Monday, April 8, 2013

टीवी देखिए, भाषा को देखिए !



                      
भाषा बहता नीर
हर दस कोस पर बदल जाती है भाषा
भाषा संप्रेषण का माध्यम है
टेलीविजन की भाषा सीधी और सरल होनी चाहिए
-पत्रकारिता और जनसंचार की पढ़ाई से लेकर इन क्षेत्रों में नौकरी करने तक तमाम पत्रकार इन जैसे कितने ही सिद्धांतों से रू-ब-रू होते हैं। पढ़ाई और प्रशिक्षण के दौरान भाषा के बारे में बनी समझ का इस्तेमाल नौकरी के दौरान होता है। लेकिन, ये भी कहना गलत नहीं होगा कि पढ़ाई, प्रशिक्षण और पत्रकारिता की नौकरी के सिलसिले में भाषा के बारे में हर व्यक्ति विशेष की अपनी समझ विकसित होती है जिसके आधार पर वह साल-दर-साल अपने काम को अंजाम देता है। ये जरूरी नहीं कि हर पत्रकार सोची-समझी रणनीति के तहत अपनी भाषा को अपग्रेड करे या नए शब्दों का इस्तेमाल शुरू करे या कुछ शब्दों को अपने इस्तेमाल से हटाए, वाक्य-विन्यास से जुड़े नए प्रयोग करे या यूं कहें कि भाषा से खेले या खिलवाड़ करे। काम की प्रक्रिया में ये सब संभव है जिस पर हम कामकाजी लोग कभी बैठकर विचार नहीं करते। लेकिन समय के साथ जो बदलाव भाषा में आते हैं, वो हंमारे काम, हमारे आउटपुट के जरिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी नज़र आते हैं। ये बदलाव सूचना, शिक्षा और मनोरंजन के हर माध्यम में चाहे वो अखबार हो, या रेडियो या फिर टेलीविजन या वेब ही क्यों न हो- अपने-अपने तरीके से दिख रहे हैं।
      आज के दौर में टेलीविजन सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का सबसे सशक्त माध्यम है, लिहाजा भाषा की बात करते हुए सबसे पहले और सबसे आसानी से ध्यान टीवी स्क्रीन पर ही जाता है। टेलीविजन पर भाषा का इस्तेमाल ऑडियो-विजुअल माध्यम होने से जुड़े उसके सिद्धांतों को परे छोड़ देता है- हम अक्सर ये भूल जाते हैं कि टीवी की भाषा ऑडियो-विजुअल है, ना कि टेक्स्ट, क्योंकि टेक्स्ट के बिना हमारा काम नहीं चलता। इसे सिर्फ मजबूरी कहें, या अपना पक्ष रखने और अपनी राय जाहिर करने के लिए ऑडियो-वीडियो की क्षमता पर शो प्रोड्यूसर का हावी होना मानें- टेक्स्ट के रूप में भाषा का इस्तेमाल टेलीविजन पर अहम हो गया है-अपनी बात समझाने के लिए हम टेक्स्ट का सहारा लेते हैं और हालत ये है कि स्क्रीन पर पिक्चर कम, टेक्स्ट ही ज्यादा दिखता है। जरूरत इस बात की है कि स्क्रीन पर टेक्स्ट का इस्तेमाल उतना ही हो, जितना बेहद जरूरी हो। ऐसा क्य़ों नहीं होता, इससे जुड़े कई सवाल हो सकते हैं- मसलन बड़ी आसानी से ये कहा जा सकता है कि हम भारतीय टीवीवालों को अभी तक टीवी की समझ नहीं आई। ये भी माना जा सकता है कि हमारे दर्शक इतने परिपक्व नहीं, जो विजुअल, इमेज और साउंड का सही अर्थ ही निकालें, यानी अनर्थ होने और उसके बाद की दूसरी प्रतिक्रियाओं के खतरे ज्यादा हैं। जो भी हो, अगर स्क्रीन पर भाषा का इस्तेमाल जरूरी है, तो उसके कुछ कायदे-कानून भी होने चाहिए- ऐसा भी माना जाता है। लेकिन, कहना न होगा कि जिस तरह, जितनी तेजी से भारत में खासकर हिंदी समाचार और सामयिक घटनाओं से जुड़े टेलीविजन चैनलों का विकास हुआ है, उतनी ही तेजी से भाषा संबंधी तमाम दीवारें टूटती गई हैं।
      देश में समाचार-प्रसारण के लिहाज से सबसे पहले वजूद में आई सरकारी टेलीविजन व्यवस्था ने रेडियो से भाषा उधार ली थी, लिहाजा उसका अपना अनुशासन था, जो काफी हद तक अब भी कायम है। निजी चैनल के तौर पर ज़ीटीवी ने 90 के दशक में हिंग्लिशमाध्यम में समाचारों का प्रसारण शुरू किया तो उसके पीछे उसकी अपनी सोच थी- एक खास दर्शक वर्ग को पकड़ने की मानसिकता जुड़ी हुई थी। निजी समाचार चैनलों में नंबर 1 आजतक की बुनियाद ही ऐसी भाषा से जुड़ी रही है, जो आम लोगों की समझ के नजदीक हो। आजतक के बाद तमाम दूसरे निजी समाचार चैनलों ने तकरीबन इसी सिद्धांत को अपनाया है और यहीं से एक ऐसी उलझन शुरू हुई, जिसने मीडिया में हिंदी के इस्तेमाल पर सवाल उठा दिए हैं। यहां ये साफ करना जरूरी है कि हिंदी का वजूद खतरे में नहीं है, क्योंकि हिंदी से जो साहित्य-संपदा जुड़ी हुई है वो मीडिया से काफी ज्यादा है। लेकिन अगर मीडिय़ा ने हिंदी को अपनाया है, तो ये भी उसकी जिम्मेदारी है कि टेलीविजन पर इस्तेमाल होनेवाली भाषा के चाल-चरित्र और चेहरे को दर्शनीय-शोभनीय और समादृत रखे। ये मसला भाषा के संस्कार से जुड़ा है। अखबारों और रेडियो में तो हिंदी की अस्मिता बचाए रखने की कोशिश काफी हद तक संभव है क्योंकि भाषा के संस्कार का मामला इन दोनों माध्यमों से जुड़े लोगों की ट्रेनिंग और उनकी विरासत से जुड़ा है। लेकिन जब बात टेलीविजन की आती है, तो अक्सर बड़े चैनलों के पुरोधा इसे आम लोगों की समझ और समय के अनुसार भाषा में बदलाव जैसे थोथे तर्कों से जोड़कर किनारे कर देते हैं।
      टेलीविजन में हिंदी का काफी विस्तार हो चुका है, ऊर्दू और अंग्रेजी के काफी शब्द इसमें शामिल हो चुके हैं। लिहाजा, इसके के इस्तेमाल से जुड़े कई अहम सवाल सामने हैं- पहला और सबसे अहम तो ये कि क्या मीडिया, खासकर टेलीविजन के लिए हिंदी का कोई मानक रूप होना चाहिए? ये सवाल टीवी चैनलों में घोषित या अघोषित तौर पर स्टाइल-बुक लागू करने से जुड़ा है। कई टीवी चैनलों में स्टाइल बुक का इस्तेमाल शुरु हुआ था, जिसे पहले भले ही कड़ाई से अमल में लाया जाता रहा हो, लेकिन अब ये व्यवस्था बेमानी हो चुकी है। हालांकि कुछ चीजें जो अब भी चलती हैं, मोटे तौर पर इसी व्यवस्था की देन कही जा सकती हैं। ज़ीटीवी के हिंग्लिश रूप के लिए जाहिरा तौर पर स्टाइल बुक का कोई-न-कोई खाका जरूर रहा है, बाद के दौर में ज़ी न्यूज़ में डेस्क के लोगों को आजतक और एनडीटीवी जैसे चैनलों से मुक़ाबले के लिए अघोषित तौर पर वैसी ही भाषा इस्तेमाल करने के लिए तैयार किया गया। एनडीटीवी-इंडिया में स्टार ग्रुप से अलग होने से पहले उर्दूदां जबान के इस्तेमाल पर ज़ोर था, लेकिन अब वो परंपरा खत्म हो चुकी नज़र आ रही है। दूसरे चैनलों में भी हिंदी का कमोबेश खिचड़ी रूप ही इस्तेमाल हो रहा है, लिहाजा इसके मानकीकरण की बात बेमानी ही लगती है। मानकीकरण इसलिए भी मायने नहीं रखता क्योंकि आज किसी शब्द-विशेष को कई तरीकों से लिखने की जो परंपरा चल पड़ी है, उसकी ठोस काट किसी संपादक के पास मौजूद नहीं। अगर मौजूद हो भी तो उसे अमल में लाने के झंझट में कोई नहीं पड़ना चाहता। शब्दों को लिखने के तरीके अक्सर विवाद पैदा करते हैं और अपने को सही साबित करने की चुनौती आपसी वैमनस्य भी पैदा करती है, क्योंकि इस मैदान का छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हर खिलाड़ी अपने आप को तुर्रम खां समझता है क्योंकि वो भी उसी पृष्ठभूमि से आने का दावा करता है जहां से दूसरे सहयोगी आए हों और ज्ञान किसी की बपौती तो है नहीं, ना ही तर्क और कुतर्क का मानवाधिकार किसी से छीना जा सकता है। लिहाजा हालात यही बनते हैं कि बॉस जैसे रिंगमास्टर किसी शब्द की जिस वर्तनी पर अपनी सहमति का ठप्पा लगा देते हैं, उसे ब्रह्मवचन मान कर लोग इस्तेमाल करने लगते हैं..दिलचस्प बात तो ये है कि थोड़े दिनों बाद लोग विवाद को भूल जाते हैं और पुरानी चाल पर अपने दिमाग के कहे मुताबिक फिर वही लिखने लगते हैं, जो उन्हें सही लगता है। इस प्रक्रिया में अर्थ का अनर्थ भी बड़ी आसानी से होता है, लेकिन टेलीविजन में काम करनेवाले लोगों के पास भाषा पर रिसर्च करने का वक्त कहां जो सही-गलत के पचड़े में पड़ें। यहां कुछ ऐसे शब्दों के जोड़े दिए जा रहे हैं, जिन्हें पढ़कर आप खुद फैसला कर सकते हैं कि क्या सही है और क्या गलत, या किस शब्द का इस्तेमाल कहां और किन अर्थों में होना चाहिए-
  • मलिका-मल्लिका
  • मोहब्बत-मुहब्बत
  • चित-चित्त
  • नार्को टेस्ट-नारको टेस्ट
  • दहलीज़- देहलीज़
  • तफतीश- तफ्तीश
  • शर्बत- शरबत
  • अमरीका-अमेरिका
  • जेम्स कैमरॉन- जेम्स कैमरून
  • डेविड कैमरुन-डेविड कैमरॉन
  • देसी-देशी
  • आर्कबिशप-आर्चबिशप
  • खरीदार-खरीददार
  • अंतरराष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय
  • उनतालीस-उनतालिस
  • तिरसठ-तिरेसठ
  • बाईस-बाइस
  • तेईस-तेइस
  • तिरुवनंतपुरम-त्रिवेंद्रम
  • वडोदरा-बड़ौदा
  • ताइपे-ताइपेई
  • रुवांडा-रवांडा
  • इसराइल-इज़रायल-इस्राइल
  • उल्फा-अल्फा
  • इम्तिहान-इम्तेहान
  • इंतिहा-इंतेहा
  • दास्तान-दास्तां
  • कार्रवाई-कार्यवाही
  • मिलिनियर-मिलिनेयर-मिलेनियर
-ये तो चंद उदाहरण है। इनमें कई जोड़े ऐसे हैं जिनमें दोनों शब्द सही हैं- पर अगर किसी चैनल में एक आदमी एक तरीके से और दूसरा दूसरे तरीके से लिखे तो एकरूपता नहीं होगी और बेचारा दर्शक उलझन में पड़ेगा, क्योंकि दर्शक इतनी महीन समझ रखे ही, इसकी उम्मीद नहीं कर सकते, उसे तो लगातार जो चलता दिखेगा, वही उसके लिए सही होगा। साथ ही, ऐसे शब्दों की कमी नहीं जिनके इस्तेमाल में सही-गलत के सवाल अक्सर उठते हैं। ऐसा ही वाक्य-विन्यास के मामले में भी है। टेलीविजन ग्राफिक्स में शब्दों के इस्तेमाल की सीमा होती है लिहाजा अगर सुचिंतित तरीके से समझदारी के साथ शब्दों का चयन और इस्तेमाल न किया जाए तो खबर अधूरी रह सकती है या आप अपने दर्शक तक वो सब नहीं पहुंचा सकते जिसकी वास्तव में जरूरत है। टेलीविजन के समाचार चैनलों की बाढ़ को देखते हुए मार्केट में टिके रहने और आगे निकलने की होड़ है। भाषा तो दर्शकों को माध्यम से जोड़ने का औजार है जो जितना ही पैना होगा, उतना ही गहरा वार करेगा। ऐसे में हिंदी के इस्तेमाल से जुड़े पहलू गंभीर हैं। जरूरत इस बात की है कि पत्रकारिता का प्रशिक्षण देनेवाले मीडिय़ा गुरु अपने चेलों में भाषा का संस्कार डालें और चैनलों के पुरोधा अपना चेहरा खूबसूरत रखने के लिए स्टाइल बुक की खत्म होती परंपरा को कड़ाई से पुनर्जीवित करें, भाषा के मामले में अपनी खास पहचान बनाएं। तभी चैनलों का भी भला होगा और भाषा का भी।
- कुमार कौस्तुभ
18.03.2010

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