अपनी पैदाइश के
तकरीबन 10 साल में फेसबुक और 5 साल के अंदर ट्विटर ने इंटरनेट का इस्तेमाल
करनेवाले करोड़ों लोगों के बीच न सिर्फ अपनी खास जगह बनाई है बल्कि उनके लिए अपनी
बात कहने का सबसे बड़ा हथियार बन गया है। न तो फेसबुक को दुनिया में लानेवाले मार्क
ज़ुकेरबर्ग, डस्टिन मोस्कोवित्ज़, एडुआर्डो सवेरिन, एंड्र्यू मैकोलुम और क्रिस
ह्युजेज़ और ना ही ट्विटर के संस्थापकों इवान विलियम्स, नोआ ग्लास, जैक डोर्सी और
बिज़ स्टोन ने कभी ये सोचा होगा कि इन सोशल साइट्स का असर इतना व्यापक होगा, जितना
अब दिख रहा है, क्योंकि इनके साथ ही या आसपास शुरु किए गए गूगल के ओरकुट, रीडिफ़
के कनेक्शन्स जैसे सोशल नेटवर्किंग साइट्स दुनिया में इंटरनेट के उपभोक्ताओं पर
वैसा असर नहीं दिखा सके। इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि फेसबुक और ट्विटर को अत्याधुनिक
तकनीक वाले मोबाइल फोन का सहारा मिला और दूरदर्शी तरीके से इनमें समय के साथ तकनीकी
और यूज़र फ्रेंडली बदलाव भी किए गए। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि 21वीं सदी
के पहले दशक के अंत तक और दूसरे दशक की शुरुआती दौर में फेसबुक और ट्विटर सामाजिक आंदोलनों
के सशक्त हथिय़ार के रूप में उभरे।
चाहे वो 2011
के अरब स्प्रिंग से जुड़े आंदोलन हों या 2013 तक भारत में राजनीतिक जनजागरण से
जुड़े मामले हों, फेसबुक और ट्विटर का बेशुमार इस्तेमाल सर्वत्र देखा गया। ये बात
तो साफ है कि इक्कीसवीं सदी के नए दौर में दुनिया के जिस-जिस कोने में आंदोलन हुए
या राजनीतिक बदलाव हुए, उनकी पृष्ठभूमि वही थी, जो हमेशा रहती है- यानी मौजूदा व्यवस्था
से नाराजगी, सत्तारूढ़ दलों से नाराजगी, बदलाव की आकांक्षा, शोषण के विरूद्ध आवाज
उठाने की कोशिश- चाहे वो मिस्र हो, या भारत की राजधानी दिल्ली- हर जगह फेसबुक और
ट्विटर सूचनाओं और विचारों के त्वरित प्रसार और लोगों को एकजुट करने के लिए सशक्त
माध्यम साबित हुए। सोशल मीडिया के जरिए मिस्र की होस्नी मुबारक सरकार के खिलाफ जनज्वार
पैदा करनेवाले कार्यकर्ता भी मानते हैं कि इंटरनेट पर मौजूद ये माध्यम उनके लिए
सबसे ज्यादा उपयोगी साबित हुए हैं। मिस्र के कार्यकर्ता वाएल ग्होनिम का तो साफ
कहना है कि "अगर आप लोगों को आजाद कराना चाहते हैं
तो उन्हें इंटरनेट दे दीजिए"।
यानी अब रोटी,
कपड़े और मकान के लिए सड़कों पर लड़ी जानेवाली लड़ाइयां इंटरनेट के जरिए चलनेवाली
सोशल साइट्स के जरिए लड़ी जाएंगी! ये वक्तव्य
विरोधाभासी हो सकता है क्योंकि इसके निहितार्थ यदि नहीं समझे गए तो मतलब गलत
निकाले जा सकते हैं। आखिर, जिन लोगों को खाने के लाले पड़ रहे हों, वो भला इंटरनेट
का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं? साफ जाहिर है,
इंटरनेट और सोशल मीडिया का इस्तेमाल करनेवाले समाज के वो लोग हैं, वो तबका है, जिनके
पास कम से कम कुछ वक्त गुजारे के लिए साधन जरूर मौजूद है। ऐसे सैकड़ों लोग एक दूसरे
से मिले बगैर इंटरनेट पर मौजूद सोशल मीडिय़ा प्लेटफॉर्म के जरिए अपनी बातें आपस में
शेयर करते हैं और उस आंदोलन का ढांचा तैयार करते हैं, जो अंत में सड़कों पर,
चौक-चौराहों पर निकले जनसैलाब के जरिए अंजाम तक पहुंचता है।
100 लोग 1000
लोगों को 1000 लोग लाखों लोगों को आंदोलन के लिए प्रेरित करते हैं और तब जाकर
आंदोलन अपनी वही शक्ल लेता है, जो हम सदियों से देखते सुनते आए हैं। यानी एक तरीके
से देखें तो सोशल मीडिया सिर्फ एक जरिया ही तो है, वैसा ही जरिया जैसे पहले पर्चे,
पैम्फलेट और लाउडस्पीकर या समाज के विभिन्न वर्गों, एक-दूसरे से जनसंपर्क- हुआ
करते थे। ये कतई नहीं सोचा जा सकता है कि घर के बंद कमरे या दफ्तर के बंद केबिन
में कंप्यूटर पर सोशल मीडिया के जरिए अपनी बात दुनिया तक पहुंचा दी- तो बदलाव आ
जाएगा। उसके लिए तो सड़कों पर उतरना ही पड़ता है, रैलियां करनी पड़ती हैं, घेराव
करने पड़ते हैं, लाठियां और आंसू गैस के गोले भी खाने पड़ते हैं- ठीक वैसे ही,
जैसे 50 या 100 बरस पहले किसी इलाके में हुआ हो। दुनिया की बात छोड़ दें और सिर्फ
देश की ही बात करें तो भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी घटनाएं हों या जयप्रकाश
आंदोलन हो, या फिर मंडल कमीशन विरोधी आंदोलन, या फिर जनलोकपाल के समर्थन में या निर्भया
गैंग रेप खिलाफ आंदोलन- सबकी परिणति सड़कों पर ही आकर हुई है। लेकिन, जनसमुदाय को
एक जुट करने के तरीके 1857 से लेकर 2013 तक बदलते रहे हैं।
सभी जानते हैं
कि भारत में सिपाही विद्रोह की तैयारी की पृष्ठभूमि में रोटियां एक जगह से दूसरी
जगह भेजकर आंदोलन की अलख जगाई गई, तो स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े और आंदोलनों के
लिए जनता को जगानेवाले पर्चे और अखबार सात समंदर पार तक से पहुंचाए गए। जयप्रकाश
आंदोलन, मंडल कमीशन विरोधी आंदोलन तक प्रचार तंत्र और अगुवाई करनेवाले नेताओं का
नेटवर्क भी बड़ा हो गया था और अखबारों के जरिए सूचना पहुंचाने और पर्चे बांटने की
सुविधा भी सरल हो गई थी। 21वीं सदी में भारत के अहम आंदोलन जनलोकपाल और निर्भया के
लिए जनजागरण में इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका रही इससे इंकार नहीं
किय़ा जा सकता। यानी कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि तरीका बदल गया, हथियार बदल गए,
लेकिन जंग तो मैदान में ही लड़ी जा रही है। अफसोस इस बात का है सूचना तंत्र और
माध्यमों के सशक्त होने के बावजूद सत्ता पक्ष या सत्ता में बैठे लोग आंदोलन की हवा
को या तो भांप नहीं पाते या फिर जानबूझकर उस वक्त का इंतजार करते हैं, जबकि सड़क
पर संग्राम सुनिश्चित हो जाए।
सवाल है कि क्या
सरकारी सूचना तंत्र सोशल मीडिया के मुकाबले नाकाम साबित हुए हैं या फिर सरकारी
पक्ष को कभी सोशल मीडिया से उठ रही चिंगारी के असर का अंदाजा नहीं रहा? या फिर सरकारें इतनी संवेदनाहीन रही हैं कि जनभावनाओं को नजरअंदाज कर दें? वजहें और भी हो सकती हैं। परंतु, सोशल मीडिया की सशक्तता से सत्ता पक्ष अनजान
है, य़े नहीं कहा जा सकता। न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया के और हिस्सों में भी सरकार
के झंडाबरदार अब सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। चाहे वो बराक ओबामा हों, या फिर
मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, नरेंद्र मोदी हों या ईरान के हसन रूहानी हों या सीरिया
के बशर अल असद- इंटरनेट पर सभी नेताओं से लेकर तानाशाहों तक का प्रचार तंत्र बखूबी
सक्रिय है जो अपने प्रतिद्वंद्वियों और विरोधिय़ों को बगैर वक्त गंवाए निशाने पर लेता
रहता है। सिर्फ सरकारी तंत्र ही नहीं, सरकार समर्थक और व्यक्तियों की ओर से भी
सोशल मीडिय़ा पर अपने विचार, वार-पलटवार, आरोप-प्रत्यारोप पल भर में पोस्ट करने में
कोई दिक्कत नहीं क्योंकि 140 शब्दों से लेकर पन्नों तक में अपनी हर बात, हर भड़ास
इंटरनेट की दुनिय़ा में बिखेरने की सुविधा मोबाइल फोन तक पर उपलब्ध हैं यानी कि आज
जब भी जहां हों, जिस वक्त और जिस परिस्थिति में हों, अपनी बात बखूबी, बड़ी आसानी
से दूसरों तक पहुंचा सकते हैं।
सोशल मीडिया के
संजाल के जरिए आपकी बात दूसरे से होते हुए तमाम ऐसे लोगों तक पहुंच सकती है जो
आपसे परिचित नहीं, लेकिन आपके विचार उनमें नई ऊर्जा का संचार कर सकते हैं, आपको
आंदोलित कर सकते हैं, आपको नई सूचना से परिचित करा सकते हैं, आपको मदद मुहैया करा
सकते हैं और यहां तक कि आपके खिलाफ दुश्मनों की फौज भी खड़ी कर सकते हैं। इसके
तमाम उदाहरण रोज ही ट्विटर और फेसबुक पर नेताओं और सामाजिक शख्सियतों के बयानों,
विचारों और उन पर दी जानेवाली प्रतिक्रियाओं में मिलते हैं जिनमें भाषा और सोच की
तमाम मर्यादाओं का उल्लंघन होता हुआ भी दिखता है औऱ व्यक्तिगत आक्षेप भी सहज ही
सामने आते हैं। चुंकि फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया साइट्स के जरिए सीधे-सीधे
एक-दूसरे को अपनी बातें , अपने विचार आपस में शेयर करने की सुविधा होती है, साथ
ही, अगर सेटिंग सार्वजनिक हो, तो तमाम और जुड़े लोगों तक भी एक-दूसरे की आपसी बातें
और विचार विनिमय आसानी से पहुंच सकते हैं लिहाजा जो कुछ एक खास दायरे में रहना
चाहिए वो भी सबके सामने आने लगता है। कई बार ये स्थिति हद तोड़ती हुई दिखती है जब
व्यक्ति विशेष की छवि खराब करने के लिए सोशल मीडिया का बेजा इस्तेमाल होने लगता
है। उदाहरण देने की जरुरत नहीं, चाहे कांग्रेस और बीजेपी का आपसी झगड़ा हो, या नरेंद्र
मोदी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी से लेकर अभिषेक मनु सिंघवी और खुर्शीद अनवर जैसे
लोगों से जुड़े मामले जिनकी तह में जाने की जरूरत नहीं, लेकिन ये शख्सियतें सोशल
मीडिय़ा के माध्यम से जिन रूपों में चर्चा में आई हैं, उनसे सोशल मीडिया के
इस्तेमाल सवालों के घेरे में रहा है। इसको लेकर सोशल मीडिय़ा के इस्तेमाल को
नियंत्रित करने, उस पर लगाम लगाने की मांगें भी खूब उठी हैं। इस दिशा में कोशिशें
भी होने लगी हैं, लेकिन इंटरनेट एक ऐसी सुविधा है, जो अब सर्वजनसुलभ है और कौन किस
तरह से इसका उपयोग करे, इसकी आजादी भी सबको है और इसके लिए रास्ते भी बहुत हैं। आपत्तिजनक
सामग्रियों को सेंसर करने या सर्वजनसुलभ होने से रोकने के लिए गूगल, फेसबुक और
ट्विटर जैसी सोशल साइट्स के कर्ता-धर्ताओं को सरकारों की ओर से निर्देश दिए जाते
रहे हैं, उनकी ओर से कदम भी उठाए जाते रहे हैं। चीन जैसे देशों में तो सरकार की ओर
से कई साइट्स पर भी पाबंदी लगाने की खबरें आती रही हैं, लेकिन दुनिया जितनी बड़ी
है और इंटरनेट आधारित इन सुविधाओं का जिस तरीके से विस्तार हुआ है, ऐसे में
सूचनाओं (चाहे वो जैसी भी हों) के प्रसार को नियंत्रित करना दुरूह ही साबित हुआ
है।
फेसबुक,
ट्विटर, यूट्यूब, पिइंटेरेस्ट, व्हाट्सअप, वीचैट, इंस्टाग्राम जैसे तमाम सोशल
मीडिया माध्य़म और ऐसे तमाम कितने ही और इंटरनेट आधारित माध्यम लोगों को एक-दूसरे
से जुड़ने और अपनी बातें साझा करने की सुविधा दे रही हैं। इन जैसे सैकड़ों रास्ते
अब इंटरनेट की तरंगों पर उपलब्ध हैं और रोजाना सृजित भी किए जा रहे हैं। ऐसे में
किस मानसिकता से इनका इस्तेमाल हो, इसका नियमन और नियंत्रण हो, ये समाज-व्यवस्था
पर ही निर्भर करता है, सिर्फ तानाशाही रवैये या जबरिया तरीके से इन्हें रोकना
मुनासिब नहीं। स्वस्थ विचार विनिमय़ की परंपरा हमें अपने-आपमें ही विकसित करनी होगी,
अन्यथा सोशल मीडिया का ये संसार भी उन बुराइयों से अछूता नहीं रह सकता, जो समाज
में पहले से मौजूद हैं।
-
कुमार कौस्तुभ