Wednesday, October 9, 2024

क्या जम्मू-कश्मीर बन जाएगा दिल्ली?

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जम्मू-कश्मीर में हालिया विधानसभा चुनावों के बाद एक बात तो तय हो गयी है कि वहां अब विधानसभा बहाल हो जाएगी और नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन की चुनी हुई सरकार सत्ता में आएगी। लेकिन सवाल यही है कि क्या जम्मू-कश्मीर की नई सरकार वास्तव में सत्ता सुख भोगेगी और जैसे चाहेगी वैसे फैसले लेगी या कि केंद्र की कठपुतली बनी रहेगी जैसे कि दिल्ली सरकार है। कहने का अर्थ यह है कि २०१९ के जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक में प्रदत्त शक्तियों और जुलाई २०२४ में दी गई कुछ और शक्तियों से संपन्न होने के कारण अभी तक तो यही लग रहा है कि उपराज्यपाल मनोज सिन्हा या भविष्य में उनके उत्तराधिकारी उपराज्यपाल ही केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के सुपर बॉस बने रहेंगे क्योंकि यह प्रदेश तब तक केंद्र शासित बना रहेगा जब तक कि इसे पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिल जाता।
 हालांकि केंद्र शासित प्रदेश तो पुडुचेरी भी है, और २०१९ के विधेयक में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि जम्मू कश्मीर का शासन पुडुचेरी की तर्ज पर चलेगा यानी जो शक्तियां पुडुचेरी में चुनी हुई सरकार के पास होती हैं वहीं जम्मू-कश्मीर की चुनी हुई सरकार के पास हो सकती हैं। २०१९ के विधेयक में यह जिक्र नहीं है कि दिल्ली की तर्ज पर जम्मू-कश्मीर की सरकार चल सकती है। लेकिन गौर तलब यह भी है कि केंद्र सरकार के लिए जितनी महत्वपूर्ण दिल्ली की शासन व्यवस्था है, जम्मू-कश्मीर की व्यवस्था उससे कम अहम नहीं है, क्योंकि पाकिस्तान से सटे जम्मू-कश्मीर की भू-राजनीतिक स्थिति भारत सरकार के लिए तब तक संवेदनशील बनी रहेगी जब तक कि वहां से आतंकवाद का जड़ मूल से सफाया नहीं हो जाता और पाकिस्तान इस क्षेत्र से अपना दावा नहीं छोड़ देता और वहां पूर्ण शांति बहाली नहीं हो जाती। ऐसी स्थिति कभी बनेगी यह सोचना फिलवक्त दूर की कौड़ी ही है। ऐसे में केंद्र में चाहे बीजेपी और एनडीए की सरकार रहे या किसी और दल या गठबंधन की, वह तो शायद ही कभी जम्मू-कश्मीर को अपने नियंत्रण से मुक्त करे और ऐसे दलों को इस प्रदेश की बागडोर संभालने दें जिन पर पाकिस्तान परस्त होने के आरोप लगते रहे हैं।
ऐसे में लगता तो यही है कि उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन को जम्मू-कश्मीर में सरकार और सत्ता के नाम पर वैसा ही झुनझुना मिलने जा रहा है जैसे दिल्ली में आम आदमी पार्टी के पास है, क्योंकि सत्ता की चाबी तो अंततः उपराज्यपाल के पास ही रहेगी। ऐसी स्थिति में एनसी-कांग्रेस सरकार का उपराज्यपाल और प्रकारांतर से केंद्र सरकार के साथ निरंतर टकराव तय है जैसे कि दिल्ली में चलता रहता है। हां, सरकार चलाने के नाम पर सत्तारूढ़ दलों को सत्ता सुख के साथ साथ अपना राजनीतिक वजूद कायम रखने के लिए ऑक्सीजन जरूर मिलता रहेगा और विरोधी दलों को भी कुछ हद तक यही फायदा होगा। लेकिन हकीकत में जम्मू-कश्मीर में सरकार चलाने जा रहे दलों के लिए सत्ता की डगर आसान नहीं होनेवाली। इसका एक प्रमुख कारण तो यही है जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है और दूसरी वजह यह भी है कि कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस या फिर पीडीपी की कार्य संस्कृति भी दिल्ली की आम आदमी पार्टी जैसी नहीं है। क्योंकि न तो उमर अब्दुल्ला अरविंद केजरीवाल की तरह जमीनी नेता हैं जो सड़कों पर उतर कर तमाशेबाजी की पालिटिक्स कर सकें और ना ही कांग्रेस या पीडीपी में पारंपरिक राजनीति से हटकर कुछ नया सोचने और करने वाला नेतृत्व नजर आता है। इसके अलावा इन सब दलों पर से पाकिस्तान-परस्ती का ठप्पा भी जब तक नहीं हटता तब तक ये कैसे अपनी अलग पहचान बना सकेंगे, यह कहना मुश्किल है। ऐसी स्थिति में लगता है जम्मू-कश्मीर का भी वही हाल होने वाला है जो दिल्ली का है। वहां सत्ता से बाहर रहकर भी सत्ता की नकेल बीजेपी के हाथों में रहेगी, फिलहाल तो यही मुमकिन लगता है। © कुमार कौस्तुभ 

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