Sunday, April 14, 2013

बुद्धू बक्सा या झरोखा दुनिया का!




समाचार जानने के लिए टेलीविजन का स्विच ऑन किया और पलक झपकते ही देश ही नहीं दुनिया का भी हाल स्क्रीन पर हाजिर। एक आम भारतीय के लिए दुनिया की जरूरी और रोचक खबरों और उनके वीडियो और तस्वीरों से वाकिफ होने का प्रमुख जरिया आज टेलीविजन के समाचार चैनल ही हैं। यहां ये साफ कर देना होगा कि दुनिया का हाल जानने के लिए इंटरनेट जरूर एक बड़ा, आसान और सशक्त माध्यम है, लेकिन भारत की बड़ी आबादी अब भी इसकी पहुंच से बाहर है। ऐसे में टेलीविजन ही एक ऐसा माध्यम है, जो आम दर्शकों के आगे दुनिया भर की खबरें परोस देता है और ये उन्हें तय करना होता है कि वो उन्हें देखें या रिमोट कंट्रोल के जरिए चैनल बदलकर कुछ और देखें। चाहे वो नॉर्थ कोरिया के बारे में अमेरिका और चीन के सलाह मशविरे की खबर हो, या फिर पेरू के सुदूर इलाके में हुआ दर्दनाक बस हादसा हो, या जर्मनी के फ्रैंकफर्ट में रोबोट कलाकारों के हेवी मेटल बैंड कंप्रेसरहेड की परफॉरमेंस हो या अरब मुल्क में फॉर्मूला वन रेस की तैयारी– तमाम किस्म की अंतरराष्ट्रीय खबरें हमारे देश के राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों पर रोजाना देखने को मिल सकती हैं- लेकिन ये दर्शक तय नहीं कर सकते कि वो किस वक्त क्या देखना चाहते हैं और दुनिया के किस हिस्से का हाल जानना चाहते हैं। टेलीविजन के उलट इंटरनेट पर ये स्वतंत्रता जरूर है कि आम जब भी जो चाहें वो देखना खुद तय कर सकते हैं, लेकिन टेलीविजन ऐसी कोई आजादी आपको नहीं देता, लेकिन जो कुछ आपके लिए, दर्शक वर्ग के लिए उचित और जरूरी समझता है, आपके आगे ला देता है। आधुनिक दौर में संचार सुविधाओं का जाल इतना फैल चुका है कि दुनिया के किसी कोने की खबर से टेलीविजन नावाकिफ रहे, ऐसा हो नहीं सकता और जब भारतीय टेलीविजन के समाचार चैनलों के पास खबरिया नजरिए कोई बेहद जरूरी या अत्यंत रोचक सामग्री आती है, तो वो उसे पर्दे पर पेश करने में बिल्कुल देर नहीं लगाते, भले ही वो 30 सेकेंड के लिए भी क्यों न हो। आम दर्शक ऐसी खबरें देखकर रोमांचित होते हैं, जिन्होंने न तो कल्पना की होती है और न सोचा होता है कि वो सात समुंदर पार की किसी घटना के बारे में जानना चाहते हैं। अमेरिका में 9/11 के हमले या जापान में सूनामी की तबाही या न्यूयॉर्क में कार मेले के हैरतअंगेज वीडियो देखकर लोग हैरान भी होते हैं। कुछ लोग इस बात पर गर्व भी करते हैं कि हमारे देश के टीवी चैनल कहां-कहां की खबर खबर ले आते हैं। लेकिन ये पर्दे के पीछे की बात है कि खबरें कैसे और कहां से आती हैं। 

खबरनवीशों की ओर से शुक्रिया उन ब्रिटेन और अमेरिका की दो अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसियों का, जो दुनियाभर की खबरें और उनकी तस्वीरें, उनके वीडियो भारतीय चैनलों को मुहैया कराती हैं। रॉयटर्स और एसोसिएटेड प्रेस नाम की उन एजेंसियों का ये काम किसी अंतरराष्ट्रीय समझौते का हिस्सा नहीं है। ये उनका बिज़नेस है और अपने कारोबार को वो बखूबी अंजाम दे रही हैं।

ऐसा नहीं है कि दुनिया में सिर्फ दो ही अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसियां है, लेकिन इन दो एजेंसियों का कारोबारी कौशल इस मामले में है कि न सिर्फ इनके अपने संवाददाता दुनिया के हर कोने में हैं, बल्कि ये दुनियाभर की अन्य समाचार एजेंसियों की ओर से भी पेश की गई खबरों और उनसे जुड़ी सामग्रियों को भारत और बाकी देशों में पहुंचाती हैं। इसके लिए इन एजेंसियों ने हर देश में अपने दफ्तर खोल रखे हैं, उनकी समाचार एजेंसियों से समझौता कर रखा है या कोई ऐसा इंतजाम कर रखा है, जिससे कहीं की कोई भी खबर उनसे छूट न सके। घटना-दुर्घटना, राजनीति, खेल, सिनेमा, मनोरंजन, ज्ञान-विज्ञान, इतिहास-भूगोल और Bizarre  गतिविधियों से जुड़ी हर किस्म की खबर इनकी झोली में होती है और ये हमारे टेलीविजन चैनलों को तय करना होता है कि वो क्या इस्तेमाल करना चाहते हैं। जैसा कि कहा जा चुका है, खबरें बेचना रॉयटर्स और एसोसिएटेड प्रेस का कारोबार है, लिहाजा चैनलों को इनका सब्सक्रिप्शन लेना पड़ता है, लगभग वैसे ही जैसे हम अपने देश की समाचार एजेंसियों PTI- प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया और UNI- यूनाइटेड न्यूज़ ऑफ इंडिया से समाचार लेते हैं। समाचार चैनलों को उनके सैटेलाइट लिंक मुहैया कराए जाते हैं, जिनके सिग्नल्स के जरिए वो जरूरी खबरों की ऑडियो-वीडियो फीड हासिल करते हैं और आजकल इंटरनेट के जरिए हर खबर की स्क्रिप्ट भी समयानुसार भेज दी जाती है, जिनका इस्तेमाल हम अपनी भाषा में करते हैं।
विकिपीडिया के मुताबिक, अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी रॉयटर्स एक सौ साठ साल से ज्यादा पुरानी है। 100 से ज्यादा देशों में इसके 60 हजार से अधिक कर्मचारी खबरे बटोरने औऱ बांटने से जुड़े काम में लगे हुए हैं। तकरीबन 20 भाषाओं में इसकी ओर से खबरें समेटने का काम होता है। 1851 में जर्मन आप्रवासी पॉल जूलियर रॉयटर ने इस संस्था की शुरुआत की थी। इस कंपनी में रायटर के परिवार की आखिरी सदस्य मर्गरीटे, बैरोनेस डि ऱॉयटर थीं, जो 2009 में 96 साल की उम्र में चल बसीं। 2008 तक ये समाचार एजेंसी रॉयटर ग्रुप के स्वामित्व में थी, लेकिन 2008 में थॉमसन कारपोरेशन नाम की संस्था ने इसका अधिग्रहण कर लिया और इसके बाद से इसे थॉमसन रॉयटर्स के नाम से जाना जाने लगा है। लेकिन कंपनी की रॉयटर्स ब्रैंडिंग अब तक बरकरार है, दुनियाभर में लोग इसे इसी नाम से जानते हैं और याद रखेंगे। समाचार एजेंसी का शुरुआती काम शेयर बाजार और आर्थिक मसलों से जुड़ी खबरें देना था, जो आज भी काफी बड़े स्तर पर इसमें समाहित है, लेकिन समय के साथ इसके फलक में और विस्तार हुआ और प्रिंट से लेकर टेलीविजन तक हर समाचार माध्यम को हर तरह के समाचार मुहैया कराने में ये एजेंसी सफल साबित हुई है।  
अमेरिका की समाचार एजेंसी एसोसिएडेट प्रेस की शुरुआत रॉयटर्स से करीब 5 साल पहले 1846 में न्यूयॉर्क में हुई थी। 5 अखबारों को समाचार मुहैया कराने से शुरु हुआ इसका कारोबार अब दुनिया के कोने-कोने में फैल चुका है। ये समाचार एजेंसी एक नॉन प्रोफिट सहकारी समिति के जरिए चलाई जाती है, जिसमें अमेरिका के अखबार, रेडियो और टेलीविजन से जुड़े लोग शामिल हैं। दुनिया भर के 120 देशों में एसोसिएटेड प्रेस के करीब ढाई सौ ब्यूरो दफ्तर हैं। इसकी ओर से दिए गए समाचार, तस्वीरें और वीडियो दुनिया हजारों अखबारों में और टेलीविजन और रेडियो चैनलों पर इस्तेमाल किए जाते हैं। अमेरिका में तो एसोसिएटेड प्रेस के समानांतर यूनाइडेट प्रेस इंटरनेशल नाम की एक और एजेंसी 1993 में खड़ी की गई, लेकिन अमेरिका से बाहर इसका मुकाबला सिर्फ रॉयटर्स और AFP  यानी एजेंसी फ्रांस प्रेसे जैसी चुनिंदा एजेंसियों से ही है। एसोसिएटेड प्रेस ने प्रसारण क्षेत्र में कदम 1941 में रखा, पहले रेडियो से शुरुआत हुई और तकरीबन 54 साल बाद  APTV के नाम से इसकी global video newsgathering agency वजूद में आ गई।
इंटरनेट की सुविधा शुरु होने के बाद एसोसिएडेट प्रेस और रॉयटर्स दोनों ही एजेंसियों से खबरों का वितरण काफी हद तक ऑनलाइन हो गया है जिससे काफी तेज़ गति से और बड़ी आसानी से खबरें कहीं से कहीं पहुंचाई जा सकती है। दोनों ही एजेंसियों का कारोबार और मिशन खबरें देना है, लिहाजा इनकी सामग्रियों में कभी किसी तरह का पूर्वाग्रह आमतौर पर नहीं देखा जा सकता। इनकी स्क्रिप्ट विचारों के बजाए समाचार से जुड़ी जानकारियों से भरी होती है और इस्तेमाल करनेवालों को उनके संपादन की पूरी छूट रहती है। दोनों ही एजेंसियां अपने ग्राहकों आगे की घटनाओं और कवरेज के बारे में भी समय-समय पर सूचित करती रहती हैं, कि कब कौन सी रिकॉर्डेड फीड आनेवाली है या क्या लाइव फीड दी जानेवाली है, जिससे उन्हें ये तय करने में आसानी होती है कि वो अपने चैनल पर उनका इस्तेमाल किस तरह करें। मसलन, अगर किसी चैनल ने अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की डिबेट का सीधा प्रसारण दिखाने का फैसला किया हो, तो उसे पहले से ये जानकारी रहती है अमुक जगह पर अमुक समय से होनेवाले कार्यक्रम की लाइव फीड दी जाएगी। या फिर सुनीता विलियम्स के अंतरिक्ष से वापस लौटने की घटना को भी कई लोगों ने भारतीय़ समाचार चैनलों पर लाइव देखा होगा। ये इन समाचार एजेंसियों के जरिए ही संभव हो सका। हां, खेल प्रतियोगिताओं का सीधा प्रसारण आम तौर पर इन समाचार एजेंसियों पर नहीं मिलता। वजह ये है कि चाहे अमेरिका-ब्रिटेन में टेनिस, सॉकर या बास्केटबॉल हो या भारत में क्रिकेट के मुकाबले- इनके प्रसारण अधिकार खास प्रसारकों को पहले ही बेचे जा चुके होते हैं, लिहाजा इन एजेंसियों को भी उनकी फीड प्रसारक चैनलों से ही खरीदनी पड़ती है। सवाल है कि जब ये एजेंसियां खेल मुकाबले लाइव नहीं दिखा सकतीं तो  हम भला विम्बल्डन या यूएस ओपन टेनिस के मैचों में हार-जीत के मौकों का सीधा प्रसारण कैसे दिखा सकते हैं। हमारे चैनलों को भी इसके लिए उन्हीं प्रसारक चैनलों के पास जाना पड़ता है और चंद मिनटों की निर्धारित समय सीमा तक प्रसारण दिखाने की छूट मिलती है।
दुनिया के किसी भी हिस्से की खबर हम अपनी धरती पर सैटेलाइट टीवी के जरिए देख सकते हैं। जाहिर है, ऐसे में कहीं भी यदि कोई बड़ी घटना हो, तो हमारे समाचार चैनल भी उन इलाकों के टीवी स्टेशन पर प्रसारित हो रहे वीडियो और तस्वीरों को बखूबी दिखा सकते हैं और दिखाते भी हैं। इसमें कोई रोक-टोक नहीं होती। सवाल खबर का है औऱ बड़ी खबर अफ्रीका के सुदूर इलाके से आ रही हो और वहां के किसी टीवी चैनल की जानकारी हो, तो कुछ न कुछ जानकारी और वीडियो तो दिखाने में किसी किस्म की देर नहीं हो सकती। टेलीविजन विजुअल माध्यम है। बोलती हुई तस्वीरें खुद खबर की स्टोरी बयां कर देती हैं। पड़ोसी देशों पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश में होनेवाले इवेंट्स की उन देशों के निजी और सरकारी चैनलों पर प्रसारित हो रही तस्वीरों को हम अक्सर दिखाते हैं। वजह ये कि पड़ोसी देशों की खबरों में हमारी ज्यादा दिलचस्पी होती है। लेकिन, जापान में सूनामी की तबाही हो तो NHK का वीडियो और कांगो में ज्वालामुखी विस्फोट की खबर अगर किसी अफ्रीकी टीवी चैनल पर प्रसारित हो, तो उसकी तस्वीरें चुराने में भी कोई हिचक होने का कोई कारण नहीं है। खबर मुहैया कराने में उनके सहयोग के लिए सौजन्य लिखकर शुक्रिया अदा करना हमारा फर्ज बनता है।
सवाल ये भी है कि आज के दौर में जब दुनिया में कहीं भी आना-जाना बड़ी बात नहीं रही, भारत में समाचार चैनलों का इतना विस्तार हो चुका है, साथ ही सैटेलाइट लिंक के जरिए दुनिया के किसी भी हिस्से से खबरों की फीड भेजने या लाइव प्रसारण की सुविधा उपलब्ध होना मुश्किल नहीं है, तो भला हमारे अपने चेहरे वैसे ही विदेशों से समाचार पेश करते क्यों नहीं दिखते, जैसे देश में किसी भी हिस्से से हमारे चैनलों के संवाददाता देते हैं। गाहे-बगाहे, कभी कभार, अमेरिका या लंदन या चुने हुए यूरोपीय देशों में कोई बड़ी घटना हो, या फिर हमारे राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का विदेश दौरा हो, तभी हमारे संवाददाता विदेशी धरती से बोलते हुए दिखते हैं। आखिर इसकी वजह क्या है- इसका एक सीधा सा जवाब यही है कि जब रॉयटर्स और एसोसिएटेड प्रेस जैसी एजेंसियां हमारे सामने दुनिया का झरोखा बनकर खड़ी हों, तो भला हमें खुद मशक्कत करने की क्या जरुरत। दूसरी बात बजट और संवाददाताओं को विदेशों में ऱखने के खर्च से जुड़ी है। रॉयटर्स और एसोसिएटेड प्रेस जैसी एजेंसियां अपने अकूत संसाधनों के जरिए हमारे लिए अपना कारोबार कर रही हैं, तो अपने संवाददाता तैनात करने के महंगे खर्च के बजाय उनकी अपेक्षाकृत सस्ती सेवा लेने में हर्ज ही क्या है।
जब अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां इतनी सक्रिय हैं, तो जाहिर है अंतरराष्ट्रीय खबरें भी हमें बहुतायत में मिलेंगी और मिलती भी हैं। लेकिन भारतीय हिंदी समाचार चैनलों पर उनका काफी हिस्सा इस्तेमाल नहीं होता। बरसों पहले तक कुछ टीवी चैनलों पर कम से कम आधे घंटे का बुलेटिन रोजाना अंतरराष्ट्रीय खबरों का ही होता था। अब बुलेटिनों में अंतरराष्ट्रीय खबरों का हिस्सा 30 सेकेंड से 2-3 मिनट तक सिमट गया है। NDTV इंडिय़ा जैसे चैनल अपवाद हैं, जिन पर अभी भी अंतरराष्ट्रीय खबरों का एक बुलेटिन प्रसारित होता है। तो क्या दूसरे तमाम हिंदी समाचार चैनलों की प्राथमिकता से अंतरराष्ट्रीय खबरें हट चुकी हैं? हमारे चैनलों की कार्यक्रम सूची TRP के आधार पर बनती है। तो क्या दर्शकों की दिलचस्पी अंतरराष्ट्रीय खबरों में नहीं रही? अगर ऐसा है, तो रॉयटर्स और एपी की सेवा लेने का ही क्या अर्थ है? ऐसा बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि दर्शकों की अंतरराष्ट्रीय खबरों में नहीं होती या समाचार चैनलों की प्राथमिकता में अंतरराष्ट्रीय खबरें हैं हीं नहीं।
दरअसल जितनी तेज रफ्तार खबरों की दुनिया की है, उसी के मुताबिक रोजाना समाचार चैनलों की प्राथमिकता में भी बदलाव होते हैं। अगर अमेरिका-ब्रिटेन में खराब मौसम और हिमपात या तूफान की तबाही से जुड़ी खबरें आ रही हों, तो आधे घंटे का बुलेटिन भी उन पर आधारित हो सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दिन अंग्रेजी तो छोड़िए, हरेक हिंदी समाचार चैनल पर भी ओबामा की जीत का जश्न मनाया जा रहा था। अमेरिका से भारत के हित जुड़े हैं, बड़ा भारतीय समुदाय अमेरिका में बसा है, लिहाजा वहां की खबरों पर भी निगाहें रहती ही हैं। पाकिस्तान में आतंकवाद और राजनीतिक घटनाक्रम से जुड़ी खबरें तो अक्सर हेडलाइन में रहती हैं। इराक और अफगानिस्तान में जंग और आतंकवाद से जुड़ी खबरें हों, या मिस्र और सीरिया में बगावत और अरब स्प्रिंग से जुड़ी खबरें, किसी न किसी तरीके से भारतीय चैनलों पर जरूर दिखाई जाती हैं। चीन से भारत की तनातनी चलती है, लेकिन हमारे चैनलों पर चीन में हिमपात, हादसों, रेस्क्यू ऑपरेशन यानी मानवीय मुद्दों से जुड़ी ज्यादा खबरें देखी जाती हैं। हमारे राष्ट्रीय समाचार चैनलों की प्राथमिकता में देश की राजनीति और देश में होनेवाली घटनाओं की खबरें तो रहती हैं, क्योंकि उनमें दर्शकों की सहज दिलचस्पी होती है और उन्हें हासिल करने के लिए संसाधन भी आसानी से सुलभ रहते हैं। पड़ोसी देशों की खबरों में भी दिलचस्पी सहज है। लेकिन चिली या पेरु में ज्वालामुखी या कुदरती आफत की दहलानेवाली तस्वीरें मिल रही हों, तो हमारे चैनल आधे घंटे का कार्यक्रम उन पर दिखाने का लालच नहीं छोड़ते क्योंकि जो तस्वीरें दर्शकों के दिलो-दिमाग पर छा जाएं, उन्हें नहीं दिखाना तो अपराध होगा ना। हार्ड न्यूज़ को छोड़ दें, तो अंतरराष्ट्रीय खबरों का बड़ा हिस्सा रोचक खबरों का भी होता है। दुनिया के तमाम रंग हमें इन खबरों में देखने को मिलते हैं, कहीं पिलो फाइट दिखती है, तो कहीं वाइफ कैरीइंग कॉम्पीटिशन या फिर कहीं तरह-तरह की चॉकलेट या 100 किस्म के केक की नुमाइश और कहीं टमाटरों की होली का टोमैटिनो फेस्टिवल– दुनिया के ये अजब-गजब रंग हमें रॉयटर्स और APTV  से मिलने वाली समाचार फीड्स में मिलते हैं, जिन पर आधे-आधे घंटे के कार्यक्रम पेश किए जा चुके हैं। जाहिर है, समाचार चैनलों की प्राथमिकता समय और परिस्थितियों के हिसाब से मिलनेवाली खबरों से तय होती है। ऐसे में ये जरूर तय करना पड़ता है कि कौन सी अंतरराष्ट्रीय खबर कब औऱ किस रूप में दिखाई जाए। यह संपादकीय नीति पर निर्भर करता है और इसी के आधार पर अंतरराष्ट्रीय स्रोतों से मिलनेवाली खबर जनित सामग्रियों का इस्तेमाल भी समाचार चैनलों में किया जाता है। टीवी के खबरनवीशों में खबर को सूंघने, उन्हें पकड़ने औऱ पेश करने की जो क्षमता होती है, उन्हें उसका इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय खबरों के मामले में जरूर करना चाहिए, ताकि उनका दर्शक वर्ग दुनिया के किसी अनोखे रंग और किसी बड़ी खास खबर से महरूम न रह जाए। इसी में आपकी पेशेवर क्षमता के इस्तेमाल की सार्थकता है।
-          कुमार कौस्तुभ
14.04.2013, 1.41 PM


Friday, April 12, 2013

TV पर खबरों की धार और रफ्तार समाचार




आजकल भारत के समाचार चैनलों पर स्पीड न्यूज़ का बोलबाला है। स्पीड न्यूज़ यानी तेज़ रफ्तार खबरें, तेजी से खबरों को पेश करने का तरीका। आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में लोगों के पास आराम से बैठकर टेलीविजन पर न्यूज़ बुलेटिन देखने का वक्त नहीं होता और लोग जल्दी-जल्दी दिन की तमाम प्रमुख खबरों की जानकारी चाहते हैं- इसी समझदारी के तहत सन 2002 के आसपास कई भारतीय निजी समाचार चैनलों पर स्पीड न्यूज़ के बुलेटिन शुरु किए गए थे। जल्दी-जल्दी खबरे, ढेर सारी खबरें, खबरों का पूरा डोज़ जैसी कई टैगलाइन और न्यूज़ टॉप 10, टॉप 10 प्लस, न्यूज़ नॉनस्टॉप, स्पीड न्यूज़, रफ्तार समाचार जैसी अलग-अलग आकर्षक ब्रांडिंग के तहत समाचार चैनलों पर तेज़ी से खबर देनेवाले बुलेटिन शुरु किए गए। शुरुआती दौर में इस तरह के बुलेटिन्स के लिए जो स्लॉट तय किए गए, उनमें खास ख्याल दर्शकों की जल्दबाजी का रखा गया यानी ऐसा वक्त जब लोग जल्दी-जल्दी खबरें देखना चाहते हों। मसलन सुबह दफ्तर जाने से पहले और रात को सोने से पहले। ज़ी न्यूज़ पर सन 2003 में जब इस तरह के बुलेटिन का सफल प्रयोग हुआ तो इसके प्रसारण का स्लॉट सुबह साढ़े 8 बजे रखा गया था- ऐसा वक्त जब लोग तेजी से खबरों पर नज़र डालकर काम पर चलना चाहते हों। न्यूज टॉप टेन नाम के इस बुलेटिन को खूब पसंद किया गया और कई बरसों तक टीआरपी की होड़ में चैनल को आगे बढ़ाए रखने में इसका खास योगदान रहा। न्यूज टॉप टेन में 7 सेगमेंट होते थे, जिनमें हेडलाइन खबरों के अलावा देश, राजनीति, अपराध, मेट्रो, खेल और सिनेमा की 10-10 खबरों को समेटा जाता था। हर सेगमेंट की अवधि लगभग 3 मिनट से ज्यादा नहीं हुआ करती थी। इस तरह आधे घंटे में 70 खबरें दिखाने का नया तरीका शुरु किया गया। आगे चलकर इसी चैनल पर इसी कड़ी में रात के 11-11.30 बजे के स्लॉट के लिए टॉप टेन प्लस नाम के तेज़ रफ्तार बुलेटिन की शुरुआत हुई, जिसमें हर सेगमेंट करीब 4 से साढ़े 4 मिनट का होता था, यानी खबरों को कुछ और विस्तार से दिखाने की गुंजाइश थी। 2003 से 2005 के दो साल के दौरान लगभग हर निजी समाचार चैनल पर स्पीड न्यूज़ बुलेटिन्स के स्लॉट तय हो गए। टीआरपी की रेटिंग्स के मुताबिक, प्रतियोगिता में एक-दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ में न्यूज़ चैनल्स ने अपने-अपने तरीके से स्पीड न्यूज़ बुलेटिन्स की नई-नई ब्रैंडिंग  की और उन्हें आकर्षक तरीके से पेश करने लगे। टीवी पर रफ्तार को पसंद किया जाने लगा और इस हद तक पसंद किया जाने लगा कि 2005 में देश के टेलीविजन समाचार जगत में अग्रणी आजतक चैनल के समूह टीवी टुडे नेटवर्क ने तो इसी रफ्तार पर आधारित पूरा का पूरा न्यूज़ चैनल ही लांच करने की तैयारी कर ली और 2 अगस्त 2005 को तेज़ नाम से नए समाचार चैनल को लांच भी कर दिया गया। तेज़ को लांच करने से ज्यादा बड़ी चुनौती थी खबरों की रफ्तार के साथ-साथ उनकी ताजगी को बरकरार रखना ताकि दर्शक को बांधे रखा जाए, उन्हें ऊबने न दिया जाए। तेज़ भारतीय समाचार चैनलों में नवीनतम प्रयोग था जिसने खबरें फटाफट की टैगलाइन के साथ जल्दी ही दर्शक वर्ग में खास पहचान बना ली और इस पहचान को बरकरार भी रखा है। तेज़ के साथ हिंदी टेलीविजन समाचार जगत में एक नया अध्याय जुड़ा है और इस तरह के टेलिविजन प्रसारण की अपनी चुनौतियां भी सामने आई हैं। ज़ाहिर है टीवी टुडे के अलावा और कोई भी टीवी समाचार समूह इस तरह के चैनल को लांच करने की कोशिश नहीं कर सका। लेकिन तब से अब तक आम तौर पर तमाम न्यूज़ चैनलों पर स्पीड न्यूज़ के स्लॉट जरूर बढ़ गए, उनमें काफी नए प्रयोग और प्रस्तुति के नए-नए तरीके देखने को मिल रहे हैं।
तेज़ चैनल की शुरुआत आधे घंटे में दो तेज़ रफ्तार न्यूज़ बुलेटिन्स के कॉन्सेप्ट के साथ हुई थी। आगे चलकर खेल, सिनेमा और दूसरी विधाओं में फास्ट न्यूज़ के बुलेटिन्स भी शुरु किए गए। इस दौरान रफ्तार समाचार की होड़ इस कदर बढ़ी कि चैनलों पर बुलेटिन्स की वेराइटी देखने को मिलने लगी। इससे पहले तत्कालीन स्टार न्यूज़ 24 घंटे 24 रिपोर्टर नाम से फास्ट न्यूज़ बुलेटिन की शुरुआत कर चुका था। समय के साथ चलते हुए आजतक ने भी 50 खबरों, 100 खबरों और टॉप 5 जैसे फास्ट न्यूज़ बुलेटिन शुरु किए, जिन्हें आमतौर पर सुबह, दोपहर और रात के वक्त पेश किया जाता है, ताकि ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को अपनी ओर खींचा जा सके। हिंदी के दूसरे समाचार चैनलों सहारा समय और इंडिया टीवी ने भी समय के साथ अपने बुलेटिन्स में बदलाव किए और फास्ट न्यूज़ के कई नए बुलेटिन शुरु किए। चैनल 7 से IBN7 बने चैनल पर भी सुबह और रात के वक्त स्पीड न्यूज़ के स्लॉट तय हैं।
समाचार चैनलों पर खबरों को तेज़ तरीके से दिखाने की होड़ इतनी बढ़ी कि 50 खबरों और 100 खबरों से आगे आधे घंटे में 200 खबरें तक दिखाने के दावे करनेवाली ब्रैंडिंग के बुलेटिन भी चैनलों पर पेश किए जाने लगे हैं। इंडिया टीवी पर 20 रिपोर्टर, 5 मिनट में 25 खबरें, 10 मिनट में 100 खबरें, आधे घंटे में 200 खबरें जैसे कितने ही बुलेटिन्स नए कलेवर में पेश किए जा रहे हैं। वहीं स्टार से एबीपी न्यूज़ बने समाचार चैनल पर खबरें फटाफट, 500 सेकेंड जैसे बुलेटिन भी देखने को मिल रहे हैं, जिनमें खबरों की रफ्तार भले ही तेज़ न हो, लेकिन पहचान वही रखी जाती है। तेज़ रफ्तार में खबरें पेश करने की मार्केटिंग बुलेटिन्स पर इस कदर हावी हो चुकी है कि अब खबर 30 सेकेंड में, 1 मिनट में दिल्ली, 1 मिनट में मुंबई, जैसे बुलेटिन भी दिखाए जा रहे हैं, जिनमें कभी-कभी एक दो खबरें ही होती हैं और दर्शक पलभर में कई बड़ी खबरें देखने की मानसिकता लेकर चैनल पर बंधा रह जाता है। यही स्थिति एबीपी के फटाफट बुलेटिन की भी है, जिसमें तमाम बड़ी खबरों को समेटने की कोशिश होती है। लेकिन अगर कोई ब्रेकिंग या और बड़ी खबर हो, जिसे कुछ देर खींचने की जरुरत समझी जाए, तो संपादकीय नीति दूसरी तमाम खबरों को गैर-जरूरी मानकर छोड़ देते हैं। खबर की तात्कालिकता और सामयिकता का ख्याल करें तो ये बात काफी हद तक ठीक है, लेकिन ऐसे दर्शक जो किसी समय विशेष में एक साथ 5 या 10 ब़ड़ी खबरें देखने की मानसिकता लेकर चैनल का रुख करते हैं , वो ऐसी स्थिति में ठगे से रह जाते हैं। खैर, ये तो चैनलों की संपादकीय नीति पर निर्भर करता है कि किस बुलेटिन को किस तरह पेश किया जाए और किन खबरों को कितनी प्राथमिकता दी जाए। लेकिन आज के दौर में स्पीड न्यूज़ की जो बहुतायत देखने को मिल रही है, उसको लेकर बुलेटिन प्रस्तुति के कई पहलुओं पर गौर करना जरूरी हो जाता है।
समाचार चैनलों से जुड़ी सबसे अहम बात ये है कि दर्शक समाचार देखने के लिए इनका रुख करते हैं। और स्पीड न्यूज़ की सार्थकता इसी में है कि तेज़ से तेज़ रफ्तार में ज्यादा से ज्यादा समाचारों से दर्शकों को रू-ब-रू कराया जाए। खबर एक लाइन में भी होती है और उसे विस्तार दिया जाए तो शायद अखबार का एक पन्ना भी कम पड़ जाए। ऐसे में हमेशा ये संपादकीय नीति पर निर्भर करता है कि किस जानकारी को खबर की श्रेणी में रखा जाए और उसे कितनी अहमियत दी जाए। जाहिर है एक खबर अगर दिन भर के लिए ज्यादा अहम है, तो उससे जुड़ी दाएं-बाएं की पचासों खबरें और हो सकती हैं, जो बुलेटिन की सारी अवधि हजम कर लें। मुंबई में 26/11 के हमले जैसी किसी बड़ी घटना के मौके पर दूसरी किसी और प्रमुख खबर की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसे में संपादकीय नीति यही कहती है कि पूरा बुलेटिन एक ही प्रमुख घटना से जुड़ी दूसरी खबरों, जानकारियों और तथ्यों से भरा हो। ऐसे में स्पीड न्यूज़ के प्रोड्यूसर की जिम्मेदारी और चुनौती और बढ़ जाती है क्योंकि एक तरफ उसे खबर को अपडेट करना होता है, तो साथ ही बुलेटिन की ब्रैंडिंग के तहत 10, 25, 50 या 100 खबरों की गिनती पूरी करने के लिए भी आइटम तैयार करने होते हैं। आतंकवादी हमलों, हादसों, चुनाव, बजट जैसे बड़े खबरिया दिनों के मौके पर तो सूचनाओं और उनसे जुड़ी तस्वीरों और बाइट की आवक भी काफी बढ़ जाती है। ऐसे में ये तय़ करना बड़ी जिम्मेदारी और चुनौती का काम है कि आखिर किस एलिमेंट को बुलेटिन में शामिल किय़ा जाए और किसे छोड़ा जाए। बुलेटिन को अपडेट करते हुए भी नई खबरों और सूचनाओं के साथ-साथ विजुअल्स और बाइट्स का तार्किक तरीके से समावेश बड़ी चुनौती है। आम तौर पर तमाम चैनलों पर स्पीड न्यूज़ के बुलेटिन पूरी तरह से रिकॉर्डेड और एडिटेड होते हैं, जिससे लाइव परिस्थितियों में नई जानकारियां अपडेट करने की गुंजाइश कम होती है ,साथ ही साथ ये भी चुनौती होती है कि ऐसी कोई लाइन न तो स्क्रिप्ट या ना ही खबर पट्टियों में हो, जो पुरानी लगे। दूसरी तरफ जिन चैनलों में स्पीड न्यूज़ लाइव होते हैं, वहां भी समय से बुलेटिन को अपडेट करने और उनमें ताजगी बनाए रखना आसान नहीं।
बात स्पीड न्यूज़ की होती है, तो खबरों की प्रस्तुति की अहमियत भी काफी बढ़ जाती है। ऐसी अपेक्षा रहती है कि खबरें एक समान तेज़ गति में पढ़ी जाएं, स्क्रिप्ट के मुताबिक विजुअल और स्क्रीन पर पट्टियों के टेक्स्ट भी छोटे और पूरी खबर देने वाले हों ताकि खबरे दर्शक के दिलोदिमाग में पूरी तरह रजिस्टर हो सकें। ऐसे में स्क्रिप्ट लिखनेवालों की जिम्मेदारी है कि वो बुलेटिन के ड्यूरेशन के मुताबिक खबरों की छोटी-छोटी, सरल और प्रवाहमय भाषा में स्क्रिप्ट लिखें ताकि एंकर्स या वॉयस ओवर आर्टिस्ट के लिए उन्हें पेस बनाकर पढ़ने में दिक्कत न हो। साथ ही, ये एंकर्स और वॉयस ओवर आर्टिस्ट्स की भी जिम्मेदारी है कि वो स्क्रिप्ट को बुलेटिन की मांग के मुताबिक पढ़ने की मानसिकता के साथ खुद को तैयार रखें। अक्सर स्पीड न्यूज़ बुलेटिन्स में एंकर्स के फंबल करने या शब्दों को खा जाने की दिक्कतें पेश आती हैं। इसके लिए कभी एंकर तो कभी स्क्रिप्ट लेखक जिम्मेदार होते हैं। ऐसे में एंकर्स को TP रीडिंग पर निर्भर रहने के बजाए मौके के मुताबिक खबरों की लाइन तय करने और उन्हें खुद ब खुद फ्रेम करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। चुंकि टेलीविजन समाचार प्रस्तुति टीम वर्क है, लिहाजा पैनल कंट्रोल रूम के सहयोगियों पर भी विजुअल, साउंड, ग्राफिक्स और बुलेटिन के दूसरे तत्वों को उचित तरीके से इस्तेमाल करने की जिम्मेदारी बनती है ताकि बुलेटिन की रफ्तार बरकरार रहे और खबरों का तारतम्य बना रहे। बुलेटिन में अगर 10, 20 या 30 खबरों को शामिल करना हो, तो दर्शकों को स्क्रिप्ट और विजुअल के जरिए खबरों को रजिस्टर करने में दिक्कत नहीं होती। लेकिन जब 50, 100 और 200 खबरों के बुलेटिन की तैयारी हो, तो हमेशा ये ख्याल रखना चाहिए कि बंदूक की गोली की जिस रफ्तार से खबरें स्क्रीन पर गुजरेंगी, उन्हें दर्शक ग्रहण कर भी पाएगा या नहीं। ऐसे कई सफल प्रयोग चैनलों पर हो रहे हैं, लेकिन इस बात पर गौर करना और जरूरी है कि खबरों पर एक साथ आंख-कान और दिमाग का कंसेन्ट्रेशन होना मुश्किल है, ऐसे में स्पीड न्यूज़ प्रोड्यूसर्स को ये जरूर मान लेना चाहिए कि आपका दर्शक या तो स्क्रिप्ट की आवाज, या फिर तस्वीर या पट्टियों में दी जानेवाली जानकारी से ही खबर को रजिस्टर कर पाएगा। ऐसे में तीनों ही चीजें इतनी स्पष्ट होनी चाहिए, ताकि अगर आवाज न सुन सके, तो विजुअल या फिर पट्टी से ही खबर की जानकारी हासिल हो जाए। न्यूज़ शतक, 100 बड़ी खबरें, न्यूज़ 100, 200 खबरें जैसे स्पीड न्यूज़ बुलेटिन्स की तैयारी में प्रोड्यूसर्स को ये भी ख्याल रखना चाहिए कि एक खबर को कम से कम 2 से तीन हिस्सों में तोड़कर पेश किय़ा जाए ताकि दर्शक पूरी तरह खबर से वाकिफ हो सके। ऐसे में वास्तविकता में खबरों की संख्या 40-50 तक सिमट सकती है, लेकिन दर्शक खबरों से महरूम नहीं रहेंगे। अगर ब्रैंडिंग के तहत 100 की 100 खबरें अलग हों, तो काफी संभव है कि कोई खबर तेजी से निकल जाए, और दर्शक उसे याद न रख सके। ऐसे में स्पीड न्यूज़ बुलेटिन की सार्थकता पर सवाल खड़े हो सकते हैं क्योंकि वो असलियत में दर्शकों की खबरों की भूख मिटाने में बेअसर साबित हो सकता है। एक बड़ा सवाल ये भी है कि अगर 12 घंटे में 100 खबरों के तीन या चार बुलेटिन किसी चैनल पर पेश किए जाते हैं, तो क्या खबरें दोहराई नहीं जाएंगी और क्या उनकी ताजगी बरकरार रहेगी। ऐसी स्थिति में बुलेटिन को अपडेट करने की जिम्मेदारी अहम है। कुछ खबरें जरूर दोहराई जा सकती हैं, लेकिन ध्यान रखना होगा कि वो कितनी महत्वपूर्ण हैं और किस लिहाज से । खबरें कितनी भी बड़ी हों, और जानकारी के स्तर पर कोई अपडेट नहीं हो, तो भी दर्शकों की दिलचस्पी उनमें बनाए रखने के लिए उन्हें भाषा के स्तर पर अपडेट करने की गुंजाइश हमेशा रहती है। लिहाजा, स्क्रिप्ट और पट्टियों की भाषा और शब्दों में बदलाव पर जरूर ध्यान देना चाहिए। टीवी चुंकि विजुअल माध्यम है, लिहाजा तस्वीरों में भी जरूरत के मुताबिक बदलाव होने चाहिए ताकि खबरों में धार भी बनी रहे और उनकी सार्थकता भी। खबरें रोचक हों और विजुअल बेहतरीन हों, पहले कभी देखे नहीं गए हों, तो उन्हें एक-दो बार जरूर दोहराना चाहिए, क्योंकि एक समझदारी ये भी है कि अच्छे विजुअल और रोचक खबरें देखना दर्शक पसंद करते हैं। आम तौर पर विदेशी एजेंसियों APTN , Reuters से आनेवाली खबरें ऐसी होती हैं, जिनमें जानकारी के स्तर पर बदलाव या उन्हें अपडेट करने की गुंजाइश कम से कम 12 घंटे तक नहीं रहती, तो दर्शकों की दिलचस्पी से जुड़ी इस समझदारी का फायदा उठाते हुए स्क्रिप्ट और पट्टियों को और बेहतर बनाते हुए उन्हें कई बार दिखाने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।
आम आदमी की जिंदगी भागमभाग वाली है, तेज़ रफ्तार से चल रही है, ऐसे में टेलीविजन समाचार को सबसे कड़ी टक्कर, रेडियो और टैबलेट जैसे समाचार संचार माध्यमों से होनेवाली है, जिनके इस्तेमाल से इंसान आजकल कहीं भी खबरों से वाकिफ हो सकता है। रेडिय़ो तो पहले भी टेलीविजन समाचार को कुछ हद तक टक्कर देता रहा है, स्पीड न्यूज़ के बुलेटिन्स की शुरुआत की एक छिपी हुई वजह या प्रेरणा आकाशवाणी के सुबह और रात के प्राइम बुलेटिन भी हो सकते हैं, जो लोगों को खबरों की भरपूर जानकारी मुहैया कराने का सशक्त माध्यम रहे हैं। नए जमाने में इंटरनेट आधारित मोबाइल और टैबलेट लोगों को खबरों के करीब आने में मददगार साबित हो रहे हैं और होंगे। ऐसे में स्पीड न्यूज़ टीवी के दर्शकों के लिए खबरों के मजबूत माध्यम बन सकते हैं, बशर्ते इनका इस्तेमाल और मार्केटिंग सुलझे हुए तरीके से हो।
-          कुमार कौस्तुभ
12.04.2013,  5.13 PM

Thursday, April 11, 2013

खबर – एक कहानी!




पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद पहली बार जब एक अखबार के दफ्तर में ट्रेनी के तौर पर काम करने गया, तो एक वरिष्ठ सहयोगी ने कुछ अंग्रेजी के न्यूज़ आइटम हाथ में पकड़ाते हुए कहा – लीजिए, इससे एक कहानी बना दीजिए। सुनकर अचंभा हुआ कि भला अखबार के न्यूज़ डेस्क पर कहानी का क्या काम? मैं फीचर या साहित्य के पन्ने पर काम करने तो गया नहीं था। साथ ही, पत्रकारिता से पहले साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते कल्पनालोक से जुड़ी कहानी की अलग अवधारणा मन में थी। कथानक, नायक, नायिका, अन्य पात्र, क्लाइमेक्स, सुखद या दुखद अंत- कहानी के ये तमाम तत्व मन में उमड़ने-घुमड़ने लगे। सामने गंभीर चुनौती थी- कभी कहानी तो लिखी नहीं, तो खबरनवीशी में आकर क्या कहानी ही लिखनी होगी। काम की शुरुआत हुई और जब पेशे में उतरा तो कहानी की असली कहानी कुछ इस तरह समझ में आई कि खबरनवीश के लिए हर खबर एक कहानी होती है। हर रिपोर्टर अपनी स्टोरीफाइल करता है। न्यूज़ डेस्क के लोग उस स्टोरीको छापने या दिखाने लायक बनाने के लिए मांजते हैं। कहना न होगा कि हर खबर की एक कहानी होती है, हर खबर के पीछे कोई न कोई कहानी होती है या फिर यूं भी समझें कि हर खबर एक कहानी कहती है , कई कहानियों का तानाबाना बुनती है।
अखबार के लिए भी खबर एक कहानी होती है और टेलीविजन के लिए भी वो स्टोरी के सिवा कुछ नहीं होती। अखबार के बाद टेलीविजन में काम करने का मौका मिला तो वहां भी कहानी से पीछा नहीं छूटा बल्कि कहानी का और बड़ा फलक सामने आया। कहानी गढ़ने की कला पर साहित्यकार, रचनाकार और आलोचक चाहे कितनी भी माथापच्ची क्यों न कर लें, लेकिन टेलीविजन और समाचार माध्यमों में किस तरह कहानी गढ़ी जाती है उसका राज़ वही लोग जानते हैं जो साहित्य से भी जुड़े हैं और मीडिया से भी। साहित्य में कहानी कला के विकास का इतिहास आपको पढ़ने को मिल जाएगा, लेकिन पत्रकारिता में कहानीकारिता का इतिहास अलिखित है। खासकर टेलीविजन पत्रकारिता में कहानीकारिता का इतिहास लिखना भी बेहद मुश्किल और दुरुह काम है। कभी इस ओर शायह ही किसी पत्रकार का ध्यान गया हो कि न्यूज़ डेस्क पर कहानीकारिता का किस तरह रोज विकास हो रहा है, रोज नए प्रतिमान बन रहे हैं, रोज नई कला सामने आ रही है, रोज नए फॉर्मूले पेश किए जा रहे हैं। फॉर्मूले इसलिए क्योंकि एक बने-बनाए ढर्रे पर, एक खास ढांचे में खबर को मांजकर कहानी बनाने की परंपरा आमतौर पर देखने को मिलती है जिसका सटीक उदाहरण है टेलीविजन स्टोरी की पैकेजिंग। 3 VO  2 बाइट और एक PTC के फ़ॉर्मूले पर टीवी की कहानी लिखने का तरीका  आम हो चला है। हालांकि रोजाना इसमें हर स्क्रिप्ट राइटर अपने मनमुताबिक, या खबर की मांग के मुताबिक बदलाव करता है, कुछ नए एलिमेंट जोड़ता है, कुछ घटाता है और अपनी ड्यूटी निभाता है। टेलीविजन में नौकरी की शुरुआत पर मेरा पाला जब स्टोरीलिखने से पड़ा तो मेरे एक तत्कालीन बॉस, जो अब न्यूज़ टेलीविजन की दुनिया के एक बड़े नामों में शुमार हैं, उन्होंने मेरा लिखा देखकर मेरी लंबी चौड़ी क्लास ली। मेरी ही नहीं, वो पूरे चैनल के लिक्खाड़ों की टोली को खबरिया कहानी-कला की बारीकियां बताते थे और उन्हें सही तरीके से स्टोरी लिखने की ताकीद करते रहते थे। इसी क्रम में चैनल में स्क्रिप्ट लेखन की दुनिया के दिग्गज जुगनू शारदेय को भी बुलाया गया था, जो डेस्क के लोगों को लिखना सिखाते थे और समय-समय पर उनका इम्तिहान लेते रहते थे। टीवी कहानीकारिता की इस ट्रेनिंग के दौरान मुझे सबसे पहले ABC  का फॉर्मूला बताया गया और साथ ही ये भी कहा गया कि ये स्टोरी लिखने का आधुनिक तरीका है जो आजतक जैसे चैनलों में इस्तेमाल किया जाता है। पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान हमें अखबार और टेलीविजन की स्क्रिप्ट लिखने के जो तौर-तरीके बताए गए थे, वो बेकार साबित हो रहे थे। टेलीविजन के नए मुर्गे को बांग देने में मुश्किल आ रही थी। बड़ी तैयारी और पढ़ाई के साथ बुने गए तमाम सपने चकनाचूर होते दिख रहे थे। पढ़ाई के दौरान दूरदर्शन समाचार के तत्कालीन संपादक श्री आलोक देशवाल ने टीवी की खबर लिखने की जो ट्रेनिंग दी थी, बात उससे काफी आगे बढ़ रही थी। किताबों और अन्य स्रोतों से स्क्रिप्ट लिखने की जो सैद्धांतिक समझ पैदा हुई थी, उनकी चर्चा न्यूज़ राइटिंग की किसी भी किताब में मिल सकती है। लेकिन यहां तो व्यावहारिक तरीके से खबर को कहानी में बदलने की चुनौती सामने थी। ऐसे में संपाकद की फजीहत झेलते हुए ABC  का जो फ़ॉर्मूला सामने आया, वो बड़े काम का साबित हुआ। आप सोच रहे होंगे कि खबर की स्क्रिप्ट लिखने का ये ABC  फॉर्मूला क्या है? सीधी सरल भाषा में A का मतलब Action,  B का मतलब खबर का ब्रैकग्राउंडर और C का मतलब Conclusion यानी आगे की ओर इशारा। ये फॉर्मूला तार्किक तौर पर बड़ा सुलझा हुआ लगा और जैसा कि पहले कहा जा चुका है, आधुनिक खबर लेखन के लिहाज से भी फिट बैठता था।
21वीं सदी के शुरुआती दौर में भारतीय टेलीविजन समाचार में जिस तरह के बदलाव आ रहे थे, उनमें और भी नए प्रयोगों की गुंजाइश थी। इसकी बानगियां हमें आगे चलकर देखने को मिलीं। बात बुलेटिन से आगे बढ़ी और खबर विशेष पर स्पेशल शोज़ तक पहुंची तो खबरिया कहानी यानी न्यूज़ स्क्रिप्ट लिखने के मायने और बदले। इसके साथ ही तब से अब तक खबर की तमाम विधाओं – राजनीति, अपराध, खेल, मनोरंजन के क्षेत्रों में भी कहानियों की अपनी मांग के मुताबिक लेखन कला विकसित होती चली गई। खबर का विकास हुआ, कहानी परवान चढ़ी लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में भाषा कहीं पीछे छूटती सी चली गई। दरअसल, निजी समाचार चैनलों में समाचार प्रसारण की बुनियाद में वो भाषा थी, जो साहित्यिक तो कतई नहीं थी, लेकिन सीधी और सरल होने और आम जनमानस की समझ के करीब पहुंचने का दावा करती थी। हार्ड न्यूज में साहित्यिक और लच्छेदार भाषा का प्रवेश निषेध हो चुका था, तर्क ये था कि ये भाषा किताबी है और आम दर्शकों की समझ से बाहर है, लिहाजा कहानी कहने में हमें ऐसी भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए, जो बच्चे से लेकर बूढ़े तक, रिक्शॉवाले से लेकर दफ्तर के साहब तक- सबकी समझ में आए। लिहाजा हिंदी के साथ अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल बढ़ा। ये खबर की कहानी की भाषा का विकास था- लेकिन इस भाषा पर पकड़ रखनेवाले तमाम ऐसे लोग न्यूज़ डेस्क पर आने लगे, जिन्हें न हिंदी ठीक से लिखने आती थी, न उर्दू के शब्दों को देवनागरी में सही-सही लिखने आता था। अंग्रेजी के शब्दों को भी देवनागरी में उतारने का ढर्रा बेखटके चल पड़ा। समझने लायक भाषा सामने लाने की इस पूरी प्रक्रिया में सबसे ज्यादा नुकसान वर्तनी का हुआ और हद तो ये हो गई कि किसी मानक रूप को इस्तेमाल न करने की हठधर्मिता के चलते टीवी के भाषाविदों ने काफी हद तक वर्तनी में सही-गलत बदलाव को भी भाषा के विकास से जोड़कर देखना शुरु कर दिया। ये प्रक्रिया अब भी चल रही है , लेकिन भाषा विमर्श को पीछे छोड़कर खबर की कहानीकारिता पर फिर से बात करें तो मौजूदा दौर में यही बात देखने को मिल रही है कि सिर्फ 10 साल में टेलीविजन समाचार की कहानी का इतना विकास हो चुका है कि अब ABC जैसे फॉर्मूले पीछे छूट गए हैं और कोई निश्चित तरीका नहीं रहा जिस पर टिककर खबर को कहानी का रूप दिया जा सके। समाचार चैनलों की बहुतायत, टीआरपी की गलाकाट प्रतिद्वंद्विता और बाजारोन्मुख पत्रकारिता ने व्यावहारिक तौर पर प्रोड्यूसर को जो अच्छा लगे, वही कहानी का फॉर्मूला अंगीकार कर लिया है। इसी को ध्यान में रखकर किसी भी बुलेटिन या कार्यक्रम की परिकल्पना तय़ होती है और कहानी गढ़ने की वही दिशा होती है, जो शो प्रोड्यूसर पसंद करता है। ऐसे में प्रोड्यूसर के पास अपनी कल्पनाशीलता को रचनात्मक अंजाम तक पहुंचाने की भरपूर गुंजाइश रहती है और कई लोग इस तरीके से काम भी करते हैं, जो अक्सर सराहे जाते हैं। लिहाजा कहना न होगा कि खबर की कहानीकारिता में अब मैदान खुला है और जो जैसा चाहे, वैसा करने की पूरी छूट है, कोई बंदिश नहीं है, सिर्फ ख्याल इसी बात का रखना है कि जो कुछ आप पेश करने जा रहे हैं वो अच्छा लगे। अब सवाल है कि किसको अच्छा लगे- तो जाहिर सी बात है सैद्धांतिक तौर पर आपको अपने दर्शक वर्ग के हितों , उनकी आकांक्षाओं और अपने संगठन के हितों का ख्याल रखना ही होगा। आपको सजग रहकर ये सोचना पड़ेगा कि आपकी कहानी कितनी कसी हुई है और किसी के लिए किसी तरीके से उबाऊ तो नहीं। ये भी ध्यान रखना होगा कि आपने खबर से जुड़े तत्वों को कहानी में समाहित किया है या नहीं। साथ ही सबसे बढ़कर ये भी ध्यान रखना होगा कि क्या आप अपनी कहानी में कहीं कोई बात दोहरा तो नहीं रहे हैं और अगर ऐसा कर रहे हैं, तो क्या उसकी कोई खास जरूरत है और अगर जरूरत है तो दोबारा किसी बात को कहने के लिए आपने क्या नया तरीका इस्तेमाल किया है। ये सब कुछ ऐसे बिंदु हैं, जिनपर टीवी में खबर की कहानी लिखते समय ध्यान दिया जाए तो न सिर्फ आपको आत्मिक संतोष मिलेगा , बल्कि आपका प्रॉडक्ट भी बेहतर बनेगा।
ये तो खबर की कहानी लिखने की कहानी हुई, अब जरा खबर की कहानी के एक दूसरे पहलू पर गौर कर लें, जो खबर के लिहाज से काफी अहम है। सैद्धांतिक तौर पर खबर की जो भी परिभाषाएं हों, उनकी गहराई में नहीं जाना चाहता, लेकिन व्यावहारिक तौर पर एक बात कई बार देखने को मिलती है कि खबर को खबर बनाने में कहानी का अहम योगदान होता है। यानी खबर के पीछे छुपी कहानी को उभारने के लिए रिपोर्टर क्या क्या करता है और स्क्रिप्ट राइटर घटनाक्रम को किस तरह कहानी के ढांचे में ढालता है। मसलन चोरी और लूटपाट की हर घटना खबर हो भी सकती है और नहीं भी। लेकिन अगर खबर एक ऐसी महिला के साथ लूटपाट और हत्या की हो , जो हाईप्रोफाइल हो, हमेशा सोने के गहनों से लदी रहती हो, तो उसके बारे में एक खबर कई कहानियों को जन्म दे सकती है। इसके लिए जरूरी है रिपोर्टर की ओर से वो तमाम तथ्य और जानकारियां जुटाई जाएं, जो कहानी के प्लॉट को तैयार करती हैं और उसे विकसित करती हैं। खबर बनाने के पीछे भी कई बार कहानी होती है। मसलन आपको य़ाद होगा किसी इलाके में मीडिया पर एक आदमी को आत्मदाह के लिए उकसाने का आरोप लगा ताकि सिर्फ एक खबर बन सके। जाहिर है, समाज में खबरों के पीछे की ऐसी कहानियां कई बड़े सवाल छोड़ जाती हैं और टेलीविजन मीडिया को भी कठघरे में खड़ी करती हैं। ऐसे में, जरूरत इस बात की है कि हम खबर से कहानी जरूर बनाएं, लेकिन खबर के लिए कोई कहानी कतई न बनाएं।
-कुमार कौस्तुभ
11.04.2013, 4.20 PM