“ब्रेक करो..ब्रेक करो..काट लो, काट
लो..तोड़ दो.तोड़ दो..सोर्स क्या है..कितनी देर इस पर रहना है..ग्राफिक्स नहीं
मिला..ऑडियो खराब है”- अफरातफरी
में इस तरह की आवाजें टेलीविजन चैनल के न्यूज़रूम में अक्सर उस वक्त गूंजती सुनाई
देती हैं, जब भी कोई बड़ी खबर प्रसारण के लिए हासिल होती है, वो भी लाइव वीडियो या
ऑडियो इनपुट के साथ। ये ‘लाइव’ समाचार प्रसारण का जमाना है। आमतौर पर आम
दर्शक ‘लाइव’ का मतलब इस स्थिति को समझता है कि घटना
जिस वक्त जिस तरह घट रही हो, उसे तत्क्षण प्रसारित किया जा रहा हो। ऐसा अक्सर होता
भी है, खासकर 15 अगस्त और 26 जनवरी के स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस के कार्यक्रमों,
राजनीतिक रैलियों, नेताओं के भाषणों या किसी बड़े कार्यक्रम की कवरेज टेलीविजन के
समाचार चैनलों पर ‘लाइव’ ही करने का चलन बढ़ गया है। आउटडोर
ब्रॉडकास्टिंग वैन यानी OB वैन
के बढ़ते इस्तेमाल से ये काम आसान हो गया है। लेकिन कई बार जब किसी घटना विशेष का
वीडियो सबसे पहले किसी चैनल को उपलब्ध होता है, तो वो उसे इस अंदाज में प्रसारित
करते देखे जा सकते हैं, जैसे घटना अभी-अभी घट ही रही हो, जो कि वास्तविकता से परे
है। आम तौर पर हादसों या आगजनी की घटनाओं के वक्त कैमरा मौके पर नहीं होता और घटना
की जानकारी मिलने पर टीवी रिपोर्टर और यूनिट को पहुंचने में देर लगती ही है..ऐसे
में तस्वीरें तो हादसे के बाद की ही मिलेंगी..आग लगने के मामलों में आमतौर पर ऐसा
होता है कि आग बुझाने में देर लग जाती है और टीवी रिपोर्टर्स को इतना मौका मिल
जाता है कि वो लपटों का वीडियो बना सकें जिसे कुछ समय बाद भी प्रसारित किया जाए तो
सबसे पहले देखनेवाले दर्शक इस गफलत में पड़ सकते हैं कि घटना अभी ही घट रही है।
हालांकि राजनीतिक प्रदर्शनों और रैलियों के दौरान पुलिस-पब्लिक की झड़प की घटनाओं
की लाइव कवरेज आम हो चुकी है, क्योंकि ऐसी घटनाओं के लिए पहले से टीवी कैमरे मौके
पर मौजूद होते हैं और किसी को पहले से पता नहीं होता कि भीड़ का रेला कब किस तरफ,
किस करवट जाएगा या क्या प्रतिक्रिया होगी, जैसा कि दिल्ली में 16 दिसंबर के गैंग
रेप की प्रतिक्रिया में विजय चौक और राष्ट्रपति भवन पर हुए प्रदर्शनों के दौरान
हुआ। ऐसी घटनाओं की कवरेज वाकई लाइव ही होती है..यानी पूरी तरह जीवंत और दर्शकों
को पल-पल घटित हो रहे घटनाक्रम से रू-ब-रू होने का मौका मिला। राजनीतिक
प्रदर्शनों या पब्लिक रैलियों के दौरान
ऐसी कवरेज आम हो चुकी है, जब टेलीविजन पर समाचार सही मायने में लाइव प्रसारित होते
देखा जा सकता है। वैसे ‘लाइव’ प्रसारण के कई और पहलू हैं और कई लफड़े
भी हैं, जिनसे टेलीविजन समाचारों में काम करनेवाले लोग अक्सर दो चार होते हैं।
सबसे पहले ये
समझना जरूरी है कि ‘लाइव’ समाचार प्रसारण यानी सीधा प्रसारण है
क्या चीज? जैसा
पहले कहा- आम दर्शक तो टीवी स्क्रीन पर दाएं या बाएं कोने पर LIVE लिखा देख यही समझता है कि जो भी प्रसारण
हो रहा है, वो सीधे हो रहा है, जीवंत है यानी रिकॉर्डेड कुछ भी नहीं है..ये आम
दर्शकों के लिए बड़ी हैरानी वाली बात है कि आखिर सबकुछ सीधे कैसे प्रसारित हो रहा
है...टीवी वाले तो कमाल का काम करते हैं ..आखिर कैसे इतना सीधा प्रसारण ? लेकिन वास्तविकता अलग है। आमतौर पर ‘लाइव’ प्रसारण का मतलब दो तरह का है- एक तो टेलीविजन
के समाचार चैनलों पर हो रहा प्रसारण और टेलीविजन चैनलों का प्रसारण ।
चैनलों पर हो रहे प्रसारण का मतलब ये कि जो कुछ प्रसारित हो रहा है वो किस तरीके
से हो रहा है और चैनलों का प्रसारण अपने आप में किस तरह हो रहा है। निजी समाचार
चैनलों को स्वदेश से सैटेलाइट अपलिंकिंग सुविधा मिलने के बाद आमतौर पर तमाम चैनलों
का प्रसारण इस मायने में लाइव होता है कि उन्हें अपलिंकिंग के लिए प्रसारण सामग्री
किसी और देश पहले से भेजने की जरूरत नहीं होती। 90 के दशक में कई समाचार चैनलों का
प्रसारण हांगकांग या सिंगापुर से अपलिंकिंग के जरिए हुआ करता था, लिहाजा चैनल के
स्टूडियो से रिकॉर्डिंग और फिर वास्तविक प्रसारण में चंद सेकेंड का फर्क हुआ करता
था। लेकिन अब चुंकि ज्यादातर चैनलों को स्वदेश से ही सैटेलाइट अपलिंकिंग की अनुमति
है, लिहाजा चैनल या उसके स्टूडियो से सैटेलाइट संपर्क के जरिए आमतौर पर सीधा
प्रसारण ही होता है और तमाम चैनल हमेशा ‘लाइव’ की
स्थिति में रहते हैं, इस मायने में कि वो जब भी जो चाहें तत्क्षण प्रसारित कर सकते
हैं और उसमें कोई देर नहीं हो सकती। ये तो चैनलों
के प्रसारण की बात हुई। अब बात पर चैनलों पर हो रहे प्रसारण की – तो इस
मायने में कोई भी चैनल चौबीसों घंटे सिर्फ इस मायने में ‘लाइव’ प्रसारण की स्थिति में होता है कि उनके
एंकर ‘लाइव’ होते हैं- वो जिस वक्त समाचार पढ़ते
हैं, वो उसी वक्त प्रसारित होता है और अगले मिनट या चंद सेकेंड बाद ही उसी स्टोरी में
उनके लिए बदलाव की गुंजाइश रहती है, लेकिन एंकर लीड के बाद जो भी आइटम हो, अगर कोई
स्टोरी पैकेज हो, तो वो पहले से तैयार हो सकता है, एक तरह से रिकॉर्डेड हो सकता है
वो खुद ‘लाइव’ नहीं होगा, उसमें बदलाव प्रसारण के
दौरान तत्काल नहीं हो सकता, उसमें वक्त लग सकता है। और अगर कोई गलती हुई तो उसे
सुधारकर पेश करने में देर भी हो सकती है, जैसा आमतौर पर चैनलों पर देखने को मिलता
है कि अगर कोई गलती नहीं पकड़ी जा सकी, तो बार-बार तब तक ऑन एयर होती रहती है, जब
तक कि कोई उस पर ध्य़ान देकर उसे ठीक न करा दे। लेकिन जिन आइटम का ‘लाइव’
प्रसारण हो, उनमें तो भूल-सुधार की गुंजाइश बराबर रहती है, चाहे वो एंकर का पढ़ा
जाने वाला पीस हो, या फिर कोई ग्राफिक्स की पट्टी। इस तरह चैनलों का प्रसारण
लाइव भी हो, तो चैनलों पर होनेवाला प्रसारण
हमेशा लाइव नहीं भी हो सकता है। यही वजह है कि आप खास मौकों पर टीवी स्क्रीन पर
किसी कोने में LIVE लिखा
हुआ पाएंगे।
‘लाइव’ प्रसारण का मतलब आमतौर पर यही होता है
कि किसी भी माध्यम के जरिए घटना के वीडियो और ऑडियो कंटेंट को दर्शकों या श्रोताओं
तक सीधे पहुंचाया जा रहा हो। पुराने जमाने में ये संभव नहीं था, लेकिन सूचना
प्रौद्योगिकी के विस्तार औऱ आधुनिक प्रसारण प्रौद्योगिकी में आउटडोर ब्रॉडकास्टिंग
वैन्स और सैटेलाइट्स के जरिए ब्रॉडकास्टिंग की नई-नई तकनीकें आने से ये काम आसान
हो गया। वीकिपीडिया और अन्य स्रोतों के मुताबिक, माना जाता है कि पहले पहल बीबीसी
ने ही 30 सितंबर 1929 को लाइव प्रसारण शुरु किया था। इसके बाद अमेरिका और ब्रिटेन
में तो कई ऐसे बड़े मौके सामने आए, जब लाइव टेलीविजन प्रसारण ने अपनी सार्थकता
साबित की। 90 के दशक में खासकर खाड़ी युद्ध के दौरान और फिर 2001 में 9/11 के हमले के दौरान घटनाओं के लाइव
प्रसारण ने टेलीविजन समाचार को नया आयाम दिया। ये वो दौर था, जब भारत में टेलीविजन
समाचार चैनल पंख पसार रहे थे। भारत में टेलीविजन के लाइव प्रसारण की शुरुआत यूं तो
दूरदर्शन के जरिए 26 जनवरी और 15 अगस्त के कार्यक्रमों के अलावा ओलंपिक और एशियाई
खेलों के प्रसारण से मानी जा सकती है। लेकिन खबरिया नजरिए से बजट के सीधे प्रसारण
के अलावा 1999 में चुनाव नतीजों के मैराथन प्रसारण को ‘लाइव’ दिखाने की पूरी कोशिश हुई। हालांकि इस
दौरान भी ज्यादातर स्टूडिय़ो की चर्चाएं ही ‘लाइव’
रहीं, और बाकी आइटम्स पहले से तैयार यानी टेप पर रिकॉर्डेड ही इस्तेमाल किए गए। 2001
में संसद पर आतंकवादी हमले की घटना तक भारत के निजी समाचार चैनल काफी हद तक ‘लाइव’ प्रसारण की स्थिति में आ चुके थे।
लिहाजा इस घटना के बाद से अब तक ‘लाइव’ प्रसारण के फलक का न सिर्फ विस्तार हुआ
है, बल्कि अब ‘लाइव’ प्रसारण टेलीविजन के समाचार चैनलों की
अहम जरूरत बन चुके हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण मुंबई में 26/11 के हमलों के दौरान दिखा जब करीबन 3 दिन
तक देश के तमाम समाचार चैनल खबर पर लगातार ‘लाइव’ बने
रहे। हालांकि ऐसी घटनाओं की कमी नहीं, जब घटनाएं पहले हुईं और उनके घटित होने के
बाद घंटों टेलीविजन चैनलों पर उनसे जुड़ी खबरों का ‘लाइव’ प्रसारण होता रहा- मसलन फरवरी 2013 में
हैदराबाद में हुए जानलेवा धमाके, या इससे पहले 2008 में दिल्ली में हुए सीरियल
ब्लास्ट- इन घटनाओं के घटित हो जाने के बाद उनके ‘लाइव’ प्रसारण को लेकर न सिर्फ दर्शकों में
गफलत पैदा हुई, बल्कि ‘लाइव’ का महत्व भी घटता नज़र आया। ऐसा न हो,
इसके लिए ‘लाइव’ प्रसारण के पहलुओं को समझना जरूरी है।
ये तो स्पष्ट है
कि हर खबर को सही मायने में ‘लाइव’ प्रसारित करना संभव नहीं, क्योंकि घटना
की जानकारी और उसका वीडियो-ऑडियो सोर्स हासिल होने में समय लगता है और प्रसारण की
स्थिति तक आते-आते देर हो जाती है। ऐसे में किसी भी खबर को ‘लाइव’ कैसे ट्रीट करें, ये सवाल समाचार चैनल
में काम करनेवालों के लिए रोजमर्रा का मामला है। आमतौर पर देखें तो खबरों की ‘लाइव’ ट्रीटमेंट खबरों के प्रसारण से जुड़ा
हुआ ही मामला है। किसी बड़ी खबर के मामले में या फिर किसी खबर पर जोर देने के लिए उसके साथ कुछ ऐसे प्रसारण की योजना बनाई जाती
है, जिससे उसके बारे में अपडेट मिल सके, उसका विश्लेषण हो सके, उसकी चौहद्दी बांधी
जा सके- इसके लिए घटनास्थल से संवाददाताओं से सीधे बातचीत, विशेषज्ञों या खबर से
जुड़े लोगों से फोन पर या वीडियो सोर्स पर सीधे स्टूडियो से बातचीत के विकल्प चैनलों
के पास होते हैं, जिन्हें ‘लाइव’ प्रसारण के लिए इस्तेमाल किया जाता है। दिल्ली
या हैदराबाद के सीरियल ब्लास्ट के मामलों को देखें, तो खबर ब्रेक होने के बाद उससे
जुड़े तमाम अपडेट अगले दिन शाम तक और उसके बाद भी यानी 24 से 36 घंटे बाद तक आते
रहे। वैसे तो कुछ वक्त घटना घटित होने के बाद समाचार चैनलों तक पहुंचने में ही लग
जाता है, लेकिन, ऐसा आम तौर पर होता है कि खबर आने के बाद घटनाक्रम की जानकारी
जुटाने में लगी संवाददाताओं की फौज लगातार कुछ न कुछ जानकारी भेजती रहती है और
घटनास्थल के माहौल से अपडेट देती रहती है जिससे खबर में जिज्ञासा बनी रहती है और
उसे जिंदा रखा जा सकता है- ऐसा ही इन खबरों के मामलों में भी हुआ...तकरीबन 2 दिन
तक लगातार नई-नई जानकारियां और नए-नए इनपुट हासिल होते रहे, जिनकी बिना पर बुलेटिन-दर-बुलेटिन
‘लाइव’ के तौर पर प्रसारित करना लाजिमी हो गया।
ये बात 26/11 के
मुंबई हमलों में भी थी और उस दौरान सबसे बड़ी बात ये थी कि समाचार चैनलों के लिए
लाइव दिखाने को काफी कुछ था- मुंबई के ताज होटल में लगी आग से लेकर चाबाद हाउस में
कमांडो ऑपरेशन तक तमाम ऐसी घटनाएं हुईं, जिनके प्रसारण के लिए अलग-अलग जगहों पर
लगे कैमरे पल-पल हो रही गतिविधियों को सीधे समाचार चैनलों तक पहुंचाते रहे और
समाचार चैनलों ने कुछ भी आगे-पीछे सोचे बगैर उन्हें सीधा प्रसारित किया, जो आज भी
समाचार चैनलों के रिकॉर्ड में दर्ज है। हालांकि इस प्रसारण के क्या अच्छे-बुरे
पहलू हैं, इस पर भी बहस छिड़ गई और एक बार फिर से समाचार चैनलों के प्रसारण के
नियमन का मुद्दा उठ खड़ा हुआ, लेकिन एक आम टेलीविजन कर्मी या दर्शक के नजरिए से
देखें, तो टेलीविजन के समाचार चैनलों ने बखूबी अपना काम किय़ा और ये खबर का एक ऐसा मोर्चा
था, जहां तमाम पत्रकार जमकर डटे रहे। टीवी के आलोचक कह सकते हैं कि बड़े टीवी पत्रकारों
के लिए ये अपनी मौजूदगी दर्ज कराने और अपना ज्ञान बघारते हुए टीवी की फुटेज खाने
का मौका रहा, लेकिन इसको क्यों भूलते हैं कि टीवी समाचारों की पहचान भी तो आखिर
उन्हीं चेहरों से बनी है?
बहरहाल,
26/11 के
हमलों के ‘लाइव’ प्रसारण ने क्या दिखाएं और क्या न
दिखाएं इस पर एक नई बहस जरूर छेड़ दी, लेकिन सीधा सवाल ये है कि जब मौके पर ख़ड़ा
कैमरा स्टूडियो और प्रसारण केंद्र से सीधा जुड़ा हो, तो आखिर कैमरा पर्सन
क्या-क्या दिखाने से बच सकता है या परहेज कर सकता है? जिन टीवी चैनलों के कैमरों ने अमेरिका
में 9/11 के
आतंकी हमलों के दौरान WTC से
विमानों के टकराने की तस्वीरें कैद कीं, क्या उन्होंने पहले सोचा होगा कि वो कितनी
भयानक घटना दिखाने जा रहे हैं? आज
भी WTC से
विमानों के टकराने की तस्वीरों का जोर-शोर से प्रसारण होता है, ये याद दिलाने के
लिए कि ये दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी हमला था, उसे बिल्कुल BLURR यानी धुंधला नहीं किया जाता। लेकिन हमले के बाद
मैनहटन के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के मलबे में पड़ी लाशों और वहां पड़े खून के छींटों
को किसी अमेरिकी या ब्रिटिश चैनल ने नहीं दिखाया। खून नहीं दिखाने के अपने नैतिक
तर्क है। हमारे यहां तो खून दिखाया जाता है BLURR यानी धुंधला करके, लाशें भी दिखाई जाती हैं, पट्टी लगाकर,
ताकी मानवीय भावनाएं आहत न हों, भड़कें नहीं। खैर नैतिकता के इन नियम-कायदों का
मामला अलग बहस का मुद्दा है। हाल ही में रशिया टुडे समेत कई विदेशी चैनलों ने
अफगानिस्तान में नाटो के एक मालवाहक विमान के हादसे की भी भयानक तस्वीरें प्रसारित
कीं, एक और विमान हादसे की ऐसी तस्वीरें प्रसारित हुईं, जिनमें विमान आग के गोले
में बदलता दिखता है- ये तस्वीरें लोगों को हैरान भी कर सकती है और उनमें खौफ भी
पैदा कर सकती हैं। बहस संवेदना से जुड़ी है। एक तरह से देखें तो विमान हादसे की उन
तस्वीरों और ज्वालामुखी विस्फोट की तस्वीरों में ज्यादा फर्क नहीं दिखता। लेकिन, अगर
मानवीय संवेदना के नजरिए से देखें, तो सवाल है कि क्या ऐसे हादसे की तत्वीरें
दिखाना जायज है, जिसमें कई लोग जिंदा जलकर मर गए? भारत के कई समाचार चैनलों ने उन
तस्वीरों को अजूबा मानते हुए जमकर दिखाया, लेकिन फिर वही मुद्दा है कि मौत की
विभीषिका को आप खेल-तमाशे की तरह कैसे दिखा सकते हैं?
सवाल तो फिर भी वही है कि ‘लाइव’ प्रसारण के लिए अगर कहीं कैमरा लगा है,
तो वो क्या दिखाए और क्या न दिखाए? और कुछ भी ऐसा दिखाने से कैसे बचे जो दिखाने योग्य नहीं है और
कैसे वो सब कुछ दिखा सके, जो जमकर दिखाना चाहिए?/यहां जिम्मेदारी संवाददाताओं और
कैमरापर्सन्स पर आ जाती है कि वो घटनाओं की लाइव कवरेज के दौरान बेहद सावधानी
बरतें और इस बात का ध्यान रखें कि जो कुछ उनके कैमरे में आ रहा है, वो दिखाने योग्य है या नहीं? साथ ही, तस्वीरें साफ-सुथरी औऱ सही
फ्रेम में हों, इसके लिए भी कैमरापर्सन को अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ सकती है।
विपरित परिस्थितियों में हो रही लाइव कवरेज के प्रसारण पर नियंत्रण रखने के लिए
समाचार चैनल को प्रोडक्शन कंट्रोल रूम के कर्मियों यानी पैनल प्रोड्यूसर और
टेक्निकल डायरेक्टर को भी चौकन्ना और सतर्क रहना चाहिए और जैसे ही किसी तस्वीर में
कुछ अदर्शनीय दिखे, तो वो किसी दूसरे वीडियो स्रोत या एंकर सोर्स पर जाने के लिए
आजाद रहते हैं। साथ ही, पैनल प्रोड्यूसर और टेक्निकल डायरेक्टर को उन तमाम वीडियो
सोर्स का ज्ञान होना चाहिए और उन पर नजर रखनी चाहिए, जिन पर खबर से जुड़ा वीडियो
मिल रहा हो, ताकि वो सबसे अच्छे विजुअल का प्रसारण आवश्यकतानुसार कर सकें।
समाचार चैनलों पर ‘लाइव’ कवरेज या ‘लाइव’ प्रसारण कई मायनों में अच्छे माने जाते
हैं, तो इससे जुड़ी कई बुनियादी दिक्कतें भी हैं, जिनको लेकर न्यूज़ डेस्क और PCR के स्टाफ को काफी सजग और सतर्क रहना
पड़ता है। ‘लाइव’ कवरेज या ‘लाइव’ प्रसारण अच्छे इस मायने में हैं, कि इस
दौरान बुलेटिन का समय बड़ी आसानी से कट जाता है और ये तय करने की जरूरत नहीं पड़ती
कि रनडाउन में कब क्या और कैसे चलेगा? लेकिन जो खतरनाक पहलू है, वो ये कि अगर कमर्शियल ब्रेक्स हैं,
तो उनका क्या इंतजाम होगा क्योंकि कमर्शियल्स का प्रसारण चैनल के कारोबारी पहलू से
जुड़ा होता है और खबरों को पकड़ने के चक्कर में आम तौर पर चैनल कारोबारी हितों से
समझौते करने में बचते हैं। ऐसे में ये ध्यान रखना होता है कि ‘लाइव’ के दौरान कमर्शियल्स का क्या होगा? दूसरा एक और महत्वपूर्ण मुद्दा ‘लाइव’ कवरेज के दौरान विजुअल के साथ प्रसारित
किए जानेवाले ग्राफिक्स के टेक्स्ट्स का है जो खबरों के बारे में जानकारी देते
हैं। आम तौर पर ग्राफिक्स विंडो और टेंपलेट के जरिए प्रसारित किए जाते हैं, जिन पर
खबरों से जुड़ी जानकारी देने की सुविधा होती है। ‘लाइव’ कवरेज के दौरान जितनी तेजी से जानकारियां
हासिल होती हैं, उतनी ही तेजी से ग्राफिक्स भी अपडेट करने की अपेक्षा होती है और
अपडेट न होने की स्थिति में एक ही जानकारी बार-बार दोहराई जाती है, जो प्रसारण को
बोझिल बना देती है। ऐसे में अगर खास जानकारियां न मिल रही हों, तो घटना या खबर के
बैकग्राउंडर के तथ्यों को भी ग्राफिक्स में शामिल करना बेहतर स्थिति हो सकती है। यही
बात टिकर की पट्टियों और ब्रेकिंग न्यूज़ की पट्टियों के साथ भी लागू होती है,
जिन्हें ‘लाइव’ कवरेज के दौरान लगातार अपडेट किया जाना
जरूरी है। ये बातें तो उन खबरों के लिए हैं, जिनका वीडियो प्रसारण के लिए ‘लाइव’ हासिल हो रहा हो। अगर किसी खबर का लाइव
ट्रीटमेंट किया जा रहा हो यानी उस पर संवाददाता या किसी अन्य व्यक्ति यानी गेस्ट
से बातचीत हो रही हो, तो सतर्कता और भी जरूरी है। ऐसी स्थिति में सबसे पहले तो ये
ध्यान रखना पड़ता है संवाददाता या गेस्ट के वीडियो और ऑडियो सोर्स समय से PCR और स्टूडियो को मिलें। चुंकि वीडियो
सोर्स अलग होता है और ऑडियो टेलीफोन लाइन और मोबाइल फोन के जरिए कनेक्ट किया जाता
है, तो दोनों में से किसी भी एक से संपर्क में देर हुई, तो खबर के प्रसारण पर असर
पड़ सकता है। इसके लिए न्यूज़ डेस्क, एसाइनमेंट डेस्क और PCR में तालमेल बेहद जरूरी है। जब संवाददाता
या गेस्ट PCR और
स्टूडियो से कनेक्ट हो जाएं तो एंकर पर अहम जिम्मेदारी ये होती है कि वो संवाददाता
या गेस्ट से खबरों से जुड़े सार्थक सवाल पूछें और जितनी जरूरत हो, उतना ही पूछें।
साथ ही, खासकर ये संवाददाताओं की भी जिम्मेदारी है कि वो सवालों पर किस तरह सही
तरीके से प्रतिक्रिया दें, किसी मुद्दे पर कितना समय खर्च करें। आम तौर पर एंकर्स
खबरों और मुद्दों से गहराई से वाकिफ नहीं होते, ऐसे में न्यूज़ डेस्क और पैनल
प्रोड्यूसर से ये भी अपेक्षा की जाती है कि एंकर्स को पहले से सवाल सुझा दें ताकि
वो ऑन एयर कोई ऐसी बात न कह जाएं, जो हास्यास्पद हो या फिर शर्मनाक साबित हो जाए।
संवाददाता या गेस्ट से बातचीत के दौरान किस तरह किन ग्राफिक्स का इस्तेमाल करना
है, और किन पट्टियों का कब-कहां इस्तेमाल करना है, ये पैनल प्रोड्यूसर को ध्यान
रखना पड़ता है। आमतौर पर कई बार उन्हीं पर पट्टियों को अपडेट करने की भी
जिम्मेदारी आ जाती है। साथ ही ये भी ख्याल रखना पड़ता है कि कब कहां कौन सा विजुअल
भी इस्तेमाल करना मुफीद रहेगा?
तो कुल मिलाकर ‘लाइव’ प्रसारण के अच्छे और बुरे दोनों पहलू
हैं, जिनसे टीवी के समाचार कर्मियों को रोजाना गुजरना पड़ता है और ये प्रसारण ये
सीख भी देता है कि किन खबरों को किस तरह प्रसारित
करना चाहिए। अभ्यास और अनुभव से प्रसारण कर्मी फायदा उठाते हैं और इसका असर चैनलों
के प्रसारण पर झलकता है। समाचार चैनलों की जिम्मेदारी चुंकि खबरें दिखाना ही है,
लिहाजा, जब भी किसी खबर पर ‘लाइव’ वीडियो की सुविधा हो, तो उसे दिखाने से
परहेज नहीं करना चाहिए, लेकिन सीमाओं का ध्यान रखते हुए कि क्या दिखाना है और क्या
नहीं? प्रसारण
के 30 सेकेंड से 1 मिनट तक की अवधि में आप ये फैसला कर सकते हैं कि क्या अमुक खबर
के ‘लाइव’ वीडियो का प्रसारण जारी रखा जा सकता है? अगर दिक्कत है, तो आपको दूसरी खबर पर
जाने की आजादी है और आप इसके लिए भी स्वतंत्र होते हैं कि अगर विजुअल अच्छे हों तो
आप फिर से किसी खबर पर लौट सकते हैं। ऐसे में जल्दी-जल्दी फैसले लेने की क्षमता भी
लाइव प्रसारण के लिए बेहद जरूरी है – फैसला सही है या गलत ये तो आपका अनुभव भी बता
सकता है और अगर आप काम में नए हैं, तो आपके लिए अपने फैसले को परखने का सबसे अच्छा
मौका ‘लाइव’ प्रसारण में मिल सकता है क्योंकि इस
दौरान चीजें तेजी से बदलती हैं और एक साथ कई मोर्चों पर काम करना पड़ सकता है,
जिसका अनुभव और मज़ा व्यावहारिक तौर पर ही किया सकता है- कल्पना करके नहीं। क्योंकि
आपने अगर चैनल देखते हुए ‘लाइव’ की कल्पना की तो उससे डर लगेगा, लेकिन
जब आप उन हालात में काम करेंगे, तो ‘लाइव’ से डरेंगे नहीं, उससे ‘लव’ करेंगे!
-कुमार कौस्तुभ
19.05.2013, 10.10 AM
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