चलो चंपारण! Chalo Champaran
This is about Champaran region. All people of Champaran, people interested in Champaran are welcome here. चम्पारण के और चम्पारण में दिलचस्पी रखनेवाले लोगों का स्वागत है...अपने विचारों और जानकारियों से इस पेज को समृद्ध करें.
Tuesday, October 15, 2019
Monday, September 16, 2019
मोतिहारी पर केंद्रित पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य
मोतिहारी पर केंद्रित शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक के लिए मोतिहारी शहर पर केंद्रित लेख, संस्मरण आमंत्रित हैं।
कृपया मोतिहारी के, मोतिहारी से जुड़े लोग ईमेल करें-
kumarkaustubha@gmail.com
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kumarkaustubha@gmail.com
Monday, April 9, 2018
10 अप्रैल 2018 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मेरे गृहनगर मोतिहारी में “चंपारण सत्याग्रह शताब्दी” समापन वर्ष के कार्यक्रम में शिरकत
करने पहुंच रहे हैं। इस
अवसर पर “सत्याग्रह सत्याग्रह से स्वच्छाग्रह” कार्यक्रम का
आयोजन भी किया जा रहा है। इस कार्यक्रम के लिए बड़े जोर शोर से “चलो चंपारण” अभियान चलाया गया। यह महज संयोग ही है
कि इससे कई साल पहले 2007 में 14 जून को मैंने “चलो चंपारण” के
नाम ही से ब्लॉग शुरु किया था, जो आज भी जिंदा है। कोशिश है चंपारणी लोगों को अपनी
माटी से जोड़ने की और इस ब्लॉग को चंपारण की गतिविधियों का वाहक बनाने की। आप भी
इस प्रयास में शामिल हों और इसे समृद्ध करें।
Thursday, June 23, 2016
“महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय में जल्द शुरु होंगे एडमिशन, बिहार के छात्रों को नहीं जाना होगा दिल्ली”
महात्मा
गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार के पहले कुलपति प्रो. अरविंद
अग्रवाल से खास बातचीत
इंटर
टॉपर घोटाले को लेकर चर्चित बिहार की शिक्षा व्यवस्था के अंधकारमय परिदृश्य में
रोशनी की तरह आई है एक नई खबर। पूर्वी चंपारण जिला मुख्यालय मोतिहारी में खुले
महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय में एडमिशन की प्रक्रिया आनेवाले चंद दिनों
में शुरु हो जाएगी और सबसे खास बात ये है कि इस विश्वविद्यालय में एमए, एमएससी,
एमफिल-पीएचडी के बजाय बीए, बीएससी, बीकॉम जैसे कोर्स पहले शुरु किये जा सकते हैं।
इस विश्वविद्यालय के रूप में बिहार को मिलने जा रहा है शिक्षा का एक और बड़ा
केंद्र जो इंटरमीडिएट के बाद आगे का रास्ता तलाशनेवाले बहुत से छात्रों को शानदार
करियर की राह दिखाएगा। इसकी शुरुआत महात्मा गांधी की भारत में पहली कर्मभूमि और अंग्रेज साहित्यकार जॉर्ज
ऑरवेल की जन्मभूमि, पूर्वी चंपारण जिले के मुख्यालय, मोतिहारी में हो रही है। भारत
में महात्मा गांधी के पहले सत्याग्रह- चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने के
मौके पर बिहार के पूर्वी चंपारण जिला मुख्यालय मोतिहारी में केंद्रीय
विश्वविद्यालय की स्थापना हुई है।
किस
तरह का होगा ये विश्वविद्यालय और बिहार के छात्रों को इससे क्या फायदे होंगे, इस
सिलसिले में विश्वविद्यालय के कुलपति और देश के जानेमाने समाजशास्त्री प्रो.
अरविंद अग्रवाल ने विस्तार से बताया। प्रो. अग्रवाल ने बिहार के माहौल, वहां की
शिक्षा और नए विश्वविद्यालय के बारे में हमसे बेबाक बातचीत की। पेश है, प्रो.
अग्रवाल से बातचीत-
“केंद्रीय
विश्वविद्यालय रोकेगा छात्रों का पलायन”
सवाल- महात्मा गांधी केंद्रीय
विश्वविद्यालय किस तरह का विश्वविद्यालय होगा, आपके मन में इसकी क्या रूपरेखा है,
विश्वविद्यालय के बारे में आपका क्या विजन है और इसका क्या उद्देश्य है?
प्रो.
अग्रवाल-
बिहार में स्कूल स्तर पर छात्र बहुत प्रतिभाशाली हैं। लेकिन होता ये है कि किसी
कारण से यहां की उच्चस्तरीय ग्रेजुएशन लेवल की पढ़ाई से ये विद्यार्थी संतुष्ट
नहीं होते, इसलिये वे देश के जानेमाने शहरों- जैसे दिल्ली. चंडीगढ़, मुंबई,
कोलकाता के शिक्षण संस्थानों में पढ़ने चले जाते हैं। और एक बार जो लड़के वहां चले
जाते हैं, एडमिशन ले लेते हैं, ग्रेजुएशन, पोस्ट-ग्रेजुएशन करते हैं, प्रोफेशनल
पढ़ाई पढ़ते हैं, वे लौटकर फिर बिहार नहीं आते, ये एक तरह से राज्य का नुकसान है
और कहीं न कहीं ये राज्य के लिए अच्छा नहीं है। तो केंद्रीय विश्वविद्यालय का
उद्देश्य ये है कि हम उन छात्रों का पलायन रोक पायें और उनको यहां पर ही अच्छी
शिक्षा दे पाएं। हमको अगर बहुत अच्छे मेधावी शोधकर्मी चाहिए, बहुत अच्छे साइंटिस्ट
चाहिए, और प्रोफेशनल विकसित करने हैं तो हमें उसके लिए नए और अच्छे छात्रों की
नर्सरी डेवलप करनी होगी।
“नए
किस्म के कोर्स होंगे, नए तरीके से पढ़ाई होगी”
सवाल-
इस विश्वविद्यालय में
किस तरह के कोर्स शुरु किये जाएंगे और दाखिले की प्रक्रिया क्या होगी?
प्रो.
अग्रवाल- मेरी
सोच ये है कि केंद्रीय विश्वविद्यालय को ग्रेजुएट कोर्स शुरु करने चाहिए, जैसे बीए
ऑनर्स, बीएससी आनर्स, बीए एलएलबी, बी कॉम एलएलबी ऑनर्स जैसे कोर्स मैं खोलूंगा।
एडमिशन के लिए परसेंटेज कट ऑफ और एक लिखित परीक्षा का कैरेटेरिया होगा। वो इसलिए
ताकि असल में मेधावी छात्रों को प्रवेश मिल सके। अभी ये खबर आई है कि एक मेधावी
विद्यार्थी बहुत अच्छे नंबर लाया, लेकिन उसको विषय का ज्ञान नहीं था यानी उसका
परसेंट तो हाई था, लेकिन वास्तव में उसकी मेधा उसके अनुरूप नहीं थी। तो लिखित
परीक्षा से ये साबित हो जाएगा। तो मूलतः हमारा उद्देश्य ये है कि समुचित रूप से
प्रतिभाशाली विद्यार्थी लिये जाएं और उनको यहां पर अच्छी तरह तैयार करें। मेरी एक
और कोशिश होगी यहां पर मॉड्यूलर कोर्सेस चलाने की जिसका मतलब ये है कि मान लीजिये
अगर कोई छात्र पीजी कर रहा है और पहला और दूसरा सेमेस्टर पढ़ने के बाद किसी नौकरी
के लिए कंपीटिशन में कहीं उसका सेलेक्शन हो गया, वो बैंक अधिकारी बन गया या कहीं
राज्य सरकार में उसको नौकरी मिल गई, तो ऐसी स्थितियों में होता ये है कि अधिकांश
बच्चों का 1 साल खराब हो जाता है और पढ़ाई छूट जाती है। तो मैं ये प्रावधान रख रहा
हूं कि वो छात्र हमसे एडवांस सर्टिफिकेट ले जाएगा और उसके बाद जब उसकी नौकरी की
ट्रेनिंग पूरी हो जाएगी, तब वह छुट्टी लेकर आएगा और फिर हमारे यहां उसी लेवल पर
पढ़ाई फिर से शुरु कर देगा और एक साल पढ़ाई करके अपनी पूरी डिग्री ले जाएगा।
कभी-कभी ऐसा होता है कि कई छात्रों की आर्थिक हालत खराब होती है, या किसी के घर
कोई हादसा हो गया, या फिर किसी लड़की की शादी हो गई, या कोई मैरिड लड़की पढ़ रही थी
और उसको मां बनना पड़ा, तो ऐसी स्थिति में वो पढ़ाई छोड़ देगी और एक-दो साल बाद
वापस आकर उसी स्तर पर पढ़ाई शुरु करके डिग्री ले सकेगी।
एक
बात और, हमारे देश की एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ये है कि शिक्षा नदी का एक छोर है
और दूसरे छोर पर खेल हैं, संगीत है, एक्टिंग है, या आर्ट हैं, तो कोई ऐसा
विद्यार्थी है, जो पढ़ने में भी मेधावी है और खेलकूद में भी, या बहुत अच्छी
पेंटिंग बनाता है या बहुत अच्छा म्यूजिसियन है, उसमें वो प्रतिभा है। वो एमएससी
मैथ्स से कर रहा है और उसे म्यूजिक का भी शौक है- तो ये दो विपरीत दिशाएं हैं। वो
जब म्यूजिक सीखने जाता है, तो उसके मन में अपराध-भाव होता है कि मैं अपनी गणित की
पढ़ाई छोड़कर इसमें समय दे रहा हूं। तो ऐसे विद्यार्थियों के लिए मैं ऐसा करूंगा
कि वो 80 प्रतिशत कोर्स करे मेनस्ट्रीम के यानी मैथ्स, फिजिक्स, केमिस्ट्री,
बायोलॉजी वगैरह, लेकिन अगर वो 20 प्रतिशत कोर्स में म्यूजिक की क्लास एटेंड करता
है तो वो भी उसके एमएससी कोर्स का हिस्सा होगा, जैसा विदेशों में होता है। उससे
छात्रों का सर्वांगीण विकास होगा। ऐसा ही, अगर कोई छात्र बहुत अच्छा एथलीट है, या
बहुत अच्छा फुटबॉल खेलता है, तो स्कूल ऑफ फिजिकल एजुकेशन में वो 4 क्रेडिट का
कोर्स अपने खेल का कर सकता है और बाकी अपने साइंस, हिस्ट्री, सोशियोलॉजी, सोशल
वर्क, एमबीए वगैरह का । ये मेरी सोच है।
“सेशन
लेट शुरु होने से छात्रों का नुकसान नहीं होने देंगे”
सवाल-
विश्वविद्यालय में
पढ़ाई कब से शुरु होगी?
प्रो.
अग्रवाल- अभी
बुनियादी समस्याओं के कारण प्रवेश प्रक्रिया में देर हो रही है , लेकिन एडमिशन की
प्रक्रिया जल्द शुरु की जेगी। मेरी चिंता ये है कि जो यहां के अच्छे विद्यार्थी
हैं, वो तो कहीं न कहीं एडमिशन लेकर सेटल हो जाएंगे क्योंकि वे मेरे विश्वविद्यालय
के इंतजार में नहीं बैठ सकते। मैं इस बात को बखूबी समझता हूं। लेकिन मेरा भरपूर
प्रयास है कि मैं सेशन को जल्द शुरु कर दूं। भले ही सेशन 2 महीने लेट हो सकता है,
मैं पढ़ाई जुलाई में न शुरु करके 15 सितंबर से शुरु कर सकता हूं। आप कहेंगे कि
इससे बच्चों का नुकसान होगा, तो मैं बताऊं कि बच्चों का नुकसान इसलिए नहीं होगा कि
कोई भी कोर्स 1 साल का नहीं होगा, दो साल या तीन साल का होगा, पीजी होगा तो दो साल
यानी चार सेमेस्टर और अंडर ग्रेजुएट कोर्स छह सेमेस्टर का होगा। बीच में विंटर
ब्रेक आते हैं, गर्मी की छुट्टियां आती हैं जिन्हें कम करके उनको इस तरह से
पढ़ाऊंगा कि अगला सेशन आते-आते उनका कोर्स नॉरमलाइज़ हो जाएगा। यहां के, देश के
अन्य विश्वविद्यालयों के साथ ही उनका रिजल्ट आउट होगा और वो डिग्री लेकर नौकरी के
लिए निकलेंगे। मेरे भरपूर प्रयास रहेंगे कि मेरे जो विद्यार्थी यहां से निकलें, वो
नियोक्ताओं के यहां जाकर लाइन न लगाएं बल्कि नियोक्ता विश्वविद्यालय के दरवाजे पर
खड़ा हो और कहे कि नौकरी के लिए हमें आपके विद्यार्थी चाहिए क्योंकि वे बहुत
मेधावी हैं, बहुत अच्छे हैं।
“रोजगारपरक
होगा कोर्स स्ट्रक्चर”
अभी
हमारी शिक्षा में बड़ी कमी ये है कि वो छात्रों को प्रोफेशन के लिए, व्यवसाय के
लिए, वास्तविक जीवन के लिए तैयार नहीं कर रही है। कहीं न कहीं हमारी शिक्षा किताबी
शिक्षा हो रही है। तो मेरा जो कोर्स स्ट्रक्चर होगा उसका रुझान कुछ ऐसा रहेगा कि
उसमें पुस्तकीय सैद्धांतिक ज्ञान के अलावा ऐसी शिक्षा दी जाए जो छात्रों को
इंडस्ट्री और ग्लोबल मार्केट की जरुरतों के हिसाब से तैयार करे।
“विश्वविद्यालय
देश में बनाएगा खास पहचान”
सवाल-
बिहार में खुले इस
विश्वविद्यालय की रूपरेखा में बिहार के छात्रों के हित की बात तो है लेकिन, क्या
ऐसे कोर्स भी होंगे जो बाहर के छात्रों को यहां आकर पढ़ने के लिए आकर्षित करें?
प्रो.
अग्रवाल- ये बड़े सौभाग्य की बात है और मेरा आदर्शपूर्ण
लक्ष्य है कि केंद्रीय विश्वविद्यालय का चरित्र राष्ट्रीय हो। यहां केरल से कश्मीर
तक और अरुणाचल से राजस्थान-गुजरात तक के छात्र आएं, पढ़ें, और न केवल छात्र बल्कि
शिक्षक भी देशभर के हों। आज दिल्ली विश्वविद्यालय या जेएनयू की गुणवत्ता उच्च मानी
जाती है तो इसका कारण ये है कि उनका कहीं न कहीं राष्ट्रीय चरित्र है, जहां पर देश
के विभिन्न कोनों से बच्चे आते हैं और साथ रहकर पढ़ते हैं। तो उससे उनमें
सहिष्णुता, एक-दूसरे को समझने और कहीं न कहीं सर्वांगीण और संपूर्ण प्रतिभा का
विकास होता है। जहां तक छात्रों को आकर्षित करने की बात है, तो उसके लिए थोड़ी
मेहनत करनी पड़ेगी, थोड़ा धैर्य रखना पड़ेगा। आपने वनस्थली का नाम सुना होगा, BITS पिलानी के बारे में सुना होगा। चुंकि मैं राजस्थान का
रहनेवाला हूं, तो बता दूं कि ये दोनों संस्थाएं शहर से दूर रेगिस्तानी, जंगल
क्षेत्र में खोली गईं थीं आज से 50-60 साल पहले और देश-विदेश के मां-बाप अपने
बच्चों को इन संस्थाओं में पढ़ाते हैं। दोनों आज देश में ख्यातिनाम शिक्षण
संस्थाएं हैं। तो जो बहुत अच्छी शिक्षण संस्थाएं हैं वो न परिचय की मोहताज होती
हैं, और न इस बात की मोहताज होती हैं कि बच्चे आएंगे या नहीं। अगर यहां पर शिक्षण
प्रणाली, शिक्षक और शिक्षा का माहौल वातावरण इतना अच्छा रहेगा तो अपने-आप आएंगे
बच्चे।
“पढ़ाई
की ललक है बिहार के छात्रों में”
सवाल-
आपने विदेशों में भी
काम किया है, हिमाचल प्रदेश में भी काम किया और अब आप बिहार आए हैं, जहां जमीनी
हालात काफी अलग हैं। तो यहां के माहौल को आप शिक्षा के लिहाज से कैसा समझ रहे हैं?
प्रो.
अग्रवाल-
यहां आकर, खासतौर से मोतिहारी में आकर मैं बहुत उत्साहित हूं। एक तो मेरी
प्रतिबद्धता थी कि मैं मोतिहारी में काम शुरु करूं क्योंकि अधिकांश केंद्रीय
विश्वविद्यालय जो खुले, पता नहीं किन कारणों से उनका प्रारंभिक हेड क्वार्टर
राज्यों की राजधानियों में रखा गया था। मैं पहले दिन से इस बात के लिए प्रतिबद्ध
था कि मैं यहां आकर डेरा डालूंगा और जद्दोजहद करके विश्वविद्यालय शुरु करने की
कोशिश करूंगा। और इस प्रतिबद्धता को मैं कई महीनों से निभा रहा हूं। मैंने सोचा था
इस प्रक्रिया में मुझे यहां के जनजीवन, यहां के विद्यार्थी, यहां के शिक्षक, यहां
की संस्कृति को समझने का मौका मिलेगा और यही हुआ। थोड़ा समझा हूं, ज्यादा तो नहीं,
पर मैं इस बात से उत्साहित हूं कि यहां के विद्यार्थी में पढ़ने की बहुत ललक है।
मैं शाम को या सुबह अक्सर घूमने निकलता हूं तो देखता हूं यहां बच्चे पार्क में गोल
बनाकर बैठते हैं। मुझे शुरु में लगा कि वे ऐसे ही गप मारने बैठे होंगे, लेकिन
धीरे-धीरे मुझे पता चला कि वे आपस में एक-दूसरे से पूछ-पूछ कर प्रतियोगिताओं की
तैयारी करते हैं। ये देखकर मेरे मन में उत्प्रेरणा- मोटिवेशन का लेवेल बढ़ा और मैं
दंग रह गया। मैं यहां कई ऐसे लोगों से मिला और मुझे उनसे मिलकर ताज्जुब हुआ जब
उन्होंने बताया कि कोई अपने बच्चे को दार्जीलिंग में पढ़ा रहा है, तो कोई दून या
शिमला में स्कूल में छोड़कर आ रहा है। ये वो मां-बाप हैं जो अपने बच्चों को पब्लिक
स्कूलों में, अच्छे स्कूलों में पढ़ा रहे हैं। मैंने ये महसूस किया कि ये वो
मां-बाप हैं जो अति-समृद्ध नहीं, मध्यम वर्ग के हैं, तो वो जरूर अपनी जरुरतों को
काटकर बच्चों को पढ़ाते हैं। इसी तरीके से मैंने देखा कि यहां के कुछ बच्चे पार्ट
टाइम कुछ करके पढ़ाई कर रहे हैं, कॉम्पीटीशन की तैयारी कर रहे हैं और उनमें
एक-दूसरे को सहयोग देने की ललक भी है। जब मैं कुछ कर्मचारियों की भर्ती कर रहा था
तो किसी ने बताया कि वो अपने छोटे भाई को इंजीनियर बनाना चाहता है..तो ऐसे लोगों
को देखकर मेरा उत्साह, मेरी आशा बढ़ी है, मेरी ऊर्जा का स्तर भी बढ़ा है और मेरी
प्रतिबद्धता और दुगुनी हो गई है। चुंकि शुरु में मैं जब बिहार आया था तो एक जो
जनधारणा है, उसने मुझे कुछ हद तक आशंकित किया था, ये मैं बहुत ईमानदारी से कहूंगा
कि, मैं बिहार जा रहा हूं तो वहां पर सारा ही माहौल उल्टा-सीधा होगा, लेकिन बिहार
मेरी आशा से ज्यादा अच्छा लगा और यहां के लोग बहुत ही सहृदय, सरल और पर्यावरण,
प्रकृति- सभी कुछ बहुत ही अच्छा लगा। सड़कों का नेटवर्क बहुत अच्छा है। इसलिए मैं
कहूंगा कि मैं बहुत प्रभावित हूं।
- कुमार कौस्तुभ
9953630062
kumarkaustubha@gmail.com
Friday, April 1, 2016
विवादों की बुनियाद पर टिके टीवी के समाचार चैनल
9 फरवरी 2016 को दिल्ली ही नहीं बल्कि देश-विदेश
में मशहूर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के कैंपस में देशविरोधी नारेबाजी की जो
घटना हुई, उसकी चर्चा काफी दिनों तक टीवी के समाचार चैनलों पर छाई रही। आमतौर पर
विश्वविद्यालयों के परिसरों में होनेवाले छात्रों के कार्यक्रमों में मीडिया की
मौजूदगी नहीं ही रहती है, ना ही किसी मुद्दे पर बैठक या सेमिनार-संगोष्ठी जैसे
कार्यक्रमों में टेलीविजन चैनलों की दिलचस्पी देखी जाती रही है क्योंकि एक तो ये
कार्यक्रम ‘विजुअली’ बोरिंग किस्म के होते हैं, दूसरे, टीवी चैनलों में ये मान लिया जाता
है कि भला ऐसे कार्यक्रमों में देशभर या टार्गेट ऑडिएंस के लिए न्यूज़ क्या
निकलेगी? इस आम धारणा के बावजूद 9 फरवरी को जेएनयू
कैंपस में हुए कार्यक्रम में चुनिंदा मीडिया की मौजूदगी देखी गई। ये भी कहा गया है
कि मीडिया को इस कार्यक्रम की कवरेज के लिए बाकायदा छात्रों के एक संगठन की ओर से
बुलाया गया था। और इसके बाद टीवी चैनलों पर जो तस्वीरें आईं और फिर जो कुछ हुआ वो
न सिर्फ देश बल्कि पूरी दुनिया के दर्शकों ने टीवी चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक
हर प्लेटफार्म पर देखा। इसके साथ ही अलग-अलग प्रतिक्रियाओं की बरसात शुरु हुई,
बहस, रैलियां और प्रदर्शन शुरु हुए, कोर्ट कैंपस में मारपीट हुई..और जेएनयू में
हुई एक घटना को लेकर अब तक जो कुछ हो रहा है वो रोज एक न एक नई खबर को जन्म दे रहा
है। मीडिया को, खासकर टीवी के समाचार चैनलों को जिंदा रहने के लिए खबर चाहिए, वो
भी हर रोज एक बार ही नहीं, बल्कि हर घंटे, हर पल। खबरें भला कहां से आती हैं,
छप्पर फाड़कर तो आती नहीं, रोज-ब-रोज होनेवाली घटनाओं से ही निकलती हैं और संवाददाता
या पत्रकारगण हमेशा घटित हो रही घटनाओं में से अपने काम लायक खबरें निकालते हैं,
अपने लिए यानी अपने चैनल, अपने अखबार के लिए खबरों का निर्माण करते हैं। यहां
खबरों का निर्माण कहना इसलिए जरूरी हो गया है क्योंकि अब खबरबाजी की प्रक्रिया में
आज के पत्रकार हर घटना को अपने लिए उपयोगी खबर का मोड़ देने में लगे दिखते हैं। और
इसका सबसे आसान तरीका है किसी भी घटना में विवाद खोजना, विवाद पैदा करना, और उस
विवाद से नए-नए विवादों का सृजन जो खबरबाजी की प्रक्रिया को बरकरार रखे। जेएनयू की
घटना भी एक ऐसी ही घटना मानी जा सकती है, क्योंकि इसे उन प्रायोजित घटनाओं की
श्रेणी में रखा जा सकता है, जिनसे विवाद की पैदाइश की गुंजाइश हो और मीडिया उन्हें
लपकने को तैयार बैठा हो। सवाल ये नहीं है कि जेएनयू में 9 फरवरी को जो कुछ हुआ वो
गलत था या नहीं, सवाल तो ये है कि पहली बार, हां, शायद पहली बार ही मीडिया को,
कुछेक टीवी चैनलों को कैंपस में हुए एक कार्यक्रम में खबर का एंगल क्यों मिला। जेएनयू
में रोज ही तमाम बैठकें होती हैं, परिसंवाद होते हैं जिनमें देश के गणमान्य
विद्वान, शिक्षाविद, राजनयिक, राजनेता जैसे तमाम लोग शामिल होते हैं, लेकिन ऐसे
कितने कार्यक्रमों की कवरेज टीवी चैनलों की ओर से की जाती है? शायद उंगुलियों पर गिनने लायक कार्यक्रम
मिलें, जिनमें टीवी चैनलों के कैमरे दिखें। लेकिन एक दिन एक कार्यक्रम की कवरेज
हुई और उसके बाद पूरे देश में आग लग गई। ये कहना गलत होगा कि उक्त कार्यक्रम को
नहीं कवर किया जाना चाहिए था। यहां तो इसके जरिए सिर्फ ये बताने की कोशिश हो रही
है कि कैसे एक घटना की कवरेज एक विवाद की कवरेज में बदल जाती है और वो विवाद ऐसी
खबर बन जाता है जो टीआरपी की जंग लड़ रहे चैनलों के लिए कोरामीन की खुराक से कम
नहीं।
विवाद को खबर बनाने की बात सिर्फ जेएनयू की घटना
की कवरेज तक ही सीमित नहीं है। आपको रोज ही टीवी पर किसी नेता, या किसी और सामाजिक
या राष्ट्रीय महत्व की शख्सियत का कोई न कोई ऐसा बयान देखने को मिल जाएगा जिस पर
ताबड़तोड़ प्रतिक्रियाएं आ रही होंगी और टीवी पर आधे-आधे घंटे का डिबेट चल रहा
होगा। टीवी के लिए इंटरव्यू करनेवाले य़ा बाइट लेनेवाले पत्रकारों की हमेशा ये
कोशिश रहती है कि सामनेवाला व्यक्ति कुछ न कुछ ऐसा बोल दे, जिससे खबर बन जाए और
खबर आमतौर पर कुछ सकारात्मक बोलने पर नहीं बनती, बल्कि कुछ ऐसा बोलने बनती है जो
किसी न किसी को चुभे। नेताओं की सभा और भाषणबाजी के दौरान भी बड़ी आसानी से ऐसी चंद
लाइनें निकल जाती हैं जिन पर विवाद खड़ा होता है और टीवी पर दिन भर से लेकर प्राइम
टाइम तक में प्रमुखता से चलने के लिए खबर बन जाती है। अब 29 मार्च 2016 को हुई एक
घटना को ही देखिए। भारतीय कृषि अनुसंधान
परिषद के एक कार्यक्रम में केंद्र
सरकार के कृषि राज्यमंत्री संजीव बाल्यान के एक किसान को दिये गये बयान पर ऐसा
विवाद खड़ा हुआ कि मंत्री महोदय को बार-बार सफाई पेश करनी पड़ी। खबर है कि किसान ने
मंत्री से अपने खेत में हुए नुकसान की बात बताई और आत्महत्या करने की धमकी दी तो
मंत्री ने आपे से बाहर होकर उसे कह डाला कि –‘जा
कर ले आत्महत्या’। मंत्री ने ये बयान किन हालात में दिया
और क्या ये कहने के पीछे वाकई जिम्मेदार मंत्री की ये मंशा रही होगी कि नुकसान से
परेशान किसान खुदकुशी कर लें तो कर लें, उन्हें कोई परवाह नहीं- ये सोचने की बात
है। लेकिन टीवी चैनलों पर संजीव बाल्यान का वो बयान बार-बार हाईलाइट करके चलाया
गया और विरोधियों ने इस पर मंत्री की आलोचना के लिए अपने तरकश के तमाम तीर निकाल
लिए। जाहिर है, मंत्री की जुबान से जो बात निकल चुकी थी, उसने ऐसे विवाद को जन्म
दे दिया, जो टीवी के लिए बड़ी खबर बन गया।
ऐसे तमाम उदाहरण आए दिन देखने को मिलते रहते हैं।
वीएचपी नेता साध्वी प्राची, बीजेपी सांसद साक्षी महाराज, केंद्रीय मंत्री गिरिराज
सिंह, उत्तर प्रदेश सरकार के कद्दावर मंत्री आजम खान, जगदंबिका पाल, बेनी प्रसाद
वर्मा जैसे तमाम नेता तो ऐसे बयानवीर हैं जो जब बोलते हैं तो जैसे आग निकलती है और
कोई न कोई नया विवाद खड़ा हो जाता है और टीवी के समाचार चैनल उनके बयानों को आज की
प्रमुख खबर या सबसे बड़ी खबर के तौर पर पेश करते नहीं थकते। हालांकि, राजनाथ सिंह
और गुलाम नबी आजाद जैसे बड़े नेता भी कभी-कभी कुछ ऐसा बोल जाते हैं जो विवाद का
मुद्दा बन जाता है। गौर कीजिये, जेएनयू मुद्दे पर हाफिज सईद वाला राजनाथ सिंह का
बयान और ISIS और RSS की तुलना वाला गुलामनबी आजाद का बयान।
विवादों से खबर बनाने की प्रक्रिया का सबसे अहम
हिस्सा है राजनीतिक हस्तियों की बाइट्स। देश में विजुअल मीडिया की सबसे बड़ी
समाचार एजेंसी एएनआई के संवाददाता और कैमरामैन रोज तड़के तकरीबन हर प्रमुख
राजनीतिक दल के बड़े प्रवक्ता, या बोलने में माहिर नेता से गुजरे दिन या बीती रात
या आज के दिन होनेवाली प्रमुख गतिविधियों पर बाइट लेने पहुंचते हैं और वो बाइट्स
तमाम सब्सक्राइबर टीवी चैनलों को दी जाती है। अगर किसी नेता ने कोई ऐसी लच्छेदार
बात कह दी या तीखा बयान दे दिया जिससे विवाद की बू आ रही हो, तो समझ लीजिए कि टीवी
के समाचार चैनलों का दिन बन गया। क्योंकि फिर तो एक बयान की बाल की खाल निकालते
हुए प्राइम टाइम तक की निपटाने की संभावना बन जाती है।
जहां विवाद, वहां खबर – टीवी के समाचार चैनलों के
लिए ये फॉर्मूला कई वजहों से बेहद कारगर है। एक वजह तो ये है कि इसके जरिए समाचार
चैनलों को समाज की वो सच्चाई दिखाने का मौका मिलता है, जिससे आम दर्शक नावाकिफ
रहता है। मसलन मंत्रीजी अगर कैमरे के सामने कुछ ऐसा-वैसा बोल गए, तो दर्शक को तो
पता चलेगा ही ना कि असल में सफेदपोश, लकदक कपड़ों में देश की दशा-दिशा का हिसाब
रखनेवाले कर्णधारों के मन में क्या चल रहा है? अब
30 मार्च 2016 को मीडिया में वारयल यूपी के सीएम अखिलेश यादव की एक बाइट को ही
देखिए जिसमें वो अपनी समस्या के लिए गुहार लगानेवाली एक महिला की बात सुने बगैर
पुलिसकर्मियों से उसे सभा से हटाने औऱ उसकी मदद नहीं करने को कह रहे हैं और ये भी
आरोप लगा रहे हैं कि ये उनकी सभा को डिस्टर्ब करने की विरोधियों की साजिश है। घटना
की सच्चाई असल में जो भी हो, लेकिन सार्वजनिक मंच से क्या सीएम को इस तरह बयान
देना शोभा देता है, क्या ये सवाल नहीं उठता कि भले ही महिला विरोधियों की साजिश के
तहत सभा में आई हो, लेकिन, सीएम को उससे अलग तरीके से पेश आना चाहिए था औऱ
विनम्रता से बात करके मामले को ठंडा करना चाहिए था। तो जो कुछ हुआ, उसमें सीएम
अखिलेश यादव खुद विवाद में फंस गए और मीडिया ने उनके बयान और उस घटना की तस्वीरों
को पेश करके सीएम को आईना दिखाने का ही काम किया। इस तरह, कई बार ऐसा हुआ है कि
कैमरे के सामने गलतबयानी करने पर नेताओं को सफाई पेश करनी पड़ती है, शर्मिंदा होना
पड़ता है, क्योंकि बयानों से विवाद में फंसने पर उनका असली चेहरा सामने आ जाता है।
और खबर की खोज में लगा मीडिया, टीवी चैनलों के पत्रकार तो हमेशा इस ताक में रहते
हैं कि कोई कुछ ऐसा बोल जाए, जिसको लेकर उसकी खिंचाई का मौका मिल जाए।
ऐसा नहीं है कि विवाद सिर्फ किसी शख्सियत के बयान
से ही निकले। विवाद तो किसी भी घटना से निकल सकता है, जैसा जेएनयू प्रकरण में देख
ही चुके हैं। इसके अलावा, सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन, घोटाले, दफ्तरों में
कार्यप्रणाली से लेकर घरों से सड़कों तक आम लोगों के झगड़े तक की खबर में विवाद का
एंगल तलाशा जा सकता है। हर आदमी का जीवन कहीं न कहीं विवाद से जुड़ा है और वो
विवाद तब खबर बन सकता है, जब किसी सुधी पत्रकार या संवाददाता की नज़र उस पर पड़
जाए। अगर किसी नामी हस्ती से जुड़ा विवाद हो, तो खबर ज्यादा वजनदार हो सकती है।
उदाहरण के लिए, पूर्व केंद्रीय मंत्री नटवर सिंह की बहु नताशा सिंह की मार्च 2002
में हुई मौत का मामला भले ही ग्लैमर और क्राइम के एंगल से खबर हो, लेकिन चुंकि
इसको लेकर नटवर सिंह और उनके बेटे जगत सिंह विवाद में रहे, इसलिए भी ये बड़ी खबर थी।
या फिर 2015 में शीना बोरा हत्याकांड में मीडिया जगत की मशहूर हस्ती रहीं इंद्राणी
मुखर्जी और पीटर मुखर्जी की गिरफ्तारी की खबर भी काफी हद तक इन हस्तियों के विवाद
में फंसने के चलते टीवी के समाचार चैनलों के लिए ‘हॉटकेक’ बन गई।
भले ही आजकल इस बात पर जोर दिया जा रहा हो कि
टीवी और दूसरे समाचार माध्यमों में सकारात्मक खबरों को प्रमुखता दी जानी चाहिए,
लेकिन ये कड़वी सच्चाई है कि मनोवैज्ञानिक तौर पर ऑडिएंस का रुझान उन्हीं खबरों पर
ज्यादा रहता है जहां कुछ सवाल उठ रहे हों, कुछ सस्पेंस हो और ऐसा अक्सर विवादों
में ही देखने को मिलता है। 24 में से 18 घंटे खबरें दिखाने की होड़ में लगे टीवी
के समाचार चैनलों के सामने बुलेटिनों की ताजगी बरकरार रखने के लिए विवादों से खबर
निकालने के अलावा शायद कोई और चारा नहीं और टाइम स्लॉट भरने के लिए गर्मागर्म बहसबाजी
के जो कार्यक्रम रोज पेश किये जाते हैं, उनकी बुनियाद भी तो विवादों पर ही टिकी
है। विवाद न हों, तो भला बात कैसे होगी, मुद्दा तो विवाद से ही खड़ा होगा और तभी
टीवी के बने-बनाए मंच पर वाद-विवाद-संवाद की औपचारिकता भी पूरी की जा सकेगी।
-
कुमार कौस्तुभ
SRB-101-C, शिप्रा रिवेरा,
ज्ञान खंड-3, इंदिरा पुरम,
गाजियाबाद- 201014
Email- kumarkaustubha@gmail.com
Mobile- 9953630062, 9910220773
Tuesday, September 22, 2015
संदर्भ बिहार चुनावः हम क्यों जाएं बिहार?
24 साल पहले, 15 अगस्त 1991 को मैं नई दिल्ली रेलवे
स्टेशन पर वैशाली एक्सप्रेस से उतरा ..पहली बार दिल्ली आया था..मन में नई उम्मीदें
थीं.. रोजी-रोटी के लिए जिंदगी बनाने का इरादा था..दिल्ली में राह दिखाने के लिए
कुछ सीनियर थे, जो मुझसे कई साल पहले से दिल्ली आकर यहां अपना ठिकाना बना चुके थे
और आगे की राह तलाश रहे थे...क्योंकि उनके लिए भी तब बिहार में कुछ करने का कोई
रास्ता नहीं बचा था...और मेरे जैसे लड़कों के लिए भी.. मेरे आसपास, मुझसे कुछ पहले
और मुझसे कुछ बाद मेरे कई साथी, और कई अनजान लड़के भी तब दिल्ली में अपना भविष्य
देख रहे थे..कुछ इंजीनियरिंग और मेडिकल की तैयारी कर रहे थे, तो कुछ दिल्ली
विश्वविद्यालय और दूसरे संस्थानों में पढ़ाई करके जिंदगी बनाना चाहते थे..1990-91
का दौर उससे दस-बीस साल पहले के वक्त से अलग था, जब हमारे यहां के कई छात्र, जिनके
पास सुविधा थी, पूंजी थी, शौक से करियर की नई ऊंचाइयों को छूने के लिए दिल्ली आते
थे, ये बात दीगर है कि कितने लोग कहां तक पहुंचे..लेकिन मैं आपको 90 के दशक के जिस
दौर में ले आया हूं उस वक्त बिहार से दिल्ली आना तमाम छात्रों की मजबूरी बन गया
था..ऐसे भी छात्र थे जिसके घरवालों के पास पैसे की कमी नहीं थी और ऐसे भी थे,
जिनके परिजन बड़ी मेहनत से गाढ़ी कमाई जोड़कर अपने बच्चों को दिल्ली भेज रहे थे कि
वो जिंदगी में कुछ बन सकें, अच्छी पढ़ाई कर सकें, अच्छी नौकरी हासिल कर सकें...ऐसा
नहीं था कि उस वक्त बिहार में रहते हुए भी लड़के अच्छा नहीं कर रहे थे, औऱ उन
लोगों ने बेहतरीन करियर नहीं बनाया, लेकिन तब सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य के
मद्देनजर बहुसंख्यक मानसिकता यही बन चुकी थी कि बिहार में कुछ हासिल नहीं
होनेवाला.. और इसी के चलते हमने भी वैशाली एक्सप्रेस से दिल्ली का सफर किया...और
15 अगस्त 1991 को जिंदगी में नई आजादी हासिल की...पारिवारिक बंधनों से आजादी, खुद
की बदौलत कुछ कर गुजरने की आजादी...बिहार के अंधकारमय भविष्य से आजादी..
वक्त गुजरता गया..साल-दर-साल गुजरते गए..15 साल बाद बिहार
को भी एक आजादी मिली..लालू राज से आजादी मिली..कहना न होगा कि बिहार में लालू
प्रसाद का सत्ताशीन होना एक बड़े बदलाव का परिचायक था जिसका फायदा जाहिरा तौर पर बिहार
के दलित-वंचित तबकों को मिला जो लालू के उदय से पहले तक कथित तौर पर सवर्ण सरकारों
के मारे थे। सामाजिक न्याय की दुहाई देकर सत्ता में आए लालू ने उनका जो भी भला
किया हो, लेकिन एक बड़ी आबादी का भविष्य जरूर अंधकारमय दिखने लगा था...15 साल बाद
नीतीश कुमार के सत्ता में आने पर लोगों को भरोसा हुआ कि बिहार में हालात
बदलेंगे..और हालात काफी हद तक बदले भी..सड़कें बनीं, बिजली की हालत सुधरी..,बड़ी
संख्या में युवकों-महिलाओं को कांट्रेक्ट पर नौकरियां भी मिलीं.. लेकिन हमारे जैसे
उन बिहारवासियों का क्या हुआ, जो प्रवासी हो चुके थे? बिहार में नीतीश सरकार के पहले दौर में कानून-व्यवस्था में सुधार के
साथ-साथ ये उम्मीद भी जागी थी कि बिहार लौटकर कुछ करने की बात सोची जा सकती है।
लेकिन, जो उम्मीदें बिहार में ‘सुशासन’ के पहले दौर में परवान चढ़ रही थीं, वो धीरे-धीरे खत्म होने
लगीं, क्योंकि 10 साल के शासन में नीतीश वैसा बदलाव नहीं ला सके, जिसकी उम्मीद थी।
ये तो एक पहलू है। अब दूसरे पहलू की बात, जो मुझ जैसे प्रवासियों से जुड़ी है।
24-25-30 साल पहले बिहार से बाहर आने के बाद हमें अपने राज्य में वापसी का कोई
रास्ता नहीं मिला। जाहिर है, रोजी-रोटी और गुजर-बसर के लिए किसी ने दिल्ली को
अड्डा बनाया, तो कोई बैंगलोर, कोई पुणे गया, किसी ने मुंबई से लेकर दमन और वडोदरा,
अहमदाबाद तक का रुख किया और जहां पर नौकरी करने गए, वहां के होकर रह गए, वहीं घर
बनाया (घर बसाया भले ही बिहार में था), और बाल-बच्चों समेत पुश्तैनी घर से कम से
कम 1000 किलोमीटर दूर तो जरूर रहने लगे। नौकरी के दबाव में त्योहारों पर भी
पुश्तैनी घर जाना दुश्वार हो गया औऱ जब भी घर की सरजमीं पर कदम रखा, तो लोगों से
यही सुनने को मिला- बबुआ, कितने दिन के लिए आए हैं? यानी सब ये जानते हैं, समझते हैं कि जो गया, वो परदेसी हो गया, अब आएगा तो
अतिथि की तरह और जाएगा भी वैसे ही। पुश्तैनी घर पर रह गए बुजुर्ग माता-पिता..य़े
किसी एक घर का नहीं, पूरे मोहल्ले का हाल है..यहां तक कि शहर-दर-शहर में ज्यादातर
घरों में बच गए बुजुर्ग और युवा पीढ़िय़ां नए रास्तों की तलाश में शहर से निकल गईं
सिर्फ कभी-कभार आने के लिए। अब जरा सोचिए, जो व्यक्ति साल में 5-10 दिनों के लिए
अपने पुश्तैनी घर पहुंच पाता हो, उसके लिए उस घर का क्या अर्थ है, उसके जो नन्हे
बच्चे शुरु से पिता के पुश्तैनी घर से दूर रहे, उनके लिए वो घर किसी पर्यटन स्थल
से ज्यादा महत्व कैसे रखेगा? जहां उन्होंने
जिंदगी शुरु की, और जहां उन्हें जीवन की राह मिलेगी, उसी को तो वो अपना घर
समझेंगे, ऐसे में उन हजारों बिहारियों के लिए बिहारी कहलाने का मतलब ही क्या, जो
अपनी कथित जमीन से कभी न लौटने के लिए दूर हो गए। कोई दिल्लीवाला हो गया, कोई
मुंबई वाला, कोई कहीं औऱ का, भले ही वहां के लोग उसे बिहारी ही क्यों न कहें।
सच्चाई तो
यही है कि जो जहां रहता है, वो वहीं का हो जाता है, वो चाहकर भी वहां नहीं लौट
सकता, जहां उसकी जड़ें थीं, यानी आज के दौर में कर्मभूमि का ही महत्व है, जन्मभूमि
का नहीं। अब सरकारी नौकरियों का दौर काफी हद तक जा चुका है, पेंशन भी नहीं मिलती। लिहाजा,
60-65 साल में रिटायरमेंट का कोई मतलब ही नहीं, जब तक शरीर साथ दे, तब तक काम कर
सकते हैं ..और काम भी वहीं मिलेगा, जहां आपने अपनी जगह बनाई है।
नीतीश
सरकार ने शुरुआत में ये उम्मीदें जगाई थीं कि हजारों-लाखों बिहारी अपनी जन्मभूमि
से जुड़ सकेंगे, लेकिन 10 साल बाद भी जमीनी हकीकत यही है कि ज्यादातर प्रवासियों
का ( कुछ अपवाद हो सकते हैं) जुड़ाव अपने पुश्तैनी घर से बस तब तक है जब तक
माता-पिता और चंद गहरे रिश्तेदार उस जगह पर हैं, जो आपका पुश्तैनी घर है...क्योंकि
अब न आप लौट सकते, ना ही आपके बाल-बच्चे वहां लौटेंगे..कानूनन भी अगर आप लंबे समय
से कहीं औऱ रह रहे हैं और वहां के वोटर हो गए, तो आपके पुश्तैनी संसदीय या
विधानसभा क्षेत्र की वोटिंग लिस्ट में आपका नाम नहीं होना चाहिए..तो जाहिर है,
जहां ज्यादा समय गुजार रहे हैं, जहां आपके लिए काम है, वहीं का होकर रहना
पड़ेगा... 20-30 साल बाद अगर कुछ
सोचकर, किसी उम्मीद से घर लौटेंगे भी तो स्थानीय लोग यही पूछेंगे – अब क्य़ा करने
आए हो, यही कहेंगे- क्या बाहर कुछ काम नहीं था? कुछ लोगों को ये भी लगेगा कि आप उनके काम में बाधा बन कर खड़े हो सकते
हैं, या उनसे मुकाबला कर सकते हैं यानी ऐसा मुमकिन नहीं कि आप वापसी करें तो आपका
स्वागत ही हो, हो सकता है नई-नई सामाजिक मुश्किलें आपका इंतजार कर रही हों, जो
आपकी जमीन देखता होगा, वो अलग परेशान हो जाएगा, अगर आप कुछ नया काम करेंगे, तो लोग
संशय की नजर से देखेंगे.. हमारे कई दोस्त अब भी ये सोचते हैं कि नौकरी का वक्त पूरा करने यानी कथित
रिटायरमेंट के बाद पुश्तैनी इलाके में जाकर ही कुछ करेंगे। पर बड़ा सवाल ये है कि
करेंगे तो क्या करेंगे? बहरहाल ये अलग चर्चा का विषय है औऱ
इस पर सबकी अपनी-अपनी राय हो सकती है। हकीकत तो यही है कि आपको लौटना भी होगा तो
अकेले, परिवार सहित लौटना मुमकिन नहीं, क्योंकि बाल-बच्चे अपना करियर देखेंगे, उनके
पास आपके साथ रहने के लिए क्या, इतना भी वक्त नहीं होगा कि वो आपको आकर कभी-कभार
देख जाएं, आपसे मिल जाएं, क्योंकि वो कहीं औऱ अपने भविष्य़ की उड़ान भरेंगे। ऐसे में 25-30 साल पहले बिहार छोड़ चुके मुझ जैसे उन हजारों-लाखों बिहारियों
के सामने यही सवाल है कि आखिर अब क्यों जाएं बिहार? क्या गांव या शहर की जमीन के उस टुकड़े के नाम पर जो दस्तावेजों में आपके
नाम लिखा है? वही ज़मीन जिसकी देखभाल के लिए अगर आप मौके पर न रहे, तो
दूसरे लोग कब्जा कर सकते हैं? आपके चंद दिन न
रहने पर आपके पुश्तैनी इलाके में आपकी जिस अचल संपत्ति की सुरक्षा तक संभव नहीं, असामाजिक
लोग आपकी पहचान मिटाने को आतुर रहते हैं, उसको आप कब तक ढो सकते हैं? दीगर बात है कि देश
ही नहीं दुनियाभर में बिहार से ‘बेघर’ हो चुके हमारे तमाम भाई-बंधु अपने हुनर औऱ अपनी मेहनत से न
सिर्फ अपने जीने का बंदोबस्त कर रहे हैं बल्कि अहम मुकाम भी बना चुके हैं, खुद को ‘बिहारी’ कहते हुए गर्व भी होता है, तो हमारे
तमाम भाइयों को इसी पहचान के चलते जिल्लत भी झेलनी पड़ती है। भले ही वो बिहार का
नाम दुनियाभर में कर रहे हों, लेकिन बिहार ने प्रवासियों को क्या दिया? उन्हें क्यों जाना चाहिए बिहार?
ये सवाल ज़ेहन
में इसलिए उठा है क्योंकि हमारे कई मित्र आजकल अपील कर रहे हैं बिहार में ‘जंगलराज’ आने से रोकने के
लिए बिहार लौटिए, वोट दीजिये। पर मुझे तो लगता है कि बिहार का भविष्य अब उन्हीं के
हाथों में सुरक्षित है, जो लोग बिहार में रह रहे हैं और रहेंगे। क्योंकि उन्हें ही अपना भला-बुरा
बेहतर तरीके से समझना चाहिए। लिहाजा, बिहार में रहनेवाले वहां के वोटरों से यही
उम्मीद है कि आनेवाले चुनाव में वो अपने भविष्य, अपनी आगे की पीढ़ियों के भविष्य
को देखते हुए नई सरकार चुनने के लिए वोट देंगे, ताकि आप सलामत रहें, आपकी जमीन,
आपकी पहचान सलामत रहे, बिहार में ही ऐसे अवसर पैदा हों ताकि आपकी आनेवाली पीढ़ियों
को बाहर जाकर प्रवासी न बनना पड़े। क्योंकि एक
बार प्रवासी बन गए, तो वापसी मुश्किल है। बिहारवासियों, अपने भविष्य के लिए आप जिसे
भी बेहतर समझते हैं, उसे वोट दीजिये, भला होगा तो आपका, बुरा होगा तो आपका।
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