Sunday, January 12, 2014

TV प्रोग्राम, परिकल्पना, शोध और कुछ जरूरी मुद्दे



साल 2013 में भारत के हिंदी न्यूज़ चैनल एबीपी न्य़ूज़ पर प्रसारित कार्यक्रम प्रधानमंत्री की बेहद तारीफ हुई। भारत की स्वाधीनता के बाद के राजनीतिक-एतिहासिक परिदृश्य पर बनाया गया ये कार्यक्रम कई वजहों से काबिले-तारीफ भी रहा और काबिले-गौर भी। मशहूर फिल्मकार शेखर कपूर की एंकरिंग ने देश के राजनीतिक-एतिहासिक घटनाक्रम को बड़े सलीके से बांधा। वहीं, कार्यक्रम की सधी हुई स्क्रिप्टिंग ने घटनाक्रम के प्रमुख बिंदुओं को बड़े ही सुंदर तरीके से उभारने की कोशिश की। इसी दौर में आजतक चैनल की ओर से कबीर बेदी ने वंदे मातरम नाम का कार्यक्रम प्रस्तुत किया, जिसकी उतनी तारीफ तो नहीं हुई, भले ही रेटिंग्स में दोनों कार्यक्रम एक-दूसरे से कड़ी टक्कर लेते रहे हों। जाहिर है, ऐसे कार्यक्रमों की रीढ़ सिर्फ स्क्रिप्टिंग ही नहीं, उनकी शानदार एडिटिंग और सबसे बढ़कर उनके पीछे छुपा हुआ शोध होता है। शोध की जरूरत कार्यक्रम की परिकल्पना से बनती है और साथ में ये भी तय करना होता है कि कार्यक्रम का क्या लक्ष्य है और उसके लिए कितनी मेहनत की जानी है। ये पूरी प्रक्रिया कई तरह के सवाल खड़े करती है, जो प्रधानमंत्री और वंदे मातरम जैसे कार्यक्रमों के अलावा तकरीबन हर ऐसे करंट अफेयर्स कार्यक्रम के पीछे रहते हैं, जो कई कड़ियों में पेश किए जानेवाले हों।
टीवी के समाचार चैनलों पर प्रधानमंत्री या वंदे मातरम या फिर कुछ अरसा पहले प्रसारित परमवीर चक्र जैसे कार्यक्रमों की परिकल्पना ही अपने-आप में एक अहम मुद्दा है। आखिर, रोज घट रही घटनाओं को समाचार के रूप में दिखानेवाले चैनलों को भला एतिहासिक घटनाक्रम को रिविजिट करने, उसके पुनर्पाठ, उसके नाट्यांतर की जरूरत क्यों पड़ती है? इसका कोई संदर्भ होना चाहिए। अमूमन संदर्भ तो तलाश लिए जाते हैं। आम चुनावी साल से पहले देश में बदलते राजनीतिक दौर, नेतृत्व के सवाल, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रम जैसी कई चीजें इससे जुड़ी हो सकती हैं। कुछ नहीं तो, आम दर्शकों को राजनीतिक बदलावों के इतिहास से परिचित कराना भी एक मकसद हो सकता है, जो शायद एंटरटेनमेंट चैनलों में उतनी गंभीरता से संभव नहीं, जितनी गहराई और संजीदगी से समाचार और करंट अफेयर्स चैनलों में संभव है। तीसरा एक संदर्भ टीवी चैनलों की आपसी प्रतिद्वंद्विता और एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ का भी है।
भारत में टीवी के समाचार चैनलों की भीड़ में एक-दूसरे या सबसे अच्छे या फिर प्रतिद्वंद्वी चैनल की नकल की प्रवृति आमतौर पर देखी जाती है। मकसद ये होता है कि एक चैनल अपनी पेशकश के जरिए दूसरे को रेटिंग्स में पछाड़ दे। इसके लिए एक ही या मिलते-जुलते टाइम स्लॉट्स में मिलते-जुलते थीम के कार्यक्रम पेश करने की कोशिश देखी जाती है। प्रतियोगिता के दौर में आगे बढ़ने का ये फंडा मुकम्मल है और टीवी के गंभीर दर्शकों को भी इसके जरिए तरह-तरह की मानसिक खुराक मिलती है, तो नए दौर के, युवा और किशोर दर्शकों को उन घटनाक्रम से परिचित होने और अपना सामान्य ज्ञान मजबूत करने का मौका मिलता है, जो इतिहास के पन्नों में और मोटी-मोटी किताबों या नेशनल आर्काइव्स के दस्तावेजों में मौजूद हों। आमतौर पर ऐसी चीजों की खोज वही करते हैं, जिन्हें उनके बारे में कोई खास जरूरत हो, मसलन, इतिहास के छात्र, अध्येता, या कोई और। लेकिन टीवी पर ऐसे कार्यक्रमों के प्रसारण से आम दर्शकों को, खासकर युवा और किशोर दर्शकों को भी उन जानकारियों से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है, जो देश की रचना, इसके विकास की प्रक्रिया में शामिल हैं। हर देश के प्रबुद्ध नागरिक के लिए मोटे तौर पर देश के इतिहास और राजनीति का ज्ञान होना जरूरी माना जाता है, वैसे, ना भी जानें तो कोई बात नहीं। लेकिन अपनी राष्ट्रीय अस्मिता, संस्कारों और परंपराओं को जानने के लिए एतिहासिक घटनाक्रम से कुछ हद तक परिचित होना ही चाहिए। बहरहाल, ये मुद्दा अलग है। पर टेलीविजन के समाचार चैनलों में एतिहासिक-राजनीतिक घटनाक्रम को विश्लेषण के जरिए दिखाने का जो चलन दिखा है, वो काफी हद तक बुरा नहीं है। दिक्कत तब आती है, जब उन घटनाक्रम के टीवीकरणमें कहीं कोई तथ्यात्मक या कोई और ऐसी भूल हो जाए, जिससे बेवजह गलतफहमियां पैदा हों। यही वो पक्ष है, जहां, कड़ियों में प्रसारित होनेवाले करंट अफेयर्स कार्यक्रमों के लिए कसे हुए शोध की जरूरत महसूस होती है।
आमतौर पर टीवी के समाचार चैनलों में शोध यानी रिसर्च का सेक्शन हुआ करता है, जिससे जुड़े लोगों का काम जरूरी मुद्दों, घटनाओं पर बैकग्राउंडर मुहैया कराना होता है। यही लोग आम तौर पर चैनलों की मॉनिटरिंग भी करते हैं और साथ ही साथ अखबारों, वेबसाइट्स और अन्य स्रोतों से खबरिया महत्व की चीजें टीवी चैनल के इनपुट और आउटपुट डेस्क को मुहैया कराते हैं। दसेक साल पहले तक रिचर्स से जुडे लोगों का काम अखबारों की क्लिपिंग्स सहेजकर रखना होता था, लेकिन अब तमाम अखबार इंटरनेट पर उपलब्ध हैं, इसलिए इस काम का तरीका कुछ बदल गया है। आमतौर पर रिसर्च के लोगों से खबरों के बैकग्राउंडर मांगे जाते हैं और बड़े स्तर पर करंट अफेयर्स कार्यक्रमों की परिकल्पना सामने आने पर उनके बारे में भी जानकारी मुहैया कराने को कहा जाता है। जो जानकारियां वो तमाम स्रोतों, वेबसाइट्स, किताबों से खंगालते हैं, वो प्रोग्राम के प्रोड्यूसर, स्क्रिप्ट राइटर और अन्य लोगों को दी जाती है, ताकि उसके आधार पर वो कहानी की कड़ियां, या यूं कहें कि प्रोग्राम को शक्ल देने के लिए परिकल्पना के मुताबिक, घटनाक्रम का तानाबना बूनकर स्क्रिप्ट या लिखित रूप में ढांचा तैयार करें और फिर उसे आगे बढ़ाया जा सके। इस प्रक्रिया में बहुत से ऐसे लोगों से बातचीत की जरूरत पड़ती है, जो मुद्दे को समझते हों, उसके बारे में गहराई से जानकारी रखते हों। ऐसे लोगों से बातचीत करने, उनका इंटरव्यू करने या उनकी साउंड बाइट्स लेने का काम आमतौर पर रिपोर्टिंग के लोगों को सौंपा जाता है। यानी सरल तरीके से देखें तो कार्यक्रम निर्माण की प्रक्रिया की रूपरेखा कुछ इस तरह बनती है-

परिकल्पना (प्रोड्यूसर/एग्जेक्यूटिव प्रोड्यूसर)->
रिसर्च ( जानकारी) ->
।---------------------------------àरिपोर्टर्स ( इंटरव्यू-बातचीत-साउंड बाइट्स)
->स्क्रिप्ट राइटर ( स्क्रिप्ट)
-> एडिटिंग ( वीडियो एडिटर )
                                                                                                             

यानि, रिसर्च से मिली जानकारी और स्क्रिप्ट तैयार करने के बीच रिपोर्ट्स की भूमिका उन जानकारों से बाइट्स लाने की होती है, जो मुद्दे पर अहम जानकारियां दे सकें और कार्यक्रम को अपनी मौजूदगी से समृद्ध भी कर सके। साथ ही, रिपोर्टर्स से आवश्यकतानुसार जरूरी लोकेशन से पीस-2-कैमरा देने को भी कहा जा सके, जिसकी जरूरत कार्यक्रम को जीवंत बनाने और उसे समृद्ध करने के लिए होती है। लेकिन असल में दिक्कत तब पेश आती है, जब स्क्रिप्ट राइटर और रिपोर्टर में तालमेल न हो यानि ऐसी स्थिति जब प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर रिपोर्टर को ये न समझा सकें कि उन्हे रिपोर्टर से क्या चाहिए या फिर रिपोर्टर ये न समझ सकें कि उन्हें क्या करना है, अमुक आदमी से किस तरह के सवाल पूछने हैं, क्या उत्तर लेना है, जो प्रोग्राम के हिसाब से मुकम्मल हो। जब प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर खुद ही संबंधित लोगों से इंटरव्यू करने जाएं तो ऐसी स्थिति पैदा नहीं होती। बल्कि, यही आदर्श स्थिति है कि प्रोड्यूसर और/ या स्क्रिप्ट राइटर ही प्रोग्राम के लिए जरूरी जानकार लोगों, विशेषज्ञों के चयन करें और उनसे बातचीत करने जाएं। ये आदर्श स्थिति एंटरटेनमेंट चैनलों या नॉन-फिक्शन, करंट अफेयर्स प्रोग्राम दिखानेवाले चैनलों में हो सकती है, जहां प्रोग्रामिंग टीम का स्वरूप भिन्न होता है। लेकिन टेलीविजन के समाचार चैनलों में आमतौर पर स्थिति अलग दिखती है, चुनिंदा जगहों को छोड़कर, जहां कार्यक्रमों के लिए तय टीमों के लोगों पर ही अपनी जरूरत के मुताबिक विशेषज्ञों को लाइन अप करने और उनसे बात करने का जिम्मा होता है। अमूमन टीवी के समाचार चैनलों में विशेषज्ञों से बातचीत या इंटरव्यू करना और साउंड बाइट हासिल करना रिपोर्टर्स का ही काम होता है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि रिपोर्टर्स के संपर्क तगड़े होते हैं और जानकारों, विशेषज्ञों और ऐसी शख्सियतों से उनका मिलना-जुलना भी होता है, जिनकी बाइट्स प्रोग्राम में जान डाल सकती हैं। तो एक तरीके से बाइट लाना उनकी जिम्मेदारी भी बन जाती है और दूसरे रूप में देखें, तो टीम वर्क होने और मैनपॉवर का सदुपयोग करने की मानसिकता की वजह से ये काम उन्हीं को सौंप भी दिया जाता है।
लेकिन उपरोक्त दोनों प्रक्रियाओं के जरिए जो कमी सामने आती है, वो ये कि कई बार रिपोर्टर प्रोग्राम की जरूरत के मुताबिक माल ( बाइट, इंटरव्यू ) लाने में असफल रहते हैं। इसकी एक वजह तो ये है कि प्रोग्राम से उनका सीधा नाता नहीं होता, अक्सर मुद्दे की समझदारी भी नहीं होती, ना ही जिस व्यक्ति से वो बात करने जा रहे हैं, उससे बातचीत के लिए जरूरी तैयारी होती है। ऐसे में वो दिए गए थीम पर चंद सवाल पूछकर अपनी ड्यूटी पूरी कर लेते हैं। ऐसा भी कई बार देखा गया है कि प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर की ओर से चंद सवाल तैयार करके दे दिए जाते हैं और रिपोर्टर उन्हीं सवालों के जवाब लेकर आ जाते हैं। इस तरीके से अगर बातचीत में किसी हद तक और विशेष या दिलचस्प जानकारियां उगलवाने की संभावना भी नगण्य हो जाती है। कई बार मजबूरी में, चुंकि मुद्दे का जानकार, विशेषज्ञ दूसरे शहर में या दूसरे देश में हो, तो बाइट और इंटरव्यू के लिए रिपोर्टर्स पर निर्भर रहना लाजिमी है। ऐसी स्थितियों में भी अगर प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर और रिपोर्टर्स के बीच मुद्दे पर चर्चा न हो तो काम की चीज मिलेगी या नहीं, इस पर संशय बरकरार रहता है। मुद्दे के जानकारों और विशेषज्ञों से प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर की सीधी बात इसलिए भी जरूरी है कि अनौपचारिक बातचीत के दौरान भी मुद्दे पर कई अहम जानकारियां और एंगल मिल सकते हैं जिनके आधार पर प्रोग्राम समृद्ध और सुंदर बन सकता है। लेकिन ऐसा कम ही देखा जाता है क्योंकि समाचार चैनलों में इस तरह की प्रक्रिया की परिपाटी नहीं के बराबर है।
एक और अहम मुद्दा प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर के रिसर्च सेक्शन से संबंध का है। आमतौर पर टेलीविजन के समाचार चैनलों में किसी भी मुद्दे पर प्रोग्राम जल्दबाजी में झटपट तरीके से बनते हैं। ऐसे में टीम वर्क के तहत रिसर्च सेक्शन से मुद्दे पर जानकारियां मांगी जाती हैं और उन्हें ऐसे प्रोड्यूसर्स और स्क्रिप्ट राइटर्स को सौंप दिया जाता है, जिनका मुद्दे से बहुत लेना-देना न हो। ऐसे में मिली हुई जानकारी और अधकचरी समझ का सहारा लेकर प्रोड्यूसर्स प्रोग्राम की दिशा तय करते हैं और स्क्रिप्ट राइटर्स डेडलाइन के अंदर तय रूपरेखा और ढांचे के तहत स्क्रिप्ट छाप (!) कर रख देते हैं। ये पूरी तरह मशीनी प्रक्रिया है, जिसके तहत किसी भी प्रोग्राम का बेड़ा गर्क होना कोई बड़ी बात नहीं। किसी जटिल मुद्दे की सही समझ न होने पर प्रोग्राम की दिशा गड़बड़ा सकती है। गहराई से जानकारी न होने पर तथ्यात्मक भूलें भी हो सकती हैं। हालांकि ऐसा न हो, इसके लिए कड़ी मेहनत की जाती है और काफी ख्याल रखा जाता है। कुछेक गंभीर प्रोग्राम ही ऐसे हो सकते हैं, जिन्हें तमाम भूलों से बचकर तैयार किया गया हो और इसके लिए जाहिर है, चैनल की प्रोग्रामिंग टीम को किसी भी स्तर पर कोई समझौता नहीं करना पड़ा होगा। परंतु, आमतौर पर टीवी चैनलों की फैक्ट्रियों में बननेवाले प्रोग्राम में ब्लंडर की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। शुक्रिया, उन करोड़ों दर्शकों का, जो खुद भी मुद्दे से बहुत परिचित नहीं होते और किसी भी प्रोग्राम की ग्राफिक्स, एनिमेशन से सजावट और बाहरी मुलम्मे के साथ-साथ विशेषज्ञों की सार्थक बाइट्स के मायालोक में फंसकर उसकी तारीफ करने से नहीं चूकते, जो रेटिंग्स में बदलकर चैनल की लोकप्रियता को दर्शाती है।
जाहिर है, किसी भी मुद्दे पर छोटा या कई कड़ियों का मुकम्मल टीवी प्रोग्राम  तैयार करने के लिए गहन रिसर्च की जरूरत है ताकि उसके बारे में सही समझदारी बन सके। इसके लिए, यदि प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर खुद रिसर्च में जुटें तो बात आसानी से बन सकती है। साथ ही, अगर जानकारों और विशेषज्ञों से बातचीत भी प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर खुद करें तो स्थिति और बेहतर हो सकती है। लेकिन, टेलीविजन के समाचार चैनलों की प्रोग्रामिंग टीमों पर पहले ही इतना भार रहता है कि वो कहां इतना समय किसी एक प्रोग्राम को दे सकते हैं। समाचार चैनलों पर भारत-एक खोजया इस तरह के चुनिंदा कार्यक्रमों की उम्मीद करना यूं तो बेमानी है, लेकिन प्रक्रिया में सुधार की गुंजाइश हमेशा है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
एक बड़ी कमी जो टीवी के समाचार चैनलों में खलती है, वो ये कि विषय विशेष पर विशेषज्ञ या जानकार प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर अक्सर नहीं होते। प्रोड्यूसर्स तकनीकी तौर पर माहिर हो सकते हैं, स्क्रिप्ट राइटर्स भाषा और स्क्रिप्ट की दिशा तय करने में पारंगत हो सकते हैं, लेकिन विषय विशेष की विशेषज्ञता की कमी उन्हें अक्सर Jack of All Trades, Master of Noneही बना डालती है। ऐसे में किसी विशेष मुद्दे के लिए प्रोड्यूसर्स और स्क्रिप्ट राइटर्स की कमी उन रिपोर्टर्स के जरिए पूरी की जाती है, जो खास बीट देखते हों। मसलन, ऐसा माना जा सकता है कि राजनीतिक मामलों के रिपोर्टर राजनीति से जुड़े मुद्दों की समझ रखते हैं, मेट्रो के रिपोर्टर दिल्ली-मुंबई से जुड़े मामले समझते हैं, उनकी जानकारी रखते हैं। खेल, एंटरटेनमेंट, सिनेमा, बिज़नेस के मामलों में ऐसा होता भी है। लेकिन, इतिहास, राजनीति, विज्ञान, भूगोल जैसे मामलों में काम कॉमन प्रोड्यूसर्स और स्क्रिप्ट राइटर्स से ही चलाना पड़ता है। वजह ये है कि चैनलों में विषय-विशेष की समझदारी रखनेवालों को प्रोड्यूसर-स्क्रिप्ट राइटर रखने का चलन ही नहीं है, क्योंकि रोजाना ऐसी जरूरत पड़ती नहीं। यहां तो ऐसे ही लोग चलते हैं, जो हरफनमौला हों- हर विषय पर पकड़ रखने के दावे करते हों। ऐसे में नुकसान टीवी के समाचार चैनल देखनेवाले दर्शकों का हो रहा है, जिनकी चिंता शायद किसी भी चैनल को नहीं है।
-          कुमार कौस्तुभ

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