Thursday, May 2, 2013

हिंदी में टेलीविजन समाचार- सरोकार और कारोबार


     
      चर्चा का विषय विस्तृत है और विवादित है- लंबे समय से ये बहस का मुद्दा रहा है कि क्या आज के दौर में टेलीविजन पर हो रही पत्रकारिता सरकारों से जुड़ी है? क्या समाचार चैनल भी मनोरंजन और ऐसी चीजें दिखाने का काम कर रहे हैं, जिनका आम जनजीवन और समाज से कोई सरोकार न हो? क्या टेलीविजन के समाचार चैनल कारोबारी मानसिकता से मजबूर होकर सरोकारी पत्रकारिता नहीं कर रहे..इत्यादि तमाम सवाल आजकल तमाम मीडिया गोष्ठियों, सेमिनारों, पत्र-पत्रिकाओं में बड़ी आसानी से उठते देखे जा सकते हैं। मेरी समझ से मुद्दा ये है कि क्या समाचार चैनल खबर दिखाने के अपने उत्तरदायित्व से कहीं पीछे तो नहीं हट रहे और खबर के अलावा ऐसा और क्या-क्या दिखाया जा रहा है और क्यों दिखाया जा रहा है जिसकी वजह से समाचार चैनल सरोकारी पत्रकारिता के नाम पर आलोचनाओं के शिकार बनते हैं? इस मुद्दे पर गहराई से और खुले मन से विचार करें, तो ऐसा नहीं लगता कि समाचार चैनल किसी भी तरह कम से कम आज की तारीख में अपने असल दायित्व से पीछे हटे हैं। हां, यहां ये साफ करना जरूरी है कि भारत में निजी समाचार चैनलों की शुरुआत से अब तक इनके विकास का जो दौर रहा है, उसमें विचारणीय मुद्दे पर कई तरह के अपवाद भी मिल सकते हैं, लेकिन विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देखें, तो आज के दौर में समाचार चैनल बखूबी अपनी जिम्मेदारी निभाते दिखेंगे। इस स्टेटमेंट का ये अर्थ नहीं कि टेलीविजन समाचार में काम करने की वजह से उसकी हिमायत कर रहा हूं, बल्कि ये कहना चाहता हूं कि जो विश्लेषक टेलीविजन के समाचार चैनलों की आलोचना करते नहीं थकते, उनकी राय एकतरफ ज्यादा लगती है। ये सच है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया, खासकर टीवी के समाचार चैनल मीडिया उद्योग का हिस्सा हैं, जिन्हें चलाने में पैसा लगता है औऱ बदले में मुनाफे और राजस्व की उम्मीद होती है – यानी शुद्ध कारोबार। लेकिन इस कारोबार के लिए जो घोषित-अघोषित शर्तें हैं, जो नियम-कायदे-कानून हैं, उनमें इनकी इस जिम्मेदारी का साफ-साफ उल्लेख हैं कि इन्हें समाचारों के प्रसारण से ही कमाई करनी है। अब सवाल ये है कि समाचार किस तरह के, क्या सरकारी समाचार, जो दूरदर्शन के समाचार पर दिखाए जाते हैं, या देश-दुनिया और समाज में जो कुछ घट रहा है, उसकी खबरें, या फिर अपनी तरफ से बनाई गई काल्पनिक खबरें या खबर के नाम पर कुछ भी ऐसा, जिसे खबर की परिभाषा में ढाल दिया गया हो। इस पर अपने-अपने विचार हो सकते हैं। अपने-अपने तर्क हो सकते हैं। अपनी-अपनी राय हो सकती है । 121 करोड़ आबादी का ये भारत देश है और सर्वेक्षणों के मुताबिक, 15 से 20 करोड़ दर्शकों तक टेलीविजन की पहुंच हो चुकी है, तो जाहिर है, हर दर्शक या हर समुदाय के दर्शकों की अपनी आकांक्षा हो सकती है कि उसकी खबर, या उससे जुड़ी खबर या ऐसी खबर जरूर प्रसारित हो, जिससे उसका कुछ मतलब हो। खबर की परिभाषा भी यही कहती है कि जो सर्वजनहिताय हो, जो सबकी सूचना दे, वही खबर, लेकिन सिर्फ एक आदमी या एक समुदाय विशेष के लिए बड़ी जानकारी का बड़े स्तर पर खबरिया महत्व किस चैनल के लिए कितना हो सकता है, ये समझना जटिल है। अभी हाल ही में एक वेबसाइट पर राजस्थान की करणी सेना की विज्ञप्ति से जुड़ी खबर पढ़ रहा था जिसमें साफ-साफ लिखा है-
जो टी.वी चैनल हमारी आवाज नहीं बन सकता वह हमारे घरों के टेलीविजन में खुलना ही नहीं चाहिए और जो अखबार हमारी आवाज नहीं बन सकते, हमारे कार्यक्रमों की सूचना आम जन तक नहीं पहुंचा सकते, हमारा रोष सरकार के कानों तक नहीं पहुंचा सकते, जो अपने सामाजिक सरोकार को निभाने के कर्तव्य को नहीं निभा सकते उन्हें हमें अपने घरों में आने से एकदम बंद कर देना चाहिए[1]

            जाहिर है, राजस्थान के क्षेत्रीय टीवी चैनलों के लिए ये एक बड़ी चेतावनी से कम नहीं, लिहाजा वहां उनकी पत्रकारिता के सरोकारों पर सवाल उठ सकते हैं। लेकिन राष्ट्रीय चैनलों पर इस तरह की चेतावनी या धमकी लागू नहीं हो सकती , क्योंकि उनका दायरा बड़ा है और उन्हें उससे ज्यादा बड़े मुद्दों या सरोकारों का ख्याल रखना है। बहरहाल बात पत्रकारिता में सामाजिक सरोकारों की होती है, तो आजकल जिस तरह के समाचार प्रमुखता से दिखाए जा रहे हैं, उनमें इस दायित्व का निर्वहन साफ झलकता है। चाहे वो पाकिस्तान की जेल में हमले के बाद मौत का शिकार हुए भारतीय सरबजीत सिंह से जुड़ी खबरें हों, या फिर दिल्ली से लेकर सिवनी के छोटे से कस्बे तक गुड़ियाओंसे बलात्कार से जुड़ी खबरें। समाज में जो कुछ हो रहा है, उसे बजरिये समाचार, टेलीविजन तक पहुंचते देर नहीं लगती और इससे बड़ी सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता और क्या हो सकती है जब टेलीविजन चैनल ऐसी खबरें दिखाते हैं, जो आम आदमी की जिंदगी से जुड़ी हों और उनके दिलोदिमाग को झकझोर दें। ये बात और है कि उनका व्यापक असर सिर्फ विरोध प्रदर्शनों में दिखता है, जिनके पीछे सरोकार भी होते है और निहित स्वार्थ भी- इसकी परवाह किए बगैर टेलीविजन के समाचार चैनल उन्हें भी कवर करते हैं, ताकि खबर दब न जाए। लेकिन इससे पब्लिक की मानसिकता में बदलाव होता है या नहीं और जिन समस्याओं से जुड़ी खबरें दिखाई जाती हैं, उनमें कोई सार्थक फर्क पड़ता है या नहीं , ये तो अलग समाजशास्त्रीय अध्ययन का मुद्दा है, लेकिन मोटे तौर पर जैसे सिनेमा में रियलिटी के चित्रण का समस्याओं के निराकरण पर कोई असर नहीं पड़ता, वैसा ही हाल आजकल खबरों का होता दिख रहा है। परंतु, सरोकारी पत्रकारिता टेलीविजन पर सबसे ज्यादा और सबसे सशक्त तरीके से हो रही है, इसमें कोई दो राय नहीं। आजकल टेलीविजन पर दिखाई जानेवाली ज्यादातर खबरें अपराध से जुड़ी हैं या फिर राजनीति से। किसी भी टेलीविजन चैनल के बुलेटिन्स का समय आधारित विश्लेषण करने पर ये साफ देखा जा सकता है, इसके लिए आंकड़ों पर आधारित उदाहरण पेश करने की जरूरत नहीं समझता, क्योंकि टेलीविजन पर समाचार देखने वाले आम दर्शक इससे बखूबी इत्तेफाक रखते हैं और एक ही जैसी खबरें देखकर ऊबते भी नजर आते हैं। ऐसे में टेलीविजन के समाचार चैनलों पर कारोबार के नजरिए से ही सही, अपनी प्रोग्रामिंग और पैकेजिंग के जरिए विविधता पेश करने की जिम्मेदारी भी होती है, जिसके लिए बाकायदा FPC यानी फिक्स्ट प्वाइंट चार्ट में खेल, मनोरंजन और दूसरी विधाओं की खबरें देने का प्रावधान होता है, ठीक वैसे ही, जैसे अखबारों में हर तरह की खबरों के लिए अलग पृष्ठ होते हैं, वैसे ही अलग-अलग विधाओं की खबरों के लिए समाचार चैनलों पर स्लॉट होते हैं। हालांकि जब किसी भी बड़ी खबर का मौका आता है, तो FPC को किनारे करके प्रसारण के फैसले लिए जाते हैं, ये रोजाना की प्रैक्टिस है, और यही समाचार चैनलों की सरोकारी पत्रकारिता का ही ठोस सबूत है। जो लोग सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता की बात करते हैं, उन्हें ये भी समझना चाहिए, कि खबरें दिखाना भी एक तरह से सामाजिक सरोकार का हिस्सा है और टेलीविजन के समाचार चैनल में अगर कोई खबर प्रसारित करने में देर होती है या किसी वजह से खबर छूट जाती है, तो उसे अपराध माना जाता है और कर्मचारियों की नौकरियां तक चली जाती हैं। अब सवाल है कि सरोकारी नजरिए से खबर क्या है, जिसे दिखाया जाना चाहिए, तो ये तो तय करना समाचार चैनल का विशेषाधिकार है। किसी व्यक्ति के लिए अभिनेता सलमान खान से जुड़ी खबर का कोई मतलब नहीं हो सकता , लेकिन वो खबर अगर सलमान के हिट एंड रन केस की हो, या फिर चिंकारा शिकार मामले की, तो उससे तो सामाजिक सरोकार जरूर जुड़े हैं, इस बात से कौन इंकार करेगा। संजय दत्त को सज़ा और माफी के विवाद पर इतनी चिल्लपों आखिर सरोकारी पत्रकारिता की वजह से ही तो मची है, वरना क्या मनोरंजन की खबरों के आधे घंटे के स्लॉट में 5 मिनट से ज्यादा फुटेज उन्हें हासिल हो पाती क्या? मनोरंजन की खबरें दिखाना सामाजिक सरोकार का मामला नहीं है, ये समझ भी अजीब लगती है। सिक्के का दूसरा पहलू देखें, तो समाचार चैनलों का ये सामाजिक सरोकार बनता है कि वो दर्शकों को हर तरह की खबर से वाकिफ रखें, न कि चौबीसों घंटे एक ही खबर पर बने रहें और उन्हें ऊबने को मजबूर कर दें। लिहाजा, समाचार चैनल अगर सामाजिक, मानवीय, अपराध और राजनीतिक मुद्दों की खबरें दिखाते हैं, तो उन्हें अपने कारोबार के अलावा सामाजिक सरोकार के तहत भी खेल और मनोरंजन की खबरें दिखाना जरूरी है।
अब सवाल .ये है कि कौन सी खबरें ऐसी हैं, जो सामाजिक सरोकार से जुड़े होने के बावजूद नहीं दिखाई जाती हैं और क्यों नहीं दिखाई जाती हैं? मसलन बीते दिनों बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में इंसेफ्लाइटिस या किसी बुखार से सैकड़ों बच्चों की मौत की खबर, या फिर पूर्वी उत्तर प्रदेश में जापानी इंसेफ्लाइटिस से हुई मौतों की खबर को राष्ट्रीय चैनलों पर जगह नहीं मिली। इसकी एक वजह तो ये कही जा सकती है कि जिन इलाकों से जुड़ी ये खबरें हैं, वो टीआरपी के पीपुल मीटर के दायरे में नहीं आते, लिहाजा यहां से मौतों के अलावा और भी तमाम खबरों की कवरेज राष्ट्रीय चैनलों पर नहीं दिखती, बशर्ते वो किसी राष्ट्रीय महत्व की खबर से किसी तरह मिलती-जुलती न हो, मसलन, अगर बलात्कारों से जुड़ी तमाम खबरें एक के बाद एक आ रही हों, तो इन इलाकों से भी ऐसी खबर आने पर उसका प्रसारण देखा जा सकता है। ये विशुद्ध कारोबारी मसला है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन अगर इन इलाकों के , बिहार और यूपी के क्षेत्रीय समाचार चैनलों पर भी इनकी कवरेज न हुई हो, प्रसारण न हुआ हो, तो मुद्दा विचारणीय है। हालांकि कई और मुद्दों से जुड़ी ऐसी खबरें, जो आम खबरों से अलग हटकर होती हैं, उनका प्रसारण अक्सर इस दायरे में नहीं आता। मसलन पिछले दिनों एबीपी न्यूज़ पर छत्तीसगढ़ में जल संग्रह के लिए तालाब खुदवाने की एक आदमी की कोशिश परवान चढ़ने की खबर जोर-शोर से दिखाई गई। विकासात्मक और सरोकारी पत्रकारिता के लिहाज से ये बेहतरीन प्रस्तुति थी। लेकिन इसके प्रसारण के पीछे संपादकीय सोच थी, या कोई और एजेंडा ये साफ नहीं है। इसके अलावा पिछले दिनों गंगा और यमुना नदी की सफाई से जुड़े अभियान पर कई चैनलों पर कवरेज हुई। कहनेवाले कह सकते हैं कि इसके पीछे भी कोई कारोबारी मजबूरी रही होगी, और हो भी सकती है, लेकिन क्या ये नहीं कहा जा सकता है कि गंगा-यमुना की सफाई का मसला एक बड़े सामाजिक सरोकार का हिस्सा है, जिसे उठाने की काफी जरूरत है। ऐसे कई मामले खबर बनकर प्रसारित होते हैं, जिन्हें देखकर संपादकीय सोच में बदलाव की झलक मिलती है और सरोकारी पत्रकारिता के नए प्रतिमान दिखते हैं। लेकिन ऐसा कम ही होता है, जब कोई पॉजिटिव जानकारी खबर बने, सिवाय महंगाई में कमी या होम लोन के ब्याज दर में कमी की खबरों के। मुद्दा फिर वही है कि टेलीविजन की पत्रकारिता आम आदमी के सरोकारों से जुड़ी है, और जो जानकारी आम लोगों को सबसे ज्यादा प्रभावित करनेवाली लगती है, वो खबर बनकर प्रसारित होती है, बजाय इस सोच के, कि उसका क्या और कितना असर होगा। असर होता भी है और समाचार चैनलों को हमारी खबर का असरकी पट्टी चलाते हुए अपनी पीठ ठोंकने और अपने मुंह मियां मिट्ठु बनने का मौका भी बखूबी मिलता है। लेकिन ऐसी खबरों को ज्यादा फॉलो नहीं किया जाता और दूरगामी नतीजों की पड़ताल नहीं होती, जिससे कुछ और सामाजिक सरोकारों पर नजर पड़ सके। सरोकारी पत्रकारिता को अगर एकतरफा नजरिए से देखेंगे, तो शायद कोई अखबार या कोई भी मीडिया इसके ढांचे में फिट न बैठे, और अगर हम इस सोच से अलग नहीं हो सकते, तो फिर इस पर विचार करना और ये रोना-धोना व्यर्थ है कि आज समाचार चैनलों पर सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता नहीं हो रही।
सरोकारी पत्रकारिता की बात करते हुए समाचारों की भाषा और प्रस्तुति की संवेदना पर भी सवाल उठाए जाते हैं। पिछले दिनों दिल्ली से प्रकाशित हिंदुस्तान दैनिक अखबार में विनित कुमार के ब्लॉग हुंकार से एक टिप्पणी छपी थी, जिसमें उन्होंने टीवी के समाचारों में दिल्ली में दरिंदगीशब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति जताई थी। मैं इस बात से सहमत हो सकता हूं कि दरिंदगीशब्द का इस्तेमाल अतिशयोक्ति के दायरे में आता है, लेकिन जब घटनाएं ही ऐसी घट रही हों, जिनमें अपराध की अति हो, तो अतिशयोक्तिपूर्ण जुमले के इस्तेमाल में क्या बुराई। क्या उस घटना से जुड़े अपराध को किसी तरह से कम करके आंका जा सकता है, जिससे किसी मासूम की जिंदगी तबाह होनेवाली हो? दिल्ली विश्वविद्यालय में 23 मई 2012 को टेलीवि‍जन का कारोबार विषयक एक संगोष्ठी के लिए तैयार किए गए एक पर्चे में टेलीविजन की नए किस्म की सामाजिकता की चर्चा करते हुए कहा गया कि सामाजिकता के इस नये संस्करण में भाषाई मिजाज न सिर्फ बदला है बल्कि यह सवाल गंभीरता से उठने लगा है कि क्या वाकई टेलीविजन को भाषा की जरूरत है। वह भाषा जिसके जरिए हम अर्थ का संप्रेषण भर नहीं कर रहे होते हैं बल्कि यथार्थ को रेखांकित भी कर रहे होते हैं। आप इसे लिखित या मौखिक भाषा के संदर्भ में देख सकते हैं। मेरी अपनी समझ है कि टेलीविजन को भाषा के जरिए अगर यह काम करना होता तो उसकी भाषा दूसरे माध्यमों से कहीं ज्यादा संवेदनशील होती लेकिन प्रयोग में इस भाषा को या तो दरकिनार कर दिया गया है और उसकी जगह कई दूसरे किस्म की भाषा ईजाद कर ली गई है, जिसने अपने तर्क विकसित किए हैं या फिर भाषा का यह रूप विज्ञापन के आसपास बैठता है। अकादमिक,व्याकरणिक और यहाँ तक कि स्वयं टेलीविजन की भाषा शर्तों के लिहाज से भाषा का यह संयोजन अराजक और उपद्रवी है लेकिन मुनाफे की दुनिया की असली भाषा यही है। टेलीविजन की सामाजिकता इसके बीच से होकर गुजरती है..।[2]  मेरा अपना मानना ये है कि जो भाषा समाचारों में इस्तेमाल की जा रही है, वो दिलों को झकझोर सकती है, लोगों को सोचने को मजबूत कर सकती है, लेकिन ये कोई उकसानेवाली भाषा नहीं है, ना ही चैनलों पर गाली-गलौच का इस्तेमाल हो रहा है, जिसकी इतनी कड़ी आलोचना की जाए। जहां तक मुनाफे का सवाल है, तो कोई एक चैनल अपनी तल्ख या अराजक और उपद्रवीभाषा के चलते टीआरपी में नंबर 1 होता जा रहा हो, और बाकी पिछड़ते जा रहे हों, तो बात समझ में आती है, लेकिन फिलहाल तो तमाम हिंदी चैनलों की भाषा में फर्क करना ही मुश्किल होता है कि कौन संयत है और कौन असंयत। भाषा में संयम की जरूरत हमेशा रहती है और तमाम समाचार चैनलों में इस बात पर बखूबी ध्यान भी दिया जाता है कि भाषा ही नहीं, तस्वीरों और ध्वनि का भी संयमित इस्तेमाल हो, चुंकि समाचार चैनलों का ये भी दायित्व है और उनके सामाजिक सरोकारों का हिस्सा है कि वो कुछ भी ऐसा न दिखाएं और न सुनाएं, जिससे आम लोग प्रभावित हों, या किसी की मानहानि हो, या कुछ भी कानूनन अवैध हो। ऐसे में टीवी समाचार चैनलों पर सामाजिक सरोकारों की चर्चा के अलग-अलग पहलुओं पर विचार किया जाए, तो मुद्दा स्पष्ट होता है और समस्या का समाधान भी निकल सकता है। सिर्फ एकतरफा तरीके से आग्रही होना समाचार माध्यम के प्रति अन्याय करना ही होगा।  
-कुमार कौस्तुभ
02.05.2013, 10.30 PM

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