Wednesday, September 23, 2009

चंपारण भूमि-2

‘टेका’
-प्रो. रामस्वार्थ ठाकुर
मुगल सम्राट औरंगजेब ने भी अपनी जिंदगी की आखिरी रात में जीने के लिए दवा की जगह दुआ मांगी थी। भारतवर्ष की आध्यात्मिक देवभूमि के चप्पे-चप्पे में इस दुआ, श्रद्धा, आशीष, आस्था के प्रतीक चिह्न मिलते हैं। जगह-जगह बड़े-बड़े तीर्थ तो हैं ही, छोटे-बड़े गांवों कस्बों में भी ऐसे स्थान हैं जहां जीवन में मुसीबतों से हारे-थके लोगों को राहत मिलती है, मन को चैन और आराम मिलता है, शंका-समाधान होता है। विज्ञान की दृष्टि में जो भ्रम है, अज्ञान है, अंधविश्वास और आडंबर है, भारत के गांवों में वही आस्था का रूप हो सकता है। देहात के लोगों के लिए माटी का ‘पीड़िया’(पिंड, पीड़ी, मूर्ति, प्रतीक) ही भगवान है। चंपारण जिले में बड़कागांव पंचायत में ऐसा ही एक प्रतीक है ‘टेका’। टेका का मतलब यहां वैसे तो देवी-देवता के पूजा स्थल से है, जहां सप्ताह में एक दिन दूर-दूर से लोग इकट्ठा होते हैं और ‘भगता’ नाम के पुजारी देवी-देवता की पूजा करते हैं और आगंतुकों की आधि-व्याधि संबंधी शंकाओं का समाधान भी करते हैं। ‘भगता’ नाम के पुजारी इसी गांव के मूल निवासी और गृहस्थ होते हैं। 50 से भी अधिक वर्षों के लंबे समय से अपनी महिमा के कारण यह ‘टेका’ लोक-विश्रुत है। इस गांव में इस ‘टेका’ के संस्थापक मुख्य ‘भगता’ कुछ ही वर्ष पूर्व तक जीवित थे। वे स्वयं अपनी दैवी सिद्धि के बारे में बतलाते थे कि कैसे उनका देवी से साक्षात्कार हुआ और देवी ने प्रसन्न होकर उनको आश्रय कर रहने या ठहरने या आम भाषा में टेकने की इच्छा जाहिर की और इसी के साथ ‘टेका’ का जन्म हुआ। बाबूलाल ओझा नाम के इस गृहस्थ ब्राह्मण ने कथित दैवी निर्देश में ‘टेका’ को स्थापित किया और जीवन पर्यन्त नियमित रूप से इसका आयोजन करते रहे। आम लोग गवाह हैं कि यह उनकी निःस्वार्थ लोक सेवा थी । समस्य़ा-समाधान अथवा आधि-व्याधि दूर हो जाने पर देवी की पूजा के लिए लोग कुछ धन या वस्तुएं प्रतीकात्मक रूप से दिया करते थे। इस ‘टेका’ का भव्य और विशाल रूप दशहरे के दौरान दिखाई पड़ता था – लगातार 9 दिनों तक यहां दिन-रात देवी की पूजा होती थी और श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती थी। आदि भगता बाबूलाल ओझा एक सज्जन, मृदुभाषी, नम्र और सहिष्णु व्यक्ति थे और देवी की अपनी कथित शक्ति-कृपा के माध्यम से वो गांववालों और दूरागत श्रद्धालुओं का कल्याण किया करते थे। यद्यपि अब वो संसार में नहीं हैं, लेकिन ‘टेका’ अब भी उनके दिशा-निर्देशों के मुताबिक लगता है। कहते हैं उन्होंने अपने कनिष्ठ पुत्र को देवी सेवा और ‘टेका’ लगाने का दायित्व दे रखा है। उनके पुत्र भी पूरी श्रद्धा-निष्ठा से अपने पिता के निर्दिष्ट-प्रदत्त दायित्व के निर्वाह में तत्पर हैं। इसमें संदेह नहीं कि इस टेका की दैवी शक्ति में लोक-आस्था अत्यंत गहरी है। प्रचार-विज्ञापन के इस युग में भी यह टेका केवल लोक-आस्था पर ही टिका हुआ पूजित-सम्मानित स्थल है।
नोट- देश में कितनी ही जगहों पर, सुदूर देहाती अंचलों में ‘टेका’ जैसे आय़ोजनों की परंपरा देखी जा सकती है, जहां ओझा-गुनी-पुजारी दैवी शक्तियों के जरिए लोगों के कष्ट दूर करने का दावा करते हैं और लोक आस्था के बल पर उनका काम भी चलता रहता है। कई जगहों पर ऐसी परंपराओं ने भोले-भाले अनजान लोगों के शोषण का रूप भी ले लिया। कहां कितनी सच्चाई है, ये अनुसंधान का विषय है। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि चंपारण के ग्रामीण अंचल बड़कागांव जैसे इलाकों में सैकडों बरसों से चली आ रही ‘टेका’ जैसे आय़ोजनों की परंपरा अपने आप में सबसे अलग है।

1 comment:

writerkumar said...

“TEKA”: SPRITUAL NECESSITY OF WORLDLY HUMANS

This second article in the sequence “Champaran Bhumi” of Prof. Thakur touches the soul of this reader and underlines following: In this earthly life (full of some good and many bad elements?!), we human beings are compelled to seek our soul and mental comfort, as we all get justified or unjustified(?!) blows regularly in our life. In the Western countries, the people go more & more to psychologists or psychiatrists to seek the solution of their mental problems & guilty consciousness. And the therapy & regular consultations last years & years, costs taken by the Health Insurances.

This short essay narrates a strong & kind spritual tradition of “Teka” in Barka Gaun where the absolute selfless Brahmin-Priest Sri Babulal Ojha dedicated his Godly wisdom in comforting the souls and minds of the people (of Champaran).

As a writer Prof. Thakur tends to be objective and he points out in the last paragraph that the faith/soul of human beings can be/ is being often exploited. Also, in the Western countries.

Magister Anant Kumar, Writer
Kassel-Germany/ Motihari-India
Member of German Writers Association
www.anant-kumar.de