उत्सव
-डॉ. रामस्वार्थ ठाकुर
आज शाम जब ऑफिस से लौटा तो अपनी कॉलोनी निराला निवेश में एक उत्सवी समां देखने को मिला। दिन के नौ बजे इसका कोई संकेत नहीं मिला था। इसलिए इसे देखकर कुछ सोचने को बाध्य हुआ। उत्सव को आनंदोत्सव भी कहते हैं, मतलब जिस समारोह को खुशी, प्रसन्नता, आनंद से मनाया जाए- वह आनंदोत्सव है। खैर, घर आकर कपड़े उतारा और काम में लग गया। सोचता रहा- यह उत्सव निष्प्रयोजन नहीं हो सकता। हमारे यहां उत्सव भी उपलक्ष्य सापेक्ष व्यापार है। अवश्य इसका कोई कारण होगा। फिर किनकी ओर से मनाया जा रहा है, क्यों मनाया जा रहा है आदि-आदि तमाम सवाल उठने लगे मन में। अपने भीतर प्रश्नों का समाधान नहीं मिला तो नल पर बर्तन मांजती हुई दाई से पूछ बैठा- ये उत्सव कैसा है, किसकी ओर से मनाया जा रहा है। देखा दाई बर्तन मांजने में तन्मय है, उत्सव का उसके मनप्राण पर कोई असर नहीं पड़ा। यह उत्सव मेरे अथवा दाई के लिए नहीं है। य़ह कुछ खास लोगों के लिए है। देखता हूं- दूर-दूर से आमंत्रित लोग आए हैं, आ भी रहे हैं, कारें लगी हैं, पूरा शामियाना आगंतुकों की चहल-पहल, कहकहों-हंसी ठहाकों से गूंज रहा है। कहीं किसी टेबल पर प्लेटों में मिठाइयां परोसी जा रही हैं, तो कहीं पूड़ियां-कचौरियां। ये सब ठीक है। लेकिन, सोचता हूं- क्या इस उत्सव में कोई ऐसा भी व्यक्ति आया है जिससे उत्सव करनेवाले का कोई संबंध न हो..आप कहेंगे, कैसा बेतुका सवाल है- हर व्यक्ति का अपना परिचय क्षेत्र है, रिश्ते-नाते हैं। ऐसे में किसी अपरिचित को कौन बुलाकर अपने यहां खिला-पिला सकता है- मैं इस विचार से थोड़ा असहमत हूं। हम उत्सव मनाते हैं केवल अपनों को सुखी करने और अपने सुख के लिए, क्यो कोई दूसरों को सुखी बनाने के लिए भी उत्सव आयोजित करता है..क्या है कोई ऐसा उत्सव जिसमें आजीवन दुखी रहनेवालों को भी सुख के सुअवसर सुलभ कराने का प्रयास किया जाए..सुभोजन कराए जाएं..सुविधाएं बांटी जाएं..हमारे यहां उत्सव के ऐसे पूप अब तक विकसित नहीं किए गए हैं..अभी तक हमारी सभ्यता का आचरण सुखी को ही सुख पहुंचाने तक सीमित रहा है, जो अपूर्ण है, अधूरा है। उत्सव तो वही सार्थक है, जो हारे-थके-सुख-सुविधाविहीन लोगों को प्रसन्नता बांटने के लिए हो। अब आप उत्सव से दूर उस दाई की मनोदशा का दुखद अनुभव कर सकते हैं जो जीवनयापन के लिए चंद रुपये कमाने की कोशिश में उत्सव से परे अपने काम में जुटी थी।
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