Wednesday, April 17, 2013

TV पत्रकारिता का पहला पाठ




पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद टेलीविजन की चकाचौध भरी दुनिया में प्रवेश करने पर छात्रों को कई नए अनुभव होते हैं। किसी भी संस्थान में ऑन जॉब ट्रेनिंग या इंटर्नशिप करने के दौरान टेलीविजन पत्रकारिता के व्यवहारिक पहलुओं से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है। इसके साथ ही ये भी पता चलता है कि टेलीविजन के आयताकार पर्दे पर जो कुछ दिखता है उसका फलक असलियत में कितना लंबा-चौड़ा और विस्तृत है। कामकाज के सिलसिले की शुरुआत के साथ ही छात्र टीवी पत्रकारिता के अलग-अलग पहलुओं और बारीकियों से परिचित होते हैं जिनका इस्तेमाल करियर में लगातार होता रहता है। पढ़ाई के दौरान सैद्धांतिक तौर पर टीवी पत्रकारिता के जिन पहलुओं के बारे में सिखाया-पढ़ाया जाता है, उनकी तह में जाने का मौका काम शुरु करने पर ही मिलता है- इसके साथ ही सपनों की दुनिया के सत्य से भी साक्षात्कार होता है और मानसिकता धंधे के हिसाब से बनने लगती है। पहले छात्रों में न उतनी जागरुकता थी, ना ही टेलीविजन समाचार कारोबार का उतना विस्तार था, लिहाजा टेलीविजन पत्रकारिता सिर्फ रिपोर्टिंग और एंकरिंग तक सीमित नहीं है, ये बात न्यूज़ चैनल या प्रॉडक्शन हाउस में जाने पर ही पता चलती थी। इसके साथ ही ये तय हो जाता था कि आपको टेलीविजन पत्रकारिता के किसी भी विभाग में काम करना है, तो मूल पहलुओं पर तो सिद्धहस्त होना ही पड़ेगा। वैसे आसमान से टपके देवदूतों की तरह पर्दे पर चमकने वाले चंद गिने-चुने चेहरों के लिए ये जरूरी नहीं था, लेकिन टीवी पत्रकारिता से जुड़नेवाले आम छात्र के लिए हर पहलू पर पकड़ बनाने की चुनौती होती थी, जो आज के दौर में काफी बढ़ गई है। हालांकि समय के साथ पाठ्यक्रमों में बदलाव हुए हैं, पढ़ाई ज्यादा प्रोफेशनल हो गई है और नौकरी दिलानेवाली डिग्री या डिप्लोमा की पढ़ाई करानेवाले ज्यादातर संस्थानों में सैद्धांतिक कोर्स के अलावा उन व्यावहारिक पक्षों पर भी अधिक ध्यान दिया जाने लगा है, जिनसे काम पर जाने पर छात्रों का सीधा मतलब होता है। आजकल स्पेशलाइजेशन का जमाना है, लिहाजा ये भी अमूमन पहले ही तय हो जाता है कि अमुक छात्र रिपोर्टिंग में जाएगा या डेस्क पर काम करेगा या फिर किसी और विभाग के लायक है। ऐसे में एक धारा में आ जाने के बाद विभाग बदल पाना असंभव तो नहीं, लेकिन मुश्किल जरूर है। दूसरी चुनौती ये है कि आपने जिस विभाग को चुना, उसमें आपकी पकड़ बेहद मजबूत हो, जिसकी कोशिश में कई बरस गुजर जाते हैं और अनुभव के साथ पकड़ बनती भी है, लेकिन तब तक दूसरे क्षेत्र में जाने के लिए देर हो चुकी होती है और एक स्तर पर पहुंचने के बाद ज़ीरो से शुरुआत संभव नहीं होती। वैसे कुछ प्रतिभाशाली लोग ऐसे होते हैं, जो अपने मूल काम के साथ-साथ अपनी पसंद के दूसरे विभाग में पहचान बनाने के लिए अतिरिक्त परिश्रम करते हैं और कई बार उसका नतीजा भी बढ़िया होता है। तो टीवी पत्रकारिता का सबसे पहला पाठ तो यही है कि अपना क्षेत्र चुनें और अगर किसी वजह से पसंदीदा क्षेत्र न मिल सके, तो भी उसमें जगह बनाने के लिए प्रयत्न जारी रखें। मसलन अगर कोई छात्र रिपोर्टिंग करना चाहता है, और उसे डेस्क पर तैनात किया गया, तो भी वह अपनी दिलचस्पी के मुताबिक अतिरिक्त कोशिश कर सकता है। ये कोशिश आइडियाज़ पेश करने से लेकर अपने संपर्कों के इस्तेमाल तक पर निर्भर करती है। आप कितने चमकदार हैं इसकी परख जौहरी तभी करेगा, जब उसकी नज़र आप पर पड़ेगी, और जौहरी की नज़रों में आने के लिए आपको अपने ऊपर पड़ी धूल झाड़कर अपनी चमक और निखारनी होगी, तभी आप अपने उद्देश्य में सफल हो सकते हैं, ये कर्मवादी मान्यता है। भाग्यवादी भले ही जौहरी की परख में आने के लिए किस्मत पलटने का इंतजार कर सकते हैं। लेकिन जमाना विज्ञान, प्रबंधन का है, तार्किक है, लिहाजा ये मानना बेकार नहीं कि आप अपने कर्मों से अपनी किस्मत बदल सकते हैं। खुद को लाइमलाइट में रखने के लिए आपको मेहनत करनी होगी, आपका नजरिया तीक्ष्ण होना चाहिए, आपके हाव-भाव और बर्ताव में आक्रामकता और तेज़ी होनी चाहिए। आलस्य के लिए टेलीविजन में कोई जगह नहीं। संपादकीय पक्ष में हाथ तंग भी हो तो तकनीकी पक्ष में महारत हासिल करना बेहद जरूरी है और काम किसी भी माध्यम में करना हो, अंग्रेजी पर पकड़ बेहद जरूरी है, क्योंकि आपको अपने काम के कच्चे माल का स्रोत अंग्रेजी के जरिए ही मिलेगा।
बहरहाल, बात टीवी पत्रकारिता के पहले पाठ की हो रही थी, तो आपको बता दें कि टेलीविजन समाचारों और करेंट अफेयर्स प्रोग्राम के प्रॉडक्शन हाउस में बतौर ट्रेनी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत करते हुए सबसे पहले जिस शब्द से वास्ता पड़ा वह थी लॉगिंग। टेलीविजन की ग्लैमर भरी दुनिया में जगह बनाने के लिए हसरत भरी निगाहों से न्यूजरूम को निहारते हुए ट्रेनी के लिए लॉगिंग का सबक बेहद ऊबाऊ हो सकता है। ऑडियो-वीडियो टेप के साथ घंटों माथापच्ची और क्लर्क की तरह विजुअल का हिसाब-किताब रखने का काम ऐसा प्रतीत होता है, जैसे किसी टेलीविजन चैनल में नहीं, किसी रूटिन दफ्तर में काम करना हो। ये काम कुछ ऐसा ही है जैसे पढ़ाई शुरु कर रहे बच्चे को तस्वीर बनाने को कहें, तो काफी दिलचस्पी से वो मजे में आड़ी-तिरछी आकृतियां खींचकर आपको दिखा सकता है, लेकिन आप कहें कि वो दो पन्ने लिखना लिखकर दिखाए ताकि हैंडराइटिंग की प्रैक्टिस हो, तो वो भाग जाएगा। सीधे सरल शब्दों में लॉगिंग विजुअल्स के हिसाब-किताब रखने का खेल है। ये काम वैसे तो समाचार चैनलों की लाइब्रेरी से जुड़ा हुआ है, जहां शूट करके लाए गए तमाम वीडियो टेप की फेहरिस्त और पूरी जानकारी रखी जाती है ताकि उन्हें बाद में कभी इस्तेमाल करना हो, तो आसानी से तलाशा जा सके। लेकिन किसी रिपोर्टर या फिर डेस्क पर काम करनेवाले किसी स्क्रिप्ट राइटर या प्रोड्यूसर के लिए भी ये काम काफी महत्वपूर्ण है। इसकी अहमियय इस मामले में है कि जब भी आप किसी स्टोरी की तैयारी करते हैं, तो आपको ये पता होना चाहिए कि उसमें कौन से विजुअल इस्तेमाल होंगे, कौन सी बाइट्स इस्तेमाल होंगी और ये सब कहां मिलेंगे। जाहिर है, यदि किसी रिपोर्टर ने स्टोरी कवर की है, तो उसके शूट टेप में ही ये चीजें होंगी। अब सवाल है कि शूट टेप आधे घंटे से लेकर 3 घंटे तक की रिक़ॉर्डिंग वाले हो सकते हैं और स्टोरी कवरेज के दौरान उनमें शूटिंग भी इतनी या ज्यादा भी यानी कई टेपों में हो सकती है। ऐसे में अगर आपके ऊपर स्टोरी बनाने की जिम्मेदारी है तो आपके लिए सही विजुअल और बाइट तलाशना तब तक काफी मुश्किल और काफी समय खर्च करनेवाला काम होगा, जब तक कि आपके पास आपके इस्तेमाल के लायक जरूरी विजुअल-बाइट की जगह का पता-ठिकाना यानि घंटे, मिनट, सेकेंड और फ्रेम के बारे में जानकारी न मालूम हो। ये काम लॉगिंग के जरिए आसान हो जाता है। वीडियो टेप्स पर रिकॉर्डिंग घंटे, मिनट, सेकेंड और फ्रेम की समयबद्धता में होती है। लॉगिंग वो प्रक्रिया है जिसके तहत टेप पर रिकॉर्डेड वीडियो फुटेज को भली-भांति देखकर उनमें छिपे कंटेंट की जानकारी को टाइमिंग के मुताबिक आगे के इस्तेमाल के लिए कागज पर लिख लिया जाता है। यानी कोई खास विजुअल शॉट्स वो कितने मिनट, कितने सेकेंड और कितने फ्रेम पर है, और कहां से कहां तक कितनी अवधि का है, इसका टाइम कोड कागज पर सारणी बनाकर अंकित करना होगा। स्टोरी की वीडियो एडिटिंग के वक्त ये जानकारी काम आती है और हमें पूरे घंटे या दो घंटे की टेप देखने की जरूरत नहीं होती। साथ ही जितनी जरूरी फुटेज हो, उतनी ही हम अपने काम के लिए अलग कर सकते हैं, उसे टेप से कंप्यूटर में स्टोर कर सकते हैं। ये प्रक्रिया डंपिंग .या इंजेस्टिंग कहलाती है और इसके लिए टेप की लॉगिंग बेहद जरूरी है। लॉगिंग तो कंप्यूटर सिस्टम्स में पड़े वीडियो फुटेज की भी करनी जरूरी होती है, ताकि आप अपनी स्टोरी में उन्हें जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल कर सकें। वीडियो एडिटर को अगर आप ये निर्देश देना चाहते कि कंप्यूटर में पड़े सैकडों-हजारों वीडियो क्लिप्स में से किसी खास शॉट का इस्तेमाल उसे करना है, तो उसे उस क्लिप की आइडेंटिफिकेशन नंबरिंग और शॉट्स के टाइम कोड लॉग करके देने होंगे। यानी क्लोज अप्स, मिड श़ॉट, लांग शॉट, कटवेज़ वगैरा सबकी जानकारी लॉग करके रखी जा सकती है। यही बात बाइट्स के लिए भी लागू होती है कि किसी बाइट का कितना बड़ा हिस्सा कहां से कहां तक इस्तेमाल करने योग्य है, उसके बारे में पता तभी होगा, जब उसका निश्चित टाइम कोड लॉगिंग के जरिए स्टोरी एडिट होने से पहले ही निकाला जाए। अन्यथा काम की एक बाइट निकालने के लिए घंटों लंबा भाषण सुनना पड़ सकता है और इस प्रक्रिया में काफी वक्त बर्बाद हो सकता है। अनुभवी और समझदार रिपोर्टर्स तो कवरेज के दौरान ही इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनके काम की बाइट या विजुअल टेप में कितनी देर पर हो सकते हैं। यानी आधे घंटे की रिकॉर्डिंग में अगर ये अंदाजा हो, कि काम की बाइट 15वें मिनट के आसपास शुरु होती है, तो स्टोरी एडिटिंग में बड़ी आसानी होगी। लिहाजा तमाम संस्थानों में एडिटिंग से पहले टेप या विजुअल-बाइट की लॉगिंग की परंपरा चली आ रही है और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इतनी बड़ी जिम्मेदारी का काम नए ट्रेनी रंगरूटों को अक्सर सौंपा जाता है। इसके पीछे ये मानसिकता नहीं होती कि वो और कुछ नहीं कर सकते, बल्कि ये उनके अनुभव के लिए जरूरी है। टेप की लॉगिंग करते हुए तमाम किस्म के विजुअल्स से परिचित होने का मौका मिलता है, तमाम शख्सियतों और जगहों की जानकारी होती है जिन्हें बार-बार देखने पर आप आगे चलकर आप अपनी याद्दाश्त के मुताबिक खुद पहचान सकते हैं। साथ ही लंबे समय तक टेलीविजन में काम करने के लिहाज से ये भी कम अहम नहीं है कि लॉगिंग करते हुए आपके मानस-पटल पर कई विजुअल्स, और यहां तक कि कार्यक्रमों के बारे में भी ये जानकारी अंकित हो जाती है कि वो किस तारीख को कहां से आए हैं और किस टेप में संग्रहित हैं। ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि इंसान का दिमाग कंप्यूटर है जिससे सिर्फ टेप देखने भर से सारी जानकारी दिमाग में अंकित रह जाए। इसीलिए लॉगिग की प्रक्रिया में तमाम विजुअल्स, कटवेज़ और बाइट्स के टाइमकोड और टेप नंबर का इंडेक्स बनाने की परंपरा है, ताकि आप कभी भी उस दस्तावेज के जरिए अपनी जरूरत का माल निकाल सकें। जैसा पहले कहा गया, शुरुआत में ये काम बड़ा उबाऊ किस्म का लगता है, लेकिन कामकाज के लिहाज से इसका अनुभव काफी मददगार साबित होता है, जब आप एक संस्थान में लंबी पारी खेलते हैं। अगर संस्थान में टेप संग्रह करके रखने की परंपरा है , तो लॉगिंग के दौरान टेप पर भी नंबरिंग की जाती है और उसमें पाए जानेवाले विजुअल-बाइट की संक्षिप्त जानकारी कागज पर लिखकर चिपका दी जाती है, ताकि बरसों बाद भी उसे तलाशने में दिक्कत न हो।
आमतौर पर लॉगिंग की प्रक्रिया इसलिए बोझिल लगती है क्योंकि इस दौरान वीडियो टेप प्लेयर या रिकॉर्डर पर टेप बार-बार चलाकर और रोक कर देखनी पड़ी है और फिर टाइम कोड संबंधी जानकारियां नोट करनी होती हैं। प्लेयर में Play, Stop, Pause, Fast Forward और Rewind के तमाम बटन होते हैं, जिनका इस्तेमाल इस प्रक्रिया में किया जाता है। shuttle control के जरिए विजुअल्स को देखने में आसानी होती है। वहीं jog control के जरिए विजुअल्स को फ्रेम-दर-फ्रेम देखने की सुविधा होती है। लॉगिंग करते वक्त हेडफोन का इस्तेमाल जरूर होना चाहिए, ताकि टेप में रिकॉर्डेड आवाज से आस-पास के दूसरे लोगों के काम में बाधा न पड़े और आप भी अपना काम सुचारू रूप से कर सकें। लॉगिंग समय लेने और थकानेवाली प्रक्रिया है, लेकिन कई बार इसके जरिए आपको दिलचस्प विजुअल्स और पूरे घटनाक्रम के वीडियो देखने का मौका मिलता है, जो स्टोरी तैयार होने के दौरान काट-छांट दिए जाते हैं। ऐसे में घटनाक्रम की वस्तुस्थिति से अवगत होने और खबर की गहराई में जाने का मौका मिलता है। लॉगिंग के बाद आप ये भी तय कर सकते हैं कि शूटिंग किसी जरूरी या खास हिस्से का किस तरह स्टोरी में इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसे में रिपोर्टर्स के लिए खुद भी अपनी कवरेज के टेप की ल़ॉगिंग करना जरूरी माना जाता है। लेकिन आमतौर पर खबरों की भागमभाग में समय की कमी की वजह से रिपोर्टर हर बिंदु पर नजर रखने के लिए लॉगिंग नहीं कर पाते हैं लिहाजा ये जिम्मेदारी डेस्क के साथियों पर आती है, जो स्टोरी को एडिट करते हैं। तो स्टोरी के साथ न्याय हो और कोई अहम बिंदु छूट न जाए इसके लिए स्टोरी एडिटिंग और स्क्रिप्टिंग से जुड़े लोगों के लिए भी लॉगिंग का उतना ही महत्व है। लॉगिंग टीवी पत्रकारिता का पहला पाठ है और इसकी जरूरत अंत तक पड़ती है यानी खबर या कार्यक्रम प्रसारित होने या उसके बाद उनकी मॉनिटरिंग से जुड़े लोगों के लिए भी इसकी जरूरत होती है। एक खबर से जुड़ी कई खबरें आनेवाले दिनों में आगे तक आ सकती हैं, ऐसे में अगर किसी व्यक्ति ने किसी खबर के रॉ मैटिरियल यानी शूट टेप और रिकॉर्डेड सामग्री की लॉगिंग की है, तो खबर की कड़ियों को जोड़ना उसके लिए आसान हो जाता है। ये सतत प्रक्रिया है जिसे टीवी पत्रकारिता में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और ऐसा अभ्यास है जो आपकी स्मरणशक्ति को भी धारदार बना सकता है। भरोसा न हो तो खुद अनुभव करके देखिए।
अब तो ऐसे ‘Logger’ जैसे स़ॉफ्टवेयर भी आ गए हैं, जिनमें टेलीविजन का हर घंटे के कार्यक्रम खुद रिकॉर्ड होकर सर्वर में संग्रहित होते रहते हैं। जब भी जरूरत हो, तब तारीख और समय के आधार पर ‘Logger’ में रिकॉर्डिंग देखी जा सकती है। लेकिन अगर स्टोरी एडिटिंग के लिए कोई सामग्री इस्तेमाल करनी है, तो शूट टेप या लाइब्रेरी टेप की लॉगिंग से ही काम आसान होगा। आजकल टेप पर रिकॉर्डिंग का रिवाज खत्म होता जा रहा है, और कैमरों में कंप्यूटर आधारित रिकॉर्डिंग डिस्क, चिप और माइक्रो SD कार्ड्स का इस्तेमाल होने लगा है, लेकिन 10 -15 साल पहले से बीटा, DG बीटा, हाई-8, से लेकर अब तक DV और मिनी DV टेप्स पर शूटिंग और रिकॉर्डिंग की परंपरा रही है। कई टेलीविजन चैनलों की लायब्रेरीज़ में पड़े ऐसे हजारों टेप्स में देश के तमाम घटनाक्रमों के दस्तावेजी सबूत भरे पड़े हैं, जो जरूरत पड़ने पर तलाशे जाते हैं और इस्तेमाल किए जाते हैं।  
-          कुमार कौस्तुभ
17.04.2013, 5.12 PM

Tuesday, April 16, 2013

बुलेटिन की बाजीगरी!




टेलीविजन के दर्शकों के लिए बुलेटिन शब्द भले ही जाना-पहचाना न हो, लेकिन, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम करनेवाले लोगों के लिए ये शब्द रोजमर्रा के कामकाज से जुड़ा है। सोते-जागते, चलते-फिरते बुलेटिन की फिक्र रहती है क्योंकि टीवी पत्रकारों के लिए ये नौकरी का अहम हिस्सा है। टीवी के खबरनवीस अपनी सारी मेहनत बुलेटिन्स के लिए करते हैं, अपनी सारी ऊर्जा बुलेटिन्स को समर्पित कर देते हैं। आखिर ये बुलेटिन है क्या बला?
बुलेटिन के इतिहास पर गौर करें, तो पता चलता है कि ये शब्द फ्रेंच मूल रूप से फ्रेंच भाषा का है और व्यावहारिक तौर पर इसकी पैदाइश बुलेट शब्द से हुई मानी जाती है, जिसका इस्तेमाल लेखन में क्रम देने के लिए नंबरिंग की जगह बिंदुओं को दर्शाने के लिए होता रहा है – ऐसा भी माना जाता है। आम तौर पर समाचार जगत में बुलेटिन का अर्थ समाचारों के क्रमवार संकलन से जुड़ा है जिसे प्रसारण के लिए तैयार किया जाता है। संभवत: किसी जमाने में इसी तरीके से समाचारों का संकलन यानि कंपाइलेशन किया जाता रहा हो, तो उससे बुलेटिन के जुमले की उत्पत्ति हुई। आधुनिक दौर में प्रसारण के लिए समाचार संकलन का स्वरूप भले ही बदल चुका हो, लेकिन खबरों की क्रमबद्धता का सिद्धांत अपनी जगह बरकरार है और यही वजह है कि बुलेटिन शब्द का इस्तेमाल भी चलता जा रहा है।
बुलेटिन का एक अर्थ और देखें तो बुलेट यानी बंदूक की वो गोली जो सबसे खतरनाक होती है और इंसान की जान ले सकती है- उससे भी इसका संबंध जोड़ा जा सकता है- इस अर्थ में कि बुलेटिन का हर बिंदु समाचार के श्रोता, दर्शक या पाठक के लिए समान रुप से असरदार और महत्वपूर्ण होना चाहिए, जो ग्राहक के दिलो दिमाग में बंदूक की गोली की तरह धंस जाए और वैसा ही असर पैदा करे।
वैसे, समाचार अध्ययन की दुनिया में बुलेटिन की तमाम परिभाषाएं देखने को मिलती हैं, मसलन-
A short official statement or broadcast summary of news”,
“A regular newsletter or printed report issued by an organization or society”,
“Pamphlet-type regular or irregular periodical issued by an institution or other organization usually for announcements or news.
Bulletin is a short and official statement which can give basic information which is concise and straight to the point. They are used within business meetings and schools to ensure that the staff has a clear idea of what is going to be met and what is going to happen within that meeting and on a daily basis. They are used to make sure that the basic information can be passed around the working environment so everyone has a clear idea of what they should be doing.”[1]

जाहिर है, बुलेटिन का मतलब समाचारों के पुलिंदे या पोथी से नहीं, बल्कि, क्रमवार तरीके से सजाई गई खबरों के गुलदस्ते से है, जिसे सीधे-सरल तरीके से और तेजी से पेश किया जा सके। बुलेटिन की एक विशेषता उसका नियमित होना भी है, यानी टीवी के तरीके से देखें, तो रोजाना खास नियत समय पर प्रसारित होनेवाला खबरों का संकलन बुलेटिन की श्रेणी में आता है जिसकी अवधि भी पहले से निश्चित होती है यानी तय समय-सीमा में खबरों को पेश करने का बंधन होता है। इस मायने में टीवी या रेडियो के बुलेटिन का स्वरूप अखबार से काफी अलग होता है और होना भी चाहिए क्योंकि ये अलग-अलग माध्यम जो हैं। और इसी लिहाज से इनकी विशेषता भी अलग-अलग है।
परिभाषाओं के आधार पर ऐसा महसूस होता है कि बुलेटिन के तय ढांचे होते हैं और रूपरेखा निश्चित होती है जिससे प्रोड्यूसर्स के लिए कुछ खास रचनात्मक करने को रह नहीं जाता। लेकिन आज के दौर में वास्तविकता इससे काफी अलग है। बुलेटिन तैयार करना अब सिर्फ नौकरी का हिस्सा नहीं, एक कला है, एक तरह से बाजीगरी है और हरेक प्रोड्यूसर के लिए बड़ी चुनौती है कि कितने असरदार तरीके से उस खास समय सीमा का इस्तेमाल खबरों के प्रसारण के लिए किया जाए, जो बुलेटिन के लिए तय किया गया है। रेडियो और टेलीविजन के बुलेटिन्स में समानता समय सीमा की होती है। लेकिन टेलीविजन में ऑडियो के साथ-साथ वीडियो और तस्वीरों के इस्तेमाल से उसका कलेवर बदल जाता है, उसका अलग प्रभाव पड़ता है।
बुलेटिन का मतलब खबरों के संकलन से है- इस सिद्धांत को मानें तो इसे तैयार करना बहुत मुश्किल नहीं है। आपको ये तय करना होगा कि आपके बुलेटिन के लिए सबसे महत्वपूर्ण खबरें क्या है। कौन सी खबरें आपके दर्शक वर्ग के लिए कितनी जरूरी हैं, कितनी दिलचस्प हैं और उन्हें किस क्रम में आप पेश करना चाहेंगे। इन बिंदुओं को ध्यान में रखकर आप 5, 10 या 15 मिनट और आधे घंटे का बुलेटिन तैयार कर सकते हैं। बुलेटिन में आपको सबसे महत्वपूर्ण खबर और उससे जुड़ी स्टोरी को सबसे पहले और सबसे कम अहम खबर को सबसे अंत में रखना होगा। आम तौर पर यही सिद्धांत, यही तकनीक बुलेटिन तैयार करने के लिए इस्तेमाल की जाती है। सवाल ये उठता है कि बुलेटिन में समय सीमा के मुताबिक कितनी खबरें हों और हर खबर पर कितना समय खर्च किया जाए। यह भी इस बात पर निर्भर करता है कि आपके पास कितनी बड़ी खबरें हैं और किसी एक बड़ी खबर से जुड़े कितने एलिमेंट हैं। ये आपकी संपादकीय नीति के मुताबिक, आपको तय करना होगा कि आप किसी भी खबर को कितना वक्त देना चाहते हैं और उसे पूरा करने के लिए आपके पास क्या-क्या आइटम हैं। यदि आपके पास कोई बड़ी खबर है, और उसे ज्यादा महत्व देते हुए आप ज्यादा से ज्यादा वक्त देना चाहते, लेकिन उससे जुड़े तत्व – मसलन तस्वीरें, साउंड बाइट्स, पैकेज, बैकग्राउंडर जानकारियां, आपके पास ज्यादा नहीं हैं, तो आपके सामने छोटी सी स्क्रिप्ट को बार-बार दोहराने के सिवा कोई और उपाय नहीं बच जाता है जिससे बुलेटिन उबाऊ हो सकता है। ऐसी स्थिति से बचना चाहिए, चुंकि आप अपने दर्शक को अपने पास रोके रखने में विफल रहेंगे।
पारंपरिक तौर पर बुलेटिन से जुड़ी दो बातें अहम मानी जाती हैं- एक तो ये संतुलित हो, और दूसरा इसमें पेस हो यानी रफ्तार के साथ लय का सामंजस्य हो। बुलेटिन के संतुलित होने का मतलब ये है कि उसमें हर तरह की खबरें हों, सिर्फ एक पक्ष या एक विषय से जुड़ी खबरें न हों, क्योंकि एक तरह की खबरें देखकर दर्शक ऊब सकता है। ऐसा माना जाता है कि बुलेटिन में कुछ गंभीर खबरें हों, तो कुछ हल्की फुल्की खबरें भी हों, आपको राजनीति और बड़ी घटनाओं-दुर्घटनाओं के साथ साथ मानवीय पहलुओं , खेल और मनोरंजन से भी जुड़ी खबरें बुलेटिन में समाहित करनी चाहिए। ये पांरपरिक बुलेटिन का स्टाइल है। लेकिन, बुलेटिन किस तरह का हो, ये अलग-अलग टाइम बैंड पर भी निर्भर करता है- ये मान्यता टीआरपी की होड़ से निकलकर सामने आई है। मसलन रात नौ बजे के बुलेटिन को मेट्रो के दर्शक सबसे ज्यादा देखते हैं, तो उसमें मेट्रो की खबरों को प्रधानता देने की बात होती है। वहीं, रात 10 बजे या 11 बजे लोगों के बिस्तर पर जाने का वक्त होता है औऱ लोग दिनभर की तमाम बड़ी खबरें देखना पसंद करते हैं, तो ऐसे बुलेटिन में तमाम किस्म की खबरें हों और शुरुआत लोगों से जुड़ी किसी बड़ी खबर या राजनीतिक खबर से हो। इसी तरह तड़के 6, 7 और 8 बजे के बुलेटिन आज की बड़ी खबर और आज होनेवाली घटनाओं पर केंद्रित हो सकते हैं, साथ ही गुजरे दिन या रात की ब़डी और दिलचस्प खबरें भी उनमें रखी जा सकती हैं। दिन के 11 बजे या दोपहर के बुलेटिन में उस वक्त की सबसे बड़ी खबर या विजुअल के तौर पर मजबूत खबर से शुरुआत हो सकती है और चुनिंदा बड़ी खबरों पर फोकस हो सकता है। यानी बुलेटिन के स्ट्रक्चर पर खबर नहीं, टाइम बैंड हावी दिखता है। ये समय और परिस्थितियों के मुताबिक तय होता है कि किस बुलेटिन में कौन सी खबर को कितनी अहमियत दी जाएगी और कब क्या दिखाया जाएगा। खबरों का क्रम बदलने या कुछ खबरों को ड्रॉप करने की पूरी छूट बुलेटिन प्रोड्यूसर के पास होती है। दिन के वक्त डेवलप हो रही खबरों के मायने में कई बार बुलेटिन एक- दो खबरों तक ही सीमित रह जाते हैं और ताजा ब़ड़ी खबरें ब्रेकिंग न्यूज़ के रूप में शामिल किए जाने पर कुछ खबरों को दिनभर में प्रसारित होने का मौका नहीं मिल पाता। बड़ी खबरों या ब्रेकिंग न्यूज़ के साथ रिपोर्टर इनपुट के रूप में फोन इन और लाइव चैट लेने की गुंजाइश रहती है, लेकिन इस क्रम में अगर समय सीमा का ध्यान नहीं रखा जाए, तो दूसरी खबरों के लिए वक्त नहीं बचता।
हालांकि आज के दौर में जिस तरह टेलीविजन पर समाचार बुलेटिन पेश किए जाते हैं , उनमें पारंपरिक संतुलन की ये बात काफी हद तक बेमानी हो चुकी है। आज के दौर में कोई बुलेटिन किसी एक बड़ी खबर पर भी केंद्रित हो सकता है – बशर्ते उसमें उस खबर से जुड़े और तमाम आइटम भी हों, और मिलती जुलती खबरें भी हों, ताकि खबरों की एक कड़ी जुड़ती चली जाए- इससे दर्शक आपके पास टिका रह सकता है।
अगर बुलेटिन में हर रंग की खबरें हों, तो इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी है कि उनसे जुड़ी स्टोरीज़ का आकार और टोन कैसा है। आम तौर पर माना जाता है कि किसी भी खबर का कोई भी पैकेज डेढ़ मिनट से ज्यादा बड़ न हो। छोटे-छोटे वाक्यों और कम शब्दों में खबर देने की कोशिश हो। ताकि तेज गति से ज्यादा से ज्यादा खबरें इस्तेमाल की जा सकें। एक खबर से जुड़े कई पैकेज हो सकते हैं, ऐसे में पैकेज के आकार के साथ साथ इस बात पर भी ध्यान देना जरूरी हो जाता है कि उनमें विजुअल किस हद तक दोहराए जा रहे हैं और क्य़ा ग्राफिक्स या एनिमेशन जैसे कुछ और तत्व हैं या नहीं, जो स्टोरी को इनटेरेस्टिंग बना सकें। सॉफ्ट स्टोरीज़ के मामले में भी पैकेज छोटे रखने और उनमें एंबिएंस और संगीत का इस्तेमाल करने की परंपरा है। लंबे पैकेज बुलेटिन की समय सीमा के हिसाब से फिट नहीं बैठते, साथ ही उसकी रफ्तार भी धीमी कर देते हैं। कुल मिलाकर बुलेटिन तैयार करनेवालों की मुख्य़ चुनौती दर्शकों की दिलचस्पी उनमें बनाए रखने की और उन्हें अपने साथ बांधे रखने की होती है। इसके लिए जरूरी है कि बुलेटिन की शुरुआत भी दिलचस्प हो। हर बुलेटिन एक ही तरीके से न खुले, उनमें ताजगी बनाए रखने की कोशिश हो। वेरायटी दिखाने की कोशिश हो। बड़ी खबरों या ब्रेकिंग न्यूज़ से शुरुआत करने पर खबर से जुड़ी कई चीजें एक साथ – विंडोज़ के जरिए दिखाने की व्यवस्था हो। ग्राफिक्स के स्तर पर भी वैरिएशन देखने को मिले – कुल मिलाकर रफ्तार तेज़ हो जिससे आप एक खबर पर टिके रहकर भी दर्शकों को अपने साथ बांधे रख सकें। इसके लिए एंकर लिंक्स भी छोटे होने चाहिए – 15 सेकेंड से ज्यादा नहीं, और बाइट अगर इस्तेमाल हो रही हों, तो वो भी पूरी बात कहें, लेकिन कुछ भी दोहराया जाता न लगे यानी खबर देख रहे दर्शक को उस पर सोचने का मौका देने से पहले ही नय़ा आइटम उसके सामने परोस दिया जाए, जिससे बुलेटिन में उसकी दिलचस्पी बनी रहे। इस तरह बुलेटिन तैयार करना आसान नहीं, भले ही आपके पास पर्याप्त समय हो और आप बुलेटिन की परिकल्पना पहले से तय करके चलें, लेकिन चीजें ऑन एयर होते वक्त अगर किसी भी स्तर पर सावधानी न रही, तो स्क्रीन पर चौंकानेवाली दुर्घटना हो सकती है और न्यूज़रूम में धमाका हो सकता है, उबाल आ सकता है। पूरे टेलीविजन समाचार के समान एक बुलेटिन का प्रसारण भी टीम वर्क है और किसी भी स्तर पर ग़ड़बड़ हुई तो निराशाजनक स्थिति पैदा होती है। इससे बचने के लिए बुलेटिन प्रोड्य़ूसर को बेहद सतर्क, सजग औऱ चौकन्ना रहने की जरूरत है। जरूरी ये है कि तैयारी मजबूत हो, साथ ही आनेवाली खबरों पर भी कान रहे, ताकि कुछ भी ऐसा छूटने न पाए, जो आपके बुलेटिन के लिए जरूरी हो। आम तौर पर अभ्यास से ही ये विशेषताएं हासिल होती हैं जिसके साथ-साथ जरूरी है समय और परिस्थितियों के मुताबिक, खबरों की सुलझी हुई सोच और समझदारी। अगर आपके पास एक राजनीतिक खबर, एक हादसे की खबर और एक महंगाई घटने या बढ़ने जैसी आम आदमी से जुड़ी –तीन बड़ी खबरें हों, तो आपके लिए तय करना मुश्किल होगा कि आप बुलेटिन की शुरुआत किस खबर से करें। जाहिर है, इसके लिए आपको खबर की तात्कालिकता और उसके इंपैक्ट का भी ख्याल रखना होगा। उलझन की स्थिति से बचने का बेहतरीन उपाय ये है कि अपने सहयोगियों और वरिष्ठ लोगों से सलाह मशविरा करें, दूसरे प्रतिद्वंद्वी समाचार चैनलों पर ध्यान रखें और फिर जो सब मिलकर तय करें, उस खबर से बुलेटिन की शुरुआत करें। बुलेटिन बनाते वक्त आपकी बाजीगरी इसी में है कि आप खबरों से किस तरह खेलते हैं, दर्शकों के लिए उन्हें कितने दिलचस्प तरीके से पेश करते हैं।
बात बुलेटिन की शुरुआत की हुई, तो थोड़ा बुलेटिन की रूपरेखा पर भी बात कर लें। आम तौर पर बुलेटिन की शुरुआत चैनल मोंटाज और स्टिंग के बाद हेडलाइंस के साथ होती है। बुलेटिन को नयापन देने के लिए इन दिनों नए-नए प्रयोग भी होते देखे जा सकते हैं। मसलन शुरुआत में आज की तीन बड़ी खबरों का इंट्रो और भी आज की तमाम बड़ी खबरें हेडलाइन के रूप में पेश की जाएं, या फिर बुलेटिन की शुरुआत ब्रेकिंग न्यूज़ से और 30 सेकेंड बाद एंकर हेडलाइन पर आए। हेडलाइंस में चुंकि 3, 5 या 8 या 10 बड़ी खबरें ली जाती हैं, लिहाजा इंट्रो खबरों में या ब्रेकिंग न्यूज़ में हेडलाइन की खबरें न हों, तो अच्छा। वैसे आज कल इसका कुछ खास ध्यान नहीं रखा जाता। लेकिन खबरों को दोहराने से बचें, तो बेहतर। इसके बाद आते हैं प्रमुख खबरों पर जिनके बारे में ऊपर चर्चा हो चुकी है, यही खबरें बुलेटिन की बॉडी तैयार करते हैं। इसके बाद मामला आता है कि बुलेटिन खत्म करने के लिए किस तरह की स्टोरी हो। आमतौर पर परंपरा य़े है कि बुलेटिन का अंत हल्की-फुल्की, मनोरंजन प्रधान या खेल की खबरों से हो। कुछ चैनलों पर बुलेटिन के अंत में अंतरराष्ट्रीय खबरें और यादगार तस्वीरें दिखाने का भी चलन है। यानी कुल मिलाकर सिद्धांत ये कि तेज़ रफ्तार और भीड़-भाड़ वाली खबरों से भरे बुलेटिन का अंत सुखद और शांतिपूर्ण तरीके से हो। कुछ समाचार चैनलों में बुलेटिन के अंत में भी खबरों के सार-संक्षेप के रूप में हेडलाइंस दिखाने की परंपरा रही है, जो अब खत्म होती जा रही है। वजह ये कि चंद मिनटों के कमर्शिय़ल ब्रेक के बाद फिर से बुलेटिन या शो की शुरुआत में हेडलाइंस आती है तो उनके दोहराव की बड़ी गुंजाइश होती है।

क्या करें क्या ना करें-
हर बुलेटिन की समय सीमा तय होती है, लिहाजा उससे हटने और खबरों को खींचने की कोशिश बिल्कुल न करें। इससे कमर्शियल्स पर असर पड़ेगा , कारोबारी हित प्रभावित होंगे, साथ ही सबसे अहम बात ये कि अगले बुलेटिन पर भी असर पड़ेगा।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि बुलेटिन समाचारों का संग्रह है, उनका गुलदस्ता है, लिहाजा कोशिश ये होनी चाहिए कि खबरों की वैरायटी बनी रहे, एक या दो खबरों पर बुलेटिन केंद्रित न रहे।
बुलेटिन प्रस्तुत करनेवाले एंकर्स को खबरों का भली-भांति ज्ञान होना चाहिए। उन्हें लाइव स्थिति में रिपोर्टर्स से पूछे जानेवाले सवालों की जानकारी होनी चाहिए। इसके लिए जरूरी ये है कि उन्हें खबरों की एंकर लीड और स्क्रिप्ट पहले से मिली हो। हालांकि बुलेटिन तैयारी की भागमभाग में ये अक्सर संभव नहीं होता, लेकिन ये एंकर्स की खुद की भी जिम्मेदारी है कि वो खुद को अपडेट रखें और बुलेटिन प्रोड्यूसर से बात करके आनेवाले बुलेटिन की तैयारी कर लें। तकनीकी गड़बड़ियां कभी भी हो सकती हैं, लिहाजा एंकर को अपने दिमाग और प्रत्युत्पन्नमतित्व यानी प्रेजेंस ऑफ माइंड के इस्तेमाल की क्षमता और छूट होनी चाहिए, ताकि टेलीप्रॉम्पटर जवाब दे जाए, तो बुलेटिन पर असर न पड़े।
बुलेटिन की शुरुआत चैनल मोंटाज या स्टिंग के साथ होती है, जिसमें म्यूजिक भी होता है, लेकिन आगे बुलेटिन में म्यूज़िक का इस्तेमाल आम तौर पर नहीं करते , क्योंकि इससे अलग-अलग खबरों की लय और रफ्तार भंग होने का खतरा रहता है। हां, अलग-अलग स्टोरीज में मूड के मुताबिक, संगीत का इस्तेमाल हो सकता है। वैसे, स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस जैसे समारोहों पर केंद्रित या किसी बड़ी हस्ती के निधन के मौके पर लाइव बुलेटिन में संगीत का इस्तेमाल हो सकता है, चुंकि तब बुलेटिन एक थीम पर केंद्रित रहता है।
आजकल पंरपरागत बुलेटिन्स यानी हर तरह की खबरें समेटे रहनेवाले बुलेटिन्स का रिवाज खत्म होता जा रहा है। ऐसे में बुलेटिन्स के कई रूप और उन्हें पेश करने के नए-नए तरीके सामने आ रहे हैं। किसी एक बड़ी खबर का दिन होने पर आम तौर पर स्पेशल बुलेटिन्स की तैयारी होती है, जिसमें एक खबर के तमाम पहलुओं पर नज़र रहती है। कुछ समाचार चैनलों में सप्ताहांत में हफ्ते भर की प्रमुख खबरों पर आधारित बुलेटिन्स की भी परंपरा है। ध्यान इस बात का रहना चाहिए कि बुलेटिन खबरों –समाचारों पर केंद्रित हो, विचार पक्ष उस पर हावी न हो।
बुलेटिन्स की तैयारी में इस बात का खास ख्याल रहे कि खबरों का क्रम क्या हो। आम तौर पर आपके बास्केट में तीन-चार तरह की खबरें हो सकती हैं- एक तो ब्रेकिंग न्यूज़ जो जब आएं, तभी उन्हें प्रसारित करना जरूरी होगा। दूसरी वो खबरें जिन्हें आपको प्रसारित करना ही करना है। तीसरी वो खबरें जिन्हें इस्तेमाल किया भी जा सकता है और नहीं भी यानी बहुत कम महत्वपूर्ण खबरें, और कुछ ऐसी भी खबरें होती है, जिन्हें पहली नजर में आप खारिज कर सकते हैं, बुलेटिन में बिल्कुल नहीं लेना चाहेंगे। तो तमाम खबरों को आपको क्रमवार व्यवस्थित करना होगा, ताकि कोई जरूरी खबर छूट न जाए और कोई गैर-जरूरी खबर बुलेटिन में जगह न पा ले। साथ ही, ब्रेकिंग, जरूरी और गैर जरूरी खबरों के प्रसारण पर विचार करते हुए उनकी समय सीमा भी आपको तय करनी होगी। यानि अगर ब्रेकिंग खबर है तो कम से कम 30 सेकेंड उस पर खर्च करने होंगे, अगर ब्रेकिंग के साथ विजुअल और बाइट भी हैं, तो खबर को डेढ़ से 2 मिनट दिए जा सकते हैं। लेकिन सिर्फ ग्राफिक पट्टी के साथ किसी कीमत पर वो खबर 30 सेकेंड से ज्यादा की अहमियत नहीं रखती। अगर उसको सहारा देनेवाले तत्व आपके पास आ रहे हों, और खबर तेजी से विकसित हो रही हो, तो भी समय सीमा पर ध्यान रखना पड़ेगा। इसी तरह दूसरी खबरों के लिए हर खबर पर डेढ़ से दो मिनट देना काफी होगा। एक खबर से जुड़ी कई स्टोरीज़ हों, तो उन्हें एक साथ जोड़कर आप 3 से पांच मिनट का सेगमेंट बना सकते हैं। लेकिन ध्यान रखें कि दूसरी खबरों को भी बुलेटिन में जगह मिले ।
बुलेटिन प्रसारण की इस प्रक्रिया में पैनल कंट्रोल रूम के सहयोगियों पैनल प्रोड्यूसर्स , टेक्निकल डायरेक्टर्स, साउंड इंजीनियर्स के साथ मास्टर कंट्रोल रूम की भी अहम भूमिका रहती है जो बुलेटिन की शुरुआत और अंत तक समय सीमा का ध्यान रखते हैं। बुलेटिन प्रोड्यूसर्स के साथ-साथ रनडाउन प्रोड्यूसर्स की भी ये अहम जिम्मेदारी है कि वो मास्टर कंट्रोल रूम और पैनल के लगातार संपर्क में रहें, उनके काउंट डाउन का ध्यान रखें, ताकि न तो बुलेटिन की अवधि बढ़े, ना हो वो छोटा हो जाए। किसी भी स्तर पर तालमेसल गड़बड़ होने पर बुलेटिन की लय खराब हो सकती है और इसका सीधा असर ग्राहक यानी दर्शक पर पड़ेगा जो रिमोट कंट्रोल के बटन दबाकर आपसे दूर हो सकता है। खबरों से खेलने के अलावा, समय की धारदार तलवार पर खबरों का तारतम्य बनाए रखने के लिए एंकर, रनजाउन, पैनल और मास्टर कंट्रोल रूम को एक सूत्र में बांधे रखना ही बुलेटिन की सबसे बड़ी बाजीगरी है। जो इसमें सफल रहा वो बेहतरीन बुलेटिन प्रस्तुत कर सकता है।
आज कल बुलेटिन से जुड़ा सारा काम कंप्यूटरों के जरिए होता है औऱ स्क्रिप्ट्स भी कंप्यूटरों पर ही न्यूज़रूम सॉफ्टवेयर्स के जरिए लिखी जाती हैं। ऐसे में इस बात का खास ख्याल रखा जाना चाहिए कि एंकर की पढ़ी जानेवाली सामग्री में भाषा और मात्रा के दोष न हों। साथ ही वाक्य छोटे हों, बहुत लंबे न हो, ताकि लय बनाए रखी जा सके। स्क्रिप्ट टेली प्रॉम्पटर के स्क्रीन पर सही तरीके से दिखे, इसके लिए दो लाइनों के बीच स्पेसिंग और उनका एलाइनमेंट भी ठीक रहना चाहिए। अगर एंकर को प्रिंट आउट दिए गए हों, तो उन पर नंबरिंग जरूर हो, और उन्हें कभी नत्थी करके न दिया जाए। इससे उन्हें पढ़ने के लिए पन्ने अलग करने में सुविधा होगी।
संक्षेप में बुलेटिन प्रस्तुत करनेवालों के लिए जिन बातों का ध्यान रखना अत्यावश्यक है वो ये है कि हर आइटम छोटा औऱ सरल हो। एंकर लीड्स में ऐसे शब्दों का व्यवहार न हो, जो चलन में नहीं। खास उपयोग वाले शब्दों को जोर देने के लिए दोहराया भी जा सकता है, लेकिन कुछ भी हद से ज्यादा दोहराने से बचें। पॉज और विराम चिह्नों और आश्चर्य जाहिर करनेवाले चिह्नों के इस्तेमाल में सावधानी बरती जाए क्योंकि एंकर स्क्रिप्ट पढ़ते वक्त अर्थ का अनर्थ कर सकते हैं। संक्षेपित शब्दों यानी abbreviations का तभी इस्तेमाल हो, जब वो ज्यादा चलन में हों, ऐसे शब्दों के abbreviations का इस्तेमाल न हो, जो चलन में नहीं है, इससे दर्शक को समझने में दिक्कत हो सकती है। अंग्रेजी के कठिन शब्दों के उच्चारण में दिक्कत न हो, इसलिए उन्हें रोमन में लिखा जाए या फिर देवनागरी में उन्हें अलग-अलग करके लिखा जाए।
टेलीविजन और रेडियो के बुलेटिन्स में समय सीमा की समानता होती है। फर्क ये होता है कि रेडियो के लिए तैयार किए जानेवाले बुलेटिन ज्यादातर लिखित रूप में ही होते हैं- उनमें स्टोरीज की स्क्रिप्ट्स प्रमुख होती हैं। इसके अलावा रिपोर्टर्स और पत्रकारों की वॉयस रिपोर्ट्स के पैकेज भी होते हैं और स्टोरीज़ को दिलचस्प बनाने के लिए उनमें साउंड बाइट और नेचुरल एंबिएंस का भी अक्सर इस्तेमाल होता है। टेलीविजन और रेडियो दोनों  ही के बुलेटिन में खबरों की क्रमबद्धता काफी मायने रखती है और तमाम एलिमेंट्स को इस्तेमाल करने की गुंजाइश रहती है। लिहाजा दोनों ही माध्यमों में बुलेटिन प्रोड्यूसर्स को काफी समझदारी और चतुराई से काम करना पड़ता है ताकि बुलेटिन बोझिल न हों, कसे हुए हों और श्रोताओं और दर्शकों को बांधे हुए रखें।

Monday, April 15, 2013

'इडियट बॉक्स' बनाम 'बाइस्कोप'




बाइस्कोप यानी चलता फिरता सिनेमाघर- ये उस जमाने की परिकल्पना है, जब मनोरंजन के लिए सिनेमाघर काफी सीमित थे और इंसान पारंपरिक साधनों से हटकर मनबहलाव का कोई     और जरिया तलाश रहा था। घूमती तस्वीरों की बानगी पेश करनेवाला बाइस्कोप गली-मुहल्लों-गांवों और हाट-बाजारों में महिलाओं और बच्चों के मनबहलाव का अच्छा साधन था। जमाना बदला है और बाइस्कोप की संस्कृति खत्म हो गई है। लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि भारत में बाइस्कोप अब नए रूप में सामने आया है – वो है यहां के टेलीविजन के समाचार चैनल। समाचार चैनलों की बाइस्कोप से तुलना की खास वजह है इन पर परोसा जानेवाला एंटरटेनमेंट का कंटेंट। आमतौर पर हर समाचार चैनल पर रोजाना डेढ़ से 2 घंटे ऐसी फिक्स प्रोग्रामिंग होती है, जिसमें बॉलीवुड की फिल्मों और टेलीविजन के सीरियल्स का योगदान रहता है। ये 2 घंटे की प्रोग्रामिंग अगर 24 घंटे में 3 बार दोहराई जाए, तो कुल 6 घंटे यानी रोजाना समाचार चैनलों का लगभग एक चौथाई वक्त इन्हीं मनोरंजन संबंधी कार्यक्रमों पर केंद्रित रहता है। हमेशा ये सवाल ये उठता है कि समाचार चैनलों पर समाचार दिखाए जाने चाहिए, यहां उस मनोरंजन के लिए जगह क्यों है, जो एंटरटेनमेंट चैनलों पर और सिनेमाघर में उपलब्ध है? इसका एक तर्क तो ये है कि समाचार चैनल एंटरटेनमेंट से जुड़ी खबरें कवर करते हैं- मसलन फिल्में रिलीज़ होने से जुड़ी खबरें, आनेवाली फिल्मों से जुड़ी खबरें, सितारों से जुड़ी खबरें, गॉशिप्स, टीवी सीरियल्स से जुड़ी खबरें इत्य़ादि। ये तर्क जमता है कि बॉलीवुड या मनोरंजन जगत में कुछ नया हो रहा है तो वो समाचार चैनलों पर खबरों के दायरे में आता है। लेकिन मामला सिर्फ खबर दिखाने तक सीमित नहीं है। सवाल तब खड़े होते हैं, जब फिल्मी या इनसे जुड़े मनोरंजन के विश्लेषण से लेकर इनसे जुड़ी सामग्री बेहद चटपटे अंदाज में मसाला लगाकर पेश करने की कोशिश होती है। यही नहीं, अक्सर फिल्मों के हिस्से, गाने, सीरियल्स के हिस्से भी एंटरटेनमेंट शो में शामिल होते हैं। ऐसे में दर्शकों की ओर से सीधा सवाल ये उठता है कि क्या हम समाचार चैनल देख रहे हैं या फिर एंटरटेनमेंट चैनल – अगर एंटरटेनमेंट की सामग्री जिस तरह समाचार चैनलों पर दिखाई जा रही है, वही देखना हो, तो GEC  क्यों न देखें? यानी सीधा आरोप ये है कि समाचार चैनल किसी न किसी तरीके से अपनी हदें लांघते दिखते हैं, जिस पर सवाल खड़े होते हैं और बहस के मुद्दे निकलते हैं।
दरअसल टेलीविजन समाचार चैनलों पर एंटरटेनमेंट से जुड़ी चीजें दिखाने की सोच अखबारों से आई है। आप-हम- सभी जानते और देखते आ रहे हैं कि अखबारों में मनोरंजन के पूरे पृष्ठ होते हैं जिनमें सिनेमाई और छोटे पर्दे के एंटरटेनमेंट की खबरों के अलावा उनसे जुड़े विश्लेषण और गॉशिप्स की बहुतायत होती है। समाचार चैनलों पर एंटरटेनमेंट बुलेटिन दिखाने की सोच यहीं से उपजी, लेकिन बात सिर्फ खबर तक नहीं रही समाचार चैनलों ने सिनेमा और GEC  कंटेंट के अपने तरीके से इस्तेमाल की छूट खुद ले ली। अखबारों में फिल्मी गानों के हिस्से नहीं दिखाए जा सकते या सीरियल्स के सीन की भी महज तस्वीरों का इस्तेमाल हो सकता है। लेकिन टीवी समाचार चैनलों पर चुंकि वीडियो दिखाने की सुविधा है, तो एंटरटेनमेंट शोज़ में इस सुविधा का न सिर्फ भरपूर बल्कि जरुरत से ज्यादा इस्तेमाल किया गया। समाचार चैनलों पर सिनेमा से जुड़ी इस तरह की प्रोग्रामिंग से सिनेमा का प्रचार ही होता है, लिहाजा बॉलीवुड को इस पर आम तौर पर आपत्ति नहीं रही। प्रसारण नियमों के तहत फिल्मों के गानों या दूसरे हिस्सों के 28 सेकेंड अनकट इस्तेमाल की छूट पहले से है, लेकिन ज्यादा इस्तेमाल पर भी कोई घोषित-अघोषित रोक कभी नहीं दिखी। हां, यशराज फिल्म्स जैसे कुछ संगठनों ने अपनी फिल्मों की क्लिप्स के इस्तेमाल पर कॉपीराइट कानून के तहत पाबंदी जरूर लगा दी। उनके कंटेंट का इस्तेमाल करने के लिए पहले से परमीशन लेने और जरूरी शुल्क अदा करने के पचड़े हैं। लेकिन उनके अलावा हजारों लाखों सिनेमाई क्लिप्स के इस्तेमाल पर कोई पूछताछ नहीं होती जिसका समाचार चैनल पूरा फायदा उठाते रहे हैं।
दूसरा मुद्दा फिल्मों के उन हिस्सों के इस्तेमाल का था, जिन्हें सेंसर बोर्ड के नियमों के तहत सिर्फ सिनेमाघरों में ही दिखाया जा सकता था, क्योंकि उनके टेलीविजन पर सार्वजनिक प्रसारण की बंदिश है। यानी जिन फिल्मों को सेंटर बोर्ड ने A यानी एडल्ट श्रेणी में रखा हो, उनकी फुटेज के टेलीविजन पर इस्तेमाल पर रोक है। विद्या बालन की मशहूर फिल्म डर्टी पिक्चर को तो एंटरटेनमेंट चैनल पर काफी काट-छांट के बाद दिखाने की मंजूरी मिली। ऐसे में समाचार चैनलों पर वैसे कंटेंट, वैसी तस्वीरों को नहीं दिखाया जा सकता, जिन्हें A सर्टिफिकेट मिला हो। गुजरे दिनों में टेलीविजन के समाचार चैनलों पर दिखाए जानेवाले फिल्म आधारित एंटरटेनमेंट शोज़ में बोल्ड तस्वीरों का तड़का लगा दिखा, जिस पर काफी कड़ी प्रतिक्रिया हुई। सूचना और प्रसारण मंत्रालय की ओर से भी इस पर चेतावनी दी गई और समाचार चैनलों के NBA यानी न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन की ओर से भी नियंत्रण के लिए गाइडलाइंस जारी की गईं। ये साफ कर दिया गया कि समाचार चैनलों पर न तो किसी A सर्टिफिकेट वाली फिल्म की फुटेज दिखाई जाएंगी, ना ही ऐसी तस्वीरों का इस्तेमाल होगा जिनमें अश्लीलता की बू आती हो। TRP की होड़ में दर्शकों को अपनी ओर खींचने के लिए हर हथकंडा अपनाने की जुगत में जुटे समाचार चैनलों के लिए ये झटका जरूर था, लेकिन इससे स्थिति काफी हद तक बदली। हालांकि कई बड़े समाचार चैनल अब भी NBA की गाइडलाइंस को ताक पर रख देते हैं, लेकिन छोटे और मार्केट में अपनी पकड़ बना रहे चैनलों को जरूर अपने ऊपर काबू करना पड़ता है और नियंत्रित दायरे में ही वो चीजें दिखानी होती हैं, जो दर्शकों को प्रभावित कर सकती हैं। आखिर समाचार चैनलों को दर्शक पूरे परिवार के साथ बैठकर देखते हैं, लिहाजा ऐसा कुछ भी दिखाने पर सवाल खड़े हो सकते हैं, जो नैतिक और कानूनी नियम कायदों के हिसाब से ठीक नहीं हो।
भारत ही नहीं, दुनिया के और देशों में भी टेलीविजन पर दिखाए जानेवाले एंटरटेनमेंट से पैदा होने वाले उस खतरे पर चिंता जताई जा चुकी है, जो भारत में समाचार चैनलों के जरिए दिखा है। दक्षिण अफ्रीका के एक पूर्व पोस्ट एंड टेलीग्राफ मंत्री Dr. Albert Hertzog तो टेलीविजन के धुर विरोधी थे और उन्होंने इसे miniature bioscope करार दे डाला था, जिस पर अभिभावकों का नियंत्रण नहीं रहता।[1] जाहिर है, बात टेलीविजन पर एडल्ट कंटेट की ही है, जो एंटरटेनमेंट के जरिए समाचार चैनलों पर भी घुसपैठ कर चुका है। समाचार और एंटरटेनमेंट शो न सही, कई विज्ञापनों में तो वो सब कुछ दिखता है, जिसका वैधानिक तौर पर समाचारों के दायरे में दिखाया जाना निषिद्ध है।
तमाम बंदिशों और नियंत्रण के बावजूद समाचार चैनलों पर बॉलीवुड के कंटेंट का इस्तेमाल घटा हो, ऐसा नहीं दिखता। बल्कि दिलचस्प प्रोग्रामिंग के लिए और भी रास्ते तलाश लिए गए हैं। अब समाचार चैनलों पर सितारों के जन्मदिन , पुण्यतिथि , सिनेमाई ट्रेंड्स, बड़ी फिल्मों से जुड़े बड़े मुद्दों और तमाम ऐसे मामलों पर कार्यक्रम पेश किए जा रहे हैं, जो मूल रूप से खबर पर आधारित होते हैं, लेकिन उनमें न सिर्फ तड़का और चासनी बल्कि रेसिपी का हर ingredient फिल्मी फुटेज ही होता है। इस मामले में अंग्रेजी के समाचार चैनल भी पीछे नहीं हैं। मसलन, हिंदी और अंग्रेजी समाचार चैनलों फिल्मों और फिल्मी सितारों पर आधारित शो टोटल रिकॉल (टाइम्स नाऊ), 50 अनसुनी कहानियां ( न्यूज़ 24),  तलाश ( इंडिया टीवी),  स्कैंडल (आजतक), जानेभी दो (एबीपी),बॉलीवुड@100 (आईबीएन7), सितारों की कहानी (तेज़), सुपरस्टार (तेज़) – जैसे कई आधे घंटे से लेकर 1 घंटे तक के कार्यक्रम काफी दिलचस्प हैं और दर्शकों के बीच अपनी पहचान बना चुके हैं। बॉलीवुड से जुड़े मुद्दों पर खड़ा किए गए ऐसे कार्यक्रमों का निर्माण समाचार चैनलों के बजट के हिसाब से भी काफी मुफीद बैठता है क्योंकि इनमें न फुटेज के लिए खास खर्च करना पड़ता और न ही शूटिंग जैसी कोई बात होती है। स्क्रिप्ट, एडिटिंग. ग्राफिक्स, प्रोमो का इनहाउस उत्पादन यानी बिना कुछ खर्च किए शानदार कमाई। बड़े सितारों के जन्म दिन या पुण्य तिथि को भुनाने का मौका समाचार चैनल नहीं छोड़ते। इसी तरह, सितारों से जुड़े विवादों की कहानियां भी नए कलेवर में पेश की जाती हैं। तलाशजैसे कार्यक्रम जरूर अलग हटकर हैं, जिनमें भूले-बिसरे और पर्दे से गायब कलाकारों की खोजबीन की जाती है। बॉलीवुड आधारित इन कार्यक्रमों में खबर तो सिर्फ 1 लाइन की होती है, लेकिन बैकग्राउंडर के रूप में दिखाने को इतना कुछ होता है, जिसे दर्शक बार-बार देखना चाहते हैं। मसलन खबर यदि फिल्म शोले के सिक्वल बनाने की हो, तो उस पर आधे घंटे का शो बनाने के लिए इस्तेमाल तो शोले के वहीं हिस्से होंगे, जो दर्शकों की आंखों में बरसों से बसे हुए हैं। वही डॉयल़ॉग इस्तेमाल होंगे जो लोगों की जुबान पर चढ़े हुए हैं।  ऐसे तमाम मुद्दे रोज न सही हफ्ते और महीने में मिल ही जाते हैं, जिन पर थोड़ी रिसर्च और कुछ कल्पनाशीलता के साथ अपने पास मौजूद संसाधनों के जरिए बेहतरीन कार्यक्रम तैय़ार किए जा सकते हैं। ये वाकई समाचार चैनलों के एंटरटेनमेंट डेस्क पर काम करनेवालों के लिए बड़ी चुनौती है कि वो ऐसे मुद्दे तलाशें जिनका खबर से भी रिश्ता हो, और मनोरंजन से भी। साथ ही ये टेलीविजन पर उनकी रचनात्मक क्षमता को जाहिर करने का भी अच्छा मौका होता है। जिन लोगों की फिल्मों और एंटरटेनमेंट में दिलचस्पी हो और जो खबरों के मुताबिक उनका इस्तेमाल करना जानते हों, उनके लिए संतुष्टि दिलानेवाला काम करने का ये बेहतरीन फलक है।
मनोरंजन के कंटेंट का समाचार चैनलों पर इस्तेमाल को लेकर बड़ा विवाद तब खड़ा हुआ जब जनरल एंटरटेनमेंट चैनलों के लोकप्रिय सीरियल्स की फुटेज समाचार चैनलों पर धड़ल्ले से इस्तेमाल होने लगी। खासकर तब जब किसी शो का अगला एपिसोड आनेवाला हो, तो उससे पहले समाचार चैनलों पर कर्टेन रेज़र के रूप में आधे-आधे घंटे के शो उन्हीं की फुटेज पर आधारित दिखाए जाने लगे। ऐसे कार्यक्रमों में पेग जरूर खबर का दिखता रहा, लेकिन सीरियल्स के फुटेज के इस्तेमाल के चलते, खबर पीछे छूटती नज़र आई। हालात हद से बाहर जाने लगे और बिना काट-छांट के ही रियलिटी शोज़ के भी हिस्से समाचार चैनलों पर दिखाए जाने लगे। उनमें ऐसा कंटेंट भी होता था, जिसका समाचार से कोई लेना-देना नहीं, ना ही उनमें किसी खबरिया नजरिए को पेश करने की कोशिश होती थी। लिहाजा बहुत से दर्शक आधे या 1 घंटे के सीरियल या रियलिटी शो के चंद दिलचस्प हिस्से समाचार चैनलों पर ही देख लेते थे और एंटरटेनमेंट चैनल पर वो कार्यक्रम देखने की जरूरत नहीं समझते थे। समाचार चैनलों पर ऐसे शो के स्लॉट भी एंटरटेनमेंट चैनलों से अलग रहे हैं, जाहिर है, जो सामग्री एंटरटेनमेंट चैनल पर दिखाई गई हो, उसका कुछ दिलचस्प और संपादित हिस्सा समाचार चैनलों पर दिखाया जा रहा हो, तो दर्शक भला एंटरटेनमेंट चैनल पर वक्त खराब करना क्यों चाहेगा। दर्शक वर्ग की इस मानसिकता को समाचार चैनलों ने खूब भुनाया और ऐसे मनोरंजन आधारित कार्यक्रमों से समाचार चैनलों को बेशुमार फायदा भी हुआ और एंटरटेनमेंट चैनलों को समाचार चैनलों की ओर से उनके दायरे में दखल देने का एहसास भी। दो-तीन साल में यानी 2007 के बाद से समाचार चैनलों की इस स्वच्छंदता पर लगाम लगाने की कोशिशें शुरु हो गईं। सोनी टीवी जैसे एंटरटेनमेंट चैनलों ने मुफ्त में भरपूर इस्तेमाल हो रहे अपने कार्यक्रमों की फुटेज का मामला कोर्ट तक ले जाने की धमकी दी , कई समाचार चैनलों को मॉनीटर करके उन्हें नोटिस भी जारी किए और समाचार चैनलों को अपने कार्यक्रमों में उनके एंटरटेनमेंट कंटेट दिखाने पर कई तरह की बंदिशें लगा दीं। एंटरटेनमेंट चैनलों की ओर से समाचार चैनलों के लिए सीरियल्स और रियलिटी शोज़ के EPK यानी इलेक्ट्रॉनिक प्रॉडक्शन किट मुहैया कराए जाने लगे, जिनका इस्तेमाल वो अपने कार्यक्रमों में कर सकते थे। साथ ही NBA  यानी न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन की ओर से भी समाचार चैनलों के आत्मनियंत्रण के लिए कई गाइडलाइंस जारी की गईं, जिनके तहत एंटरटेनमेंट चैनलों की परमीशन के बिना उनके कार्यक्रमों की फुटेज के सीमित इस्तेमाल, खबर आधारित स्टोरी में सीरियल्स की फुटेज के इस्तेमाल और रियलिटी शोज़ की फुटेज के इस्तेमाल से जुड़े कई निर्देश दिए गए। तमाम समाचार चैनल अब इनका पालन करते हैं और एंटरटेनमेंट कार्यक्रमों के कलेवर में इस तरह काफी बदलाव किए गए हैं। ऐसे में अब इडियट बॉक्स का बाइस्कोप वाला मुखड़ा कुछ हद तक बदला जरूर है, लेकिन अब भी कई चैनलों पर एंटरटेनमेंट चैनलों के कॉमेडी शोज़ के हिस्से जिस तरह दिखाए जाते हैं, वो एंटरटेनमेंट चैनलों पर समाचार चैनलों की निर्भरता को ही जाहिर करते हैं।
समाचार चैनलों पर एंटरटेनमेंट के मामले में एक बड़ा मुद्दा इनसे जुड़ी खबरों और कार्यक्रमों की स्क्रिप्टिंग का भी है। एंटरटेनमेंट कार्यक्रम की स्क्रिप्टिंग खबरिय़ा नहीं हो सकती, उसमें कल्पना के स्तर पर ट्विस्ट होंगे, भाषा के स्तर पर चटपटा और मसालेदार बनाना होगा। साथ ही, एंटरटेनमेंट की लय बरकरार रखने के लिए स्क्रिप्ट लिखनेवाले को अपने ज्ञान या विश्लेषण का ओवरडोज़ देने से भी परहेज करना चाहिए। एंटरटेनमेंट शो की स्क्रिप्ट बेहतरीन हो, इसके लिए जरूरी है कि स्क्रिप्ट लिखनेवाले को मुद्दे से जुड़ी हर जानकारी हो, और उसे ये पता हो, कि किस जगह किस जानकारी का सही इस्तेमाल हो सकता है। इसके लिए स्क्रिप्टिंग से पहले रिसर्च जरूरी है। साथ ही ये भी ध्यान रखना जरूरी है कि फिल्मी गानों और डायलॉग्स का स्क्रिप्ट में कहां-कहां और किस तरह से इस्तेमाल हो सकता है। अगर गानों और डायलॉग्स को घटनाक्रम से जोड़कर सही तरीके से इस्तेमाल किया गया और स्क्रिप्ट के साथ उसकी लय बरकरार रही तो अंत में कार्यक्रम शानदर बनकर उभरेगा और आपका एंटरटेनमेंट शो डॉक्यूमेंटरी को भी टक्कर दे देगा।
टीवी पत्रकारिता से जुड़े तमाम ऐसे लोग हैं जो एंटरटेनमेंट चैनलों में फिक्शन के क्षेत्र में नहीं गए, लेकिन, वो अपनी क्षमता का बेहतरीन इस्तेमाल एंटरटेनमेंट शो बनाने में कर रहे हैं। जो लोग इस क्षेत्र में करियर बनाना चाहते है, उनमें एंटरटेनमेंट के पहलुओं, फिल्मों और सीरियल्स को देखने , उनके बारे में पढ़ने की स्वाभाविक दिलचस्पी होनी चाहिए। जैसे पत्रकारों में खबर सूंघने और खबर निकालने की क्षमता होती है, वैसे ही फिल्मों औऱ सीरियल्स या रियलिटी शोज़ से नए-नए कार्यक्रमों के आइडियाज़ निकालने की भी क्षमता होनी चाहिए। भाषा पर अच्छी पकड़ होनी चाहिए और रचनात्मक कल्पनाशीलता उनमें कूट-कूट कर भरी होनी चाहिए। ये सब एक या दो दिन की ट्रेनिंग से नहीं आता, मसला मौके मिलने और अभ्यास का है, जिससे पैदा अनुभव आपको एंटरटेनमेंट पत्रकारिता का महारथी न सही, एक बढ़िया एंटरटेनमेंट प्रोड्यूसर तो बना ही सकता है। इसके लिए जरूरी ये है कि जिस तरह आप टीवी पत्रकार के रूप में खबर को पकड़ते हैं, वैसे ही अपनी दिलचस्पी को मूर्त रूप देने के लिए मौकों की तलाश करें और कोई ऐसा मौका हाथ से न जाने दें, जहां आपकी प्रतिभा झलक उठे।
-          कुमार कौस्तुभ
15.04.2013, 5.52 AM


[1] http://en.wikipedia.org/wiki/Television_in_South_Africa