‘फ्रेम’
का फलसफा
टेलीविजन के समाचार
चैनलों और मनोरंजन या दूसरी विधाओं के चैनलों में ‘कंटेंट’
के
अलावा साक्षात नजर आनेवाला सबसे बड़ा फर्क जो है वो है ‘फ्रेम’ का यानी पर्दे पर
जो कुछ परोसा जाता है, वो किस तरीके से किस ढांचे में पेश किया जा रहा है?
हर घंटे या आधे घंटे की शुरुआत के वक्त चैनल
मोंटाज और सिग्नेचर ट्यून के साथ स्टिंग और कार्यक्रमों के मुखड़ों का प्रसारण तो
चैनल पैकेजिंग का अहम हिस्सा हैं ही, इसके बाद जो कुछ दिखाया जाता है, फर्क उसी
में है। आमतौर पर मनोरंजन और स्पोर्ट्स चैनलों या करंट अफेयर्स चैनलों के
कार्यक्रमों की शुरुआत में किसी एंकर या सूत्रधार को सामने लाने की परंपरा नहीं
है। अगर कभी ऐसा दिखता भी है, तो उसका खास प्रयोजन होता है। लेकिन समाचार चैनलों
की तो पहचान ही एंकर्स के चेहरों से होती है और वही आम दर्शकों के लिए चैनल के
कर्णधार समझे जाते हैं यानी अगर उनकी प्रस्तुति अच्छी रही तो चैनल की छवि अच्छी
बनती है और अगर उनकी ओर से ग़ड़बड़ी दिखी, तो चैनल की नैया डूबी मानी जाती है।
शायद यही वजह है कि हरेक समाचार चैनल अपने एंकर्स की प्रस्तुति शानदार दिखाना
चाहता है और उसके लिए तमाम जतन किए जाते हैं। इसी कोशिश का एक हिस्सा है पर्दे पर
एंकर का ‘फ्रेम’ जिसका मूल मकसद यही
समझा जा सकता है कि इसके जरिए एंकर्स आकर्षक दिखें और चैनल सबसे अलग दिखे। यही वजह
है कि बुलेटिन्स औऱ कार्यक्रमों में बदलाव के साथ-साथ आपको किसी चैनल पर एंकर का
क्लोज़ अप दिखेगा, तो कहीं मिड शॉट और कहीं लांग शॉट।
समाचार बुलेटिनों और कार्यक्रमों के मूड
के हिसाब से एंकर्स के फ्रेम बदलते हैं। मनोरंजन के कार्यक्रमों में एंकर को
रंग-बिंरगे और एंटरटेनमेंट मूड वाली पृष्ठभूमि पर मिड शॉट साइड स्टैंडिंग, या लांग
सॉट स्टैंडिंग या लांग शॉट सीटिंग फ्रेम में पेश किया जाता है, तो खेलों के बुलेटिन
या कार्यक्रमों में अतिथि शख्सियतों के साथ या उनके बगैर खेलों की पृष्ठभूमि और
खिलाड़िय़ों वाली वेशभूषा में एंकर को पेश करने का चलन समाचार चैनलों में अक्सर
देखने को मिलता है। एंकर्स के अलग-अलग फ्रेम्स की कुछ बानगियां नीचे पेश हैं-
एंटरटेनमेंट कार्यक्रम का एंकर फ्रेम
एंटरटेनमेंट कार्यक्रम का एंकर फ्रेम
समाचार आधारित कार्यक्रम का एंकर फ्रेम
बुलेटिन के एंकर फ्रेम
एंकर्स की प्रस्तुति के लिए ‘फ्रेम’
में
बदलाव का जो फलसफा है, इसके पीछे जो मकसद है, इस पर विस्तार से चर्चा जरूरी है।
मुद्दा सिर्फ ये नहीं है कि फ्रेम अच्छा दिखेगा, तो लोग चैनल को देखना पसंद
करेंगे, बल्कि जानकारों की मानें तो ये समाचार चैनलों की प्रस्तुति में विविधता
दिखाने के अलावा, खास मुद्दों को जोर-शोर से पेश करने का एक जरिया भी है। मसलन, कई
चैनल आजकल ब्रेकिंग न्यूज़ पेश करने के लिए बुलेटिन से अलग किस्म का एंकर फ्रेम
इस्तेमाल करते हैं।
इसी तरीके से खास मुद्दों या ब़ड़ी खबरों
पर चर्चा के लिए विशालकाय स्क्रीन पर दिए गए तथ्यों के साथ एंकर को इंटरैक्टिव
तरीके से भी पेश किए जाने का चलन बढ़ रहा है।
इस तरह ये बड़ी आसानी से समझा जा सकता है
कि एंकर्स के फ्रेम आमतौर पर दो तरह के होते हैं- एक तो खास मुद्दों पर आधारित और
दूसरे जेनेरिक यानी कॉमन पृष्ठभूमि वाले- जो हर तरह की खबरों के मामलों में
इस्तेमाल किए जा सकते हैं।
हालांकि जेनेरिक यानी कॉमन किस्म के एंकर
फ्रेम्स भी आम समाचार बुलेटिनों के लिए अलग किस्म के हो सकते हैं, और मनोरंजन या
खेल की खबरों के लिए उनकी पृष्ठभूमि तैयार करते वक्त कुछ ऐसे एलिमेंट्स शामिल करने
का ख्याल जरूर रखा जाता है, ताकि दर्शक एंकर के फ्रेम और पहनावे को ही देखकर ये
आसानी से समझ ले कि बुलेटिन आम खबरों का है, या खेल का, या मनोरंजन का या फिर
कारोबार का- मनोरंजन के जेनेरिक फ्रेम में भड़कीले और रंगीन पहनावे में एंकर को
मिड शॉट या लांग सॉट स्टैंडिंग तरीके से पेश किया जा सकता है और पृष्ठभूमि भी
रंग-बिरंगी हो सकती है। वहीं बिजनेस और कारोबार की एंकर पृष्ठभूमि में शेयर बाजार
को इंगित करनेवाली कोई तस्वीर होगी और एंकर सूट-बूट और टाई में सोबर पहनावे में
दिखेगा। वहीं खेल के बुलेटिन के लिए एंकर को टीशर्ट या ट्रैक शूट पहनाकर भी
स्टेडियम के बैकग्राउंड के साथ स्क्रीन पर दिखाया जा सकता है। आपको याद होगा आजतक
चैनल के शुरुआती दिनों में फुटबॉल के विश्व मुकाबले से जुड़ी खबरें दिखाने के लिए
एंकर को शॉर्ट्स तक पहनाकर पेश किया गया। मनोरंजन के बुलेटिन करनेवाली एंकर्स तो
आजकल स्क्रीन पर स्कर्ट्स में ही दिखती हैं। वहीं आम खबरों के बुलेटिन के लिए महिला
एंकर्स को सोबर किस्म के सूट, ट्राउजर्स, जैकेट और टॉप के पहनावे का रिवाज है, तो
पुरुष एंकर्स सूट-बूट और टाई के दफ्तरी लिबास में नजर आते हैं।
एंकर बनने के लिए खबरों की समझ होना और बेहतरीन
अभिव्यक्ति क्षमता होना तो जरूरी है, ही उनके लिए पर्दे पर ‘फ्रेम’
में
अच्छा और आकर्षक दिखना भी अब उतना ही जरूरी है। इसके लिए न सिर्फ एंकर्स को ख्याल
रखना पड़ता है, बल्कि चैनल पर सेट और ‘फ्रेम’
भी
इस तरीके से गंभीरतापूर्वक सोच-विचारकर तैयार किए जाते हैं, ताकि चैनल के चेहरे
दमदार दिखें। इसके लिए स्क्रीन पर पर्याप्त हेडरूम और स्पेस देने का चलन है, ताकि
एंकर का ‘फ्रेम’ सिकुड़ा हुआ न लगे,
वो पृष्ठभूमि से चिपका हुआ न लगे। साथ ही, पृष्ठभूमि यानी ‘सेट’
पर
दिए गए खबरों से जुड़े टेक्स्ट और तस्वीरों को भी पेश करने के लिए पर्याप्त जगह
मिले।
आज
के दौर में समाचार चैनलों पर एंकरों को पेश करने के लिए पृष्ठभूमि और ‘फ्रेम’ पर विचार सबसे
ज्यादा लाजिमी हो गया है। इसके पीछे फलसफा ये भले ही हो कि एंकर अच्छा दिखे, तो
चैनल भी अच्छा दिखेगा, लेकिन, अगर पूरी समाचार प्रसारण प्रक्रिया पर गहराई से विचार
करें, तो एंकर्स की ‘फ्रेमिंग’ कितनी महत्वपूर्ण
है, ये बात आसानी से समझ में आएगी। दरअसल, समाचार चैनलों पर स्क्रीन की फ्रेमिंग का मसला समाचार प्रसारण से
सीधे जुड़ा हुआ लगता है। The
Amsterdam School of Communications Research ASCoR समाचारों
से जुड़े एक अध्ययन में कहा गया है कि-
“Framing
involves a communication source presenting and defining an issue. The notion of
framing has gained momentum in the communication disciplines, giving guidance
to both investigations of media content and to studies of the relationship
between media and public opinion. …The potential of the framing concept lies in
the focus on communicative processes. Communication is not static, but rather a dynamic process that
involves frame-building (how frames emerge) and frame-setting (the interplay between
media frames and audience predispositions). Entman (1993) noted that frames
have several locations, including the communicator, the text, the receiver, and
the culture. These components are integral to a process of framing that
consists of distinct stages: frame-building, frame-setting and individual and societal
level consequences of framing (d’Angelo, 2002; Scheufele, 2000; de Vreese,
2002)”[1]
उपरोक्त अध्ययन में ‘फ्रेमिंग’
का
मुद्दा तो प्रसारण के लिए खबरों के निर्माण और एजेंडा सेटिंग जैसे मसलों से जुड़ा
है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर अगर ‘फ्रेमिंग’ को स्क्रीन की
रूपरेखा के मायने में भी लेकर चलें, तो बात सटीक बैठती है। खबर का कारोबार आज के
दौर में जितना गतिमान हो चुका है, उसके लिहाज से दर्शकों से संवाद बिठाने के लिए
पर्दे पर प्रस्तुति में भी तेजी से बदलाव की जरूरत महसूस की गई और ये बदलाव एंकर्स
को पेश करने से लेकर खबरों की स्क्रिप्ट और उनकी पैकेजिंग तक में जरूरी है।
सैद्धांतिक तौर पर उपरोक्त अध्ययन का मकसद खबरों की स्क्रिप्टिंग और उनके ट्रीटमेंट
के मसलों पर विचार करना है, लेकिन मेरी समझ से ये एंकर्स की प्रस्तुति के लिहाज से
भी उतना ही सही है। मिलते-जुलते मुद्दे पर बात करते हुए जापान की Keio
University में हुए एक सेमिनार
में University of
Greenwich: West Kent College के
Media and Communication कोर्स के पूर्व डायरेक्टर James
WATSON ने भी कहा था-
“Frames make an apt metaphor for media because of their
variety, and in part because they are imprecise – allowing us a degree of
flexibility of definition and use. We have picture frames into which we insert
images that in turn, in some way or another, provide us with a representation;
something that has been subject to a number of wider frames, each one
influencing and influenced by the other. It is helpful to differentiate between
frames that are visible, immediately identifiable, and those that are
invisible, whose presence you sense but are often difficult to locate, to put
your finger on. The newspaper page is a frame. We can talk of headlines,
captions, the positioning of photographs, the differing style and size of
print: the bigger the story, the bigger the type-size? Well, not exactly and
not always. With television we can readily identify the framing devices,
illustrated in Figure 1, working at the operational level. Invariably, music serves
as an initial frame, its intention to combine the serious with the buoyant, to
set the tone of what is to follow. It summons our attention as the process of
mediation, between events and presentation, comes into play.”[2]
इसमें दो राय नहीं है कि एंकर्स भी
आखिरकार टेलीविजन के समाचार चैनल के प्रसारण का अभिन्न अंग हैं, और अगर गहराई से
देखें तो एंकर्स चैनल पैकेजिंग का भी हिस्सा हैं, वो उस हर खबर का हिस्सा हैं, जो
पर्दे पर दर्शक के सामने आ रही है, तो उनका हाव-भाव, उनकी मुद्राएं, उनकी
प्रस्तुति – सब कुछ दर्शक को प्रभावित कर सकती है या यूं कहें कि करती भी है। ऐसे
में एंकर्स को किस तरह के ‘फ्रेम’ में बिठाया जा रहा
है, ये शाब्दिक ही नहीं, वास्तविक खबरिया नजरिए से भी काफी अहम मुद्दा है, जिस पर
ध्यान देने की काफी जरूरत है।
एंकर्स के ‘फ्रेम’
से
शुरु हुई बात खबरों तक आई तो यहां ये भी विचारणीय पहलू है कि एंकर के बाद समाचार
चैनलों का स्क्रीन कैसा दिखता है। टेलीविजन की तकनीकी भाषा में तो हरेक विजुअल का
हरेक सेकेंड 24 फ्रेम्स में बंटा होता है, लेकिन थोड़े विस्तार में देखें तो खबर
दर खबर स्क्रीन पर हर ‘फ्रेम’ बदलता हुआ दिखता है।
आमतौर टेलीविजन को विजुअल माध्यम माना जाता है, लेकिन अगर असल में देखा जाए तो आजकल
हिंदी समाचार चैनलों पर स्क्रीन का कम से कम चालीस फीसदी हिस्सा तो चैनल लोगो, टेक्स्ट
बैंड, न्यूज़ टिकर, विज्ञापनों और ऐसे दूसरे तत्वों से भरा होता है, जो विजुअल्स
पर भारी पड़ते हैं और उनके असर को कम कर देते हैं। कुछ बानगियां पेश हैं-
एक तरीके से देखा जाए, तो टेक्स्ट आधारित
ये तत्व भी समाचार चैनलों का जरूरी हिस्सा हैं। कई बार खबरों को पेश करने के लिए
भी टेक्स्ट आधारित ग्राफिक्स का सहारा लेना पड़ता है, जो समाचार चैनलों की
रचनात्मक क्षमता को ही जाहिर करते हैं-
ऐसे में ये तो साफ है कि खबरों की ‘फ्रेमिंग’
से
लेकर स्क्रीन के ‘फ्रेम’ तक को न सिर्फ
आकर्षक, बल्कि खबरिया नजरिए से समृद्ध बनाना भी समाचार चैनलों के लिए अहम है। लेकिन
यहां ये भी ध्यान देना होगा कि हमारे यहां टेलीविजन समाचार प्रसारण के सिद्धांत और
व्यवहार में कितना जरूरी और गैर-जरूरी फर्क नजर आ रहा है।
हालांकि आज के दौर में चैनलों के पर्दे पर
‘फ्रेमिंग’ के जो नमूने देखने
को मिलते हैं, उनके पीछे आधुनिक तकनीक का करिश्मा ही है। लेकिन एक बात ध्यान रखनी
पड़ेगी कि हमने अपनी तरफ से नया बहुत कम किय़ा, विदेशी चैनलों से प्रेरणा काफी ली
है। लेकिन वही बीबीसी और सीएनएन जैसे बड़े विदेशी चैनल अब टेक्स्ट से ज्यादा विजुअल
पर केंद्रित दिख रहे हैं और टेलीविजन के मूल सिद्धांत का पालन कर रहे हैं।
अल-जजीरा जैसे चैनल में भी फुल फ्रेम विजुअल दिखाने पर जोर रहता है और टेक्स्ट के
नाम पर टिकर की एक सेंटीमीटर की पट्टी तेजी से स्क्रीन के निचले हिस्से में चलती
नजर आती है। हां बाइट चलने पर नाम की पट्टी जरूर आती है, लेकिन सेकेंडों में हट भी
जाती है और खबरों की शुरुआत में ही उनसे जुड़ी जानकारियों की पट्टियां नज़र आती
हैं, न कि खबर की पूरी अवधि के दौरान – यही स्थिति बीबीसी और सीएनएन जैसे चैनलों
में भी हैं, जहां इस बात का खास ख्याल रखा जाता है कि टेक्स्ट का कहां औऱ कितना
इस्तेमाल जरूरी है। हमने टेलीविजन की तकनीक और प्रौद्योगिकी विदेशों से हासिल की
है, बुलेटिन्स और प्रोग्रामिंग की तकनीक पर भी ज्यादातर ट्रेनिंग हमें विदेशों से
मिली है, तो वहां के चैनलों की जो अच्छाइयां हैं, वो भी हमें स्वीकार करनी चाहिए
और उन्हें अंगीकृत करना चाहिए। न कि खुद को अलग दिखाने की होड़ और भेड़चाल में
फंसकर प्रदर्शन भौंड़ा हो जाए।
-
कुमार कौस्तुभ
06.05.2013, 06.07 PM
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