2014 के चुनाव में तकरीबन हर पार्टी ने विकास को मुद्दा बनाया। बीजेपी से लेकर
कांग्रेस समेत तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने विकास के मुद्दे पर वोट
मांगे। हालांकि, जुबानी जंग और बयानों के विवाद भी मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया में छाये रहे। लेकिन चुनावी जंग में विकास जिस तरह मुद्दा बना उसके साथ-साथ
टेलीविजन पर विकास की चर्चा का सवाल भी जेहन में उठता है। सवाल ये है कि भले ही
तमाम पार्टियां विकास के वादे करती हैं, अपने-अपने शासित क्षेत्रों में विकास के
गुण गाती हैं, परंतु क्या टीवी पर विकास की कहानियां प्रत्यक्ष देखने को मिलती हैं? उत्तर मिलता है, आमतौर पर नहीं। कभी-कभार टीवी चैनलों पर प्रसारित हो रहे बुलेटिनों
की आखिरी स्टोरीज़ में से कुछेक ऐसी स्टोरीज़ ‘टेल पीस’ या ‘अच्छी खबरें’ या ‘गुड न्यूज़’ के खांचे में दिखाई जाती हैं, जिनसे ये पता चलता है कि समाज में कुछ सकारात्मक
परिवर्तन हो रहे हैं, लोगों के जीवन-स्तर में कुछ सुधार हो रहा है, ऐसा कुछ नया हो
रहा है जो समाज और देश के लिए हितकारी हो। मगर, अमूमन ऐसा नहीं दिखता। इसकी वजह
क्या है? क्य़ा
समाचार चैनलों को विकास की चिंता नहीं ? या फिर लोग अच्छी खबरें देखना पसंद नहीं करते? क्य़ा देश और समाज में ऐसी खबरों का अभाव है, जो विकास का चित्रण करती हों? गहराई से विचार करने पर ऐसे तमाम सवालों से दो-चार होना पड़ता है, जो मीडिया
में विकास की अच्छी खबरों के बुरे हाल को बयां करते हैं।
दरअसल, भारत में हिंदी टीवी मीडिया इसीलिए आमतौर पर आलोचना का भी शिकार बनता
है क्योंकि उसका एजेंडा अलग दिखता है। भारत में 50 साल में टेलीविजन समाचार का
जितना विकास हुआ है, जितनी तेजी से विकास हुआ है, उसके साथ-साथ कई बुनियादी मुद्दे
भी उभरे हैं। टीवी पर दिखाई जानेवाली खबरों की परिभाषा सवालों के घेरे में रही है।
टीवी पर संचार और संप्रेषण के मूलभूत उद्देश्यों से भटकने और तत्वों से दूर होने के
आरोप लगते रहे हैं। ये बात काफी हद तक सही कही जा सकती है कि नए दौर का लाइव टीवी
तमाम खबरों को पकड़ने की अंधी दौड़ में लगा हुआ है और इस दौड़ में उद्देश्यों से
भटकना कोई आश्चर्य की बात नहीं। 50 साल में अगर देश में करीबन 500 समाचार चैनल
अस्तित्व में आए तो उनके बीच सैकड़ों करोड़ दर्शकों से भरे बाज़ार पर कब्जे का
मुकाबला भी बढ़ा। इस मुकाबले में तथाकथित लोक रुचि के समाचारों को प्रमुखता से
दिखाने की परिकल्पना पैदा हुई और इस परिकल्पना ने किस तरह टीवी समाचारों को
प्रभावित, इसकी काफी मीमांसा पहले ही हो चुकी है। बहरहाल, सबसे आगे निकलने की होड़
में टीवी के समाचार चैनलों ने जो हथियार अपनाये उनमें प्रमुख है कुछ खास किस्म की
खबरों को तवज्जो देना। मसलन,
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सनसनी यानी ऐसी
खबरें जिनसे सनसनी फैलती है, दर्शक अचंभित हों, उनकी जिज्ञासा बढ़े- चाहे वो अपराध
की खबर के जरिए हो, या हादसे , आपदा और विनाश की खबरों के जरिए
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अपराध- जो यूं तो आम
लोगों की जिंदगी से जुड़ा पहलू है, लेकिन सिर्फ अपराध की रिपोर्टिंग के बजाय अपराध
की तह में जाकर उसका पोस्टमॉर्टम करके ये बताना कि अपराध किस तरह हुआ और क्यों हुआ,
उसे चटपटे और मसालेदार तरीके से पेश करना जो खबर के बदले फिल्मी कहानी ज्यादा लगे
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खेल-खिलाड़ी –
जिनमें लोगों की दिलचस्पी लाजिमी है, लेकिन लोगों की दिलचस्पी औऱ बढ़ाने के लिए उन
खबरों का अलग ट्रीटमेंट
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तमाशा और ड्रामा जो
अपराध से लेकर एंटरटेनमेंट तक हर किस्म की खबर में हो सकता है
जाहिर है, उपरोक्त किस्म की खबरों को
तवज्जो देते हुए पर्यावरण, शिक्षा, स्वास्थ्य और जनहित के मुद्दों से जुड़ी खबरें
आसानी से पीछे छूट जाती हैं। यही नहीं, इन मुद्दों से जुड़ी खबरों पर मीडियाकर्मियों
की सोच भी बदलने लगती है। आम जन के लिए फायदेमंद किसी सरकारी योजना की खबर देना
सरकार की चापलूसी समझ लिया जाता है, तो दूसरी तरफ, सरकार की खिंचाई करनेवाली खबरों
को तवज्जो देना भी दर्शकों की दिलचस्पी बढ़ानेवाला मान लिया जाता है। ये आम
मानसिकता है कि अच्छाई के बजाय बुराई ज्यादा आसानी से लोगों को आकर्षित करती है,
लोगों को ज्यादा देर तक याद रहती है। ऐसे में, उस पहलू को उजागर करना जो छवि बनाने
के बजाय उसे मलिन करे, ये टीवी पत्रकारिता का प्रमुख दायित्व बन गया है। इसका
ज्वलंत उदाहरण 2014 के चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल के उन
वीडियोज़ के चैनलों पर प्रचार-प्रसार से देखने को मिला, जो रॉ फुटेज के रूप में यूट्यूब
पर अपलोड किए गए थे। इस कड़ी में मशहूर एंकर पुण्य प्रसून वाजपेयी से इंटरव्यू के
सिलसिले में बातचीत का एक वीडियो सामने आया था, साथ ही, इंडिया टीवी ने भी कुछ ऐसा
रॉ वीडियो तलाशकर दिखाया था, जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से अरविंद केजरीवाल
नरेंद्र मोदी का समर्थन करते दिखे। इन वीडियोज़ के प्रसारण ने एक तरफ सनसनी
फैलानेवाली पत्रकारिता का नमूना पेश किया, तो दूसरी तरफ नेता और पत्रकार के कथित
संबंधों को उजागर करने के नाम पर नेताओं और पत्रकारों के आपसी भरोसे और अनौपचारिक
बातचीत की बड़ी ही आम परिपाटी पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया।
प्रश्नचिह्न तो 2014 के चुनाव में मीडिया, खासकर टीवी चैनलों के चरित्र पर भी
उठे। तमाम नेताओं ने एक सुर से मीडिया पर बिक जाने का इल्जाम मढ़ दिया और लगातार
नसीहतें देते रहे। कोई टीवी चैनलों पर मोदी के हाथों बिके होने का इल्जाम लगाता
रहा, तो कोई केजरीवाल के हाथों, तो कोई किसी और के हाथों। चुंकि, निजी समाचार
चैनलों पर हरेक पक्ष या पार्टी की खबर संतुलित रूप से दिखाने और उसके मूल्यांकन की
कोई निश्चित और ठोस व्यवस्था या नियमन प्रैक्टिस में नहीं रहा, लिहाजा हरेक पार्टी
के नेता को मीडिया पर ठीकरा फोड़ने का आसानी से मौका मिलता रहा।
लेकिन, ये मीडिया की माया ही है कि हर नेता को इस बात से टीस होती रही कि
दूसरा प्रतिद्वंद्वी क्यों टीवी पर खबरों में ज्यादा रहा, सुर्खियों में ज्यादा
रहा और ज्यादा से ज्यादा फुटेज खाता रहा। वास्तव में नेता तो टीवी के लिए खबर क्या
है, इसके सिद्धांत से परिचित नहीं और अगर परिचित हों भी तो खुद खबर बनाने में नाकाम
रहे लिहाजा टीवी चैनलों पर बड़ी आसानी से अपना गुस्सा उतार दिया। और दर्शकों को
बांधे रखने के लिए मीडिया को अपना मायावी रूप दिखाना ही पड़ता है, हर उस पंक्ति
में से खबर निकालनी पड़ती है, जहां किताबी सिद्धांतों के मुताबिक खबर न भी हो। पहले
“बिटविन द लाइंस” की टीवी पत्रकारिता अब उस
सनसनीखेज पत्रकारिता का ही हिस्सा बन गई है जिसके जरिए कभी सीधी ऊंगुली से तो कभी
टेढ़ी ऊंगुली से घी निकालने में माहिर टीवी चैनल खबरें निकाल लेते हैं और अब तो
इसकी भी जरूरत इसलिए नहीं पड़ती क्योंकि संयम-नियम से बेखबर और नेतागीरी में मदहोश
नेतागण मनसा-वाचा-कर्मणा रोजाना ऐसा कुछ कर बैठते हैं, जो टीवी के लिए खबर बन जाता
है।
बहरहाल, कहना न होगा कि टीवी समाचार की ये स्थिति बुनियादी मुद्दों से भटकती
दिखती है। 2013 के मध्य से लेकर कई महीनों तक उत्तराखंड में केदारनाथ धाम की
त्रासदी और कुदरत की विनाशलीला की कहानियां टीवी समाचारों में छाई रहीं। वजह साफ
थी। एक तो केदारनाथ धार्मिक आस्था के विशाल केंद्रों में से है। दूसरे, आपदा का
मानवीय पहलू, जो हादसे की वजह से जान गंवानेवाले और रास्ते में फंसे
तीर्थयात्रियों से जुड़ा था। तीसरा, उस सैलाब का हाहाकारी सितम जिसकी कभी किसी ने
कल्पना तक नहीं की होगी। टीवी के समाचार चैनल महीनों इन तीनों वजहों के चलते
केदारनाथ की विभिषिका की खबरें बेचते रहे क्योंकि उपरोक्त तीनों ही वजहों से इन खबरों
में आम दर्शकों को आकर्षित करने की जबर्दस्त क्षमता थी। पहली वजह को छोड़ भी दें,
तो दूसरी और तीसरी वजहें टीवी के लिए और ज्यादा मायने रखती हैं क्योंकि टीवी
पत्रकारों को स्क्रीन पर दिखाने के लिए हाहाकार का खजाना जो मिल गया था। केदारनाथ
आपदा की कवरेज का सकारात्मक पहलू ये है कि अगर मीडिया की पहुंच न होती तो शायद प्रभावित
इलाकों में फंसे सैकड़ों-हजारों लोगों तक सरकारी तंत्र का ध्यान जाना नामुमकिन
होता और वो बेमौत मारे जाते। आखिर विजय बहुगुणा इसी आपदा की बलि चढ़ ही गए और देर
सबेर उन्हें उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पद से हटना ही पड़ा। लेकिन, टीवी पर दिखाए
गए दर्द से हटकर सैलाब के हाहाकार और सितम की कल्पना के ग्राफिक्स और एनिमेशन से
सजे आधे-आधे घंटे के कितने ही कार्यक्रमों ने आखिर दर्शकों का कितना सामान्य ज्ञान
बढ़ाया होगा?
टीवी पत्रकारिता के किसी धुरंधर ने कभी मुझे कहा था टीवी पर दो ही चीजें बिकती
हैं- डर और पैसा यानी अगर आप पैसा बनाने का तरीका दिखाओगे, तो दर्शक खूब
देखेंगे या फिर ऐसी चीज दिखाओगे जिससे दहशत हो, डर लगे, तो उसे भी लोग खूब
देखेंगे। कुछ वक्त तक अश्लील मनोरंजन भी टीवी की कमाऊ श्रेणी में जुड़ा रहा, लेकिन
उस पर किन्ही वजहों से लगाम लग गई और समाचार चैनलों पर संयम बरता जाने लगा। लेकिन
डर और पैसे की खबरिया मानसिकता बरकराकर है। यही वजह है कि डर और दहशत पैदा
करनेवाले विनाश और अपराध की खबरें खूब टीआरपी बटोरती हैं।
तो केदारनाथ आपदा की विनाशलीला की खबरें भी खूब चलीं और नवंबर 2013 में हालात कुछ
सामान्य होने के बाद धीरे-धीरे करके ऐसी खबरें टीवी चैनलों से हटती चली गईं।
ज्यादा वक्त नहीं गुजरा, एक बार फिर केदारनाथ यात्रा का वक्त करीब आया, और
उत्तराखंड और केंद्र सरकारों की ओर से नए सिरे से यात्रा के इंतजाम की खबरें अखबारों
में, इंटरनेट माध्यमों पर, न्यूज़ वायर के जरिए आने लगीं। सरकारी दावे किये जाने
लगे कि यात्रा के लिए कितने पुख्ता इंतजाम किए जा रहे हैं, कितने लोगों के सफर के
इंतजाम हैं, टूटी सड़कों की मरम्मत कहां तक हुई है, केदार धाम में बुनियादी
सुविधाएं कहां तक पहुंची हैं। लेकिन, किसी टीवी चैनल ने अपना क्रू भेजकर जमीनी
हकीकत की पड़ताल करने की कोशिश शायद ही की। फ़ाइल फुटेज का इस्तेमाल करके
जहां-तहां यात्रा की तैयारियों की खबरें जरूर दिखा दी गईं। लेकिन किसी चैनल ने
मौके पर जाकर हकीकत का सर्वे करना शायद जरूरी नहीं समझा। इसके पीछे आखिर वजह क्या
रही? क्या विनाश की खबर विकास की खबरों पर भारी पड़ गई या फिर, चुनावी माहौल में
केदारनाथ की जमीनी हकीकत दिखाना उत्तराखंड की सत्ताधारी सरकार पर और भारी पड़ सकता
था या टीवी चैनलों के पत्रकार चुनाव की कवरेज में व्यस्त थे? वजहें कुछ भी हो
सकती हैं, दलीलें भी कई तरह की दी जा सकती हैं और उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर य़े
निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि टीवी के समाचार चैनलों को क्या-क्या दिखाना
अच्छा लगता है। टीवी पर विकास की कहानियां चलें या विनाश की गाथा गाई जाए, इसको
लेकर कोई शक-शुबहा नहीं, परंतु ये भी सोचना पड़ेगा कि विकास के उल्लेखनीय़ दौर में तकनीकी
तौर पर समृद्ध होने के बावजूद टीवी के समाचार चैनल अपनी जिम्मेदारियों से कैसे दूर
भाग रहे हैं और क्या हालात में किसी तरह बदलाव संभव है?
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कुमार कौस्तुभ
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