नई
दिल्ली। 10 मई 2013। समय शाम सवा चार बजे। टेलीविजन के तमाम समाचार चैनलों पर जैसे
भूचाल आ गया। हर जगह एक ही तस्वीर प्रसारित हो रही थी और उसका विश्लेषण हो रहा था।
ये तस्वीर थी – तत्कालीन रेल मंत्री पवन बंसल द्वारा उनके घर पर एक बकरे को कुछ
खिलाए जाने की। चुंकि रेल मंत्री प्रमोशन और पोस्टिंग को लेकर घूसकांड के विवाद
में फंसे थे और उनकी कुस्री जानी तय माना जा रहा था, ऐसे में बकरे को कुछ खिलाने
की तस्वीरें जैसे ही टीवी चैनलों के पास आईं, तो इन अटकलों को हवा मिल गई कि बंसल
ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए कोई टोटका किया है, तंत्र-मंत्र का सहारा लिया है।
तमाम टीवी चैनलों पर राजनीतिक विश्लेषकों से लेकर पंडित, ज्योतिषी, सभी इसका
अपने-अपने तरीके से विश्लेषण करते दिखे। ये सिलसिला समाचार चैनलों के पूरे प्राइम
टाइम पर छाया रहा यानी करीन 5 से 6 घंटे समाचार बुलेटिनों का प्रसारण इसी मुद्दे
पर केंद्रित रहा और इसमें दूसरे तत्कालीन कानून मंत्री अश्विनी कुमार का मामला और
कांग्रेस पार्टी और यूपीए सरकार में मंत्रियों के इस्तीफे लिए जाने से जुड़ी
गहमागमी का मामला भी जुड़ता चला गया। यानी शाम सवा चार बजे से तकरीबन रात 11 बजे तक
मंत्रियों के इस्तीफे का विवाद और इससे जुड़ा मिर्च-मसाला ही समाचार चैनलों पर
छाया रहा, जैसे और कोई दुनिया में खबर ही न हो। और यही नहीं, अगले दिन यानी 11 मई
तो भी सुबह के प्रसारण में इसकी झलक देखने को मिली।
सवाल ये है कि बकरे
को कुछ खिलाने की तस्वीरों में ऐसी क्या खबर थी, जिसने टीवी चैनलो पर तूफान ला
दिया? टेलीविजन के
विश्लेषकों की मानें तो ये तो टीवी चैनलों के लिए महज तमाशा था और टीआरपी बटोरने
का साधन था, ऐसी तस्वीरों को दिखाने या उन्हें तूल देने की कोई जरूरत नहीं थी,
लेकिन कमर्शियल नजरिए से चल रहे टीवी के समाचार चैनलों ने उसे न सिर्फ उठाया बल्कि
उसे तब तक चलाते रहे, जब तक मंत्रियों को हटाने का प्रकरण अंजाम तक न पहुंच गया।
ये प्रसारण के बारे में सोच का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष यह भी है कि आज के
आधुनिक-वैज्ञानिक जमाने में अगर इस तरह के अंधविश्वास सामने आते हैं, तो क्या
उन्हें सामने लाना टेलीविजन के समाचार चैनलों का फर्ज नहीं? इस तरह के प्रसारण
को सिर्फ कारोबारी और टीआरपी के नजरिए से क्यों देखा जाता है? क्या सिर्फ इसलिए कि
आम दर्शकों की दिलचस्पी इस घटना में जरूर जगेगी कि केंद्र का एक कद्दावर मंत्री भी
इस तरह के अंधविश्वासों में विश्वास करता है? अब असलियत चाहे जो भी हो, पवन बंसल ने बकरे को क्यों खिलाया, ये तो
वही जानें, हो सकता है वो उनका पालतू बकरा हो और वो उसे रोज खिलाते हों, लेकिन 10
मई की शाम चुंकि टीवी चैनलों के कैमरे उनके दरवाजे पर टिके थे और उनकी पल-पल की
गतिविधि को कैद कर रहे थे, लिहाजा बकरे को खिलाने का उनका काम भी कैमरों मे आ गया
और उसे खबर की शक्ल में चैनलों पर दिखाया जाने लगा। इस मामले की असलियत पर न तो पवन
बंसल की ओर से खुद कोई सफाई आई, ना ही किसी पत्रकार ने उनसे ये पूछने की जुर्रत की
होगी कि, मंत्री जी ने बकरे को क्यों खिलाया और क्या खिलाया? बहरहाल सरकार ने
उनकी बलि ले ली और किस्सा खत्म हो गया। लेकिन, जिस तरीके से ये प्रकरण कई घंटे
टीवी चैनलों पर चलता रहा, उसने एक बार फिर इस बात पर सोचने को मजबूर कर दिया है कि
क्या समाचार चैनल खबरें दिखाने के लिए हैं, या खबरों का तमाशा बनाने के लिए? बकरे को खिलाने का खबरिया पहलू भी अंधविश्वास से
जुड़ा हो सकता है, जैसा मैंने पहले कहा, लेकिन इसे इतना तूल देने, इतना हाईलाईट
करके घंटों दिखाने की क्या जरूरत थी? समाचार चैनलों का ये तर्क हो सकता है कि चुंकि मंत्रियों से इस्तीफे
लिए जाने का मुद्दा गरम था और ये उसका एक अहम पहलू था, लिहाजा बुलेटिन्स को उस पर
केंद्रित करना लाजिमी था। तर्क कुछ भी गढ़े जा सकते हैं, लेकिन सोचना ये होगा कि
अगर कोई खबर किसी तरह आगे नहीं बढ़ रही तो उसे आखिर कितना खींचा जा सकता है और
क्या ये दर्शकों के लिए उबाऊ नहीं होगा?
अगले दिन यानी 11 मई
2013 को शाम साढ़े 6 बजे दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में पत्रकार अरविंद दास
की किताब ‘हिंदी में समाचार’ का लोकार्पण करते
हुए मशहूर टॉक शो होस्ट करण थापर ने टेलीविजन के समाचार चैनलों पर होनेवाली ‘अति’ का मुद्दा उठाया और विदेशी
चैनलों से इस स्थिति की तुलना की, जिससे हमारे भारतीय, खासकर हिंदी समाचार चैनल
गुजर रहे हैं। करण थापर ने कहा कि एक तो हमारे यहां के समाचार चैनल क्रिकेट और
बॉलीवुड जैसे कुछ खास विधाओं को दिखाने के प्रति ‘Obsessed’ हैं। जाहिर है, क्रिकेट और बॉलीवुड से जुड़े मामलों को खबरिया ढांचे में ढाल कर ही
दिखाया जाता है, क्योंकि न्यूज़ चैनल होने के कारण जो भी दिखाया जा रहा है, उसे
प्रासंगिक तो बनाना होगा और साबित भी करना होगा। दूसरी बात जो करण थापर ने कही, वो यही जिसकी
चर्चा पहले हो चुकी है, कि समाचार चैनल कई मामलों को ज्यादा तूल देते हैं, उन पर
ज्यादा वक्त जाया करते हैं, जैसे बंसल प्रकरण – जो खबरों की ‘तमाशागीरी’ और उन्हें खींचने –
दोनों ही स्थितियों का ज्वलंत उदाहरण है। थापर ने खुद इसकी वजहें भी बताईं – उनके मुताबिक,
टीआरपी और रेटिंग्स की होड़ में ‘न्यूज़’ की
क्वालिटी पर असर पड़ रहा है और हमारे देश में ऐसा इसलिए
हो रहा है क्योंकि हमारे यहां समाचार प्रसारण कारोबार है, बीबीसी के पत्रकारों के
लिए ये कारोबार नहीं, उनका काम है, उनकी ड्यूटी है, जिसके कुछ उसूल हैं, और कुछ
नियम कायदे हैं जिनके मुताबिक उन्हें चलना पड़ता है। करण थापर ने दूरदर्शन समाचार
चैनल की अप्रैल-मई महीने की रेटिंग्स का भी हवाला दिया और कहा कि उनके बुलेटिन
देखकर दर्शकों को खबरों की समग्र जानकारी हासिल होती है।
जाहिर है, बीबीसी
हो, या दूरदर्शन, इनकी कार्यप्रणाली में कुछ समानता है जो निजी समाचार चैनलों से
तो भिन्न है। ऐसे में उनके दायित्व, उत्तरदायित्व और प्रसारण के कायदे अलग-अलग हो
सकते है। हालांकि कुछ मुद्दे अपवाद भी हो सकते हैं। लेकिन जब कारोबार और कर्तव्य
की सीमारेखा खींच दी गई तो इस बात पर बहस का प्रश्न ही नहीं उठना चाहिए कि भारत के
समाचार चैनल जो कुछ दिखा रहे हैं वो क्यों दिखा रहे हैं, या उन्हें क्या दिखाना
चाहिए और क्या नहीं दिखाना चाहिए? लेकिन ये मुद्दा बार-बार इसलिए उठता है क्योंकि निजी समाचार चैनल आम
दर्शकों से काफी गहराई से जुड़े हैं और वो जो कुछ दिखाते हैं, उसका कुछ-न-कुछ असर
होता है, उससे लोगों की सोच प्रभावित होती है- ऐसा विश्लेषकों का मानना है।
समाजशास्त्रीय और मीडिया विषयक अध्ययनों में भी इस मुद्दे पर काफी चर्चा हुई है,
जिसके चलते निजी समाचार चैनल अक्सर आलोचनाओं के शिकार होते रहते हैं। इन्हीं
मुद्दों के बरक्स बार-बार समाचार चैनलों के नियमन और उनके प्रसारण के काय़दे तय
करने और उन पर नियंत्रण की भी बातें उठती हैं, जिनका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के
मुद्दे से टकराव होता रहता है। ऐसे में कुछ और सवाल दिमाग में उमड़ते घुमड़ते रहते
हैं।
खाड़ी युद्ध के
दौरान CNN ने जंग का Live प्रसारण दिखाकर
समाचार चैनलों को प्रसारण की एक नई विधा दे दी। भले ही उस दौरान हुए प्रसारणों में
अंधेरे में बमबारी की आवाजें सुनाई दीं, या चंद चिंगारियां या लपटें दिखाई दी हों,
लेकिन इस तरह के प्रसारण ने समाचार चैनलों को दर्शकों को बांधने का एक नया हथियार
दे दिया। ये वो दौर था, जब भारतीय चैनलों के पास उतने संसाधन नहीं थे। लेकिन जब
तकनीक और प्रौद्योगिकी का सहारा मिला तो भारतीय निजी समाचार चैनल हर उस खबर पर Live प्रसारण करने लगे,
जहां भी उन्हें दर्शकों को बांधे रखने की संभावना नजर आई। लेकिन जैसा कि ‘अति’ किसी भी मामले में
वर्जित है, Live
के फायदे हुए, तो नुकसान भी दिखने लगे। नेताओं
के Live भाषणों के प्रसारण पर चैनलों को ‘भोंपू’ का विशेषण मिलने लगा
और कई बार दिलचस्प विजुअल न होना भी दर्शकों को दूर करने लगा। इसके अलावा, मुंबई
में 26/11 जैसे हमलों के दौरान
हुए Live प्रसारण ने सुरक्षा और दूसरे अहम सवाल भी खड़े
किए। ऐसे में सोचना ये पड़ता है कि चैनल Live के हथियार का इस्तेमाल कहां करें और कहां न करें? आज के दौर में हरेक
चैनल के पार बराबर संसाधन हैं, ऐसे में कोई ये भी दावा नहीं कर सकता कि हम ही किसी
खबर पर जगे हुए हैं और दूसरे सो रहे हैं।
अगर हम अभी से 10-15
साल पहले होनेवाले समाचार प्रसारणों की प्रक्रिया पर नज़र डालें, तो काफी फर्क
नज़र आएगा और इससे ये भी साफ होगा कि परिदृश्य किस तरह बदला है और इसका क्या असर
है, क्या फायदे-नुकसान हैं? नुकसानों की तो चर्चा पहले भी हो चुकी है, अब बात ये भी होगी कि बदले
परिदृश्य से समाचार प्रसारण को क्या फायदा हुआ है? 90 के दशक में तो भारत में समाचार प्रसारण का ढांचा आधे-आधे घंटे के चंद
बुलेटिनों में सिमटा रहा, जिनमें 24 घंटे में काफी कम बदलाव दिखते थे और स्टोरीज़
या खबरें ज्यादातर दोहराई जाती थीं। सन 2000 के बाद 24 घंटे के समाचार चैनलों का
प्रसार बढ़ा तो बुलेटिनों की संख्या भी बढ़ी, लेकिन संसाधनों की कमी होने के चलते
खबरों और स्टोरीज़ का दोहराव बढ़ता चला गया, जो दर्शकों के लिए एक तरह से बड़ी
उबाऊ स्थिति थी। इसी दौर, OB वैन के इस्तेमाल का चलन बढ़ने और Live प्रसारण की बढ़ी सुविधा ने टीवी के समाचार चैनलों
को काफी विविधता परोसने का अवसर दिया, जिसका उन्होंने जमकर इस्तेमाल किया और अब भी
करते जा रहे हैं। साथ ही, दूसरी सुविधा सस्ती तकनीक और प्रौद्योगिकी से भी मिली।
वीडियो कैमरे और हल्के कैमकॉर्डर्स का चलन बढ़ा जिससे छोटे-शहरों और कस्बों तक
कैमरे की पहुंच हो गई और हर ऐसी घटना पकड़ में आने लगी, जो खबर बन सकती है, या
दूसरे शब्दों में हर घटना को खबर बनाने की कवायद भी शुरु हो गई। ऐसे में समाचार का
नया नजरिया विकसित हुआ और टेलीविजन के दर्शकों के सामने खबरों का बिल्कुल नया और
आधुनिक परिदृश्य उभरा, जिसमें आम जनजीवन का हर तत्व था- दुख-दर्द था, धोखेबाजी थी,
खिलंदड़ापन था, रंगीनियां थीं। सबसे बड़ा फायदा तो ये हुआ कि अब कोई भी खबर छूटती
नहीं, कवरेज होती है और कहीं न कहीं प्रसारण भी होता है, जिसका व्यापक असर समाज
में विभिन्न मामलों में दिखता है। दूसरा एक और फायदा ये कि दर्शकों को बासी माल
नहीं मिलता, जैसा कि अखबारों में होता है। यानी हर बुलेटिन में कुछ नयापन दिखता
है। बदले परिदृश्य में खबरों को सबसे पहले दर्शकों तक पहुंचाने की ऐसी होड़ शुरु
हुई, जिसका पक्ष कारोबारी नजरिए से जुड़ा है। लेकिन अब तो तमाम चैनलों को ANI और दूसरी एजेंसियों जैसे
एक समान ही स्रोतों से खबरें मिल रही हैं, ऐसे में अब ये उन्हें खुद तय करना है कि
वो क्या पहले दिखाना चाहते हैं और क्या बाद में?
भारत में समाचार
चैनलों की शुरुआत और विकास में बुनियादी फर्क तो संसाधनों की वजह से ही रहा है। अब
के दौर में संसाधन बढ़े हैं, जिसकी वजह से दर्शकों को स्क्रीन पर विविधता दिखने
लगी, चाहे वो खबरों की बहुतायत में हो, या फिर स्क्रीन के ले-आउट में ही क्यों न
हो। जबकि पहले, न खबरें हासिल करने के त्वरित साधन थे, न उनसे जुड़ी ऑडियो-वीडियो
फीड जल्द चैनलों तक पहुंच पाती थी। इसके अलावा, एडिटिंग और खबरों की तैयारी के
अलावा उन पर Live
प्रसारण
का भी इंतजाम नहीं था। रिकॉर्डेड मोड मे चल रहे चैनलों के पास खबरों को अपडेट करने
तक का कोई उपाय नहीं रहता था। लेकिन, हालात बदले, अब प्रौद्योगिकी ने प्रसारण को
काफी आसान कर दिया है। नई तकनीक और प्रसारण सुविधाएं बढ़ने से समाचार चैनलों में
एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए कुछ नया कर दिखाने का दबाव बढ़ा है और इसके चक्कर में
स्क्रीन पर speed
और
movement इतनी बढ़ गई कि उसकी
तुलना आम आदमी की जिंदगी से की जाने लगी और ऐसा हो भी क्यों नहीं, जो समाचार चैनल
पहले राजनीति या चंद बड़े मुद्दों पर केंद्रित रहते थे, वो आम आदमी की जिंदगी से
खबरें तलाशने और बनाने लगे। इस रफ्तार पर ब्रेक कभी-कभी ऐसी घटनाओं के मौके पर
लगता नज़र आया है, जब समाचार चैनलों को लगता है, उनकी भाषा में, वही खबर है- ऐसे
में एक मुद्दे को घंटों लपेटने की जो कोशिश शुरु होती है, वो चैनलों पर खबरों के
तारतम्य को बिगाड़ देती है ऐसा विश्लेषकों का मानना है। इसकी कुछ खास वजहें हैं।
सबसे अहम बात तो ये है कि जब कोई खबर किसी समाचार चैनल पर ब्रेक होती है, तो चैनल
के पास अमूमन उसके बारे में एक लाइन या दो लाइन से ज्यादा जानकारी होती नहीं है,
और न्यूज़ डेस्क पर खबर पर बने रहने का बड़ा दबाव रहता है। ऐसे में जब तक खबर से
जुड़े दूसरे तत्व – यानी विजुअल, बाइट्स और सबसे बढ़कर और जानकारियां न मिलें, या
फिर उसकी पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी न हो, तो भला किसी मुद्दे पर कितनी देर
बात हो सकती है?
ये
ऐसी स्थिति है, जब दर्शकों के लिए खबर उबाऊ हो जाती है और चैनलों के लिए उन पर बने
रहने की जिम्मेदारी निभाना कठिन हो जाता है। वैसे एक तरह से देखा जाए तो अगर खबर
में कोई अपडेट न हो, तो उस पर बने रहना तर्कसंगत नहीं और जब कुछ अपडेट आए तो उसे
जल्द से जल्द दिखाने की कोशिश आदर्श मानी जा सकती है। लेकिन ये समाचार चैनलों के
बीच प्रसारण की आपसी प्रतियोगिता से जुड़ी मानसिकता है, जो चैनलों को एक मुद्दे से
तब तक हटने नहीं देती, जब तक प्रतिद्वंद्वी चैनल उसे न छोड़ दे। ऐसे में खबर से
हटने की पहल कौन करे, इस प्रक्रिया में बुलेटिन का वक्त बर्बाद होता जाता है और
बुलेटिनों के एंकर-कर्णधार उन्हें संभालने में विवश नजर आते हैं, क्योंकि हर चेहरे
में वो क्षमता नहीं होती, जो दर्शकों को बांधे रख सके। ना तो एंकर्स के पास पूछने
के लिए सवाल होते हैं, ना ही Live चर्चा कर रहे रिपोर्टर्स और विश्लेषकों के पास कहने के लिए इतनी
बातें होती हैं जिनमें कुछ नयापन हो और जो खबर को कोई नया मोड़ दे सके। ऐसे में
बुलेटिन किसी डगमगाती नौका के समान दिखता है और न्यूज़ डेस्क और पैनल के लोगों को कमर्शियल
ब्रेक पर जाने का इंतजार होता है, ताकि कुछ पल तो चैन मिले। लेकिन न्यूज़ डेस्क के
सामने फिर वही चुनौती होती है कि वो उसी खबर पर लौटें या फिर किसी और खबर पर बात
शुरु करें। जब खबर पर इनपुट मिल रहे हों, तो उन्हें आगे बढ़ाने में कंजूसी नहीं की
जा सकती, लेकिन, जब कुछ भी नया न हो, तो 15 से 20 सेकेंड में खबर को नए दर्शकों के
लिए दिखाने और दूसरी खबर पर बढ़ने के अलावा कोई और गुंजाइश नहीं बचती। एक ही बात
पर बार-बार लौटना और उसी को दोहराना दर्शकों के लिए बेहद उबाऊ हो सकता है और आपके
वो दर्शक तो आपसे दूर हो ही सकते हैं, जो 10 मिनट से आपको उसी स्थिति में बगैर
अपडेट के ही देखते जा रहे हों। वैसे भी, खबर को दिखाने के तो पर्दे पर और भी तरीके
हैं, टिकर और ब्रेकिंग न्यूज़ की पट्टियों में तो खबर देर तक दिखती रह सकती है।
जहां तक बुलेटिन में
खबर पर बने रहने की बात है, तो सवाल उठता है कि क्या समाचार चैनलों को आधे-आधे
घंटे के बुलेटिनों के पुराने ढर्रे पर लौट जाना चाहिए और खबरों को अपडेट या नवीनता
के साथ दिखाने की कोशिश करनी चाहिए? आधे-आधे घंटे के बुलेटिन तो
अब भी चैनलो पर चलते ही हैं, लेकिन अब हर आधे घंटे बात बुलेटिनों की शक्ल और उनकी
ब्रैंडिंग बदली हुई नज़र आती है। लिहाजा जिस ब्रैंडिंग का बुलेटिन प्रसारित हो रहा
है, उसके मूड के हिसाब से खबरों को किस तरह सजाया जाए? क्या ब्रैंडिंग का
ख्याल रखें या खबर से समझौता करें? खबर ब्रेक करना है, तो उसे क्या किसी भी ब्रैंडिंग के तहत पेश कर दिया
जाए? क्या जब भी किसी
बड़ी खबर का अपडेट आए, तो उसे बुलेटिन तोड़कर प्रसारित करें? ये कुछ ऐसे मुद्दे
हैं जिन पर अलग-अलग राय हो सकती है, हरेक चैनल की अलग-अलग एडिटोरियल लाइन हो सकती
है, जिसके हिसाब से न्यूज़ डेस्क को फैसले लेने पड़ते हैं।
खबरों का तारतम्य
किस तरह बरकरार रहे और बुलेटिन कसा हआ रहे, इसका ख्याल आज के दौर में रखना बेहद
कठिन है और व्यावहारिक भी नहीं है, क्योंकि अगर आप खबरों की आवक और उनकी रफ्तार का
ध्यान रखेंगे, तो कहीं न कहीं कभी न कभी समझौता करना होगा और बुलेटिन्स में उन्हें
शामिल करने के बारे में लचीला रुख ही अपनाना होगा, अन्यथा, या तो खबर छूटेगी, या
दर्शक हटेंगे। खबरों का प्रसारण तलवार की उस धार पर चलने के समान है, जिस पर गर्दन
कटने की आशंका हमेशा रहती है। लेकिन जिसने जोखिम न लिया, वो वीर क्या? ऐसे में समाचार
प्रसारण , खास कर न्यूज़ डेस्क के लोगों में फैसले लेने और उन टिकने के साथ-साथ
उनके लिए पश्चाताप न करने की भी क्षमता होनी चाहिए।
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कुमार कौस्तुभ
12.05.2013,
10 AM
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