“मम्मा मैं घर आ
गया..”
“तुम मुझसे छुपाते क्यों हो? छुपाते क्यों हो,
बताओ, बताओ?”
“हमने खाना खा लिया..”
“मुझे बचाओ..”
“एं.. मैं भी तो बहुत
अच्छा हूं”
“अब मैं इतना भी कुछ
खास नहीं मम्मा”
“मम्मा मुझे बचाओ..”
“अब मैं तुझे नहीं
छोड़ूंगा..”
“इसको तो घर से भगाना
ही पड़ेगा...”
“अब तो तेरी बैंड
बजना तय है..”
“अब आएगा असली मज़ा..”
“अब तो मैं इसकी बैंड
बजाके ही रहूंगा..”
“अब एक बाइट तो ले
लूं रे बाबा..”
-
ये कुछ ऐसे संवाद हैं, जो आप आए दिन अपने बच्चों
से सुनते होंगे...असल में इस तरह की मिलती-जुलती लाइनें आप बच्चों पर केंद्रित
टीवी चैनलों हंगामा, डिज़्नी, कार्टून नेटवर्क, डिस्कवरी किड्स, निक जैसे तमाम
चैनलों पर भी आनेवाले कार्यक्रमों डोरेमॉन, हॉरिड हेनरी, शिनचैन, ऑगी एंड द
कॉकरोचेज के हिंदी वर्जन में सुन सकते हैं, जिन्हें आपके और हमारे बच्चे नकल करके
सीखते हैं और घर में या दोस्तों के बीच आपसी बातचीत में अक्सर बोलते पाए जाते हैं।
चाहे वो फिल्मी डायलॉग्स पर आधारित संवाद हों, या कार्टून्स के संवादों में फिल्मी
एक्टर्स की आवाज की नकल- बच्चों की मासूमियत भरी जुबान से ऐसे संवाद सुनकर कई बार
हंसी आती है, आनंद भी आता है, हैरानी भी होती है कि बच्चे कितनी आसानी से ऐसी
बातें बोल लेते हैं जिनका असल में मतलब उन्हें शायद ही समझ में आता हो..और गहराई
से सोचें, तो ये भी लगता है कि आखिर बच्चों का मनोरंजन करनेवाले ये तमाम टीवी चैनल
आखिर हमारे बच्चों की भाषा को किस ओर ले जा रहे हैं।
80 के दशक तक, जब
भारतीय घरों में टेलीविजन की वैसी घुसपैठ नहीं थी, जैसी आज हो गई है, तब के दौर
में बच्चों को बोलचाल सिखाने में भी वक्त लगता था। आमतौर पर बच्चे अपने पारिवारिक
लोगों, मां, पिता, भाई-बहनों, दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, बुआ, ताई, मौसी और
घर में आनेवाले लोगों की बोलचाल के शब्द सुनकर बोलना सीखते थे। आमतौर पर उनकी
जुबान तोतली होती थी और उम्र बढ़ने के साथ आवाज साफ होती थी। लेकिन 21वीं सदी के
इस दौर में न तो बच्चों की तुतली आवाज सुनने को मिलती है, ना ही उन्हें इस तरह
बोलचाल की भाषा सिखाने की जरूरत पड़ती है। समाज में आए बदलावों के साथ ही संयुक्त पारिवारिक
संस्था के खत्म होने से बच्चों का विकास और उनका लालन-पालन कामकाजी माता-पिताओं के
लिए बड़ी चुनौती बन गया। ऐसे में टेलीविजन एक वरदान के रूप में उभरा, जिसने घर में
एकांत को खत्म किया और न सिर्फ परिवार के बड़ों बल्कि बच्चों को भी वक्त गुजारने
का सुगम जरिया मुहैया करा दिया। अब तो घरेलू महिलाओं को भी वक्त गुजारने के लिए
सीरियल देखना होता है, तो दूसरी तरफ, अपने कामकाज के दौरान बच्चों की दखल से बचने
के लिए उन्हें टीवी के कार्टून सीरियलों में उलझाना भी आम बात हो गई है। ब़ड़े
शहरों से लेकर छोटे शहरों और कस्बों तक तकरीबन हर घर में टेलीविजन अपनी अनिवार्य
जगह बना चुका है और अब ये सिर्फ जानकारी या मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि घर के ऐसे
सदस्य के रूप में मौजूद है, जिसके बिना कम से कम महिलाओं और बच्चों का काम बिल्कुल
नहीं चलता। एक शॉर्टकट के तौर पर, बच्चों और महिलाओं के लिए टेलीविजन वक्त काटने
का जरिया जरूर बन गया है। और इस तरीके से देखें तो टेलीविजन अपने मूल उद्देश्यों
से भटकता दिख रहा है। वजहें क्य़ा हो सकती हैं , इस पर विचार जरूरी है।
टेलीविजन का सबसे
बड़ा और बुरा असर बच्चों की भाषा, उनकी बोलचाल की शैली और उनके मानसिक विकास पर
देखा जा सकता है। जापान से आयातित कार्टून कैरेक्टर डोरेमॉन, नोबिता, शिनचैन, के
साथ-साथ हेनरी, ट्रांसफॉर्मर्स इत्यादि अपने हाव-भाव और मुद्राओं से हमारे बच्चों
के प्यारे जरूर बन गए हैं, लेकिन उनके जरिए जो कंटेंट परोसा जा रहा है, वो किस हद
तक खतरनाक हो सकता है, इसका अंदाजा भुक्तभोगी ही लगा सकते हैं। 5 से 10 साल तक की
उम्रसीमा के बच्चे न सिर्फ टीवी पर प्रसारित इन कार्टून कैरेक्टर्स के कद और वय के
हिसाब से उन्हें अपने बराबर का पाते हैं और पीयर ग्रुप के हिसाब से खुद के करीब
मानते हुए उन्हें अपने-आप से जोड़ने लगते हैं। इस मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के तहत
बच्चे न सिर्फ उनसे बोलना सीखते हैं, उनके वाक्य विन्यास (जैसा ऊपर के उदाहरणों
में दिया गया है) सीखते और आत्मसात करते हैं, बल्कि उनकी बोलने की शैली भी अपनाने लगते हैं जिससे
उनकी अपनी मौलिकता नष्ट होने लगती है। आमतौर पर कहा जाता है कि बच्चों का दिमाग
कुम्हार की मिट्टी के समान होता है, जिसे जिस तरीके से ढाला जाए, वो उस तरीके से
ढल जाता है। ये बात टेलीविजन के कार्टून कैरेक्टर्स के असर के मामले में सटीक
बैठती है।
यूं तो बच्चों के
विकास की सबसे बड़ी पाठशाला उनका अपना घर ही होता है। लेकिन, आज के दौर में,
खासतौर से मेट्रो में बसे परिवारों में 12 से 18 घंटे घर से बाहर रहनेवाले कामकाजी
पिताओं को बच्चों के साथ वक्त गुजारने के मौके कम मिलते हैं और घरेलू कामकाज से
लेकर महिला समाज और किटी पार्टीज़ में उलझी आधुनिक माताओं को भी बच्चों पर ध्यान
देने में दिलचस्पी नहीं दिखती। ऐसे में बच्चों को उलझाने का “बुद्धू बक्सा” उनके कोमल और साफ
दिमाग में अतिक्रमण किस तरह करता है, इसके उदाहरण रोजाना आप अपने बच्चों की बोली और
उनके हाव-भाव में आ रहे बदलावों में देख सकते हैं। चुनिंदा ज्यादा संवेदनशील बच्चों
के तो सपने में भी नोबिता, डोरेमॉन, जियान, शिनचैन, हेनरी और ट्रांसफॉर्मर्स के
कैरेक्टर दिखाई देते हैं जिनसे कई बार डरने और नींद में बाते करने के मामले में भी
देखने में आ चुके हैं। अब बच्चों को ये कहके डराने की जरूरत नहीं पड़ती कि “सो जा नहीं तो गब्बर
आ जाएगा”, संवेदनशील बच्चा तो जियान जैसे कार्टून किरदार
से ही डर सकता है।
ये तो बच्चों पर कार्टून
कैरेक्टर के नकारात्मक असर का एक पहलू है। दूसरे एक और पहलू पर विचार करना इस
लिहाज से जरूरी हो जाता है कि कहीं टीवी के कार्टून कैरेक्टर्स के जरिए हम नन्हें
बच्चों को असमय किशोर या जवान तो नहीं बना रहे। देखा जा रहा है कि बच्चों का
मानसिक विकास जिस क्रम में होना चाहिए, उससे कहीं ज्य़ादा तेजी से हो रहा है। बात
कार्टून सीरियलों में लड़के-लड़कियों के संबंधों को लेकर हो रही है। बच्चों का शायद
कोई भी ऐसा कार्टून सीरियल टेलीविजन पर नहीं देखा जा रहा जिसमें बच्चों और
बच्चियों के बराबरी की बात हो, उनमें कोई भेद न हो। जब भी कोई कहानी कही जाती है
और उसमें चार बच्चों के बीच कोई बच्ची होती है, तो कहानी का एक एंगल उस बच्ची को
पटाने का जरूर रहता है, या तो सब बच्चे किरदार उस एक बेचारी बच्ची पर फिदा होते
हैं और अपने-अपने तरीके से उसे अपने दिल की रानी मानते हुए अपनी बनाने की कोशिश
में रहते हैं या फिर उसे किसी मुसीबत से निकालकर उसे अपना असर दिखाने की कोशिश में
दिखते हैं। यहां तक कि शिनचैन जैसे किरदार तो अपनी टीचर्स के भी प्रेम संबंधों के
गवाह बनते या उन्हें सहयोग करते दिखते हैं। आखिर बच्चों की कहानियों में ये सब
दिखाना कितना जायज है, जो किशोरावस्था, या जवानी के दिनों में होता है। क्या ऐसी
कार्टून कहानियों के लेखक कहीं न कहीं अपनी दबी भावनाओं का इजहार करते और उस
लक्ष्मणरेखा का अतिक्रमण करते नहीं दिखते जो बच्चों के दिलोदिमाग पर न बुरा तो कोई
अच्छा असर कतई नहीं डाल सकता। शिजूका को लेकर नोबिता और सूनियो का जो बर्ताव रहता
है, या डोरेमॉन, डोरेमी या किसी और बिल्ली को देखकर जिस तरह बर्ताव करता है, क्या
वो सब बच्चों की कहानियों का हिस्सा होना चाहिए? मुद्दा बहस का है और
इसके तमाम पहलुओं पर विचार हो सकता है।
अगर यहां हम मोटू-पतलू,
चाचा चौधरी, बिल्लू, छोटा भीम जैसे कुछ भारतीय कार्टूनों की बात करें, तो साफ है कि
चाहे पारंपरिक तौर ही या फिर अपनी स्वस्थ सोच की बदौलत हमारे यहां बच्चों को वो सब
समय से पहले बताने की जरूरत नहीं दिखी, जो उन्हें उचित वक्त पर जानना चाहिए। सवाल
ये है कि क्या जापान या विदेशों में इसका ख्याल नहीं रखा जाता कि किस उम्र के
बच्चों के लिए किस तरह की कहानियां बननी चाहिए? या फिर कार्टून आयात
करके उन्हें अपने यहां दिखाते वक्त टीवी चैनलों ने कोई सीमा रेखा तय नहीं की? या फिर इसके लिए माता-पिता
और अभिभावक सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं कि वो ये तय नहीं करते कि उनके 5 साल के
बच्चे को क्या देखना चाहिए और 15 साल के लड़के को क्या देखना चाहिए? कहीं न कहीं कमी तो
जरूर है। हाल के दिनों में शिनचैन नाम के किरदार के ‘चटपटे’ संवादों को लेकर
सवाल उठे, जिसके बाद उसमें कुछ बदलाव किए गए, ऐसा प्रतीत होता है। लेकिन इस दिशा
में अभी और भी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है, ताकि कार्टून किरदार मनोरंजन तक ही
सीमित रहें, या फिर उनके जरिए बच्चे अगर कुछ सीखें, तो ऐसा जो उनके विकास में
मददगार हो, न कि ऐसी चीजें, जो उनके विकास को बाधित करें। बच्चों के कार्यक्रम
प्रसारित करनेवाले टीवी चैनलों के लिए आचार संहिता होनी चाहिए। उन्हें कार्यक्रमों
पर भी ये पट्टी देनी चाहिए कि अमुक कार्यक्रम अमुक उम्रसीमा तक के बच्चों के लिए
है। ठीक वैसे ही, जैसे सेंसर बोर्ड वयस्क और गैर-वयस्क फिल्मों की सीमा तय करता
है, उसी तरीके से बच्चों के लिए बननेवाले टीवी कार्यक्रमों का भी रेगुलेशन होना जरूरी
लगता है।
कुछ प्रमुख कार्टून
किरदारों की बात करें तो, देखते हैं कि डोरेमॉन का प्रमुख किरदार नोबिता एक ऐसा
बच्चा है, जो हमेशा पढ़ाई से जी चुराता है और अपने रोबोट डोरेमॉन की मदद चाहता है।
वहीं, जियान और सूनिय़ो भी नकारात्मक किरदार हैं। एक किरदार देगी-सूगी है, जो
बच्चों के लिए आदर्श हो सकता है, लेकिन उसे तो सीरियल में बहुत कम फुटेज मिलती है।
वहीं शिनचैन और हेनरी जैसे किरदार एक से बढकर एक शरारतें करते दिखते हैं। क्या ये
ही हमारे बच्चों के आदर्श हो सकते हैं? कुछ लोगों को लग सकता है कि
पारंपरिक भारतीय कार्टूनों में बाल किरदार कम हैं, या फिर वो धार्मिक किस्म के
हैं। सवाल है कि बच्चों के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा ये तो बच्चे तय नहीं
करेंगे, ये तो बड़ों को ही तय करना होगा, ताकि उन्हें अच्छा इंसान बना सकें। अगर,
धार्मिक या चाचा चौधरी जैसे किरदारों से नफरत है, तो नए किरदार गढ़ने से किसने
रोका है, जो बच्चों को खेल-खेल में कुछ मानवीय मूल्यों, कुछ अच्छाई, भलाई की सीख
दे। विदेशों से ही आयातित टॉम एंड जेरी और मिकी माउस जैसे और भी किरदार हैं, जो जबर्दस्त
मनोरंजन करते हैं और शिक्षा भी देते हैं। जरूरत है ऐसे किरदारों को बढ़ावा देने
की, ना कि ऐसे किरदारों को थोपने की, जो अपनी उल-जुलूल और बेतुकी कहानियों से मनोरंजन
और स्वस्थ विकास के बजाय बच्चों के कोमल मस्तिष्क में ऐसी भावनाओं का बीजारोपण
करें, जो उनके लिए फायदेमंद नहीं हो सकतीं।
सिर्फ बच्चों के ही
कार्टून सीरियल नहीं, बड़ों के सीरियल से भी बच्चे बड़ी जल्दी कई लाइनें सीख लेते
हैं और बाउंसर अभिभावकों पर पड़ता है। आप टीवी पर सीरियल देखते हैं तो बच्चे भी
आपके साथ होते हैं। ऐसे में कपिल के कॉमेडी नाइट्स की लाइनें बच्चे को याद हो जाना
और उनका उन्हें दोहराना कोई बड़ी बात नहीं। कुछ लोगों को ये अच्छा भी लग सकता है,
लेकिन जैसा ऊपर विचार किया गया, ये अच्छा लगना कितना बुरा हो सकता है, इसका अक्सर
हम-आप अंदाजा नहीं लगा सकते। साफ है कि माता-पिता और अभिभावकों को ये बखूबी समझना
होगा कि बच्चों में समझदारी विकसित करने से ही आ सकती है, चाहे वो रोजाना आपको,
आपकी रूटिन को देखकर हो, आपके चाल-ढाल को देखकर हो या आपके द्वारा दिए गए माहौल से
हो। नन्हें बच्चों में समझदारी खुद ब खुद आसमान से नहीं टपक सकती, जैसे सैटेलाइट
के जरिए प्रसारित होनेवाले कार्टून सीरियलों का कंटेंट- अगर ये मान लिया जाए, कि
चार घंटे रोजाना कार्टून देखने से कोई असर नहीं पड़नेवाला, तो आप गलत हो सकते हैं।
या तो आपको ये तय करना होगा और नियंत्रित करना होगा कि आपका बच्चा क्या देखे और
किसे अपना आदर्श- रोल मॉडल माने । या फिर बेलगाम तरीके से प्रसारित हो रहे कंटेंट
के परिणाम भुगतने को भी तैयार रहना होगा, हो सकता है आपको कभी बच्चे की कोई बात
अच्छी न लगे और आप उस पर बरस पड़ें। लेकिन, बरसने से पहले पलभर ठहर कर ये सोच लें
कि आखिर बच्चे के मन में वो बात आई कहां से, क्य़ा है उसका प्रेरणास्रोत, अन्यथा
नतीजा आपके हक में नहीं रहेगा।
-कुमार कौस्तुभ के
साथ शुभांग श्रीवत्स
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