Thursday, December 19, 2013

मीडिया ट्रायल, खुदकुशी और समाचारों की संवेदना



16-17 दिसंबर 2013- अपनी सहयोगी से बलात्कार के मामले में दिल्ली के एक एनजीओ के एग्जेक्यूटिव डायरेक्टर के खिलाफ एफआईआर दर्ज होती है। एक टीवी चैनल पर प्राइम टाइम में इस मामले से जुड़ा समाचार प्रसारित होता है, बहस होती है।
18 दिसंबर 2013 – आरोपित एग्जेक्यूटिव डायरेक्टर खुदकुशी कर लेता है।
18 दिसंबर 2013- एग्जेक्यूटिव डायरेक्टर पर लगे आरोप और उसकी खुदकुशी देश के तमाम हिंदी समाचार चैनलों की हेडलाइन में शुमार हो जाते हैं।
कहानी यहां खत्म नहीं होती। बल्कि, नए सिरे से नए सवाल खड़े हो जाते हैं।
सवाल ये उठता है कि क्या आरोपित शख्स इतना कमजोर था, कि वो अपने ऊपर लगे आरोप को सहन न कर सका? क्या वो अपने खिलाफ एफआईआर दर्ज होने पर आगे होनेवाली कानूनी कार्रवाई और जेल जाने से डरता था, क्य़ा वो जानता था कि वो खुद को बेगुनाह साबित नहीं कर सकेगा?  क्या वो अपने मामले की खबर मीडिया में आने से परेशान था?
मामला चुंकि सितंबर महीने में हुई घटना से शुरु हुआ था, लिहाजा तीन महीने में इसको लेकर जांच-पड़ताल और सीमित दायरों में विवाद-बहस खूब हुई। ऐसे में नहीं लगता कि आरोपित शख्स सिर्फ आरोप से सन्न था, हताश और निराश था। एफआईआर दर्ज होने के बाद खुदकुशी दूसरी आशंका की ओर इशारा करती है और तीसरी आशंका भी हो सकती है, जिसकी ओर उसके करीबी भी इशारा करते हैं और मानते हैं कि 17 दिसंबर 2013 को मशहूर हिंदी समाचार चैनल इंडिया टीवी पर इस मामले से जुड़ी खबर प्रसारित होने और उसके साथ नारीवादी कार्यकर्ताओं, महिला आयोग से जुड़े लोगों, पत्रकारों की बहस से पैदा तनाव ने आरोपित को खुदकुशी करने को मजबूर कर दिया।
वजह कुछ भी हो सकती है, जो शायद मरहूम शख्स ही जानता होगा। ये राज़ राज़ ही रह जाएगा कि आखिर उसने क्यों जान दी? समाज के डर से, पुलिस के डर से, अपनी आत्मा की आवाज पर या किसी और वजह से?
बहरहाल, इस मामले ने एक बार फिर आधुनिक दौर की हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता पर सवाल जरूर खड़े कर दिए हैं। अगर ध्यान दें, और याद करें तो इस तरह की खुदकुशी का ये पहला मामला नहीं दिखता। कुछ वक्त पहले ही एक बाप ने अपनी बेटी की ओऱ से बलात्कार का आरोप लगाए जाने पर जान दे दी थी। ये भी माना जाता है कि इस तरीके से खुदकुशी कर लेने भर से ही आरोपित पर लगे दाग साफ नहीं हो जाते। बेटी ने बाप पर भले ही गलत आरोप लगाए हो, या सहकर्मी के साथ एनजीओ के एग्जेक्यूटिव डायरेक्टर ने क्या किया या नहीं किया उसकी सच्चाई कुछ भी हो, सबसे बड़ा सवाल जो यहां उभरकर आया है, वो है मीडिया में व्यक्ति की निजता का।
आधुनिक दौर में जब कैमरे की जद से कुछ भी छिपा नहीं है, दीवारों के कान मीडिया संस्थानों के न्यूज़रूम में जुड़ने लगे हैं, तो किसी संगीन अपराध के आरोप को छिपा पाना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं रहा, चाहे वो तरुण तेजपाल जैसे धाकड़ पत्रकार या आसाराम और नारायण साईं जैसे विशाल श्रद्धालु समुदाय के धर्मगुरु ही क्यों न हों। मीडिया में, खासकर टीवी के समाचार चैनलों पर इनकी जो छीछालेदर हो चुकी है, वो किसी से छिपी नहीं है। लेकिन, तेजपाल या आसाराम ने अगर उस तरह प्रतिक्रिया नहीं दी, जैसे खुर्शीद अनवर ने दी, तो इसके मायने अलग हो सकते हैं। परंतु, आरोप तो इन्हें एक धरातल पर ला ही देते हैं। ऐसे में, जब 16 दिसंबर 2012 की पीड़िता के चेहरे सज़ा सुनाए जाने तक सार्वजनिक नहीं किए जाते, तो फिर किसी और शख्स पर सरेआम बहस कितनी जायज है।
उदाहरण तो पूर्व जस्टिस एस के गांगुली के मामले के भी दिए जा रहे हैं जिनकी मीडिया में छीछालेदर सिर्फ एक लॉ इंटर्न की शिकायत भर पर हो गई। आरोप तो रामसिंह, विनय ठाकुर, पवन इत्यादि आम दोषी बलात्कारियों से लेकर तेजपाल, आसाराम, गांगुली, खुर्शीद सरीखे तमाम आरोपितों तक को एक ही जमीन पर ला खड़ा कर देते हैं। ऐसे में, मीडिया, खासकर टीवी के समाचार चैनलों की भूमिका कैसी होनी चाहिए। एक पत्रकार ने फेसबुक पर लिखा कि खबर देना भर पत्रकार के हाथ में है, उसका असर उसके हाथ में नहीं है। दलील बिल्कुल सही है, लेकिन सवाल है, टेलीविजन के जरिए देश से लेकर दुनिया तक खबर का प्रसारण करते हुए उसके असर की चिंता क्यों नहीं की जा सकती। और अगर असर की उम्मीद नहीं होती है, तो प्राइम टाइम में दसियों खबरों में से चुनकर कोई खास खबर ही प्रमुखता से क्यों दिखाई जाती है? अगर इस तरह के आरोप मीडिय़ा और टीवी चैनलों पर लगते हैं कि टीआरपी के लिए ये सबकुछ किया जा रहा है, तो ये आरोप जायज क्यों नहीं माने जा रहे?
कानून और सुप्रीम कोर्ट की सख्ती की वजह से मीडिया में महिलाओं को लेकर संयम बरता जा रहा है। ऐसे किसी भी मामले से जुड़ी खबर में जहां महिला का चरित्र हनन दिखता हो, उस महिला की तस्वीर चैनलों पर या तो नहीं दिखाई जाती है, या फिर धुंधली (Blurr) करके दिखाई जाती है और उसकी पहचान जाहिर नहीं की जाती है। लेकिन मर्दों के मामले में ऐसा नहीं होता। चंद मामलों को छोड़ दें, तो आम तौर पर हरेक मर्द आरोपी का चेहरा खुलकर चैनलों पर दिखाया जाता है, मानो उसका आरोप साबित होने से पहले ही उसे दोषी घोषित कर दिया गया हो। अगर कानून की मर्यादा है, उसके तहत कोई लकीर खींची गई है, तो उसका पालन दोनों ही स्थितियों में होना चाहिए, चाहे वो किसी महिला का मामला हो, या किसी मर्द का। कानून को परे रखकर भी सोचें, तो मीडिया को इतने आत्मसंयम का पालन तो करना ही चाहिए कि किसी की निजता का उल्लंघन न हो। लेकिन, ऐसे मामले रोज देखने में आते हैं, जिनमें मीडिया की भूमिका बेलगाम दिखती है। सबसे तेजी से, सबसे पहले, सबसे सनसनीखेज तरीके से खबर देने की होड़ में टीवी के खबरिया चैनलों में कोई संयम नहीं दिखता, ना ही कोई संवेदना दिखती है।
उंगुलियों पर गिने जानेवाले चंद मामले ऐसे होंगे, जहां आरोपित मर्द की पहचान उजागर न की गई हो। इसकी अलग वजहें हो सकती हैं। किसी का रसूख इसके पीछे हो सकता है, किसी से हित जुड़ा हो सकता है या और भी बहुत कुछ। संवेदना का सवाल इस मामले में जुदा हो जाता है। आज के दौर का मीडिया संवेदना का सौदा करना तो जानता है, लेकिन, संवेदना के साथ पेश आना शायद नहीं। खबरें प्रसारित करते हुए ये तो जरूर सोचा जाता है कि किसी को सरेआम पिटते दिखाने की खबर लोग जरूर देखेंगे, लेकिन ये नहीं सोचा जाता कि उस एक पिटनेवाले से जुड़े उसके परिवार के कई और लोगों को सरेआम फब्तियां सुननी पड़ेंगी, गांव-घर छोड़ देना पड़ेगा और उसके अकेले के गुनाह की सज़ा सिर्फ इसलिए भुगतनी पड़ेगी चुंकि सारा समाज, सारी दुनिया, वो भी जो उक्त मामले से अनजान हैं, सभी उसके बारे में जान जाएंगे और हिकारत भरी नजरों से देखेंगे। कानून, अदालत और पुलिस गुनाहों का हिसाब करनेवाली संस्थाएं हैं। मीडिया का ये काम नहीं कि वो किसी को दोषी ठहराए या किसी को बेगुनाह जाहिर करे। अगर ऐसा किसी खबर के जरिए होता है, तो माना जा सकता है कि मीडिया अपनी लक्ष्मणरेखा का उल्लंघन कर रहा है।
खबर के असर का अंदाजा अगर पत्रकार को न हो, तो इससे बड़ी संवेदनहीनता और क्या होगी? खासकर तब जबकि आप किसी छोटे से दायरे में काम नहीं कर रहे, विशाल सार्वजनिक जीवन से जुड़े हुए हैं। जब आप ये मान सकते हैं कि अपने बच्चे या पति की मौत पर आंसू बहा रही, ढाढ़ें मारकर रो रही महिला के आंसू दिखाने से टीआरपी आएगी, तो आपको ये भी समझना चाहिए कि किसी को पर्दे पर दोषी साबित करने की आपकी कोशिश न सिर्फ उसके लिए जानलेवा हो सकती है बल्कि उसके बेगुनाह परिजनों को भी उसका खामियाजा भुगतने को मजबूर कर सकती है। यहां ये कतई न माना जाए कि कोई गुमनाम आरोपी या खुर्शीद अनवर या तेजपाल या आसाराम अपने आरोपों के लिए दोषी थे या नहीं इसके बारे में कोई दलील दी जा रही है, ये सब तय करने के लिए अदालते हैं, पुलिस है। यहां तो सिर्फ ये माना जाए कि इन मामलों के बहाने बात टेलीविजन समाचार प्रसारण में संयम के अभाव की हो रही है, जिसे दुरुस्त करने की सख्त जरूरत है।
-          कुमार कौस्तुभ

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