कहते हैं जीना हर जीव का मौलिक अधिकार है और इसीलिए जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने यह शिक्षा दी थी कि जियो और जीने दो। लेकिन, भगवान महावीर की यह सीख लगता है हमेशा बेमानी रही है । युद्ध महावीर के काल में भी हुए और उनके बाद भी, अब तक हो रहे हैं। न केवल महावीर बल्कि अहिंसा का संदेश देने वाले बुद्ध और दूसरे धर्मोपदेशक भी युद्ध और हिंसा से विश्व को मुक्ति नहीं दिला सके हैं क्योंकि वास्तव में युद्ध न केवल मनुष्य बल्कि हर जीव की प्रकृति में शामिल है।
सवाल यह है कि आखिर युद्ध क्यों होते हैं? कभी वर्चस्व के लिए, तो कभी आत्मरक्षा के लिए जिसके मूल में भी आखिर वर्चस्व की ही भावना तो है।
माना जा सकता है कि युद्ध के मूल में विस्तारवादी मानसिकता है। दूसरे को दबाने और अपना दायरा बढ़ाने की प्रवृत्ति ही युद्ध की भूमिका बनाती है। दुनिया में अब तक हर छोटे-बड़े युद्ध के पीछे यही कहानी है क्योंकि न तो कोई अपने दायरे में संतुष्ट रहना चाहता है और ना ही किसी और को उसके दायरे में शांति से रहने देना चाहता है। एशिया, यूरोप, अमेरिका, पृथ्वी के हर क्षेत्र में यही स्थिति है। इसलिए शांति का राग अलापना बेमानी हो चला है क्योंकि कहीं भी चले जाइए, युद्ध अवश्यंभावी है और अंततः यही उक्ति सही लगती है - सर्वाइवल फॉर फिटेस्ट यानी वही जिंदा रहेगा, जो सबसे तगड़ा और ताकतवर होगा! © कुमार कौस्तुभ
No comments:
Post a Comment