Monday, May 6, 2013

‘फ्रेम’ का फलसफा



फ्रेमका फलसफा
      
       टेलीविजन के समाचार चैनलों और मनोरंजन या दूसरी विधाओं के चैनलों में कंटेंटके अलावा साक्षात नजर आनेवाला सबसे बड़ा फर्क जो है वो है फ्रेम का यानी पर्दे पर जो कुछ परोसा जाता है, वो किस तरीके से किस ढांचे में पेश किया जा रहा है?  हर घंटे या आधे घंटे की शुरुआत के वक्त चैनल मोंटाज और सिग्नेचर ट्यून के साथ स्टिंग और कार्यक्रमों के मुखड़ों का प्रसारण तो चैनल पैकेजिंग का अहम हिस्सा हैं ही, इसके बाद जो कुछ दिखाया जाता है, फर्क उसी में है। आमतौर पर मनोरंजन और स्पोर्ट्स चैनलों या करंट अफेयर्स चैनलों के कार्यक्रमों की शुरुआत में किसी एंकर या सूत्रधार को सामने लाने की परंपरा नहीं है। अगर कभी ऐसा दिखता भी है, तो उसका खास प्रयोजन होता है। लेकिन समाचार चैनलों की तो पहचान ही एंकर्स के चेहरों से होती है और वही आम दर्शकों के लिए चैनल के कर्णधार समझे जाते हैं यानी अगर उनकी प्रस्तुति अच्छी रही तो चैनल की छवि अच्छी बनती है और अगर उनकी ओर से ग़ड़बड़ी दिखी, तो चैनल की नैया डूबी मानी जाती है। शायद यही वजह है कि हरेक समाचार चैनल अपने एंकर्स की प्रस्तुति शानदार दिखाना चाहता है और उसके लिए तमाम जतन किए जाते हैं। इसी कोशिश का एक हिस्सा है पर्दे पर एंकर का फ्रेमजिसका मूल मकसद यही समझा जा सकता है कि इसके जरिए एंकर्स आकर्षक दिखें और चैनल सबसे अलग दिखे। यही वजह है कि बुलेटिन्स औऱ कार्यक्रमों में बदलाव के साथ-साथ आपको किसी चैनल पर एंकर का क्लोज़ अप दिखेगा, तो कहीं मिड शॉट और कहीं लांग शॉट।

समाचार बुलेटिनों और कार्यक्रमों के मूड के हिसाब से एंकर्स के फ्रेम बदलते हैं। मनोरंजन के कार्यक्रमों में एंकर को रंग-बिंरगे और एंटरटेनमेंट मूड वाली पृष्ठभूमि पर मिड शॉट साइड स्टैंडिंग, या लांग सॉट स्टैंडिंग या लांग शॉट सीटिंग फ्रेम में पेश किया जाता है, तो खेलों के बुलेटिन या कार्यक्रमों में अतिथि शख्सियतों के साथ या उनके बगैर खेलों की पृष्ठभूमि और खिलाड़िय़ों वाली वेशभूषा में एंकर को पेश करने का चलन समाचार चैनलों में अक्सर देखने को मिलता है। एंकर्स के अलग-अलग फ्रेम्स की कुछ बानगियां नीचे पेश हैं-

एंटरटेनमेंट कार्यक्रम का एंकर फ्रेम

06052013743.jpg






एंटरटेनमेंट कार्यक्रम का एंकर फ्रेम

06052013744.jpg

06052013756.jpg


समाचार आधारित कार्यक्रम का एंकर फ्रेम
06052013752.jpg

बुलेटिन के एंकर फ्रेम                      
06052013751.jpg

06052013797.jpg


06052013810.jpg



एंकर्स की प्रस्तुति के लिए फ्रेममें बदलाव का जो फलसफा है, इसके पीछे जो मकसद है, इस पर विस्तार से चर्चा जरूरी है। मुद्दा सिर्फ ये नहीं है कि फ्रेम अच्छा दिखेगा, तो लोग चैनल को देखना पसंद करेंगे, बल्कि जानकारों की मानें तो ये समाचार चैनलों की प्रस्तुति में विविधता दिखाने के अलावा, खास मुद्दों को जोर-शोर से पेश करने का एक जरिया भी है। मसलन, कई चैनल आजकल ब्रेकिंग न्यूज़ पेश करने के लिए बुलेटिन से अलग किस्म का एंकर फ्रेम इस्तेमाल करते हैं।

06052013807.jpg

इसी तरीके से खास मुद्दों या ब़ड़ी खबरों पर चर्चा के लिए विशालकाय स्क्रीन पर दिए गए तथ्यों के साथ एंकर को इंटरैक्टिव तरीके से भी पेश किए जाने का चलन बढ़ रहा है।

06052013801.jpg

इस तरह ये बड़ी आसानी से समझा जा सकता है कि एंकर्स के फ्रेम आमतौर पर दो तरह के होते हैं- एक तो खास मुद्दों पर आधारित और दूसरे जेनेरिक यानी कॉमन पृष्ठभूमि वाले- जो हर तरह की खबरों के मामलों में इस्तेमाल किए जा सकते हैं।
06052013809.jpg
हालांकि जेनेरिक यानी कॉमन किस्म के एंकर फ्रेम्स भी आम समाचार बुलेटिनों के लिए अलग किस्म के हो सकते हैं, और मनोरंजन या खेल की खबरों के लिए उनकी पृष्ठभूमि तैयार करते वक्त कुछ ऐसे एलिमेंट्स शामिल करने का ख्याल जरूर रखा जाता है, ताकि दर्शक एंकर के फ्रेम और पहनावे को ही देखकर ये आसानी से समझ ले कि बुलेटिन आम खबरों का है, या खेल का, या मनोरंजन का या फिर कारोबार का- मनोरंजन के जेनेरिक फ्रेम में भड़कीले और रंगीन पहनावे में एंकर को मिड शॉट या लांग सॉट स्टैंडिंग तरीके से पेश किया जा सकता है और पृष्ठभूमि भी रंग-बिरंगी हो सकती है। वहीं बिजनेस और कारोबार की एंकर पृष्ठभूमि में शेयर बाजार को इंगित करनेवाली कोई तस्वीर होगी और एंकर सूट-बूट और टाई में सोबर पहनावे में दिखेगा। वहीं खेल के बुलेटिन के लिए एंकर को टीशर्ट या ट्रैक शूट पहनाकर भी स्टेडियम के बैकग्राउंड के साथ स्क्रीन पर दिखाया जा सकता है। आपको याद होगा आजतक चैनल के शुरुआती दिनों में फुटबॉल के विश्व मुकाबले से जुड़ी खबरें दिखाने के लिए एंकर को शॉर्ट्स तक पहनाकर पेश किया गया। मनोरंजन के बुलेटिन करनेवाली एंकर्स तो आजकल स्क्रीन पर स्कर्ट्स में ही दिखती हैं। वहीं आम खबरों के बुलेटिन के लिए महिला एंकर्स को सोबर किस्म के सूट, ट्राउजर्स, जैकेट और टॉप के पहनावे का रिवाज है, तो पुरुष एंकर्स सूट-बूट और टाई के दफ्तरी लिबास में नजर आते हैं।
एंकर बनने के लिए खबरों की समझ होना और बेहतरीन अभिव्यक्ति क्षमता होना तो जरूरी है, ही उनके लिए पर्दे पर फ्रेममें अच्छा और आकर्षक दिखना भी अब उतना ही जरूरी है। इसके लिए न सिर्फ एंकर्स को ख्याल रखना पड़ता है, बल्कि चैनल पर सेट और फ्रेमभी इस तरीके से गंभीरतापूर्वक सोच-विचारकर तैयार किए जाते हैं, ताकि चैनल के चेहरे दमदार दिखें। इसके लिए स्क्रीन पर पर्याप्त हेडरूम और स्पेस देने का चलन है, ताकि एंकर का फ्रेम सिकुड़ा हुआ न लगे, वो पृष्ठभूमि से चिपका हुआ न लगे। साथ ही, पृष्ठभूमि यानी सेटपर दिए गए खबरों से जुड़े टेक्स्ट और तस्वीरों को भी पेश करने के लिए पर्याप्त जगह मिले।
आज के दौर में समाचार चैनलों पर एंकरों को पेश करने के लिए पृष्ठभूमि और फ्रेमपर विचार सबसे ज्यादा लाजिमी हो गया है। इसके पीछे फलसफा ये भले ही हो कि एंकर अच्छा दिखे, तो चैनल भी अच्छा दिखेगा, लेकिन, अगर पूरी समाचार प्रसारण प्रक्रिया पर गहराई से विचार करें, तो एंकर्स की फ्रेमिंगकितनी महत्वपूर्ण है, ये बात आसानी से समझ में आएगी। दरअसल, समाचार चैनलों पर  स्क्रीन की फ्रेमिंग का मसला समाचार प्रसारण से सीधे जुड़ा हुआ लगता है। The Amsterdam School of Communications Research ASCoR समाचारों से जुड़े एक अध्ययन में कहा गया है कि-
Framing involves a communication source presenting and defining an issue. The notion of framing has gained momentum in the communication disciplines, giving guidance to both investigations of media content and to studies of the relationship between media and public opinion. …The potential of the framing concept lies in the focus on communicative processes. Communication is  not static, but rather a dynamic process that involves frame-building (how frames emerge) and frame-setting (the interplay between media frames and audience predispositions). Entman (1993) noted that frames have several locations, including the communicator, the text, the receiver, and the culture. These components are integral to a process of framing that consists of distinct stages: frame-building, frame-setting and individual and societal level consequences of framing (d’Angelo, 2002; Scheufele, 2000; de Vreese, 2002)[1]
उपरोक्त अध्ययन में फ्रेमिंगका मुद्दा तो प्रसारण के लिए खबरों के निर्माण और एजेंडा सेटिंग जैसे मसलों से जुड़ा है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर अगर फ्रेमिंग को स्क्रीन की रूपरेखा के मायने में भी लेकर चलें, तो बात सटीक बैठती है। खबर का कारोबार आज के दौर में जितना गतिमान हो चुका है, उसके लिहाज से दर्शकों से संवाद बिठाने के लिए पर्दे पर प्रस्तुति में भी तेजी से बदलाव की जरूरत महसूस की गई और ये बदलाव एंकर्स को पेश करने से लेकर खबरों की स्क्रिप्ट और उनकी पैकेजिंग तक में जरूरी है। सैद्धांतिक तौर पर उपरोक्त अध्ययन का मकसद खबरों की स्क्रिप्टिंग और उनके ट्रीटमेंट के मसलों पर विचार करना है, लेकिन मेरी समझ से ये एंकर्स की प्रस्तुति के लिहाज से भी उतना ही सही है। मिलते-जुलते मुद्दे पर बात करते हुए जापान की  Keio University में हुए एक सेमिनार में University of Greenwich: West Kent College के Media and Communication कोर्स के पूर्व डायरेक्टर James WATSON ने भी कहा था-

Frames make an apt metaphor for media because of their variety, and in part because they are imprecise – allowing us a degree of flexibility of definition and use. We have picture frames into which we insert images that in turn, in some way or another, provide us with a representation; something that has been subject to a number of wider frames, each one influencing and influenced by the other. It is helpful to differentiate between frames that are visible, immediately identifiable, and those that are invisible, whose presence you sense but are often difficult to locate, to put your finger on. The newspaper page is a frame. We can talk of headlines, captions, the positioning of photographs, the differing style and size of print: the bigger the story, the bigger the type-size? Well, not exactly and not always. With television we can readily identify the framing devices, illustrated in Figure 1, working at the operational level. Invariably, music serves as an initial frame, its intention to combine the serious with the buoyant, to set the tone of what is to follow. It summons our attention as the process of mediation, between events and presentation, comes into play.[2]

इसमें दो राय नहीं है कि एंकर्स भी आखिरकार टेलीविजन के समाचार चैनल के प्रसारण का अभिन्न अंग हैं, और अगर गहराई से देखें तो एंकर्स चैनल पैकेजिंग का भी हिस्सा हैं, वो उस हर खबर का हिस्सा हैं, जो पर्दे पर दर्शक के सामने आ रही है, तो उनका हाव-भाव, उनकी मुद्राएं, उनकी प्रस्तुति – सब कुछ दर्शक को प्रभावित कर सकती है या यूं कहें कि करती भी है। ऐसे में एंकर्स को किस तरह के फ्रेममें बिठाया जा रहा है, ये शाब्दिक ही नहीं, वास्तविक खबरिया नजरिए से भी काफी अहम मुद्दा है, जिस पर ध्यान देने की काफी जरूरत है।

एंकर्स के फ्रेमसे शुरु हुई बात खबरों तक आई तो यहां ये भी विचारणीय पहलू है कि एंकर के बाद समाचार चैनलों का स्क्रीन कैसा दिखता है। टेलीविजन की तकनीकी भाषा में तो हरेक विजुअल का हरेक सेकेंड 24 फ्रेम्स में बंटा होता है, लेकिन थोड़े विस्तार में देखें तो खबर दर खबर स्क्रीन पर हर फ्रेमबदलता हुआ दिखता है। आमतौर टेलीविजन को विजुअल माध्यम माना जाता है, लेकिन अगर असल में देखा जाए तो आजकल हिंदी समाचार चैनलों पर स्क्रीन का कम से कम चालीस फीसदी हिस्सा तो चैनल लोगो, टेक्स्ट बैंड, न्यूज़ टिकर, विज्ञापनों और ऐसे दूसरे तत्वों से भरा होता है, जो विजुअल्स पर भारी पड़ते हैं और उनके असर को कम कर देते हैं। कुछ बानगियां पेश हैं-
06052013769.jpg

06052013802.jpg


06052013753.jpg

06052013808.jpg


एक तरीके से देखा जाए, तो टेक्स्ट आधारित ये तत्व भी समाचार चैनलों का जरूरी हिस्सा हैं। कई बार खबरों को पेश करने के लिए भी टेक्स्ट आधारित ग्राफिक्स का सहारा लेना पड़ता है, जो समाचार चैनलों की रचनात्मक क्षमता को ही जाहिर करते हैं-
06052013806.jpg

06052013778.jpg

ऐसे में ये तो साफ है कि खबरों की फ्रेमिंगसे लेकर स्क्रीन के फ्रेमतक को न सिर्फ आकर्षक, बल्कि खबरिया नजरिए से समृद्ध बनाना भी समाचार चैनलों के लिए अहम है। लेकिन यहां ये भी ध्यान देना होगा कि हमारे यहां टेलीविजन समाचार प्रसारण के सिद्धांत और व्यवहार में कितना जरूरी और गैर-जरूरी फर्क नजर आ रहा है।
हालांकि आज के दौर में चैनलों के पर्दे पर फ्रेमिंगके जो नमूने देखने को मिलते हैं, उनके पीछे आधुनिक तकनीक का करिश्मा ही है। लेकिन एक बात ध्यान रखनी पड़ेगी कि हमने अपनी तरफ से नया बहुत कम किय़ा, विदेशी चैनलों से प्रेरणा काफी ली है। लेकिन वही बीबीसी और सीएनएन जैसे बड़े विदेशी चैनल अब टेक्स्ट से ज्यादा विजुअल पर केंद्रित दिख रहे हैं और टेलीविजन के मूल सिद्धांत का पालन कर रहे हैं। अल-जजीरा जैसे चैनल में भी फुल फ्रेम विजुअल दिखाने पर जोर रहता है और टेक्स्ट के नाम पर टिकर की एक सेंटीमीटर की पट्टी तेजी से स्क्रीन के निचले हिस्से में चलती नजर आती है। हां बाइट चलने पर नाम की पट्टी जरूर आती है, लेकिन सेकेंडों में हट भी जाती है और खबरों की शुरुआत में ही उनसे जुड़ी जानकारियों की पट्टियां नज़र आती हैं, न कि खबर की पूरी अवधि के दौरान – यही स्थिति बीबीसी और सीएनएन जैसे चैनलों में भी हैं, जहां इस बात का खास ख्याल रखा जाता है कि टेक्स्ट का कहां औऱ कितना इस्तेमाल जरूरी है। हमने टेलीविजन की तकनीक और प्रौद्योगिकी विदेशों से हासिल की है, बुलेटिन्स और प्रोग्रामिंग की तकनीक पर भी ज्यादातर ट्रेनिंग हमें विदेशों से मिली है, तो वहां के चैनलों की जो अच्छाइयां हैं, वो भी हमें स्वीकार करनी चाहिए और उन्हें अंगीकृत करना चाहिए। न कि खुद को अलग दिखाने की होड़ और भेड़चाल में फंसकर प्रदर्शन भौंड़ा हो जाए।
-          कुमार कौस्तुभ
06.05.2013, 06.07 PM


[1] http://www.tveiten.net/futurelearninglab/menu4/1233468300.pdf

[2] http://www.mediacom.keio.ac.jp/publication/pdf2007/pdf/James%20WATSON.pdf

No comments: