24 साल पहले, 15 अगस्त 1991 को मैं नई दिल्ली रेलवे
स्टेशन पर वैशाली एक्सप्रेस से उतरा ..पहली बार दिल्ली आया था..मन में नई उम्मीदें
थीं.. रोजी-रोटी के लिए जिंदगी बनाने का इरादा था..दिल्ली में राह दिखाने के लिए
कुछ सीनियर थे, जो मुझसे कई साल पहले से दिल्ली आकर यहां अपना ठिकाना बना चुके थे
और आगे की राह तलाश रहे थे...क्योंकि उनके लिए भी तब बिहार में कुछ करने का कोई
रास्ता नहीं बचा था...और मेरे जैसे लड़कों के लिए भी.. मेरे आसपास, मुझसे कुछ पहले
और मुझसे कुछ बाद मेरे कई साथी, और कई अनजान लड़के भी तब दिल्ली में अपना भविष्य
देख रहे थे..कुछ इंजीनियरिंग और मेडिकल की तैयारी कर रहे थे, तो कुछ दिल्ली
विश्वविद्यालय और दूसरे संस्थानों में पढ़ाई करके जिंदगी बनाना चाहते थे..1990-91
का दौर उससे दस-बीस साल पहले के वक्त से अलग था, जब हमारे यहां के कई छात्र, जिनके
पास सुविधा थी, पूंजी थी, शौक से करियर की नई ऊंचाइयों को छूने के लिए दिल्ली आते
थे, ये बात दीगर है कि कितने लोग कहां तक पहुंचे..लेकिन मैं आपको 90 के दशक के जिस
दौर में ले आया हूं उस वक्त बिहार से दिल्ली आना तमाम छात्रों की मजबूरी बन गया
था..ऐसे भी छात्र थे जिसके घरवालों के पास पैसे की कमी नहीं थी और ऐसे भी थे,
जिनके परिजन बड़ी मेहनत से गाढ़ी कमाई जोड़कर अपने बच्चों को दिल्ली भेज रहे थे कि
वो जिंदगी में कुछ बन सकें, अच्छी पढ़ाई कर सकें, अच्छी नौकरी हासिल कर सकें...ऐसा
नहीं था कि उस वक्त बिहार में रहते हुए भी लड़के अच्छा नहीं कर रहे थे, औऱ उन
लोगों ने बेहतरीन करियर नहीं बनाया, लेकिन तब सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य के
मद्देनजर बहुसंख्यक मानसिकता यही बन चुकी थी कि बिहार में कुछ हासिल नहीं
होनेवाला.. और इसी के चलते हमने भी वैशाली एक्सप्रेस से दिल्ली का सफर किया...और
15 अगस्त 1991 को जिंदगी में नई आजादी हासिल की...पारिवारिक बंधनों से आजादी, खुद
की बदौलत कुछ कर गुजरने की आजादी...बिहार के अंधकारमय भविष्य से आजादी..

सच्चाई तो
यही है कि जो जहां रहता है, वो वहीं का हो जाता है, वो चाहकर भी वहां नहीं लौट
सकता, जहां उसकी जड़ें थीं, यानी आज के दौर में कर्मभूमि का ही महत्व है, जन्मभूमि
का नहीं। अब सरकारी नौकरियों का दौर काफी हद तक जा चुका है, पेंशन भी नहीं मिलती। लिहाजा,
60-65 साल में रिटायरमेंट का कोई मतलब ही नहीं, जब तक शरीर साथ दे, तब तक काम कर
सकते हैं ..और काम भी वहीं मिलेगा, जहां आपने अपनी जगह बनाई है।
नीतीश
सरकार ने शुरुआत में ये उम्मीदें जगाई थीं कि हजारों-लाखों बिहारी अपनी जन्मभूमि
से जुड़ सकेंगे, लेकिन 10 साल बाद भी जमीनी हकीकत यही है कि ज्यादातर प्रवासियों
का ( कुछ अपवाद हो सकते हैं) जुड़ाव अपने पुश्तैनी घर से बस तब तक है जब तक
माता-पिता और चंद गहरे रिश्तेदार उस जगह पर हैं, जो आपका पुश्तैनी घर है...क्योंकि
अब न आप लौट सकते, ना ही आपके बाल-बच्चे वहां लौटेंगे..कानूनन भी अगर आप लंबे समय
से कहीं औऱ रह रहे हैं और वहां के वोटर हो गए, तो आपके पुश्तैनी संसदीय या
विधानसभा क्षेत्र की वोटिंग लिस्ट में आपका नाम नहीं होना चाहिए..तो जाहिर है,
जहां ज्यादा समय गुजार रहे हैं, जहां आपके लिए काम है, वहीं का होकर रहना
पड़ेगा... 20-30 साल बाद अगर कुछ
सोचकर, किसी उम्मीद से घर लौटेंगे भी तो स्थानीय लोग यही पूछेंगे – अब क्य़ा करने
आए हो, यही कहेंगे- क्या बाहर कुछ काम नहीं था? कुछ लोगों को ये भी लगेगा कि आप उनके काम में बाधा बन कर खड़े हो सकते
हैं, या उनसे मुकाबला कर सकते हैं यानी ऐसा मुमकिन नहीं कि आप वापसी करें तो आपका
स्वागत ही हो, हो सकता है नई-नई सामाजिक मुश्किलें आपका इंतजार कर रही हों, जो
आपकी जमीन देखता होगा, वो अलग परेशान हो जाएगा, अगर आप कुछ नया काम करेंगे, तो लोग
संशय की नजर से देखेंगे.. हमारे कई दोस्त अब भी ये सोचते हैं कि नौकरी का वक्त पूरा करने यानी कथित
रिटायरमेंट के बाद पुश्तैनी इलाके में जाकर ही कुछ करेंगे। पर बड़ा सवाल ये है कि
करेंगे तो क्या करेंगे? बहरहाल ये अलग चर्चा का विषय है औऱ
इस पर सबकी अपनी-अपनी राय हो सकती है। हकीकत तो यही है कि आपको लौटना भी होगा तो
अकेले, परिवार सहित लौटना मुमकिन नहीं, क्योंकि बाल-बच्चे अपना करियर देखेंगे, उनके
पास आपके साथ रहने के लिए क्या, इतना भी वक्त नहीं होगा कि वो आपको आकर कभी-कभार
देख जाएं, आपसे मिल जाएं, क्योंकि वो कहीं औऱ अपने भविष्य़ की उड़ान भरेंगे। ऐसे में 25-30 साल पहले बिहार छोड़ चुके मुझ जैसे उन हजारों-लाखों बिहारियों
के सामने यही सवाल है कि आखिर अब क्यों जाएं बिहार? क्या गांव या शहर की जमीन के उस टुकड़े के नाम पर जो दस्तावेजों में आपके
नाम लिखा है? वही ज़मीन जिसकी देखभाल के लिए अगर आप मौके पर न रहे, तो
दूसरे लोग कब्जा कर सकते हैं? आपके चंद दिन न
रहने पर आपके पुश्तैनी इलाके में आपकी जिस अचल संपत्ति की सुरक्षा तक संभव नहीं, असामाजिक
लोग आपकी पहचान मिटाने को आतुर रहते हैं, उसको आप कब तक ढो सकते हैं? दीगर बात है कि देश
ही नहीं दुनियाभर में बिहार से ‘बेघर’ हो चुके हमारे तमाम भाई-बंधु अपने हुनर औऱ अपनी मेहनत से न
सिर्फ अपने जीने का बंदोबस्त कर रहे हैं बल्कि अहम मुकाम भी बना चुके हैं, खुद को ‘बिहारी’ कहते हुए गर्व भी होता है, तो हमारे
तमाम भाइयों को इसी पहचान के चलते जिल्लत भी झेलनी पड़ती है। भले ही वो बिहार का
नाम दुनियाभर में कर रहे हों, लेकिन बिहार ने प्रवासियों को क्या दिया? उन्हें क्यों जाना चाहिए बिहार?
ये सवाल ज़ेहन
में इसलिए उठा है क्योंकि हमारे कई मित्र आजकल अपील कर रहे हैं बिहार में ‘जंगलराज’ आने से रोकने के
लिए बिहार लौटिए, वोट दीजिये। पर मुझे तो लगता है कि बिहार का भविष्य अब उन्हीं के
हाथों में सुरक्षित है, जो लोग बिहार में रह रहे हैं और रहेंगे। क्योंकि उन्हें ही अपना भला-बुरा
बेहतर तरीके से समझना चाहिए। लिहाजा, बिहार में रहनेवाले वहां के वोटरों से यही
उम्मीद है कि आनेवाले चुनाव में वो अपने भविष्य, अपनी आगे की पीढ़ियों के भविष्य
को देखते हुए नई सरकार चुनने के लिए वोट देंगे, ताकि आप सलामत रहें, आपकी जमीन,
आपकी पहचान सलामत रहे, बिहार में ही ऐसे अवसर पैदा हों ताकि आपकी आनेवाली पीढ़ियों
को बाहर जाकर प्रवासी न बनना पड़े। क्योंकि एक
बार प्रवासी बन गए, तो वापसी मुश्किल है। बिहारवासियों, अपने भविष्य के लिए आप जिसे
भी बेहतर समझते हैं, उसे वोट दीजिये, भला होगा तो आपका, बुरा होगा तो आपका।
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