Monday, April 22, 2013

खबरें कहां से आती हैं?




टेलीविजन समाचार चैनलों में अगर न्यूज़ डेस्क को धुरी मानकर चलते हैं, तो सवाल उठता है कि इस धुरी के इर्द-गिर्द लगा खबरों का अंबार आखिर कहां से आता है? या फिर आखिर वो कौन से स्रोत हैं, जिनके जरिए खबरें न्यूज़ डेस्क तक पहुंचती हैं? आजकल हर समाचार चैनल में एसाइनमेंट डेस्क की व्यवस्था है, जो खबरों को न्यूज़ डेस्क और इससे जुड़े अन्य डेस्क तक पहुंचाने का काम करती है। यानी एसाइनमेंट डेस्क को खबरों की पाइपलाइन कहें तो गलत नहीं होगा। एसाइनमेंट डेस्क के कारिंदों की टीम खबरों, उनसे जुड़े वीडियो, तस्वीरों, ऑडियो, लिखित सामग्री और दूसरी चीजों को न्यूज़ डेस्क के लिए मुहैया कराने का काम करती है। ऐसे में कुछ और सरल तरीके से समझा जाए, तो एसाइनमेंट डेस्क समाचार चैनलों के इनपुट डिपार्टमेंट यानी खबरों के स्रोतों और आउटपुट डिपार्टमेंट यानी खबरों को प्रसारण योग्य बनानेवाले न्यूज़ डेस्क के बीच सेतु का काम करता है। इस तरह एसाइनमेंट डेस्क की भूमिका समाचार चैनलों में काफी अहम हो जाती है, क्योंकि उन पर समय से खबरों को प्रसारण के लिए हासिल करने और संबंधित लोगों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी होती है। चुंकि एसाइनमेंट डेस्क खबर के समाचार चैनल तक पहुंचने की राह में पहला चेक पोस्ट है, लिहाजा उससे खबरों की खबरिया गुणवत्ता जांचने की भी उम्मीद की जाती है, हालांकि सरसरी तौर पर देखें, तो आजकल ऐसा कम ही होता है और सारा का सारा कच्चा माल सीधे आउटपुट को सौंप दिया जाता है, इस उम्मीद में कि वो जैसे चाहें उनका इस्तेमाल करें या न करें। इस प्रक्रिया में कई बार वास्तविक खबरें कच्चे माल से बाहर नहीं निकल पातीं और दबी रह जाती हैं, क्योंकि न्यूज़ डेस्क के पास कच्ची स्क्रिप्ट या प्रेस रिलीज़ या खबर से जुड़े दस्तावेजों के हर पहलू की छानबीन का वक्त नहीं होता। ऐसे में जब किसी और प्रतिद्वंदी समाचार संगठन की ओर से कई खबर पेश की जाती है उसके बाद खोजबीन होती है और पता चलता है कि हम खबर के मामले में पिछड़ गए। ये खबरों के प्रवाह की उस व्यवस्था की गड़बड़ी के कारण होता है, जिसकी शुरुआत एसाइनमेंट डेस्क की होती है। दरअसल इसके पीछे वजह ये है कि एसाइनमेंट डेस्क पर काम करनेवाले लोग भी खबर या उससे जुड़े एंगल की पहचान और खोजबीन खुद नहीं करते , बल्कि उसके लिए उन स्रोतों के विवेक पर निर्भर रहते हैं, जहां से वास्तव में उन्हें खबरों का कच्चा माल हासिल होता है। उदाहरण के लिए फील्ड में मौजूद संवाददाता फील्ड से घटना को कवर करके भेजते हैं, और घटना का पूरा ब्यौरा भी दे देते हैं, लेकिन उक्त घटना विशेष में खबर निकल रही है या नहीं इसके बारे में वो नहीं बता पाते क्योंकि उन्हें इसकी समझ नहीं होती। लिहाजा घटना से जुड़े ब्यौरे, वीडियो फीड, ऑडिय़ो की छानबीन के बाद कई बार इतनी बड़ी खबरें निकलती हैं, जो समाचारों की दुनिया में तहलका मचा सकती हैं। मसलन ऐसी स्थिति कई बार नेताओं या किसी बड़ी हस्ती के बयानों की कवरेज में सामने आती है, जब आधे घंटे का पूरा भाषण रिकॉर्ड करके भेज दिया जाता है, लेकिन खबर के नजरिये से उसमें क्या महत्वपूर्ण है, इसकी कोई जानकारी किसी को नहीं होती। फीड में कुछ काम का है, ये तब पता चलता है, जब कोई समय निकालकर उसकी पड़ताल करता है, या इवेंट या हस्ती के नाम पर कुछ तलाशने की कोशिश करता है। मसलन प्रधानमंत्री अगर विज्ञान भवन में भाषण देते हैं, तो उनकी हर लाइन खबर नहीं हो सकती, लेकिन अगर सरकार पर खतरे की चर्चा खबर की दुनिया में गर्म हो, और वो अपने भाषण में इससे जुड़ा कुछ बोल जाएं, तो वो बात खबर बन सकती है, लिहाजा एसाइनमेंट डेस्क और फिर न्यूज़ डेस्क से जुड़े लोग समय और परिस्थितियों पर पैनी निगाह रखते हुए तमाम खबरिया कच्चे माल से खबरों की खोजबीन में लगे रहते हैं। इसका एक और ज्वलंत उदाहरण वित्त मंत्री का डेढ़ घंटे का बजट भाषण है, जिसमें टैक्स से राहत और सामानों के सस्ते-महंगे होने की जानकारियां ही आम दर्शकों के लिए खबरिया महत्व रखती हैं, इस बात से आम तौर पर लोगों को कोई मतलब नहीं होता कि सरकार की आमदनी कितनी घटी या बढ़ी या किस मद में कितनी रकम आवंटित की गई हो। हां चुनिंदा दर्शक वर्ग की दिलचस्पी उन चीजों में भी हो सकती है, जिसका बड़े दर्शक वर्ग से कोई लेना-देना न हो, लेकिन समाचार का कारोबार सीमित ऑडिएंस के लिए नहीं चलता, उनके लिए ज्यादा विस्तार से जानकारी अखबारों औऱ वेबसाइट पर मुहैया करा दी जाती है। तो मुद्दा ये है कि बजट भाषण में खबर के लिहाज से क्या जरूरी निकल रहा है या नहीं, इस पर पूरे भाषण के दौरान निगाह रखनी पड़ती है। ऐसा ही और भी मामलों में होता है। जैसे चोरी-डकैती जैसे अपराधों की कवरेज तो बड़े स्तर पर रोजाना होती है, लेकिन अगर सिर्फ ये दिखाया जाए कि आज अमुक इलाके में इतने की चोरी हो गई, तो बात नहीं बनती, खबर तो तब निकलती है, जब उसमें कुछ और एंगल हो, मसलन मुंबई से चोरी की खबर की एक कच्ची स्क्रिप्ट की बानगी देखें-मुंबई में आजकल चोरों का आतंक बढ़ गया है। कल रात जुहू इलाके में चोरों ने धावा बोलकर लाखों का माल उड़ा लिया। पुलिस ने कई चोरों को पकड़ा भी है, जिनमें से एक अमुक संगीतकार के घर नौकर का काम करता था। खबर के लिहाज से देखें, तो इसमें आखिरी जानकारी ज्यादा अहमियत रखती है कि मुंबई में बॉलीवुड के संगीतकार का नौकर निकला चोर।  वो चोरों के उस गिरोह में शामिल था, जिसने जुहू इलाके के कई घरों से लाखों का माल गायब किया। ऐसी रोजाना आनेवाली खबरों में अगर कोई खास और दिलचस्प एंगल न निकले, तो उन्हें इस्तेमाल करना जरूरी नहीं लगता। यहां मुद्दा इस बात पर आकर टिक जाता है कि असल में खबर क्या है और इसकी समझदारी खबर की दुनिया मे काम करनेवालों को है या नहीं।
खबर असल में क्या है, इस मुद्दे पर तो विस्तार से अलग से चर्चा की जा सकती है, लेकिन फिलहाल बात ये हो रही है कि खबरें आती कहां से हैं, तो इस सवाल का एक सीधा सा जवाब तो ये है कि खबर , खबर की समझदारी से आती है और खबरों की समझदारी रखनेवाले लोग तमाम घटनाओं और जानकारियों में से जरूरत के मुताबिक खबर निकालकर इस्तेमाल करते हैं। लेकिन मुद्दा सिर्फ ये नहीं है कि खबर कैसे निकाली जाए। 24 घंटे का समाचार चैनल चलाने के लिए ऐसी तमाम घटनाओं और जानकारियों का प्रवाह जारी रहना चाहिए, जिनसे खबर निकलनेवाली हो। इसके तमाम स्रोत इन दिनों खबर की दुनिया में मौजूद हैं। खबरों का सबसे बड़ा स्रोत समाचार एजेंसियां और वायर सर्विसेज़ हैं, जो तमाम समाचार चैनलों को रोजाना घटित होनेवाली घटनाओं की फीड और कच्ची स्क्रिप्ट मुहैया कराती हैं। भारत में प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, भाषा, युनाइटेड न्यूज़ ऑफ इंडिया, वार्ता, एएनआई और कई और ऐसी एजेंसियां हैं, जो खबरों का कारोबार करती हैं और समाचार संगठनों को खबरें मुहैया कराती हैं। विदेशी एजेंसियों में रॉयटर्स, एसोसिएटेड प्रेस, ब्लूमबर्ग, बिज़नेस वायर,मार्केट वायर जैसी एजेंसियां हैं। समाचार एजेंसियां कई तरह की हो सकती हैं- सरकारी मदद से चलनेवाली, कॉरपोरेट और समाचार संगठनों के सहकारी प्रबंधन वाली। आम तौर पर तमाम देशों की सरकारी समाचार एजेंसियां हैं, जिनका काम सरकार और देश की घटनाओं से जुड़ी बड़ी जानकारियां देना है- मसलन चीन की शिन्हुआ और रूस की इतर-तास जैसी एजेंसियां। रॉयटर्स और एपी जैसी एजेसियां अब कॉरपोरेट रूप ले चुकी हैं, वहीं भारत की पीटीआई और यूएनआई सहकारी समाचार व्यवस्था के उदाहरण हैं। समाचार एजेंसियों से खबर लेने के लिए इसके लिए समाचार संगठन निर्धारित फीस देकर उनकी सदस्यता लेते हैं या जरूरत के मुताबिक उनसे खबरें खरीदते हैं। इन समाचार एजेंसियों से खबरों को कंप्यूटर और सैटेलाइट आधारित सिस्टम के जरिए समाचार चैनलों औऱ संगठनों तक पहुंचाया जाता है। पहले ये काम टेलीप्रिंटर और डाक से वीडियो टेप भेजकर किया जाता था, जो अब कंप्यूटरीकृत व्यवस्था में लाइवहो चुका है। समाचार एजेंसियों के अपने संवाददाता औऱ संवाद सूत्र तमाम इलाकों में मौजूद होते हैं, जो घटना की कवरेज कर उनकी कच्ची जानकारी एजेंसीज़ तक भेजते हैं और एजेंसीज़ बजरिए एसाइनमेंट डेस्क, समाचार चैनलों को वो चीजें मुहैया कराती हैं। समाचार एजेंसीज़ की भूमिका आजकल इस लिहाज से बढ़ गई है कि उनके संवाद सूत्र चप्पे-चप्पे पर मौजूद होते हैं और त्वरित गति से जानकारी मुहैया कराते हैं। ऐसे में समाचार चैनलों की अब अपने संवाददाताओं पर निर्भरता लगभग खत्म होती जा रही है। समाचार चैनलों के पास भी संवाददाता होते हैं, लेकिन इतनी संख्या में नहीं, कि वो हर मौका-ए-वारदात पर मौजूद रह सकें। ऐसे में खबरों के मामले में पिछड़ने के बजाय समाचार चैनल एजेंसियों पर ज्यादा भरोसा करने लगे हैं। अपने संवाददाताओं की अहमियत अब सिर्फ मौके पर चैनल की उपस्थिति दर्ज कराने के लिए या किसी बड़ी घटना के बारे में लाइव चैटिंग के लिए ही देखी जा सकती है। ऐसे कम ही मामले होते हैं, जब संवाददाताओं को घटनास्थलों से लाइव रिपोर्टिंग करते देखा जा सकता हो। कहने को लाइव रिपोर्टिंग जो होती है, वो घटना घटने के बाद उसके विश्लेषण के लिए, न कि खबर निकालने के लिए। कुछ खास मौकों पर खास मामलों में तैनात खास संवाददाता अपने समाचार चैनलों के लिए खास स्टोरीज़ भी करते हैं, जो किसी खबर पर आधारित होती है और उसका महत्व उक्त खबर की पड़ताल, उसके विश्लेषण से जुड़ा होता है। राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री के विदेश दौरों पर भी समाचार चैनलों के संवाददाताओं के साथ जाने की परंपरा चली आ रही है, लेकिन उनसे खबरों की उम्मीद कम ही की जाती है क्योंकि जो खबरे आती है, वो सार्वजनिक होती हैं, एक्सक्लूसिव खबरें हासिल हों, ऐसा कम ही होता है, अधिक से अधिक एक्सक्लूसिव के नाम पर कोई संवाददाता किसी बड़ी हस्ती का इंटरव्यू करने में कामयाब रहता है, जिससे शायद ही कभी कोई बड़ी खबर निकले, तो कुल मिलाकर समाचार चैनल के अपने संवाददाता का काम मौके पर चैनल की उपस्थिति रजिस्टर कराने के साथ-साथ जनसंपर्क और अप्रत्यक्ष तौर पर चैनल का पीआर बनाने में भी होता है। वैसे खबरिया नज़रिए से देखें तो समाचार एजेंसियों का जाल इतना फैल चुका है कि समाचार चैनलों के निजी संवाददाताओं की जरूरत ही नहीं रही। कुछ बड़ी घटनाओं के मामलों में कई तेज़-तर्रार रिपोर्टर खबर से जुड़े लोगों से बातचीत करके खबर निकालने की कोशिश करते भी दिखते हैं। लेकिन अपराध से जुड़ी खबरों के मामले में खोजी पत्रकारिता अब लगभग दम तोड़ती नज़र आ रही है, क्योंकि आम तौर पर यही देखा जाता है कि पुलिस की ओऱ से घटना के बारे में जो बयान आता है, वही खबर के रूप में समाचार चैनलों पर पेश कर दिया जाता है, कोई भी संवाददाता या एसाइनमेंट या न्यूज़ डेस्क से जुड़ा आदमी उन बयानों के बीच से खबर निकालने की जहमत नहीं कर पाता और करे भी तो कैसे? न तो इस बारे में सोचने का पर्याप्त समय होता है, ना ही घटना की पृष्ठभूमि के बारे में पुख्ता जानकारी होती है, और न अनुभव से विकसित खबर की समझदारी, ऐसे में जो पुलिस कप्तान कह देते हैं, वही ब्रह्मवाक्य खबर बन जाता है। घटना से संबंधित पक्षों के बयानों से मिलनेवाली जानकारियां भी खबरों के रूप में सामने आती हैं और साथ ही आजकल अपराधों से जुड़ी खबरों के प्रसारण में कुछ बने-बनाए सवाल और कुछ पुलिस-प्रशासन की खामियां गिनाने जैसे रिपोर्टिंग के बने-बनाए टेंपलेट समाचार चैनलों के पास मौजूद रहते हैं, जिन्हें हर स्टोरी में फिट कर दिया जाता है, जिससे खबर के बारे में गंभीरता का माहौल दिखता है, लेकिन ऐसा कम ही होता है, जब कोई रिपोर्टर या पत्रकार डिटेक्टिव के नजरिए से अपराध की पड़ताल करे। आज भी अपराध की खबरें कवर करनेवाले पत्रकारों के लिए पुलिस थाने से जुड़े लोग खबरों से जुड़ी जानकारियों के सबसे बड़े स्रोत होते हैं, लेकिन उन जानकारियों को जस का तस पेश करना है, या फिर उनकी पड़ताल करके खबर निकालनी है, ये तो सबसे पहले रिपोर्टर और फिर उसका समाचार संगठन ही तय करेगा। एसाइनमेंट्स का दबाव और कई और मजबूरियां खबरों पर गहराई से काम करने से रोक देती हैं। खबर बड़ी होने पर उसके पीछे पड़ने और खबर के अंदर की खबर को निकालने उसे पुख्ता करने के लिए दस्तावेजों औऱ सबूतों की जरूरत होती है, जिसके लिए पेशेवर मानसिकता से ज्यादा पैशन की जरूरत है, जिसकी कमी आजकल के रिपोर्ट्स में अक्सर देखने को मिलती है और खबरों की कवरेज सिर्फ बाइट लेने और मौका ए वारदात से वॉकथ्रू करने तक में सिमटकर रह जाती है। ऐसे में असल खबरों को हासिल करने के स्रोत काफी सीमित हो जाते हैं।
अपराध के अलावा दूसरे मामलों की बात करें, तो उसमें भी संवाददाताओं पर आधारित रिपोर्टिंग खत्म होती जा रही है। कई साल पहले तक संवाददाताओं के लिए मंत्रालयों की बीट तय होती थी और वो उन्हें फॉलो करके न्यूज़ जुटाते थे। साथ ही वो मंत्रालयों में बनाए गए अपने संपर्कों और खबरिया सूत्रों से अंदर की जानकारियां भी हासिल करते थे। अब बीट की परंपरा धीरे-धीरे खत्म हो रही है और मंत्रालयों या सीबीआई जैसे सरकारी महकमों से तालमेल बिठाने की जिम्मेदारी चैनलों के तथाकथित बड़े रिपोर्टरों और पत्रकारों पर रहती है, जो बड़ी खबरें उछलने पर उनसे जुड़े फॉलोअप के लिए कमोबेश कोशिश करते दिखते हैं और ऐसे में किसी के हाथ कुछ खास लग जाए तो बल्ले-बल्ले। साथ ही परंपरा मिल-बांटकर खाने की भी है, लिहाजा कोई जानकारी थोड़ी देर के लिए किसी की एक्सक्लूसिव हो सकती है, एक बार पब्लिक डोमेन में आने के बाद तो उसका इस्तेमाल कोई भी अपने तरीके से कर लेता है, चाहे क्रेडिट देकर हो या बगैर उसके। रही बात फीड, बाइट और खबर से जुड़े दस्तावेजों की, तो वो भी आपसी दोस्ती की बिना पर शेयर कर लिए जाते हैं क्योंकि फील्ड में तमाम लोग हैं, कभी भी कोई किसी के काम आ ही सकता है। कई बार मंत्रालय और सीबीआई के सूचना तंत्र की ओर से दस्तावेज खुले तौर पर सभी समाचार संगठनों को मुहैया करा दिए जाते हैं ताकि उनके लिए पत्रकार ज्यादा हठ न करें और सरकार को भी पारदर्शिता का छद्म ओढ़े रहने में दिक्कत न हो। लिहाजा, इन परिस्थितियों में गंभीर सरकारी रिपोर्टिंग की न जरूरत रही, ना ही कोई करना चाहता है। खबरों को उठाने औऱ गिराने का एजेंडा और नीतियां तय करके उसके मुताबिक काम होता है। सामान्य खबरों के मामलों में मंत्रालयों की ओर से अब भी प्रेस रिलीज़ जारी करने और सरकार के प्रेस इंफॉरमेशन ब्यूरो के जरिए अपनी गतिविधियों की खबर देने की परिपाटी है, जिसके लिए संवाददाताओं की जरूरत नहीं पड़ती। बीट व्यवस्था इसलिए भी खत्म हो रही है क्योंकि अब एक-एक संवाददाता पर कई मामलों को देखने की जिम्मेदारी रहती है। ऐसे में वो लगातार एक बीट की कवरेज नहीं कर पाता और इसका असर तब देखने को मिलता है, जब किसी खबर से जुड़ी स्टोरी को आगे बढ़ाने और डेवलप करने की बात आती है। कुल मिलाकर स्थिति यही है कि ओरिजिनल रिपोर्टिंगका बेड़ा गर्क होता जा रहा है औऱ टीवी के समाचार चैनलों से लेकर दूसरे समाचार प्रसारक संगठन भी अब खबरों की री-पैकेजिंगका रास्ता अपना रहे हैं। अमेरिका में हुए एक अध्ययन में भी ये नतीजा साफ तौर पर देखने को मिला और भारत के समाचार चैनलों का अध्ययन किया जाए, तो यही स्थिति देखने को मिलेगी। 2010 में ब्रिटिश अखबार गार्जियन के ऑनलाइन एडिशन में इस मुद्दे पर Pew Research Center’s Project for Excellence in Journalism की ओर से किए गए अध्ययन को लेकर छपे एक लेख A Study of the News Ecosystem of One American City के नतीजे रिपोर्टिंग की स्थिति में आए बदलाव को जाहिर करते हैं-
The study, which examined all the outlets that produced local news in Baltimore, Md., for one week, surveyed their output and then did a closer examination of six major narratives during the week, finds that much of the “news” people receive contains no original reporting. Fully eight out of ten stories studied simply repeated or repackaged previously published information. And of the stories that did contain new information nearly all, 95%, came from traditional media—most of them newspapers. These stories then tended to set the narrative agenda for most other media outlets.”[1]
अमेरिकी शहर के खबरिया वातावरण के अध्ययन से साफ जाहिर है कि खबरों के लिए अब भी अखबारों पर निर्भरता सबसे ज्यादा है। और भारत में खबरों का एक बड़ा स्रोत आजकल अखबार भी किस तरह से हैं , इसके बारे में चर्चा ‘TV पर अखबारशीर्षक लेख में विस्तार से की जा चुकी है। लेकिन यहां ये साफ करना जरूरी है कि अखबारों को भी तमाम खबरों के लिए अपने संवाददाताओं से ज्यादा एजेंसियों पर निर्भर रहना पड़ता है। लेकिन बात ऑनलाइन की हो, तो आजकल सोशल मीडिय़ा के ट्विटर जैसे माध्यम भी खबरों का बड़ा स्रोत बनकर उभरे हैं क्योंकि इनके जरिए सबसे ज्यादा तेजी से ऐसी जानकारियों का प्रसार होता है जो आधिकारिक खबरिया संगठनों के लिए खबर हो सकती हैं। हालांकि गार्जियन में छपे लेख में इनकी सीमित भूमिका बताई गई है, लेकिन अहमियत से इंकार नहीं है, क्योंकि बदलते दौर में वेब पहला ऐसा मंच है, जहां खबरें सबसे पहले फ्लैश हो सकती हैं-
“Indeed the expanding universe of new media, including blogs, Twitter and local websites—at least in Baltimore—played only a limited role: mainly an alert system and a way to disseminate stories from other places.”[2]
     हाल के वर्षों में मिस्र और खाड़ी देशों में हुए आंदोलनों में सोशल मीडिया की जो भूमिका रही है, उसको देखते हुए भी खबरिया स्रोतों के रूप में ट्विटर जैसे माध्यमों की भूमिका को नज़रअंदाज इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि इन पर खबरों की जानकारी का स्रोत आम आदमी होता है, जिसका खबर से सबसे ज्यादा जुड़ाव होता है। हालांकि इसका एक दूसरा और खतरनाक पहलू ये भी है कि कई ऐसी जानकारियां भी सोशल मीडिया के जरिए सामने आती हैं, जो कोरी अफवाह साबित होती हैं, और जनभावनाओं को भड़का सकती हैं। ऐसे में फिर ये समझना जरूरी है कि किसी जानकारी को खबर की कसौटी पर परखे बगैर उसे प्रसारित करना पत्रकारिता के नियमों, उसूलों और सिद्धांतों के खिलाफ है। खबरों को उनकी सत्यता जांचे, उन्हें कन्फर्म किए बगैर प्रसारित नहीं किया जा सकता। अगर ट्विटर से कोई ऐसी जानकारी आती भी है, जिसमें खबर के लिहाज से दम हो, तो समाचार चैनलों और संगठनों के पास उनकी तस्दीक करने के कई तरीके मौजूद हो सकते हैं। खबरों की होड़ में पागल होने की बजाय जरूरत सिर्फ थोड़ा संयम बरतने की है। थोड़ा रिसर्च और घटना और जानकारियों के हर पहलू पर सोच-समझकर विचार करना एक खबर के भीतर से और कई खबरें निकालने में मददगार साबित हो सकता है, बशर्ते आपके अंदर का रिपोर्टर कुछ करने को कुलबुला रहा हो और उसे इसकी पूरी आजादी हो।
      एक बात और ध्यान देने की है कि इंसान की भागदौड़ भरी तेज़ रफ्तार जिंदगी में हर कदम पर नई-नई जानकारियों से वास्ता पड़ता है, जो खबर बन सकती है और किसी खबर का स्रोत क्या होगा, ये उस खबर पर ही निर्भर करेगा। कोई पान बेचनेवाला शख्स भी खबर का स्रोत हो सकता है, अगर वो आपके रिपोर्टर को ये बताए कि शहर के छोर पर रहनेवाले दूधवाले सफेद दूध में आजकल क्या-क्या काला मिला रहे हैं, क्या सामनेवाली गली में कोई संदिग्ध घटना घट रही है या किसी घटना की पृष्ठभूमि क्या है। आजकल कई समाचार चैनलों पर सिटिजन रिपोर्ट्स को भी बढ़ावा दिया जा रहा है, जो ऐसी खबरों के स्रोत बनते हैं, जिन तक आम रिपोर्टर्स की नजर नहीं जाती है। शहर और गली मुहल्लों की आम समस्याओं से लेकर भ्रष्टाचार और जनहित के तमाम मुद्दों से जुड़ी जानकारियां सिटिजन रिपोर्टर्स के जरिए चैनलों तक पहुंच रही हैं, जो एक सार्थक स्रोत साबित हो रहे हैं। टीवी पत्रकारिता के छात्रों और भावी पत्रकारों के लिए ये समझना बेहद जरूरी है कि खबर के हर स्रोत का भरपूर इस्तेमाल हो और हर खबर के हर पहलू के पड़ताल की जाए, ताकि वो खबर निकल सके, जो मीडिया और समाज पर अपनी छाप छोड़े, लंबे समय तक याद रहे, न कि एक-दो बार चलकर मर जाए।
-          कुमार कौस्तुभ
22.04.2013, 5.53

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