Wednesday, April 10, 2013

TV पर अपराध




चैन से सोना है तो जाग जाओ
सन्नाटे को चीरती सनसनी सन्न कर देती है इंसान को
वारदातमें आपका स्वागत है- ये कुछ ऐसी लाइन्स हैं जो हिंदी न्यूज़ टेलीविजन के दर्शकों के दिलो-दिमाग पर बरसों से छा चुकी हैं। ये टैगलाइन्स हैं टेलीविजन के समाचार चैनलों पर प्रसारित होनेवाले क्राइम शोज़ के। 21वीं सदी की शुरुआत के साथ ही भारत में निजी समाचार चैनलों का जो उत्थान शुरु हुआ, उसमें खांटी समाचार के प्रसारण के साथ-साथ कई विधाएं जुड़ती चली गईं। इसी कड़ी में सुन 2002 के बाद तमाम हिंदी न्यूज़ चैनलों पर अपराध आधारित कार्यक्रमों की बाढ़ आ गई। तकरीबन हर समाचार चैनल पर एक न एक स्लॉट क्राइम शो के नाम कर दिया गया। खासकर रात 11 बजे का स्लॉट जब प्राइम टाइम खत्म हो रहा होता है और सुबह नॉन प्राइम टाइम के स्लॉट रात वाले शो को रिपीट करने के लिए तय रखे गए। ज़ी न्यूज़ के क्राइम शो क्राइम रिपोर्टर, तत्कालीन स्टार न्यूज़ के शो सनसनी, आजतक के वारदात, जुर्म, हत्यारा कौन, और एसीपी अर्जुन जैसे कार्यक्रमों के अलावा अन्य चैनलों के डायल 100, पर्दाफाश जैसे अपराध समाचारों पर आधारित कार्यक्रमों ने टेलीविजन समाचारों के दर्शकों के बीच अच्छी पकड़ बना ली। शाय़द यही वजह थी कि सरकारी समाचार चैनल दूरदर्शन न्यूज़ भी अपराध के मायाजाल से खुद को अलग नहीं रख सका और DD पर भी रंगे हाथ जैसे क्राइम शो प्रसारित होने लगे। जाहिर है क्राइम शो TRP  यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स के मनोविज्ञान की उपज थे, लिहाजा ये काफी परवान चढ़ और शुरुआत के बाद से तकरीबन 10 साल गुजर जाने के बाद भी ज्यादातर समाचार चैनलों पर इनका जलवा कायम है और 24 घंटे के FPC में इनकी खास जगह अब भी बरकरार है। हालांकि एनडीटीवी इंडिय़ा और आईबीएन7 जैसे कुछ चुनिंदा न्य़ूज़ चैनलों का क्राइम शो से मोहभंग भी हुआ या यूं कहें कि खुद को कुछ अलग दिखाने की होड़ में कई चैनलों ने क्राइम शो को नमस्कार कर लिय़ा और उनका प्रसारण बंद भी कर दिया। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि अपराध से जुड़े समाचार टीवी चैनलों से गायब हो गए। समाज में अपराध होते हैं लिहाजा समाचार चैनलों के बुलेटिन से लेकर प्रोग्रामिंग तक का अहम हिस्सा ये समाचार रहते ही हैं। लेकिन समाचार चैनलों पर समाचार से इतर अपराध को अहमियत देने की आखिर क्या वजहें हैं। टेलीविजन मीडिय़ा के विश्लेषक इस मुद्दे पर काफी चर्चाएं आए दिन करते रहते हैं और इसके पक्ष-विपक्ष काफी बातें सामने आती रहती हैं। इस सिलसिले में यहां कुछ बिंदुओं और कुछ सवालों पर चर्चा जरूरी समझता हूं।

सबसे बड़ा सवाल ये है कि जब अपराध से जुड़े मामले समाचार की श्रेणी में आते हैं, तो इन्हें बुलेटिन में जगह देने के अलावा अलग से इनके लिए खास कार्यक्रम की जरूरत आखिर क्यों पड़ी? इसके पक्ष में कई तर्क दिए जाते हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि रोजाना अपराध से जुड़ी खबरों की आवक इतनी ज्यादा होती है कि इनके लिए एक पूरा बुलेटिन भी छोटा पड़ जाए। लिहाजा शुरुआती दौर में क्राइम रिपोर्टर जैसे बुलेटिन में अपराध से जुड़ी तमाम बड़ी खबरों को समाहित करने की दिशा में काम शुरु हुआ। रात के 11 और साढ़े 11 बजे के स्लॉट्स में प्रसारित होने वाले इस तरह के बुलेटिन का सबसे बड़ा दर्शक वर्ग निम्न और मध्यम कामकाजी वर्ग हुआ करता था और मेरी समझ में आज भी वही इसका सबसे बड़ा दर्शक वर्ग है। गुजरते वक्त के साथ बुलेटिन की परिकल्पना और प्रस्तुति में भी बदलाव आया और इस तरह के क्राइम बुलेटिन्स ने क्राइम शो का रूप ले लिया, जिनमें किसी एक या दो बड़ी अपराध कथाओं के तमाम पहलुओं का तानाबाना बुनने की कोशिश शुरु हुई। आज के दौर में आम तौर पर क्राइम शो किसी एक अपराध कथा पर ही केंद्रित होते हैं। एक बुलेटिन में 10 कहानियों की जगह , कैमरा हर दिन किसी एक बड़े आपराधिक मामले के इर्द-गिर्द ही घूमने लगा है। हर दिन प्रस्तुति अलग किस्म की होती है। नए किस्म की नाटकीयता होती है। अपराध का पोस्टमॉर्टम करने के लिए सीधी सपाट खबरिया स्टोरी की जगह अब खास ट्रीटमेंट वाली स्क्रिप्ट , स्पेशल इफेक्ट्स, ग्राफिक्स, एनिमेशन और यहां तक कि अपराध-विशेष के रिक्रिएशन तक का इस्तेमाल करके स्टोरीज़ तैयार की जाती हैं। मकसद आमतौर पर यही होता है कि दर्शक को खबर के ज्यादा से ज्यादा करीब ले जाया जा सके, उसे सोचने को मजबूर किया जा सके, उसे कमिंग अप के बाद की स्टोरी देखने के लिए बांधा जा सके, उसमें खबर की तह तक जाने का कौतूहल पैदा हो । लेकिन दूसरे पहलू को देखें, तो ये किसी न किसी रूप में खबर से बढ़कर मनोरंजन का एक जरिय़ा है जिसमें रहस्य-रोमांच से लेकर मिर्च-मसाला तक वो सब कुछ होता है, जो किसी मुंबइया थ्रिलर में देख सकते हैं। प्रस्तुति का तरीका थोड़ा हट कर होता है, लिहाजा वो टेलीविजन का क्राइम शो होता है, फिल्म नहीं होती। लेकिन इसके जरिए इस पेशे से जुड़े लोगों को अपनी क्रिएटिविटी दिखाने की तमाम दमित इच्छाएं काफी हद तक पूरी होती हैं या फिर दूसरे तरीके से देखें, तो वो अपने दायित्व का हरसंभव निर्वहन करने की कोशिश करते हैं।
क्राइम बुलेटिन से क्राइम शो तक के सफर की चर्चा हो रही है तो हिंदी एंटरटेनमेंट टेलीविजन चैनलों पर प्रसारित होनेवाले क्राइम शोज़ को भी भुलाया नहीं जा सकता। सीआईडी, क्राइम पैट्रोल, सावधान इंडिया- ये कई ऐसे कार्यक्रम हैं, जो अपराध की खबरों से ही ताल्लुक रखते हैं- कल्पना कम और खबरों से ही ज्यादा प्रेरित होकर इन कार्यक्रमों के एपिसोड तैयार किए जाते हैं। ऐसे में सवाल ये है कि अपराध आधारित मनोरंजन जब एंटरटेनमेंट शो पर मिल रहा है, तो समाचार चैनलों पर इनकी जरूरत क्यों? इसका जवाब ये है कि समाचार चैनलों पर प्रसारित होने वाले क्राइम शो में तात्कालिकता होती है- हाल-फिलहाल की खबर का विश्लेषण होता है और नाटकीयता के जरिए मनोरंजन का तड़का भी, लिहाजा अपराधों में दिलचस्पी रखनेवाले दर्शकों के लिए ये ज्यादा सहज तरीके से उपलब्ध समाचार आधारित मनोरंजन की खिचड़ी है। एंटरटेनमेंट चैनलों पर प्रसारित होनेवाले शोज़ का मकसद अलग है और समाचार चैनलों पर प्रसारण का मकसद अलग। समाचार चैनल समाचार से दूर नहीं हो सकते, भले ही कितनी भी नाटकीयता का पुट कार्यक्रमों में क्यों न डाला जाए, लेकिन USP खबर होने की वजह से खबर से हटकर कार्यक्रम का ढांचा और कलेवर पेश करना मूल मानसिकता को खत्म करने की ओर बढ़ना होगा। इसके पीछे कुछ तो NBA जैसे संगठनों की ओर से तैयार की गई आत्मसंयम की कठोर नीतियां भी हैं, जो समाचार चैनलों को सीमा से बाहर नहीं जाने देतीं, तो काफी हद तक बजटीय आर्थिक सीमाएं भी जो कम से कम खर्च में ज्यादा से ज्यादा बेहतर प्रॉडक्ट देने के लिए चैनलों के नियंताओं को मजबूर कर देती हैं। ऐसे में समाचारीय तात्कालिकता के दायरे में रहते हुए अपनी कल्पनाशीलता और क्रिएटिव क्षमता का इस्तेमाल करते हुए समाचार चैनलों के स्वनामधन्य पत्रकार, प्रोड्यूसर 4 से 5 पैकेज तैयार करके हर रोज एक नया कार्यक्रम पेश करने की ड्यूटी निभाते हुए अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देते हैं। अपराध समाचारों के साथ पूरा इंसाफ करने की कोशिश में क्राइम डेस्क का पूरा अमला जुटा होता है और शो ऑन एयर होने पर लोग चैन की सांस लेते हैं।

यहां तक बात अपराध समाचारों के शो तक के सफर के बारे में हुई और अब जरा विचार करें कि टेलीविजन पर बुलेटिन से लेकर खास स्लॉट आधारित कार्यक्रमों तक में अपराध समाचारों को जितना और जिस तरह दिखाया जाता है, इसका आम दर्शक और समाज पर भला असर क्य़ा पड़ता है। आज के दौर में चोरी-डकैती से ज्यादा बलात्कार और छेड़खानी के समाचार आम हो गए हैं। रेप शब्द तो जैसे समाचार चैनलों की खबर पट्टियों से हटता ही नहीं- ऐसे में जाहिरा तौर पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर आपके साथ आपका छोटा बच्चा टीवी समाचार देख रहा हो, तो वो भी य़े जरूर पूछ सकता है कि पापा, ये रेप-वेप क्य़ा होता है। भारतीय मध्यवर्गीय समाज की पारिवारिक संरचना में इस सवाल का जवाब देना किसी के लिए भी दुष्कर हो सकता है। लेकिन जिस तरह टेलीविजन पर सैनिटरी नैपकिन या कंडोम के एड देखकर बच्चे सवाल नहीं पूछते और ये सबके लिए सर्वग्राह्य हो चुके हैं, लगता है काफी हद तक वैसे ही रेप और छेड़खानी जैसे जुमले भी सबकी समझदारी में बैठ और पैठ गए हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि सैनिटरी नैपकिन या कंडोम के एड प्रसारित करने का मकसद लोगों को इनके बारे में शिक्षित करना भी है, इनकी जरूरत के बारे में सजग करना भी है, लेकिन अपराध-जनित समाचारों में जो जुमले , जो शब्द अक्सर देखने में आते हैं, वो किस हद तक शिक्षित कर सकते हैं नहीं, पता, लेकिन एक भय का माहौल जरूर पैदा कर देते हैं। याद आता है फिल्म शोले पर आधारित वो चुटकुला, जिसमें मां रोते हुए बच्चे को चुप कराने के लिए कहती है- सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा। कहीं, हमारे समाचार चैनलों के समाचार हमारे लिए ऐसा माहौल तो नहीं बना रहे कि बच्चों को कहना पड़े- घर से नहीं निकलना, कुछ भी हो सकता है। भारत में टीवी के समाचार चैनलों की अवधारणा और खासकर उन पर क्राइम बुलेटिन और क्राइम शो पेश करने की विचारधारा पश्चिम से आय़ातित है। अमेरिका जैसे देशों में इसका कैसा असर है, इस पर विमर्श करते हुए Journal of Communication के  March 2003 अंक के पेज नंबर 88 पर Daniel Romer, Kathleen Hall Jamieson  और  Sean Aday ने Television News and the Cultivation of Fear of Crime शीर्षक लेख में लिखा है-

Why has the public persisted in believing that violent crime is a widespread na-
tional problem in the U.S. despite declining trends in crime and the fact that crime
is concentrated in urban locations? Cultivation theory suggests that widespread
fear of crime is fueled in part by heavy exposure to violent dramatic programming
on prime-time television. Here we explore a related hypothesis: that fear of crime is
in part a by-product of exposure to crime-saturated local television news. To test
this, as well as related and competing hypotheses, we analyzed the results of a
recent national survey of perceived risk; a 5-year span of the General Social Survey
(1990–1994); and the results of a recent survey of over 2,300 Philadelphia resi-
dents. The results indicate that across a wide spectrum of the population and inde-
pendent of local crime rates, viewing local television news is related to increased
fear of and concern about crime. These results support cultivation theory’s pre-
dicted effects of television on the public.[1]


जाहिर है, अमेरिकी समाज के बारे में Daniel Romer, Kathleen Hall Jamieson  और  Sean Aday का अध्ययन अलग हो सकता है, लेकिन एक बात और ध्यान देने की है कि भारत और अमेरिका दुनिया के बड़े लोकतंत्र हैं, पूंजीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। अमेरिका विकसित देशों की श्रेणी में है औऱ भारत विकासशील – लिहाजा आम आदमी अमेरिका को हर मामले में आदर्श के रूप में देखता है , अमेरिकी ढर्रे से प्रभावित भी होता है तो Cultivation theory का जो नतीजा अमेरिका के लिए है, क्या वो भारत पर लागू नहीं हो सकता। इसके पक्ष और विपक्ष दोनों में राय हो सकती है- अपने-अपने अलग-अलग विचार हो सकते हैं, ये गहन विमर्श का विषय है। अमेरिका के ही एक और अध्ययन को देखें तो ये बात साफ हो जाती है कि टेलीविजन, अपराध और इंसाफ का कितना गहरा संबंध है। Connie L. McNeely ने अपने लेख PERCEPTIONS OF THE CRIMINAL JUSTICE SYSTEM: Television Imagery and Public Knowledge in the United States में लिखा है-
While certainly there are other sources of information, research has suggested that a majority of people in the United States receive much of their impressions and knowledge of the criminal justice system through the media, in particular through entertainment television viewing (Surette 1992). Indeed, in some ways, the most direct "contact" that most persons have with the criminal justice system is through the "television experience." This point is very much in keeping with depictions of increasingly "postmodern" life in which the authority of the family and school has greatly waned (Saney 1986), and television is progressively the principal means of (or replacement for) "social contact" and socialization (Giddens 1981; Laywood 1985). Furthermore, research on television as an agent of socialization and source of knowledge and information has indeed been very suggestive along these lines, for both children and adults (Gerbner and Gross 1976a, 1976b; Altheide 1985; Roberts and Doob 1990; Drucker 1989).’[2]
McNeely का विचार काफी हद तक सही लगता है। खासकर अगर हम अपने देश में अपराध समाचारों की ऐसी कवरेज पर ध्यान दें, जिसे मीडिया ट्रायलकहा जाता है, तो साफ हो जाता है कि कहीं न कहीं सही या गलत का सिद्धांत तय करने में मीडिया या यूं कहें कि टेलिविजन का खासा योगदान रहता है। ऐसे आरोप भी अक्सर लगते हैं और किसी भी मामले को गति देने में टेलीविजन कवरेज की भूमिका से इंकार भी नहीं किया जा सकता। भले ही इसके अच्छे और बुरे – दोनों ही पहलू हैं, जिनका ध्यान अपराध समाचारों की कवरेज से लेकर उन्हें स्पेशल शो के दायरे में लाने तक रखा जाना चाहिए। न्यूज़ टेलीविजन का काम समाचार देना है, और अपनी इस भूमिका से वो अलग नहीं हो सकते । अपराध भी समाचार का हिस्सा ही हैं ये बात दोहराते हुए एक बार फिर यही कहना पड़ता है कि कहीं टेलीविजन समाचार चैनल अपने मूल उद्देश्य से भटक तो नहीं रहे। सीमा का उल्लंघन भी अपराध की श्रेणी में आता है, ऐसे में TV पर अपराध न हो, इसका ख्याल जरूर रखा जाना चाहिए।
-          कुमार कौस्तुभ
10.04.2013, 18.23 PM


[1] http://www-rohan.sdsu.edu/~digger/305/crime_cultivation_theory.pdf

Monday, April 8, 2013

टीवी देखिए, भाषा को देखिए !



                      
भाषा बहता नीर
हर दस कोस पर बदल जाती है भाषा
भाषा संप्रेषण का माध्यम है
टेलीविजन की भाषा सीधी और सरल होनी चाहिए
-पत्रकारिता और जनसंचार की पढ़ाई से लेकर इन क्षेत्रों में नौकरी करने तक तमाम पत्रकार इन जैसे कितने ही सिद्धांतों से रू-ब-रू होते हैं। पढ़ाई और प्रशिक्षण के दौरान भाषा के बारे में बनी समझ का इस्तेमाल नौकरी के दौरान होता है। लेकिन, ये भी कहना गलत नहीं होगा कि पढ़ाई, प्रशिक्षण और पत्रकारिता की नौकरी के सिलसिले में भाषा के बारे में हर व्यक्ति विशेष की अपनी समझ विकसित होती है जिसके आधार पर वह साल-दर-साल अपने काम को अंजाम देता है। ये जरूरी नहीं कि हर पत्रकार सोची-समझी रणनीति के तहत अपनी भाषा को अपग्रेड करे या नए शब्दों का इस्तेमाल शुरू करे या कुछ शब्दों को अपने इस्तेमाल से हटाए, वाक्य-विन्यास से जुड़े नए प्रयोग करे या यूं कहें कि भाषा से खेले या खिलवाड़ करे। काम की प्रक्रिया में ये सब संभव है जिस पर हम कामकाजी लोग कभी बैठकर विचार नहीं करते। लेकिन समय के साथ जो बदलाव भाषा में आते हैं, वो हंमारे काम, हमारे आउटपुट के जरिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी नज़र आते हैं। ये बदलाव सूचना, शिक्षा और मनोरंजन के हर माध्यम में चाहे वो अखबार हो, या रेडियो या फिर टेलीविजन या वेब ही क्यों न हो- अपने-अपने तरीके से दिख रहे हैं।
      आज के दौर में टेलीविजन सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का सबसे सशक्त माध्यम है, लिहाजा भाषा की बात करते हुए सबसे पहले और सबसे आसानी से ध्यान टीवी स्क्रीन पर ही जाता है। टेलीविजन पर भाषा का इस्तेमाल ऑडियो-विजुअल माध्यम होने से जुड़े उसके सिद्धांतों को परे छोड़ देता है- हम अक्सर ये भूल जाते हैं कि टीवी की भाषा ऑडियो-विजुअल है, ना कि टेक्स्ट, क्योंकि टेक्स्ट के बिना हमारा काम नहीं चलता। इसे सिर्फ मजबूरी कहें, या अपना पक्ष रखने और अपनी राय जाहिर करने के लिए ऑडियो-वीडियो की क्षमता पर शो प्रोड्यूसर का हावी होना मानें- टेक्स्ट के रूप में भाषा का इस्तेमाल टेलीविजन पर अहम हो गया है-अपनी बात समझाने के लिए हम टेक्स्ट का सहारा लेते हैं और हालत ये है कि स्क्रीन पर पिक्चर कम, टेक्स्ट ही ज्यादा दिखता है। जरूरत इस बात की है कि स्क्रीन पर टेक्स्ट का इस्तेमाल उतना ही हो, जितना बेहद जरूरी हो। ऐसा क्य़ों नहीं होता, इससे जुड़े कई सवाल हो सकते हैं- मसलन बड़ी आसानी से ये कहा जा सकता है कि हम भारतीय टीवीवालों को अभी तक टीवी की समझ नहीं आई। ये भी माना जा सकता है कि हमारे दर्शक इतने परिपक्व नहीं, जो विजुअल, इमेज और साउंड का सही अर्थ ही निकालें, यानी अनर्थ होने और उसके बाद की दूसरी प्रतिक्रियाओं के खतरे ज्यादा हैं। जो भी हो, अगर स्क्रीन पर भाषा का इस्तेमाल जरूरी है, तो उसके कुछ कायदे-कानून भी होने चाहिए- ऐसा भी माना जाता है। लेकिन, कहना न होगा कि जिस तरह, जितनी तेजी से भारत में खासकर हिंदी समाचार और सामयिक घटनाओं से जुड़े टेलीविजन चैनलों का विकास हुआ है, उतनी ही तेजी से भाषा संबंधी तमाम दीवारें टूटती गई हैं।
      देश में समाचार-प्रसारण के लिहाज से सबसे पहले वजूद में आई सरकारी टेलीविजन व्यवस्था ने रेडियो से भाषा उधार ली थी, लिहाजा उसका अपना अनुशासन था, जो काफी हद तक अब भी कायम है। निजी चैनल के तौर पर ज़ीटीवी ने 90 के दशक में हिंग्लिशमाध्यम में समाचारों का प्रसारण शुरू किया तो उसके पीछे उसकी अपनी सोच थी- एक खास दर्शक वर्ग को पकड़ने की मानसिकता जुड़ी हुई थी। निजी समाचार चैनलों में नंबर 1 आजतक की बुनियाद ही ऐसी भाषा से जुड़ी रही है, जो आम लोगों की समझ के नजदीक हो। आजतक के बाद तमाम दूसरे निजी समाचार चैनलों ने तकरीबन इसी सिद्धांत को अपनाया है और यहीं से एक ऐसी उलझन शुरू हुई, जिसने मीडिया में हिंदी के इस्तेमाल पर सवाल उठा दिए हैं। यहां ये साफ करना जरूरी है कि हिंदी का वजूद खतरे में नहीं है, क्योंकि हिंदी से जो साहित्य-संपदा जुड़ी हुई है वो मीडिया से काफी ज्यादा है। लेकिन अगर मीडिय़ा ने हिंदी को अपनाया है, तो ये भी उसकी जिम्मेदारी है कि टेलीविजन पर इस्तेमाल होनेवाली भाषा के चाल-चरित्र और चेहरे को दर्शनीय-शोभनीय और समादृत रखे। ये मसला भाषा के संस्कार से जुड़ा है। अखबारों और रेडियो में तो हिंदी की अस्मिता बचाए रखने की कोशिश काफी हद तक संभव है क्योंकि भाषा के संस्कार का मामला इन दोनों माध्यमों से जुड़े लोगों की ट्रेनिंग और उनकी विरासत से जुड़ा है। लेकिन जब बात टेलीविजन की आती है, तो अक्सर बड़े चैनलों के पुरोधा इसे आम लोगों की समझ और समय के अनुसार भाषा में बदलाव जैसे थोथे तर्कों से जोड़कर किनारे कर देते हैं।
      टेलीविजन में हिंदी का काफी विस्तार हो चुका है, ऊर्दू और अंग्रेजी के काफी शब्द इसमें शामिल हो चुके हैं। लिहाजा, इसके के इस्तेमाल से जुड़े कई अहम सवाल सामने हैं- पहला और सबसे अहम तो ये कि क्या मीडिया, खासकर टेलीविजन के लिए हिंदी का कोई मानक रूप होना चाहिए? ये सवाल टीवी चैनलों में घोषित या अघोषित तौर पर स्टाइल-बुक लागू करने से जुड़ा है। कई टीवी चैनलों में स्टाइल बुक का इस्तेमाल शुरु हुआ था, जिसे पहले भले ही कड़ाई से अमल में लाया जाता रहा हो, लेकिन अब ये व्यवस्था बेमानी हो चुकी है। हालांकि कुछ चीजें जो अब भी चलती हैं, मोटे तौर पर इसी व्यवस्था की देन कही जा सकती हैं। ज़ीटीवी के हिंग्लिश रूप के लिए जाहिरा तौर पर स्टाइल बुक का कोई-न-कोई खाका जरूर रहा है, बाद के दौर में ज़ी न्यूज़ में डेस्क के लोगों को आजतक और एनडीटीवी जैसे चैनलों से मुक़ाबले के लिए अघोषित तौर पर वैसी ही भाषा इस्तेमाल करने के लिए तैयार किया गया। एनडीटीवी-इंडिया में स्टार ग्रुप से अलग होने से पहले उर्दूदां जबान के इस्तेमाल पर ज़ोर था, लेकिन अब वो परंपरा खत्म हो चुकी नज़र आ रही है। दूसरे चैनलों में भी हिंदी का कमोबेश खिचड़ी रूप ही इस्तेमाल हो रहा है, लिहाजा इसके मानकीकरण की बात बेमानी ही लगती है। मानकीकरण इसलिए भी मायने नहीं रखता क्योंकि आज किसी शब्द-विशेष को कई तरीकों से लिखने की जो परंपरा चल पड़ी है, उसकी ठोस काट किसी संपादक के पास मौजूद नहीं। अगर मौजूद हो भी तो उसे अमल में लाने के झंझट में कोई नहीं पड़ना चाहता। शब्दों को लिखने के तरीके अक्सर विवाद पैदा करते हैं और अपने को सही साबित करने की चुनौती आपसी वैमनस्य भी पैदा करती है, क्योंकि इस मैदान का छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हर खिलाड़ी अपने आप को तुर्रम खां समझता है क्योंकि वो भी उसी पृष्ठभूमि से आने का दावा करता है जहां से दूसरे सहयोगी आए हों और ज्ञान किसी की बपौती तो है नहीं, ना ही तर्क और कुतर्क का मानवाधिकार किसी से छीना जा सकता है। लिहाजा हालात यही बनते हैं कि बॉस जैसे रिंगमास्टर किसी शब्द की जिस वर्तनी पर अपनी सहमति का ठप्पा लगा देते हैं, उसे ब्रह्मवचन मान कर लोग इस्तेमाल करने लगते हैं..दिलचस्प बात तो ये है कि थोड़े दिनों बाद लोग विवाद को भूल जाते हैं और पुरानी चाल पर अपने दिमाग के कहे मुताबिक फिर वही लिखने लगते हैं, जो उन्हें सही लगता है। इस प्रक्रिया में अर्थ का अनर्थ भी बड़ी आसानी से होता है, लेकिन टेलीविजन में काम करनेवाले लोगों के पास भाषा पर रिसर्च करने का वक्त कहां जो सही-गलत के पचड़े में पड़ें। यहां कुछ ऐसे शब्दों के जोड़े दिए जा रहे हैं, जिन्हें पढ़कर आप खुद फैसला कर सकते हैं कि क्या सही है और क्या गलत, या किस शब्द का इस्तेमाल कहां और किन अर्थों में होना चाहिए-
  • मलिका-मल्लिका
  • मोहब्बत-मुहब्बत
  • चित-चित्त
  • नार्को टेस्ट-नारको टेस्ट
  • दहलीज़- देहलीज़
  • तफतीश- तफ्तीश
  • शर्बत- शरबत
  • अमरीका-अमेरिका
  • जेम्स कैमरॉन- जेम्स कैमरून
  • डेविड कैमरुन-डेविड कैमरॉन
  • देसी-देशी
  • आर्कबिशप-आर्चबिशप
  • खरीदार-खरीददार
  • अंतरराष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय
  • उनतालीस-उनतालिस
  • तिरसठ-तिरेसठ
  • बाईस-बाइस
  • तेईस-तेइस
  • तिरुवनंतपुरम-त्रिवेंद्रम
  • वडोदरा-बड़ौदा
  • ताइपे-ताइपेई
  • रुवांडा-रवांडा
  • इसराइल-इज़रायल-इस्राइल
  • उल्फा-अल्फा
  • इम्तिहान-इम्तेहान
  • इंतिहा-इंतेहा
  • दास्तान-दास्तां
  • कार्रवाई-कार्यवाही
  • मिलिनियर-मिलिनेयर-मिलेनियर
-ये तो चंद उदाहरण है। इनमें कई जोड़े ऐसे हैं जिनमें दोनों शब्द सही हैं- पर अगर किसी चैनल में एक आदमी एक तरीके से और दूसरा दूसरे तरीके से लिखे तो एकरूपता नहीं होगी और बेचारा दर्शक उलझन में पड़ेगा, क्योंकि दर्शक इतनी महीन समझ रखे ही, इसकी उम्मीद नहीं कर सकते, उसे तो लगातार जो चलता दिखेगा, वही उसके लिए सही होगा। साथ ही, ऐसे शब्दों की कमी नहीं जिनके इस्तेमाल में सही-गलत के सवाल अक्सर उठते हैं। ऐसा ही वाक्य-विन्यास के मामले में भी है। टेलीविजन ग्राफिक्स में शब्दों के इस्तेमाल की सीमा होती है लिहाजा अगर सुचिंतित तरीके से समझदारी के साथ शब्दों का चयन और इस्तेमाल न किया जाए तो खबर अधूरी रह सकती है या आप अपने दर्शक तक वो सब नहीं पहुंचा सकते जिसकी वास्तव में जरूरत है। टेलीविजन के समाचार चैनलों की बाढ़ को देखते हुए मार्केट में टिके रहने और आगे निकलने की होड़ है। भाषा तो दर्शकों को माध्यम से जोड़ने का औजार है जो जितना ही पैना होगा, उतना ही गहरा वार करेगा। ऐसे में हिंदी के इस्तेमाल से जुड़े पहलू गंभीर हैं। जरूरत इस बात की है कि पत्रकारिता का प्रशिक्षण देनेवाले मीडिय़ा गुरु अपने चेलों में भाषा का संस्कार डालें और चैनलों के पुरोधा अपना चेहरा खूबसूरत रखने के लिए स्टाइल बुक की खत्म होती परंपरा को कड़ाई से पुनर्जीवित करें, भाषा के मामले में अपनी खास पहचान बनाएं। तभी चैनलों का भी भला होगा और भाषा का भी।
- कुमार कौस्तुभ
18.03.2010

Saturday, April 6, 2013

TV पर शब्दों की फिजूलखर्ची




बोलने में आपकी जेब से कुछ नहीं जाता, लिखने में भी आपकी जेब ढीली नहीं होती, शब्द संपदा बिखरी पड़ी है ठीक वैसे ही जैसे नदी में ढेर सारा पानी प्रवाहित हो रहा हो- दोउ हाथ उलीचिये यही सयानो काम- कुछ ऐसा ही परिदृश्य आजकल हिंदी टेलीविजन समाचार में शब्दों के इस्तेमाल को लेकर देखा जा रहा है। टेलीविजन पत्रकारिता की पढ़ाई करनेवालों को अक्सर थोड़ा कहा, बहुत समझनाके सिद्धांत पर चलने की व्यावहारिकता सिखाई जाती है यानी लिखिए कम, बोलिए कम और खबर ज्यादा से ज्यादा दीजिए। ऐसा इसलिए क्योंकि टेलीविजन अखबार नहीं है, जहां लंबे-लंबे कॉलम में ज्यादा से ज्यादा बात कहने की छूट हो। हालांकि बदलते आधुनिक हिंदी अखबारी परिदृश्य में इस छूट की सीमा काफी हद तक घट गई है। इसका बढ़िया उदाहरण नवभारत टाइम्स जैसे अखबार है जिनमें छोटे-छोटे न्यूज़ आइटम होते हैं और विज्ञापन से जुड़ी कारोबारी मजबूरियों के तहत सीमित स्थान में पूरी खबर देने का दायित्व होता है। हालांकि अखबारों में संपादकीय पृष्ठ भी होते हैं, जहां कुछ लंबी बातें करने की छूट होती है, जो टेलीविजन में नहीं मिलती। जाहिर है टेलीविजन की अपनी सीमा है। लेकिन समाचार की भाषा में शब्दों के इस्तेमाल के मायने में भारतीय समाचार टेलीविजन कई बार अखबार को पीछे छोड़ता दिखता है। टेलीविजन में खबर देने के कई तरीके होते हैं, ये हम सभी जानते हैं। फिर भी इस पर थोड़ी बात करनी जरूरी है। ब्रेकिंग न्यूज़, टिकर बैंड, टिकर स्क्रॉल, एंकर वीओ, स्टूडियो ग्राफिक, स्टूडियो वीओ, स्टूडियो सॉट, स्टोरी पैकेज, स्पेशल शो – आम तौर पर किसी खबर की शुरुआत से लेकर उसकी परिणति के यही चरण हैं। न्यूज़रूम में कोई भी खबर आती है तो उसके मेरिट के मुताबिक सबसे पहले उसे ब्रेकिंग न्यूज़ की पट्टी और फिर ब्रेकिंग स्टूडियो ग्राफिक और विजुअल के साथ पेश करने की कोशिश होती है। इस प्रक्रिया में खबर पेश करने के लिए शब्दों का चयन और उनका इस्तेमाल काफी महत्वपूर्ण है और यहीं आम तौर पर शब्दों की फिजूलखर्ची सबसे ज्यादा देखने को मिलती है। मसलन अगर किसी को अदालत से सज़ा हुई है तो इस खबर की पहली लाइन को एक पट्टी पर कई तरीकों से लिखा जा सकता है-
राजा को 5 साल क़ैद’,
राजा को मिली सज़ा’,
5 साल जेल काटेंगे राजा’,
राजा को हुई पांच साल की सज़ा’,
राजा को 5 साल के लिए जाना होगा जेल,
राजा जाएंगे जेल
राजा को कोर्ट ने 5 साल की सज़ा सुनाई
राजा को कोर्ट से हुई 5 साल की सज़ा
इत्यादि, इत्यादि। ठीक वैसे ही अगर क्रिकेट से जुड़ी किसी खबर की पट्टी लिखनी हो , तो उसके भी कई तरीके हो सकते हैं, मसलन-
भारत ने पहली पारी में बनाए 419 रन
भारत : पहली पारी में 419
भारतः पहली पारी-419/10’
भारत 419 पर ऑल आउट
भारत के 419 रन
चंद उदाहरणों से आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि सिर्फ एक पट्टी पर चलाने के लिहाज से दोनों खबरों में कौन-कौन सी लाइन बेहतर हो सकती हैं। लेकिन टेलीविजन समाचार के रोजमर्रा के कामकाज से जुड़े लोग किसी न किसी वजह से इसका ध्यान नहीं रख पाते और सही तरीके से खबर दर्शक तक नहीं पहुंच पाती। सीधे तौर पर ये बात पट्टी पर लिखे टेक्स्ट में झलकती है- कभी जगह कम पड़ जाती है, तो कभी जगह ज्यादा हो जाती है, जिससे पट्टी पर लिखा टेक्स्ट बड़ा या छोटा – दोनों तरह से बेढब दिखता है। दूसरी चीज, ये बात साफ नहीं हो पाती है कि आप खबर में बताना क्या चाहते हैं। क्या आप पूरी खबर देना चाहते हैं या दर्शक को अगली लाइन के लिए इंतजार करवाना चाहते हैं । आमतौर पर एक लाइन में पूरी खबर पेश करने की आदर्श स्थिति नहीं देखने को मिलती। दर्शक को खबर के लिए अगली लाइन का भी इंतजार करना ही पड़ता है और ये पट्टी बदलने की स्पीड पर निर्भर करता है कि दर्शक को कितनी जल्दी पूरी खबर मिले।  
अगर ब्रेकिंग न्यूज़ विंडो के साथ ग्राफिक के तौर या स्टूडिय़ो ग्राफिक के रूप में लिया जा रहा हो, तो और भी अजब स्थितियां स्क्रीन पर देखने को मिलती हैं। मसलन अगर आपको एक खबर को कई लाइनों में तोड़कर पेश करना हो, तो आपकी लेखन शैली की असल परीक्षा होनी ही है। यहां आपको एक साथ कई बातों का ध्यान रखना है। एक तो खबर के ज्यादा से ज्यादा हिस्से या उससे जुड़े ज्यादा से ज्यादा तथ्य ग्राफिक प्लेट्स पर दिए जा सकें। दूसरी चीज- क्या आपको टेंपलेट की सीमा का ज्ञान है- अगर आपको ये नहीं पता कि टेंपलेट पर कितने शब्द अधिकतम आ सकते हैं, तो बहुत संभव है कि आपकी खबर की पूरी लाइन ऑन एयर न हो और कुछ शब्द छूटे हुए दिखें। तीसरी बात- अगर टेंपलेट पर शब्दों की सीमा के साथ एलाइनमेंट की सुविधा नहीं दी गई तो आपके लिए खबर की लाइन लिखना और भी चुनौतीपूर्ण है। क्योंकि ऐसी स्थिति में एक लाइन बड़ी, दूसरी लाइन छोटी, तीसरी लाइन और भी छोटी या बड़ी दिख सकती और प्लेट पर ऐसा एलाइनमेंट पेश होगा जो देखने में न तो आकर्षक होगा, ना ही पूरी खबर उसमें समा सकेगी। ऐसे में आपके सामने शब्दों के चयन और उनके इस्तेमाल में सावधानी बरतने की कठिन समस्या खड़ी होती है। खासकर ब्रेकिंग न्यूज़ की स्थिति में जब आपके पास ज्यादा सोचने या टेक्स्ट को बार-बार बदलने के लिए ज्यादा वक्त नहीं होता तो अगर एलाइनमेंट या शब्द सीमा की वजह से एक मात्रा भी प्लेट पर न दिखे, तो लिखनेवाले पर मूर्खता का इल्जाम मढ़ा जाना स्वाभाविक है, भले ही वह ऐसी गलती के लिए पूर्ण रूप से दोषी न हो क्योंकि एक बात तो साफ है कि स्क्रीन पर मोटे-मोटे अक्षरों में दिखनेवाली गलती को कभी माफ नहीं किया जाता, भले ही गलती टेंपलेट की वजह से हो। ऐसे में अपने अनुभव और सूझ-बूझ के इस्तेमाल के साथ-साथ एक और बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि अगर हम लिखने में शब्दों की फिजूलखर्ची से बचें तो समस्या काफी हद तक दूर हो सकती है। उदाहरण देने की जरूरत नहीं समझता क्योंकि ऐसे ढेरों उदाहरण आपको हिंदी न्यूज़ चैनलों पर अक्सर दिख जाएंगे, जिनमें छोटी-छोटी गलतियां बड़ा नुकसान कर बैठती हैं। यही बात स्टोरी पैकेज में इस्तेमाल होने वाले ग्राफिक्स प्लेट्स, और चैप्टर प्लेट्स वगैरह में भी दिख सकती है। हालांकि उनकी तैयारी और उनमें सुधार के लिए आपके और आपके ग्राफिक्स आर्टिस्ट के पास पर्याप्त समय होता है लिहाजा, उनके इस्तेमाल में आप बेढब गलतियों से बच सकते हैं।
बात स्टूडिय़ो वीओ या एंकर वीओ या एंकर सॉट या स्टूडियो पैकेज की करें, तो इनमें भी शब्दों की फिजूलखर्ची अक्सर झलकती है। आधुनिक हिंदी न्यूज़ चैनलों के न्य़ूज़रूम में ऐसा माना जाता है और ऐसी परिपाटी भी है कि  दर्शक खबरें देखना चाहते , न कि एंकर को। ऐसे में छोटे से छोटे एंकर लीड लिखना भी कम चुनौती का काम नहीं। माना जाता है कि अगर आपको पैकेज का एंकर लीड लिखना हो, तो खबर की जानकारी सिर्फ से 2 से 3 लाइन यानी अधिकतम 15 सेकेंड में देने की क्षमता होनी चाहिए। लेकिन आमतौर पर ऐसा नहीं दिखता और 18 से लेकर 25-30 सेकेंड तक एंकर को ज्ञान देते देखा जा सकता है। एंकर सॉट के इस्तेमाल में अपेक्षा ऐसी ही होती है कि बाइट में क्या कहा गया है- ये पूरी बात एंकर के जरिए न कहलवाई जाए, बल्कि उसकी ओर इशारा भर हो। स्टूडिय़ो वीओ या एंकर वीओ या स्टूडियो ग्राफिक्स या एंकर ग्राफिक्स के इस्तेमाल में भी शब्दों की फिजूलखर्ची से बचने की कोशिश होनी चाहिए –बातें तथ्यपरक और टु दि प्वाइंट हों, ताकि दर्शक ऊबे नहीं और कम समय में पूरी खबर से रू-ब-रू हो सके।
बात स्टोरी पैकेज की हो, तो उनमें भी शब्दों की फिजूलखर्ची से बचने की सलाह दी जाती है ताकि पैकेज बोझिल न हो। खबरों से जुड़े पैकेज में विश्लेषण की छूट नहीं दी जाती। अगर स्टोरी पैकेज तथ्यपरक है, तो उसमें ग्राफिक्स का इस्तेमाल होना ही चाहिए ताकि दर्शक को बिंदुवार जानकारी मिल सके। वहीं अगर पैकेज गीत-संगीत, फिल्म या किसी और सॉफ्ट स्टोरी से जुड़ा हो, तो उसमें भी विश्लेषण की छूट कतई नहीं दी जा सकती और ऐसी अपेक्षा की जाती है कि वॉयस ओवर के बजाय ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल नेचुरल एंबिएंस का हो। अगर किसी समाचार विशेष के विश्लेषण से जुड़ा पैकेज भी तैयार करना हो, तो टेलीविजन की भाषा में फिजूलखर्ची से बचते हुए उसे हवा-हवाई भाषाई शब्द जाल से बचते हुए बिंदुओं पर आधारित ही बनाया जाना चाहिए।
बात न्यूज़रूम से निकली है तो जरा फील्ड रिपोर्टर्स तक जाना जरूरी है। रिपोर्टिंग में खबर निकालने के साथ-साथ उसे सही तरीके से पेश करना भी बड़ी कला है। लेकिन लाइव की स्थिति में खबर पेश कर रहे बहुत से रिपोर्टर्स भाषा के लिहाज से पंगु होते हैं लिहाजा शब्दों का गैरजरूरी इस्तेमाल करते पाए जाते हैं। जमाना आम-फहम बातचीत की भाषा के इस्तेमाल का है, हिंदी-इंग्लिश का मिला-जुला उपयोग भी काफी बढ़ चला है, ऐसे में रिपोर्टर्स के लिए कम और जरूरी शब्दों में खबर देना कोई बड़ी बात नहीं, जरूरत है सिर्फ थोड़ी सजगता और थोड़ी तैयारी की।
सवाल ये है कि हिंदी न्यूज़ टेलिविजन में शब्दों की फिजूलखर्ची क्यों देखने को मिलती है। इसका एक बड़ा कारण है खबर लिखने की सही ट्रेनिंग की कमी। देश में जिस वक्त प्राइवेट न्यूज़ चैनलों की शुरुआत हो रही थी, उस वक्त स्टाइल बुक का पालन करने का भी रिवाज था,जिसका सार्थक असर टीवी समाचार लेखन पर पड़ता था। अब न तो समाचार लेखन के विशेषज्ञ टेलीविजन में रहे, ना ही ट्रेनर। जो नए लोग टीवी समाचार में आते भी हैं, उनमें तर्क की क्षमता ज्यादा होती है, सीखने की नहीं। दूसरी वजह य़े कि शुरुआती दौर में हिंदी टेलीविजन समाचारों के पुरोधा काफी हद तक भाषा के प्रति आग्रही थे, लेकिन नए दौर में ये बात काफी पीछे छूट गई है। अब तो वैसे अनुभवी लोग भी टीवी समाचार में कम ही हैं जिनकी बात गांठ बांधी जा सके। ऐसे में हिंदी न्यूज़ टेलीविजन में शब्दों का नाजायज इस्तेमाल ज्यादा होने लगा है, जो एक नए किस्म का माहौल तैयार कर रहा है।
-कुमार कौस्तुभ, 06-04-2013,  16.33 PM

Friday, April 5, 2013

TV स्क्रीन पर अखबार!


सुनने में आपको भले ही अजूबा लगे, लेकिन रोज ब रोज आप देखें तो साफ हो जाएगा कि भारतीय न्यूज़ टेलीविजन की एक बड़ी सच्चाई यही है कि अब आपका टेलीविजन स्क्रीन अखबार की शक्ल ले चुका है। अखबार यानी खबरों का पुलिंदा, खबरों से भरे पन्ने, काले हरफों से भरपूर सफेद पन्ने। स्टील तस्वीरें। ढेर सारे विज्ञापन। सही है न आपको यही सब तो न्यूज़ चैनलों पर दिखता है। फर्क सिर्फ इतना है कि कागजी अखबार में खबरें उतनी तेजी से अपटेड नहीं होतीं, जितनी तेजी से टेलीविजन या इंटरनेट की खबरी वेबसाइट पर होती हैं। खबरी वेबसाइट शायद अखबारों के ज्यादा करीब हैं क्योंकि उनमें पेज बदलने की या एक पन्ने से दूसरे पन्ने पर जाने और पिछले पन्ने पर फिर से वापसी की सहूलियत होती है, जो टेलीविजन में नहीं होती। टेलीविजन न्यूज़ चैनल के स्क्रीन का हर पन्ना आम तौर पर नया होता है, कुछ न कुछ नयापन लिये होता है, पिछले पन्ने या गुजर चुकी खबरों पर वापसी तब तक वापसी नामुमकिन होती है, जब तक कि न्यूज़ चैनल की ओर से किसी खास प्रयोजनवश या फिर FPC  यानी फिक्स्ड् प्वाइंट चार्ट की मजबूरी के तहत उसे रिपीट न किया जाए। पुराना माल दोहराते वक्त भी अपडेट करने की पूरी गुंजाइश रहती है और ऐसा होता भी है यानी बात फिर वही कि टेलीविजन का हर बुलेटिन किसी न किसी रूप में नया होता है, ताजा होता, बासी नहीं होता, हां उबाऊ हो सकता है क्योंकि उसकी अपनी सीमाएं हैं और दर्शकवर्ग की अपनी उम्मीदें और आकांक्षाएं हैं, जिन पर हमेशा खरा उतरना न तो संभव है, ना ही इसके पीछे कोई मजबूरी होती है। अगर आपने टेलीविजन पर एक बार कोई बुलेटिन देखा तो आखिर एक या दो या चार घंटे बाद उसमें कितना नयापन हो सकता है- ये कई चीजों पर निर्भर करता है। पहली बात ये कि बुलेटिन रिपीट करने तक कितनी नई खबरें उसमें शामिल की गई हैं। दूसरी बात ये कि कितनी पुरानी खबरों में नए बिन्दु जुड़े हैं और तीसरी और सबसे अहम बात ये कि बुलेटिन का कलेवर और प्रस्तुति कितना बदला है। प्रस्तुति तो एंकर या प्रेजेंटर के बदलने के साथ बदल सकती है- देखना ये होगा कि अलग-अलग एंकर किसी एक खबर को कितने तरीकों से पेश करते हैं- हालांकि ये भी काफी हद तक प्रस्तुतकर्ता यानी प्रोड्यूसर और बुलेटिन तैयार करनेवालों पर निर्भर करता है कि क्या वो एंकर को स्टूडियो लीड कुछ बदलाव के साथ पढ़ने के लिए दे रहे हैं, क्या वो स्टोरी पैकेज में या हरेक आइटम में किसी न किसी स्तर पर कुछ वैल्यू एडिशन करके बुलेटिन में शामिल कर रहे हैं या फिर जैसे का तैसा उसे रिपीट कर दे रहे हैं। ऐसी स्थिति आमतौर पर रात के बुलेटिन या समाचार आधारित शो को सुबह के वक्त रिपीट करने में अक्सर देखी जाती है , लिहाजा वही दर्शक जिसने रात का बुलेटिन या कोई शो देखा हो, वो सुबह उसी प्रस्तुति को देखने के लिए चैनल पर रुक नहीं सकता- ये आदर्श स्थिति है, जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता। हां, ये सच है कि आप अपने मनमुताबिक किसी भी बुलेटिन या शो को नहीं देख सकते, लेकिन आप अखबार के हर पन्ने को जब जी चाहे, अपनी इच्छानुसार पढ़ जरूर सकते हैं। ये तो टेलीविजन और अखबार का बुनियादी फर्क है जो हमेशा बरकरार रहेगा । लेकिन जब ये कहा जाता है कि टेलीविजन न्यूज़ चैनल अखबार की जगह ले रहा है, तो कई और बिंदुओं पर विचार करना जरूरी हो जाता है।
अखबार और टेलीविजन के बीच घटती दूरी का सबसे बड़ा उदाहरण है उन खबरों को न्यूज चैनलों पर परोसा जाना, जो सुबह के अखबार में छप चुकी होती हैं। सवाल उठता है कि क्या अखबार टेलीविजन न्य़ूज़ चैनलों पर हावी हो रहे हैं। विस्तार से गौर करें तो ये बात काफी हद तक ठीक लगती है। आमतौर पर भारत में टेलीविजन के न्यूज़ चैनलों की रोजाना दशा और दिशा अखबारी खबरें तय करती हैं। वजह – क्या टेलीविजन के पत्रकारों के पास वो खबरें सुबह तक नहीं होतीं, जो अखबारों के पास रात को ही आ जाती हैं, जिससे वो उन्हें छाप कर पाठकों तक पहुंचा देते हैं, क्या टेलीविजन पत्रकारों को खबरों की परख नहीं, समझ नहीं या उन पर पकड़ नहीं? – वजहें चाहे जो भी हों, लेकिन बड़ा सच ये है कि अखबारी खबरों, खासकर राजनीतिक खबरों के आधार पर ही आमतौर पर टेलीविजन का डेप्लान तैयार होता है और सुबह 6 बजे से मध्यरात्रि तक उन्हीं खबरों की बाल की खाल निकाली जाती है, जिन्हें अखबार पहले ही छाप चुके होते हैं। टेलीविजन न्यूज़ चैनलों की अपनी सीमाएं हैं। ऐसा माना जाता है कि विजुअल मीडियम होने की वजह से टेलीविजन के पत्रकारों को अपनी किसी भी खबर को चलाने के लिए तस्वीरों और ध्वनि का सहारा लेना पड़ता है ताकि खबर की सत्यता प्रमाणित हो सके। तस्वीरें किसी घटना की हो सकती हैं, या दस्तावेजों के रूप में हो सकती हैं, या फिर किसी खास व्यक्तिविशेष की आवाज के जरिए किसी खबर को पुष्ट किया जा सकता है। लेकिन जब कोई खबर अखबार में छप चुकी होती है तो उसे इस्तेमाल करने के लिए किसी विजुअल या ऑडियो रिसोर्स की बाध्यता नहीं होती क्योंकि खबर की पुष्टि हो चुकी होती है और आम तौर पर खंडन तभी होता है जब खबर आरोप-प्रत्यारोपों से जुड़ी हो। भले ही टेलीविजन की अपनी सीमा है, और कितनी भी दलीलें क्यों न दी जाएं लेकिन अखबारी खबरों का इस्तेमाल कहीं न कहीं इस कड़वी सच्चाई को जरूर दर्शाता है कि टेलीविजन पत्रकारिता अखबारी पत्रकारिता से कहीं न कहीं पिछड़ जरूर रही है। तमाम आधुनिक संसाधनों और सुविधाओं के होते हुए अखबारी खबरों का इस्तेमाल ये साफ कर देता है कि टीवी पत्रकार खबरों की दौड़ में पीछे रह जाते हैं। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक खबरों के मामले में ऐसा अक्सर देखने को मिलता है। हां, दुर्घटना और हादसों से जुड़ी खबरों के मामले में टीवी जरुर आगे निकल जाता है और वो खबरें पहले टीवी पर फिर अखबारों में देखने को मिलती हैं – जिसकी वजह ये है कि अखबार की भी अपनी सीमा है और जिम्मेदारी है दिनभर की खबरों को समेटकर अगली सुबह पाठकों के सामने पेश करने की। जमाना बदल गया है और हमारे पास खबर हासिल करने के तमाम संसाधन हैं, ऐसे में अखबार की कोई बड़ी खबर बासी भले ही लगे, लेकिन अक्सर अखबार टेलीविजन को पछाड़ते दिखते हैं और आगे भी निकल जाते हैं क्योंकि वही टेलीविजन प्रोग्रामिंग का एजेंडा तय करते हैं।
अखबार और टेलीविजन में दूर होते फर्क का दूसरा अहम नमूना है टीवी स्क्रीन पर बढ़ता टेक्स्ट का चलन। टेलीविजन पत्रकारिता के छात्रों को सबसे पहले आमतौर पर यही पढ़ाया जाता है कि टेलीविजन ऑडियो-विजुअल माध्यम है और टेलीविजन पर समाचारों की प्रस्तुति का मकसद है तस्वीरों और आवाज के माध्यम से खबरों की प्रस्तुति, खासकर ये सिद्धांत सामने आता रहा है कि टेलीविजन में शब्दों का कम से कम इस्तेमाल हो और विजुअल और ऑडियो के जरिए ही खबरी घटनाक्रम को बयां करने की प्रैक्टिस हो। सैद्धांतिक तौर पर ये स्थिति बेहद महत्वपूर्ण है, दुनियाभर के टेलीविजन न्यूज़ चैनलों में इसका पालन होता है और कोशिश ये होती है कि दर्शकों को खबरी घटनाक्रम से ज्यादा से ज्यादा जोड़ा जाए। विजुअल ताकतवर हों, आवाज दमदार हो, तो खबर का हर पहलू खुद-ब-खुद खुलकर सामने आ सकता है- ये सिद्धांत भी काफी अहम है। लेकिन हर खबर के लिए विजुअल और ऑडिय़ो तत्व मौजूद हों, ये संभव नहीं। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए ग्राफिक्स और एनिमेशन के इस्तेमाल की परंपरा शुरु हुई, ताकि जिन बातों को कहने के लिए तस्वीरें न हों, उन्हें ग्राफिक्स और एनिमेशन के जरिए बयां किया जाए। ग्राफिक्स और एनिमेशन ने अपनी इस भूमिका को हद से ज्यादा निभाय़ा है। बल्कि कहना न होगा कि समाचार प्रस्तुति में उन्होंने नए आयाम भी जोड़े हैं। खबरों से लेकर बुलेटिन और खास कार्यक्रमों तक को नया और आकर्षक कलेवर देने में ग्राफिक्स और एनिमेशन से जुड़े तत्वों की बेहतरीन भूमिका है। साथ ही, जहां तक खबरों का सवाल है तो हर पल बदलते फ्रेम के साथ बदलते दर्शकों को घटनाक्रम से जोड़े रखने, उससे इंट्रोड्यूस कराने में टेक्स्ट यानी शब्दों की भूमिका भी कम नहीं । और यही वो स्थिति है जो टेलीविजन को अखबार के और करीब ले जाती है। अगर आप टेलीविजन के न्य़ूज बुलेटिन की किसी स्टोरी को देखें तो उसमें कई ऐसे तत्व नजर आते हैं जहां टेक्स्ट की प्रमुखता है – टॉप बैंड, लोअर बैंड, नेम सुपर/एस्टन, चैप्टर प्लेट, प्वाइंटर प्लेट्स, टू विंडो, थ्री विंडो, फोर विंडो वगैरा तमाम चीजें आजकल किसी भी आम या खास न्यूज स्टोरी पैकेज के अभिन्न अंग दिखते हैं। इनके अलावा, जैकेट, नाउ शोइंग बग, कमिंग अप बैंड, चैनल लोगो, टाइम बैंड, टिकर, न्यूज स्क्रॉल आदि-आदि तो हमेशा स्क्रीन पर दिखनेवाली चीजें हैं। यानी कुल मिलाकर स्क्रीन का 50 से साठ फीसदी हिस्सा टेक्स्ट आधारित इन्हीं ग्राफिक्स एलिमेंट्स के नाम हो जाता है । ये चीजें स्क्रीन पर आती जाती रहती हैं लिहाजा विजुअल्स की निरंतरता को प्रभावित करती हैं। दर्शक बार-बार डिस्टर्ब होता है और स्टोरी से नहीं जुड़ पाता ऐसा कई लोगों का मानना है । वैसे कई टेलीविजन विशेषज्ञ ये भी मानते हैं कि स्क्रीन पर जल्दी-जल्दी बदलाव दिखता है तो नयापन दिखता है और दर्शक ऊबता नहीं। मान्यताएं अलग-अलग हो सकती हैं। लेकिन इस सच्चाई से कतई इंकार नहीं किय़ा जा सकता है कि स्क्रीन पर विजुअल से ज्यादा टेक्स्ट का दिखना किसी टेबलॉयड को पढ़ने से कम नहीं जिसमें बड़ी तस्वीरें और छोटे-बड़े टेक्स्ट से पेज भरा होता है।
भारत में न्यूज़ टेलीविजन अब भी संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। एक तरफ टीआरपी की होड़ में गलाकाट प्रतियोगिता और उससे जुड़ी नकल की भेड़चाल है, तो दूसरी ओर अपने-अपने स्क्रीन को अलग दिखाने की कोशिश । ऐसे में टेलीविजन और अखबार की बढ़ती करीबी या बढ़ता तालमेल खबरों के हिसाब से भले ही जरूरी हो, लेकिन मजबूत टेलीविजन पत्रकारिता के लिहाज से कतई प्रासंगिक नहीं है।
-          कुमार कौस्तुभ, 05.04.2013, 17.49 PM