Thursday, September 18, 2014

गांधीजी के नाम पर ऑरवेल को बख्श दीजिय़े




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एक तरफ 2017 में महात्मा गांधी के चंपारण आंदोलन की शतवार्षिकी की तैयारियां चल रही हैं तो दूसरी तरफ बिहार के मोतिहारी में मोतिहारी से जुड़ी एक और शख्सियत जॉर्ज ऑरवेल की स्मृतियां मिटाने की तैयारी हो रही है। वो भी सिर्फ इस नाम पर कि ऑरवेल अंग्रेज थे, उस ब्रिटिश हुकूमत के एक अफसर की पैदाइश थे, जिसने हिंदुस्तान को बरसों गुलाम बनाए रखा। मोतिहारी में इन दिनों बढ़ चढ़कर ऑरवेल की स्मृति में पार्क और मेमोरियल बनाए जाने का विरोध हो रहा है। इसका मकसद आखिर क्या है? आप गांधीजी को मानते हैं। चंपारण में उनके आने और यहां अपने आंदोलन की शुरुआत करने को लेकर फख्र महसूस करते हैं। आप ये भी चाहते हैं कि गांधीजी के नाम पर सरकारें (केंद्र और राज्य) चंपारण और मोतिहारी के विकास में कुछ योगदान करें। लेकिन आप ये भूल जाते हैं कि चंपारण के मोतिहारी की जमीन पर ही पैदा हुआ था ऑरवेल जैसा नामचीन लेखक जिससे दुनिया में मोतिहारी की पहचान जुड़ी है। ऑरवेल की स्मृति मिटा देने का कोई तार्किक मतलब नहीं है। न तो ऑरवेल को इस बात की सज़ा दी सकती है कि वो उस अंग्रेज की औलाद थे, जिसने चंपारण पर शासन किय़ा, ना ही ऐसी किसी बात के लिए जो उन्होंने कभी हिंदुस्तान के या गांधीजी के ही खिलाफ कही हो।
जिस वक्त गांधीजी मोतिहारी पधारे थे, उस वक्त ऑरवेल की उम्र महज 14-15 साल रही होगी। गांधीजी की मौत के सिर्फ 2 साल बाद 1950 में ऑरवेल ने भी प्राण त्याग दिये। लेकिन गांधीजी की मृत्यु के बाद उन्होंने बड़ी बेबाकी से जो कुछ उनके ऊपर लिखा वो महत्वपूर्ण है। ऑरवेल का लेख रिफ्लेक्शंस ऑन गांधी’ 1949 में पार्टिजन रिव्यू नाम की पत्रिका में छपा था। शायद गांधीजी ने खुद भी वो लेख पढ़ा होता, तो ऑरवेल के बेबाक अंदाज के कायल हो गए होते। ऐसा नहीं कि ऑरवेल ने गांधीजी की विचारधारा और उनकी गतिविधियों पर सवाल नहीं उठाए हैं, लेकिन तमाम अंग्रेज और विदेशी लेखकों से अलग हटकर निष्पक्ष तरीके से उन्होंने गांधीजी के व्यक्तित्व और कृतित्व की जो व्याख्या की है उसे खारिज भी नहीं किया जा सकता। गांधीजी पर ऑरवेल का लेख और उस पर लिखे गए तमाम और भी लेख इंटरनेट पर बड़ी आसानी से उपलब्ध हैं, कोई भी उन्हें तलाशकर पढ़ सकता है। सवाल सिर्फ यही है कि मोतिहारी में ऑरवेल के मेमोरियल का विरोध क्यों हो रहा है और इससे क्या हासिल होनेवाला है। ऑरवेल ने जो कुछ गांधीजी पर लिखा है, उससे साफ है कि वो गांधीजी के विरोधी नहीं थे। वक्त और हालात ने उन्हें उसी मोतिहारी की धरती पर पैदा किया जो गांधीजी की कर्मभूमि के नाम से मशहूर है। गांधी और ऑरवेल अपने-अपने क्षेत्र के सम्माननीय़ व्यक्तित्व हैं और दोनों की एक-दूसरे से न तो तुलना हो सकती है, ना ही एक के नाम पर दूसरे को खारिज किया जा सकता है। अगर मोतिहारी के लोगों को गांधीजी के अपनी जमीन से जुड़ाव का गर्व है, तो उन्हें इस बात का भी फख्र होना चाहिए कि ऑरवेल जैसे लेखक यहां की जमीन पर पैदा हुए।
एक और बात सामयिक है, वो ये कि अगर हम ऐसा चाहते हैं कि गांधीजी के चंपारण आंदोलन की शतवार्षिकी पर मोतिहारी को कुछ फायदा हो, गांधीजी के नाम पर मोतिहारी और चंपारण के विकास को कुछ और गति मिले, तो हमें ऑरवेल से क्यों द्रोह है? अगर सरकार ऑरवेल के नाम पर मोतिहारी में कुछ करना चाहती है तो उसका स्वागत होना चाहिए। साथ ही, मोतिहारी के लोगों को विदेशों की उन एजेंसियों और संस्थाओं को भी आमंत्रित करना चाहिए, जो ऑरवेल की स्मृति , उनकी विरासत को सहेजने में कुछ योगदान कर सकती हों। मोतिहारी में प्रस्तावित महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय में ऑरवेल के नाम पर अध्ययन पीठ की स्थापना होनी चाहिए, ताकि ब्रिटेन और अमेरिका के विद्य़ार्थी उस महान लेखक की जन्मभूमि पर आकर शोध और अनुसंधान कर सकें। अगर इस तरह की गतिविधियां शुरु होती हैं तो निश्चित रूप से इसका फायदा मोतिहारी और चंपारण क्षेत्र को ही मिलेगा, कोई नुकसान नहीं होगा। गांधीजी की दुनिया में महत्ता निर्विवाद है और ऑरवेल भी लेखक के तौर पर दुनिया में कम मशहूर नहीं। ऐसे में अगर गांधीजी के साथ-साथ ऑरवेल की विरासत को सहेजने की भी पहल होती है, तो इसमें कोई बुराई नहीं दिखती। हां, चाहे गांधीजी का मेमोरियल हो, या ऑरवेल का, उसके लिए जमीन अधिग्रहण जैसे विवाद नहीं पैदा होने चाहिए और ये तय करना सरकार और प्रशासन का काम है कि कैसे किसी भी विवाद से बचकर विकास को गति दी जा सकती है। गांधीजी तोड़ने में नहीं जोड़ने में विश्वास करते थे और अगर उस धरती पर , जहां का नाम गांधीजी से जुड़ा है, वहां ऑरवेल जैसी शख्सियत की याद मिटाने की कोशिश हो, तो उससे शर्मनाक कुछ भी नहीं होगा। इसलिए गांधीजी के ही नाम पर सही, ऐसी तमाम कोशिशों को किनारे कर दिया जाना चाहिए, जो ऑरवेल के विरोध में शुरु हुई हैं और गांधीजी और ऑरवेल को जोड़कर एक नई पहल होनी चाहिए जिसकी गूंज सात समुंदर पार तक सुनाई दे, न कि ऐसी कोई कार्रवाई हो, जो गांधी की कर्मभूमि कहलानेवाली धरती का नाम दुनिया में कलंकित करे।

Monday, June 16, 2014

पर्यावरण पर दो कविताएं

1
हरियाली को बचाओ!!

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मई महीना लाया गर्मी
जला रहा है जून
बिजली की भी दिक्कत होती
बिन पानी सब सून

बिगड़ गया बारिश का खेल
सूखी नदियां, प्यासे झील
और पहाड़ों पर तो देखो
उड़ रहे कौवे और चील


मॉनसून में होती जाती
 हर साल है देर
पर्यावरण पर आया संकट
 चारों ओर अंधेर

काट रहे हम पेड़
बनाते हैं घर और दुकान
हरियाली पर आया संकट
सबका है नुकसान

रोज बढ़ रहा तापमान
तो जीना होगा मुश्किल
हरियाली को बचाओगे
तभी सभी सुख पाओगे

2
कैसे बचेगा पर्यावरण?
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बढ़ रहा है तापमान
पिघल रहा हिमालय
सड़कों पर है हवा ज़हरीली
कैसे जिए इंसान?

खत्म हो रहे खेत सुहाने
नहीं रहे बागीचे उपवन
सिर पर चढ़ता सूरज कहता
कैसे बचाओगे जनजीवन?

चारों ओर लग रहे कारखाने
वायु प्रदूषण का विस्तार
बदल रही जलवायु भी है
कैसे बचेगा पर्यावरण?

Monday, April 21, 2014

रांची में बसंत बहार!!!!




सौ. डॉ. शशांक पुष्कर, बीआईटी मेसरा

Saturday, April 19, 2014

ताजिकिस्तान में बसंत की बहार!!!!!!!!





फोटो सौजन्य- डॉ. अमित कुमार, दुशान्बे

Tuesday, April 15, 2014

चंपारण के एक ‘युग’ का अवसान



चंपारण समेत पूरे बिहार में हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित अध्येता और मानस मर्मज्ञ प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद सिंह हमारे बीच नहीं रहे। हिंदी साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान होने के साथ-साथ अपनी सहृदयता, और अपने विचारों से लोगों के दिलों में अमिट छाप छोड़ने वाले प्रोफेसर सिंह ने अपने जीवनकाल में श्रीरामचरित मानस और गोस्वामी तुलसीदास पर सैकड़ों व्याख्यान दिए और अपने लेखों में उन्होंने मानस की विचार मीमांसा की परंपरा को समृद्ध किया।
प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद सिंह पूर्वी चंपारण जिले के मुख्यालय मोतिहारी में स्थित अंगीभूत एमएस कॉलेज के हिंदी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत होकर यहां की साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक गतिविधियों में लगातार सक्रिय भूमिका में थे। हिंदी के प्रोफेसर के रूप में उन्होंने बीआरए बिहार विश्वविद्यालय में 40 साल से ज्यादा की अवधि तक विश्वविद्यालय के शैक्षणिक स्तरोन्नयन में बहुमूल्य योगदान देकर प्रतिष्ठित स्थान बनाया। सन 1961 में मोतिहारी के मुंशी सिंह कॉलेज में कामकाज शुरु करने के बाद से प्रोफेसर सिंह हिंदी शोध, आलोचना और रचनात्मक लेखन के क्षेत्र में भी निरंतर सक्रिय रहे। प्राध्यापक के रूप में उनका सर्वश्रेष्ठ योगदान चंपारण की युवा पीढ़ी को उच्च शिक्षा में श्रेष्ठ कार्य करने की दिशा देना था। उनके द्वारा पढ़ाए गए और मार्गनिर्दिष्ट सुयोग्य छात्रों की बड़ी संख्या आज देश और विदेशों में आज उनके कीर्तिस्तंभ हैं। मध्यकालीन और आधुनिक साहित्य के गंभीर अध्येता होने के साथ-साथ प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद सिंह की संस्कृत और प्राकृत साहित्य पर भी व्यापक पकड़ रही। चंपारण के शिक्षण समुदाय के शिखर पुरुष के रूप में वो हमेशा याद किए जाते रहेंगे।
प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद सिंह की गोस्वामी तुलसीदास और श्रीरामचरित मानस में जीवनपर्यन्त गहरी अभिरुचि रही। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम उनके आदर्श नायक थे। उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को जन-जन तक पहुंचाने के लिए मोतिहारी शहर के बीचोबीच स्थित गांधी स्मारक से सटे मंदिर के प्रांगण में श्रीरामचरित मानस नवाह्न पारायण यज्ञ का शुभारंभ किया था जिसका यह 43वां वर्ष है। इस यज्ञ में देश के कोने-कोने से विभिन्न पीठों के शंकराचार्य, मानसज्ञाता आचार्य, मानस कथा वाचक और साहित्य सेवी विद्वान आमंत्रित किए जाते हैं जिनके प्रवचन 9 दिनों तक सुनकर लोग ज्ञान, भक्ति और कर्म के त्रिवेणी संगम का लाभ उठाते हैं। प्रो. रामाश्रय प्रसाद सिंह ने न सिर्फ श्रीरामचरित मानस यज्ञ और पारायण की सालाना परंपरा की शुरुआत की, बल्कि तन-मन-धन से उसे आगे बढ़ाया और इसके जरिए इलाके के आम जन समुदाय के लिए धार्मिक आस्था और श्रद्धा के साथ-साथ सांस्कृतिक एकता का भी मजबूत मार्ग प्रशस्त किया। 

मोतिहारी के प्रमुख शिक्षा संस्थान मुंशी सिंह महाविद्यालय के हिंदी विभाग के आचार्य और अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त होने के बाद प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद सिंह ने अपना पूरा वक्त श्रीरामचरित मानस मीमांसा में गुजार दिया। उम्र के गुजरते पड़ावों पर रोग-व्याधि और पारिवारिक-सामाजिक व्यस्तताओं से दो-चार होते हुए प्रोफेसर सिंह का अधिकाधिक वक्त मोतिहारी रेलवे स्टेशन के पास शांतिपुरी मुहल्ले में अपने निवास पर ही गुजरा। बीच-बीच में अपने पुत्र, नाबार्ड के अधिकारी सुबोध कुमार, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक पुत्रवधू रचना और पौत्री ताविशी के साथ वो दिल्ली प्रवास का भी आनंद लेते रहे।


मोतिहारी में य़शस्वी विद्वान प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद सिंह का निवास हमेशा हिंदी के साहित्यप्रेमियों, छात्र-छात्राओं और श्रीरामचरितमानस में श्रद्धा रखनेवालों से भरा रहता था। अजब संयोग है कि 1934 में पैदा हुए श्रीरामभक्त प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद सिंह ने हनुमान जयंती के दिन मंगलवार अपराह्न मोतिहारी स्थित निवास पर देह त्याग किया.. उनके निधन के समाचार से चंपारण के शिक्षा जगत एवं अध्यात्म से जुड़े लोगों में शोक की लहर है। उनके निधन से चम्पारण सहित बिहार के समस्त दिग्विद्या जगत में एक ऐसा स्थान रिक्त हो गया है, जो कभी पूरा नहीं हो सकेगा..वो लंबे समय तक भविष्य में लोगों के मन-प्राणों को स्पर्श करते रहेंगे और प्रेरणा देते रहेंगे। उन्हें क्षेत्र के असंख्य नर-नारी, छात्र और आम लोग अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।

Wednesday, April 9, 2014

विकास बनाम विनाश की गाथा



2014 के चुनाव में तकरीबन हर पार्टी ने विकास को मुद्दा बनाया। बीजेपी से लेकर कांग्रेस समेत तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने विकास के मुद्दे पर वोट मांगे। हालांकि, जुबानी जंग और बयानों के विवाद भी मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में छाये रहे। लेकिन चुनावी जंग में विकास जिस तरह मुद्दा बना उसके साथ-साथ टेलीविजन पर विकास की चर्चा का सवाल भी जेहन में उठता है। सवाल ये है कि भले ही तमाम पार्टियां विकास के वादे करती हैं, अपने-अपने शासित क्षेत्रों में विकास के गुण गाती हैं, परंतु क्या टीवी पर विकास की कहानियां प्रत्यक्ष देखने को मिलती हैं? उत्तर मिलता है, आमतौर पर नहीं। कभी-कभार टीवी चैनलों पर प्रसारित हो रहे बुलेटिनों की आखिरी स्टोरीज़ में से कुछेक ऐसी स्टोरीज़ टेल पीस या अच्छी खबरेंया गुड न्यूज़ के खांचे में दिखाई जाती हैं, जिनसे ये पता चलता है कि समाज में कुछ सकारात्मक परिवर्तन हो रहे हैं, लोगों के जीवन-स्तर में कुछ सुधार हो रहा है, ऐसा कुछ नया हो रहा है जो समाज और देश के लिए हितकारी हो। मगर, अमूमन ऐसा नहीं दिखता। इसकी वजह क्या है? क्य़ा समाचार चैनलों को विकास की चिंता नहीं ? या फिर लोग अच्छी खबरें देखना पसंद नहीं करते? क्य़ा देश और समाज में ऐसी खबरों का अभाव है, जो विकास का चित्रण करती हों? गहराई से विचार करने पर ऐसे तमाम सवालों से दो-चार होना पड़ता है, जो मीडिया में विकास की अच्छी खबरों के बुरे हाल को बयां करते हैं।
दरअसल, भारत में हिंदी टीवी मीडिया इसीलिए आमतौर पर आलोचना का भी शिकार बनता है क्योंकि उसका एजेंडा अलग दिखता है। भारत में 50 साल में टेलीविजन समाचार का जितना विकास हुआ है, जितनी तेजी से विकास हुआ है, उसके साथ-साथ कई बुनियादी मुद्दे भी उभरे हैं। टीवी पर दिखाई जानेवाली खबरों की परिभाषा सवालों के घेरे में रही है। टीवी पर संचार और संप्रेषण के मूलभूत उद्देश्यों से भटकने और तत्वों से दूर होने के आरोप लगते रहे हैं। ये बात काफी हद तक सही कही जा सकती है कि नए दौर का लाइव टीवी तमाम खबरों को पकड़ने की अंधी दौड़ में लगा हुआ है और इस दौड़ में उद्देश्यों से भटकना कोई आश्चर्य की बात नहीं। 50 साल में अगर देश में करीबन 500 समाचार चैनल अस्तित्व में आए तो उनके बीच सैकड़ों करोड़ दर्शकों से भरे बाज़ार पर कब्जे का मुकाबला भी बढ़ा। इस मुकाबले में तथाकथित लोक रुचि के समाचारों को प्रमुखता से दिखाने की परिकल्पना पैदा हुई और इस परिकल्पना ने किस तरह टीवी समाचारों को प्रभावित, इसकी काफी मीमांसा पहले ही हो चुकी है। बहरहाल, सबसे आगे निकलने की होड़ में टीवी के समाचार चैनलों ने जो हथियार अपनाये उनमें प्रमुख है कुछ खास किस्म की खबरों को तवज्जो देना। मसलन,  
-          सनसनी यानी ऐसी खबरें जिनसे सनसनी फैलती है, दर्शक अचंभित हों, उनकी जिज्ञासा बढ़े- चाहे वो अपराध की खबर के जरिए हो, या हादसे , आपदा और विनाश की खबरों के जरिए
-          अपराध- जो यूं तो आम लोगों की जिंदगी से जुड़ा पहलू है, लेकिन सिर्फ अपराध की रिपोर्टिंग के बजाय अपराध की तह में जाकर उसका पोस्टमॉर्टम करके ये बताना कि अपराध किस तरह हुआ और क्यों हुआ, उसे चटपटे और मसालेदार तरीके से पेश करना जो खबर के बदले फिल्मी कहानी ज्यादा लगे
-          खेल-खिलाड़ी – जिनमें लोगों की दिलचस्पी लाजिमी है, लेकिन लोगों की दिलचस्पी औऱ बढ़ाने के लिए उन खबरों का अलग ट्रीटमेंट
-          तमाशा और ड्रामा जो अपराध से लेकर एंटरटेनमेंट तक हर किस्म की खबर में हो सकता है
जाहिर  है, उपरोक्त किस्म की खबरों को तवज्जो देते हुए पर्यावरण, शिक्षा, स्वास्थ्य और जनहित के मुद्दों से जुड़ी खबरें आसानी से पीछे छूट जाती हैं। यही नहीं, इन मुद्दों से जुड़ी खबरों पर मीडियाकर्मियों की सोच भी बदलने लगती है। आम जन के लिए फायदेमंद किसी सरकारी योजना की खबर देना सरकार की चापलूसी समझ लिया जाता है, तो दूसरी तरफ, सरकार की खिंचाई करनेवाली खबरों को तवज्जो देना भी दर्शकों की दिलचस्पी बढ़ानेवाला मान लिया जाता है। ये आम मानसिकता है कि अच्छाई के बजाय बुराई ज्यादा आसानी से लोगों को आकर्षित करती है, लोगों को ज्यादा देर तक याद रहती है। ऐसे में, उस पहलू को उजागर करना जो छवि बनाने के बजाय उसे मलिन करे, ये टीवी पत्रकारिता का प्रमुख दायित्व बन गया है। इसका ज्वलंत उदाहरण 2014 के चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल के उन वीडियोज़ के चैनलों पर प्रचार-प्रसार से देखने को मिला, जो रॉ फुटेज के रूप में यूट्यूब पर अपलोड किए गए थे। इस कड़ी में मशहूर एंकर पुण्य प्रसून वाजपेयी से इंटरव्यू के सिलसिले में बातचीत का एक वीडियो सामने आया था, साथ ही, इंडिया टीवी ने भी कुछ ऐसा रॉ वीडियो तलाशकर दिखाया था, जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से अरविंद केजरीवाल नरेंद्र मोदी का समर्थन करते दिखे। इन वीडियोज़ के प्रसारण ने एक तरफ सनसनी फैलानेवाली पत्रकारिता का नमूना पेश किया, तो दूसरी तरफ नेता और पत्रकार के कथित संबंधों को उजागर करने के नाम पर नेताओं और पत्रकारों के आपसी भरोसे और अनौपचारिक बातचीत की बड़ी ही आम परिपाटी पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया।
प्रश्नचिह्न तो 2014 के चुनाव में मीडिया, खासकर टीवी चैनलों के चरित्र पर भी उठे। तमाम नेताओं ने एक सुर से मीडिया पर बिक जाने का इल्जाम मढ़ दिया और लगातार नसीहतें देते रहे। कोई टीवी चैनलों पर मोदी के हाथों बिके होने का इल्जाम लगाता रहा, तो कोई केजरीवाल के हाथों, तो कोई किसी और के हाथों। चुंकि, निजी समाचार चैनलों पर हरेक पक्ष या पार्टी की खबर संतुलित रूप से दिखाने और उसके मूल्यांकन की कोई निश्चित और ठोस व्यवस्था या नियमन प्रैक्टिस में नहीं रहा, लिहाजा हरेक पार्टी के नेता को मीडिया पर ठीकरा फोड़ने का आसानी से मौका मिलता रहा।
लेकिन, ये मीडिया की माया ही है कि हर नेता को इस बात से टीस होती रही कि दूसरा प्रतिद्वंद्वी क्यों टीवी पर खबरों में ज्यादा रहा, सुर्खियों में ज्यादा रहा और ज्यादा से ज्यादा फुटेज खाता रहा। वास्तव में नेता तो टीवी के लिए खबर क्या है, इसके सिद्धांत से परिचित नहीं और अगर परिचित हों भी तो खुद खबर बनाने में नाकाम रहे लिहाजा टीवी चैनलों पर बड़ी आसानी से अपना गुस्सा उतार दिया। और दर्शकों को बांधे रखने के लिए मीडिया को अपना मायावी रूप दिखाना ही पड़ता है, हर उस पंक्ति में से खबर निकालनी पड़ती है, जहां किताबी सिद्धांतों के मुताबिक खबर न भी हो। पहले बिटविन द लाइंस की टीवी पत्रकारिता अब उस सनसनीखेज पत्रकारिता का ही हिस्सा बन गई है जिसके जरिए कभी सीधी ऊंगुली से तो कभी टेढ़ी ऊंगुली से घी निकालने में माहिर टीवी चैनल खबरें निकाल लेते हैं और अब तो इसकी भी जरूरत इसलिए नहीं पड़ती क्योंकि संयम-नियम से बेखबर और नेतागीरी में मदहोश नेतागण मनसा-वाचा-कर्मणा रोजाना ऐसा कुछ कर बैठते हैं, जो टीवी के लिए खबर बन जाता है।
बहरहाल, कहना न होगा कि टीवी समाचार की ये स्थिति बुनियादी मुद्दों से भटकती दिखती है। 2013 के मध्य से लेकर कई महीनों तक उत्तराखंड में केदारनाथ धाम की त्रासदी और कुदरत की विनाशलीला की कहानियां टीवी समाचारों में छाई रहीं। वजह साफ थी। एक तो केदारनाथ धार्मिक आस्था के विशाल केंद्रों में से है। दूसरे, आपदा का मानवीय पहलू, जो हादसे की वजह से जान गंवानेवाले और रास्ते में फंसे तीर्थयात्रियों से जुड़ा था। तीसरा, उस सैलाब का हाहाकारी सितम जिसकी कभी किसी ने कल्पना तक नहीं की होगी। टीवी के समाचार चैनल महीनों इन तीनों वजहों के चलते केदारनाथ की विभिषिका की खबरें बेचते रहे क्योंकि उपरोक्त तीनों ही वजहों से इन खबरों में आम दर्शकों को आकर्षित करने की जबर्दस्त क्षमता थी। पहली वजह को छोड़ भी दें, तो दूसरी और तीसरी वजहें टीवी के लिए और ज्यादा मायने रखती हैं क्योंकि टीवी पत्रकारों को स्क्रीन पर दिखाने के लिए हाहाकार का खजाना जो मिल गया था। केदारनाथ आपदा की कवरेज का सकारात्मक पहलू ये है कि अगर मीडिया की पहुंच न होती तो शायद प्रभावित इलाकों में फंसे सैकड़ों-हजारों लोगों तक सरकारी तंत्र का ध्यान जाना नामुमकिन होता और वो बेमौत मारे जाते। आखिर विजय बहुगुणा इसी आपदा की बलि चढ़ ही गए और देर सबेर उन्हें उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पद से हटना ही पड़ा। लेकिन, टीवी पर दिखाए गए दर्द से हटकर सैलाब के हाहाकार और सितम की कल्पना के ग्राफिक्स और एनिमेशन से सजे आधे-आधे घंटे के कितने ही कार्यक्रमों ने आखिर दर्शकों का कितना सामान्य ज्ञान बढ़ाया होगा?
टीवी पत्रकारिता के किसी धुरंधर ने कभी मुझे कहा था टीवी पर दो ही चीजें बिकती हैं- डर और पैसा यानी अगर आप पैसा बनाने का तरीका दिखाओगे, तो दर्शक खूब देखेंगे या फिर ऐसी चीज दिखाओगे जिससे दहशत हो, डर लगे, तो उसे भी लोग खूब देखेंगे। कुछ वक्त तक अश्लील मनोरंजन भी टीवी की कमाऊ श्रेणी में जुड़ा रहा, लेकिन उस पर किन्ही वजहों से लगाम लग गई और समाचार चैनलों पर संयम बरता जाने लगा। लेकिन डर और पैसे की खबरिया मानसिकता बरकराकर है। यही वजह है कि डर और दहशत पैदा करनेवाले विनाश और अपराध की खबरें खूब टीआरपी बटोरती हैं।
तो केदारनाथ आपदा की विनाशलीला की खबरें भी खूब चलीं और नवंबर 2013 में हालात कुछ सामान्य होने के बाद धीरे-धीरे करके ऐसी खबरें टीवी चैनलों से हटती चली गईं। ज्यादा वक्त नहीं गुजरा, एक बार फिर केदारनाथ यात्रा का वक्त करीब आया, और उत्तराखंड और केंद्र सरकारों की ओर से नए सिरे से यात्रा के इंतजाम की खबरें अखबारों में, इंटरनेट माध्यमों पर, न्यूज़ वायर के जरिए आने लगीं। सरकारी दावे किये जाने लगे कि यात्रा के लिए कितने पुख्ता इंतजाम किए जा रहे हैं, कितने लोगों के सफर के इंतजाम हैं, टूटी सड़कों की मरम्मत कहां तक हुई है, केदार धाम में बुनियादी सुविधाएं कहां तक पहुंची हैं। लेकिन, किसी टीवी चैनल ने अपना क्रू भेजकर जमीनी हकीकत की पड़ताल करने की कोशिश शायद ही की। फ़ाइल फुटेज का इस्तेमाल करके जहां-तहां यात्रा की तैयारियों की खबरें जरूर दिखा दी गईं। लेकिन किसी चैनल ने मौके पर जाकर हकीकत का सर्वे करना शायद जरूरी नहीं समझा। इसके पीछे आखिर वजह क्या रही? क्या विनाश की खबर विकास की खबरों पर भारी पड़ गई या फिर, चुनावी माहौल में केदारनाथ की जमीनी हकीकत दिखाना उत्तराखंड की सत्ताधारी सरकार पर और भारी पड़ सकता था या टीवी चैनलों के पत्रकार चुनाव की कवरेज में व्यस्त थे? वजहें कुछ भी हो सकती हैं, दलीलें भी कई तरह की दी जा सकती हैं और उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर य़े निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि टीवी के समाचार चैनलों को क्या-क्या दिखाना अच्छा लगता है। टीवी पर विकास की कहानियां चलें या विनाश की गाथा गाई जाए, इसको लेकर कोई शक-शुबहा नहीं, परंतु ये भी सोचना पड़ेगा कि विकास के उल्लेखनीय़ दौर में तकनीकी तौर पर समृद्ध होने के बावजूद टीवी के समाचार चैनल अपनी जिम्मेदारियों से कैसे दूर भाग रहे हैं और क्या हालात में किसी तरह बदलाव संभव है?
-          कुमार कौस्तुभ

Tuesday, April 8, 2014

बेकार खबर, बकवास खबर!




टीवी चैनलों के न्यूज़रूम में काम करनेवाले तो बेकार खबर, बकवास खबर की शब्दावली से परिचित होंगे ही, लेकिन पत्रकारिता के किसी आम छात्र के लिए ये तय कर पाना बड़ मुश्किल हो सकता है कि आखिर कोई खबर बेकार या बकवास कैसे हो सकती है? दरअसल, बेकार खबर, बकवास खबर की परिकल्पना खबरिया माध्यम की जरूरत और मानसिकता पर निर्भर है। अगर कोई खबर आपके काम की नहीं है, तो उसे चलताऊ भाषा में आप बड़े आराम से बेकार खबर, बकवास खबर कह सकते हैं। लेकिन, इससे खबर की मूल परिभाषा तो नहीं बदल सकती। खबर की मूल परिभाषा के तहत जो पांच तत्व ‘5 W और 1 H’ किसी जानकारी में होना चाहिए, वो है, तो वो खबर तो है ही, हां किसी व्यक्ति विशेष, चैनल विशेष, अखबार या किसी और माध्यम के लिए अगर कोई खबर काम की नहीं, तो उसे वो खबर के दायरे से अलग मान लेते हैं, ये प्रमुख बात है।
सवाल है कि परिभाषा के खांचे में आने के बावजूद कोई खबर खबर है क्या या कि खबर नहीं है, ये कैसे तय होगा? क्या ये सिर्फ किसी संपादकीय अधिकारी के विवेक का मामला है, या फिर इसके लिए कुछ मानक भी होने चाहिए। दोनों ही चीजें महत्वपूर्ण हैं। समाचार चैनल पर क्या चलेगा, ये तय करना तो संपादकीय अधिकारी का दायित्व है, तो अगर वो ये कहते हैं कि अमुक जानकारी खबर नहीं है या बेकार खबर है, या बकवास है, ये उनके विवेक के हिसाब से बिल्कुल सही माना जा सकता है। लेकिन अगर मानकों की बात करें, तो ये भी ख्याल रखना होगा कि टीवी पर प्रसारित होने के लिए किसी जानकारी या किसी खबर में कौन-कौन से तत्व होने चाहिए। सैद्धांतिक तौर पर तो टेलीविजन पर प्रसारित होनेवाली कोई खबर विजुअल यानी वीडियो और तस्वीरों का मौजूद होना सबसे जरूरी है। विजुअल के बिना खबर टीवी की खबर हो ही नहीं सकती, ऐसा माना जाता है। साथ ही साउंड यानी आवाज, एंबिएंस का भी होना जरूरी है जो घटना का चित्रण करे और उसके बारे में बताए। लेकिन मौजूदा दौर में टेक्स्ट के साथ ग्राफिक्स और एनिमेशन के सहयोग से टीवी पर खबरों को पेश करने का चलन बढ़ा है। ऐसे में किसी खबर को टीवी की खबर बनाने के लिए अगर विजुअल की कमी हो, तो ग्राफिक्स और एनिमेशन का इस्तेमाल प्रोड्यूसर की रचनात्मक प्रतिभा का परिचायक है। हालांकि, हमेशा ऐसा संभव नहीं होता। खबरों से जुड़ी परिस्थितियों और घटना का काल्पनिक चित्रण हमेशा नहीं किया जा सकता। ऐसे में बगैर विजुअल और साउंड के, खबर को थोड़े समय तो चलाया जा सकता है, उसे टीवी जैसे डायनेमिक माध्यम पर ज्यादा देर जिंदा नहीं रखा जा सकता।
खबर की पूर्णता से जुड़ा दूसरा मुद्दा है तथ्यात्मक पूर्णता का। अगर एक लाइन की किसी जानकारी में आवश्यक तथ्यों का अभाव है, तो उससे खबर नहीं बन सकती, बशर्ते किसी तरह से जरूरी तथ्य जुटा लिए जाएं। ऐसे में, एक लाइन की कोई जानकारी बड़े आराम से खबर के तौर पर खारिज की जा सकती है, क्योंकि उससे ये पता नहीं चलता कि वो लाइन कितनी बड़ी खबर को जन्म दे सकती है। लेकिन अगर, चैनल की आवश्यकता हो, और संभव हो, तो उस जानकारी के आसपास, इर्द-गिर्द की और जानकारियां और तथ्य जुटाकर उन्हें खबर बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, अगर मुंबई में हुए आतंकवादी हमले या केदारनाथ में आई प्राकृतिक आपदा की खबरों की शुरुआती लाइन्स को नजरअंदाज कर दिया जाता तो कई चैनल बहुत बड़ी ब्रेकिंग न्यूज़ में पिछड़ जाते। इससे पत्रकारिता के छात्रों को सबक ये लेना चाहिए कि आपके पास आपके दिमाग में तमाम ऐसी जानकारियां होनी चाहिए, जो किसी भी नई जानकारी के लिए बैकग्राउंडर का काम कर सकती है और उसे बड़ी खबर बना सकती है। खासकर ऐसे वक्त में, जिस दिन खबरों का सूखा पड़ा हो, चैनल को नई खबरों की कमी हो, ऐसे में छोटी-छोटी दिखनेवाली जानकारियां, बड़ी खबरों में तब्दील की जा सकती हैं। इन दिनों सियासी बयानबाजियों से जुड़ी खबरें भी खूब चर्चा में हैं। अगर ऐसी खबरों के न्यूज़मेकर्स की बाइट उपलब्ध न हो, तो खबर देर तक नहीं चल सकती। टीवी के समाचार चैनलों में अक्सर ऐसा होता है, जब किसी नेता की रैली से एक-दो लाइन की जानकारी मिलती है। चाहें तो उसे नजरअंदाज कर दें, या फिर उसके आजू-बाजू, आगे-पीछे की जानकारियों को जोड़कर खबर को बड़ा बना दें। महाराष्ट्र के नेता राज ठाकरे एक ही जैसी बातें अमूमन हर बार बोलते हैं, लेकिन हर बार उनकी एक लाइन से कम से कम 30-40 सेकेंड की खबर बन जाती है।
एक और मुद्दा है घटना से जुड़े हर पक्ष को खबर में शामिल किया जाना। मसलन अगर हादसे, बलात्कार या ठगी के किसी मामले की खबर है और उसमें न पीड़ित की तस्वीर है, ना आरोपी की, तो उसे पूर्ण नहीं माना जाएगा। साथ ही, अपराध संबंधी खबरों में आरोपी और पीड़ित पक्षों के साथ-साथ पुलिस या जांच अधिकारी या प्रशासनिक पक्ष की प्रतिक्रिया नहीं हो, तो उन्हें एकतरफा मानकर बेशक खारिज किया जा सकता है, बशर्ते हादसे या अपराध से जुड़े पुख्ता विजुअल नहीं मौजूद हों। कई बार विदेशों से रॉयटर्स और एपीटीएन से अपराधिक खबरों की ऐसी फीड्स आती हैं जिनमें पर्याप्त विजुअल नहीं होते, ना ही घटना का चित्रण करने लायक पुख्ता सबूत होते हैं। तो ऐसी खबरों को प्रसारण लायक खबरों की श्रेणी में रखना मुश्किल होता है। ऐसा ही, किसी सांस्कृतिक समारोह की करवेज में भी हो सकता है, जिसमें आपके पास इच्छित कलाकार के विजुअल उपलब्ध न हों, तो उन्हें बेकार या बकवास करार देकर किनारा किया जा सकता है।
हालांकि एक बात ध्यान में रखनी चाहिए औ र अमूमन रखी भी जाती है कि कई बार कुछ जानकारियों में इतना दम होता है, जो बहुत जरूरी और काम की खबर बन सकती हैं, तो उन्हें विजुअल के अभाव में बेकार या बकवास नहीं करार दिया जा सकता । ऐसी स्थिति में ये प्रोड्यूसर की रचनात्मकता पर निर्भर करता है कि वो फाइल फुटेज, ग्राफिक्स और एनिमेशन का इस्तेमाल करके खबर को मुकम्मल तरीके से पेश करे, न कि उसे अपूर्ण मानकर खारिज कर दे। बड़े नेताओं, पदाधिकारियों के अहम बयानों, सरकारी सूचनाओं , प्रशासनिक जानकरियों वगैरह मामलों की जानकारियों में अक्सर ऐसा होता, जब दिखाने के लिए कुछ भी पुख्ता नहीं होता, लेकिन खबर की भरमार होती है। ऐसे में ये तो प्रोड्यूसर की काबिलियत पर ही निर्भर करता है कि वो कितनी सफाई और चुस्ती से खबर को खबर की तरह पेश करे।
अखबारों के लिए कोई खबर बेकार नहीं होती, क्योंकि वहां छपने के लिए पर्याप्त जगह होती है। यदि संपादकीय अधिकारी चाहें, तो किसी भी जानकारी को जगह देकर खबर बना सकते हैं। यही हाल इंटरनेट और सोशल मीडिया आधारित खबरिया वेबसाइट्स का भी है। रेडियो में भी टीवी से ज्यादा वक्त की कमी होती है, क्योंकि बुलेटिन तय होते हैं और समय सीमित होता है, लिहाजा, वहां भी इस बात का बड़ा ख्याल रखा जाता है कि कौन सी खबर बेकार है या बकवास है।
सबसे बड़ी बात ये है कि चैनल या समाचार देनेवाले किसी भी माध्यम को अपने दर्शक-पाठक और श्रोता वर्ग की पहचान होनी चाहिए और उसी के आधार पर ये तय होना चाहिए कि कोई खबर बेकार है या बकवास है या नहीं है। अगर दिल्ली-एनसीआर या मुंबई पर केंद्रित समाचार चैनल य़ा अखबार या रेडियो चैनल या इंटरनेट साइट हैं, तो उन्हें दिल्ली-एनसीआर या मुंबई से जुड़ी हर खबर किसी न किसी तरीके से लेनी चाहिए, क्योंकि लोगों की दिलचस्पी उनमें होगी ही होगी। इसी तरह राष्ट्रीय टीवी चैनलों, अखबारों, से ये अपेक्षा की जाती है कि वो कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात, गोवा से गुवाहाटी तक की खबरों को कवर करें और प्रसारित करें,न कि सिर्फ दिल्ली या मुंबई तक केंद्रित रहें। हालांकि टीवी चैनलों की अपनी सीमाएं हैं, जिनकी वजह से उन्हें खबरों के चयन में बेकार और बकवास का बड़ा ख्याल रखना पड़ता है। परंतु, ये भी बात अहम है कि दर्शक देश के हर कोने का हाल जानना चाहते हैं और हर इलाके की उन खबरों को देखना-सुनना चाहते हैं जो किसी भी तरीके से दिलचस्प हो, चाहे वो किसी हादसे की दिल दहलाने वाली तस्वीर हो, या सांस्कृतिक कार्यक्रम की रंगारंग झलक। अगर किसी खबर में तथ्यात्म पूर्णता है और उसके वीडियो, तस्वीरें और साउंड जानदार हैं तो वो खबर बेकार या बकवास नहीं हो सकती। उसे प्रस्तुत करना फायदेमंद ही हो सकता है, नुकसानदेह नहीं।
-          कुमार कौस्तुभ