर-घर में गुंजायमान छठी मईया के गीतों के बीच महिलायें छठ पूजा के लिए प्रसाद बनाने में जुटी रहती हैं। इसके बाद आता है पहले अर्घ्य का दिन जब अस्ताचलगामी सूर्य को अ‌र्घ्य दिया जायेगा। इसके लिए कोसी का सामान, नारियल, सूप, दउरा, फल, गन्ना, मिट्टी के हाथी व अ‌र्घ्य में इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री से बाजार पट जाते हैं। पर्व के आखिरी दिन तड़के उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और इसके बाद लोग घाटों पर प्रसाद ग्रहण करते हुए अपने-अपने घर रवाना होते हैं। जाति-पांति, यहां तक कि धर्म से भी परे आस्था की बदौलत तमाम लोग इस पर्व में हिस्सा लेते हैं..सूर्य देवता और छठी मईया के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए कई लोग घरों से डंडवत लेटते हुए घाट तक पहुंचते हैं और पानी में खड़े होकर अर्घ्यदान करते हैं। ( छठ के महात्म्य की जानकारी कई समाचार पत्रों से साभार)

1 comment:

Manoj Pathak said...

Just imagine , chhath started when? Why? Who were promoters? who is the deity? who r the pujari?

Chhath is perhaps the only festival in which there is not a specific middle man like pujari. No mantras at all. No cast, creed or gender bar.

Try to find out the clues in the tradtion of chhath. all the materials used in chhath....symbol of hathi,sugarcane, deepak, kalash are trying to say something very important.

Manoj Pathak.