उत्सव
-डॉ. रामस्वार्थ ठाकुर
आज शाम जब ऑफिस से लौटा तो अपनी कॉलोनी निराला निवेश में एक उत्सवी समां देखने को मिला। दिन के नौ बजे इसका कोई संकेत नहीं मिला था। इसलिए इसे देखकर कुछ सोचने को बाध्य हुआ। उत्सव को आनंदोत्सव भी कहते हैं, मतलब जिस समारोह को खुशी, प्रसन्नता, आनंद से मनाया जाए- वह आनंदोत्सव है। खैर, घर आकर कपड़े उतारा और काम में लग गया। सोचता रहा- यह उत्सव निष्प्रयोजन नहीं हो सकता। हमारे यहां उत्सव भी उपलक्ष्य सापेक्ष व्यापार है। अवश्य इसका कोई कारण होगा। फिर किनकी ओर से मनाया जा रहा है, क्यों मनाया जा रहा है आदि-आदि तमाम सवाल उठने लगे मन में। अपने भीतर प्रश्नों का समाधान नहीं मिला तो नल पर बर्तन मांजती हुई दाई से पूछ बैठा- ये उत्सव कैसा है, किसकी ओर से मनाया जा रहा है। देखा दाई बर्तन मांजने में तन्मय है, उत्सव का उसके मनप्राण पर कोई असर नहीं पड़ा। यह उत्सव मेरे अथवा दाई के लिए नहीं है। य़ह कुछ खास लोगों के लिए है। देखता हूं- दूर-दूर से आमंत्रित लोग आए हैं, आ भी रहे हैं, कारें लगी हैं, पूरा शामियाना आगंतुकों की चहल-पहल, कहकहों-हंसी ठहाकों से गूंज रहा है। कहीं किसी टेबल पर प्लेटों में मिठाइयां परोसी जा रही हैं, तो कहीं पूड़ियां-कचौरियां। ये सब ठीक है। लेकिन, सोचता हूं- क्या इस उत्सव में कोई ऐसा भी व्यक्ति आया है जिससे उत्सव करनेवाले का कोई संबंध न हो..आप कहेंगे, कैसा बेतुका सवाल है- हर व्यक्ति का अपना परिचय क्षेत्र है, रिश्ते-नाते हैं। ऐसे में किसी अपरिचित को कौन बुलाकर अपने यहां खिला-पिला सकता है- मैं इस विचार से थोड़ा असहमत हूं। हम उत्सव मनाते हैं केवल अपनों को सुखी करने और अपने सुख के लिए, क्यो कोई दूसरों को सुखी बनाने के लिए भी उत्सव आयोजित करता है..क्या है कोई ऐसा उत्सव जिसमें आजीवन दुखी रहनेवालों को भी सुख के सुअवसर सुलभ कराने का प्रयास किया जाए..सुभोजन कराए जाएं..सुविधाएं बांटी जाएं..हमारे यहां उत्सव के ऐसे पूप अब तक विकसित नहीं किए गए हैं..अभी तक हमारी सभ्यता का आचरण सुखी को ही सुख पहुंचाने तक सीमित रहा है, जो अपूर्ण है, अधूरा है। उत्सव तो वही सार्थक है, जो हारे-थके-सुख-सुविधाविहीन लोगों को प्रसन्नता बांटने के लिए हो। अब आप उत्सव से दूर उस दाई की मनोदशा का दुखद अनुभव कर सकते हैं जो जीवनयापन के लिए चंद रुपये कमाने की कोशिश में उत्सव से परे अपने काम में जुटी थी।
This is about Champaran region. All people of Champaran, people interested in Champaran are welcome here. चम्पारण के और चम्पारण में दिलचस्पी रखनेवाले लोगों का स्वागत है...अपने विचारों और जानकारियों से इस पेज को समृद्ध करें.
Wednesday, September 30, 2009
Wednesday, September 23, 2009
चंपारण भूमि-2
‘टेका’
-प्रो. रामस्वार्थ ठाकुर
मुगल सम्राट औरंगजेब ने भी अपनी जिंदगी की आखिरी रात में जीने के लिए दवा की जगह दुआ मांगी थी। भारतवर्ष की आध्यात्मिक देवभूमि के चप्पे-चप्पे में इस दुआ, श्रद्धा, आशीष, आस्था के प्रतीक चिह्न मिलते हैं। जगह-जगह बड़े-बड़े तीर्थ तो हैं ही, छोटे-बड़े गांवों कस्बों में भी ऐसे स्थान हैं जहां जीवन में मुसीबतों से हारे-थके लोगों को राहत मिलती है, मन को चैन और आराम मिलता है, शंका-समाधान होता है। विज्ञान की दृष्टि में जो भ्रम है, अज्ञान है, अंधविश्वास और आडंबर है, भारत के गांवों में वही आस्था का रूप हो सकता है। देहात के लोगों के लिए माटी का ‘पीड़िया’(पिंड, पीड़ी, मूर्ति, प्रतीक) ही भगवान है। चंपारण जिले में बड़कागांव पंचायत में ऐसा ही एक प्रतीक है ‘टेका’। टेका का मतलब यहां वैसे तो देवी-देवता के पूजा स्थल से है, जहां सप्ताह में एक दिन दूर-दूर से लोग इकट्ठा होते हैं और ‘भगता’ नाम के पुजारी देवी-देवता की पूजा करते हैं और आगंतुकों की आधि-व्याधि संबंधी शंकाओं का समाधान भी करते हैं। ‘भगता’ नाम के पुजारी इसी गांव के मूल निवासी और गृहस्थ होते हैं। 50 से भी अधिक वर्षों के लंबे समय से अपनी महिमा के कारण यह ‘टेका’ लोक-विश्रुत है। इस गांव में इस ‘टेका’ के संस्थापक मुख्य ‘भगता’ कुछ ही वर्ष पूर्व तक जीवित थे। वे स्वयं अपनी दैवी सिद्धि के बारे में बतलाते थे कि कैसे उनका देवी से साक्षात्कार हुआ और देवी ने प्रसन्न होकर उनको आश्रय कर रहने या ठहरने या आम भाषा में टेकने की इच्छा जाहिर की और इसी के साथ ‘टेका’ का जन्म हुआ। बाबूलाल ओझा नाम के इस गृहस्थ ब्राह्मण ने कथित दैवी निर्देश में ‘टेका’ को स्थापित किया और जीवन पर्यन्त नियमित रूप से इसका आयोजन करते रहे। आम लोग गवाह हैं कि यह उनकी निःस्वार्थ लोक सेवा थी । समस्य़ा-समाधान अथवा आधि-व्याधि दूर हो जाने पर देवी की पूजा के लिए लोग कुछ धन या वस्तुएं प्रतीकात्मक रूप से दिया करते थे। इस ‘टेका’ का भव्य और विशाल रूप दशहरे के दौरान दिखाई पड़ता था – लगातार 9 दिनों तक यहां दिन-रात देवी की पूजा होती थी और श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती थी। आदि भगता बाबूलाल ओझा एक सज्जन, मृदुभाषी, नम्र और सहिष्णु व्यक्ति थे और देवी की अपनी कथित शक्ति-कृपा के माध्यम से वो गांववालों और दूरागत श्रद्धालुओं का कल्याण किया करते थे। यद्यपि अब वो संसार में नहीं हैं, लेकिन ‘टेका’ अब भी उनके दिशा-निर्देशों के मुताबिक लगता है। कहते हैं उन्होंने अपने कनिष्ठ पुत्र को देवी सेवा और ‘टेका’ लगाने का दायित्व दे रखा है। उनके पुत्र भी पूरी श्रद्धा-निष्ठा से अपने पिता के निर्दिष्ट-प्रदत्त दायित्व के निर्वाह में तत्पर हैं। इसमें संदेह नहीं कि इस टेका की दैवी शक्ति में लोक-आस्था अत्यंत गहरी है। प्रचार-विज्ञापन के इस युग में भी यह टेका केवल लोक-आस्था पर ही टिका हुआ पूजित-सम्मानित स्थल है।
नोट- देश में कितनी ही जगहों पर, सुदूर देहाती अंचलों में ‘टेका’ जैसे आय़ोजनों की परंपरा देखी जा सकती है, जहां ओझा-गुनी-पुजारी दैवी शक्तियों के जरिए लोगों के कष्ट दूर करने का दावा करते हैं और लोक आस्था के बल पर उनका काम भी चलता रहता है। कई जगहों पर ऐसी परंपराओं ने भोले-भाले अनजान लोगों के शोषण का रूप भी ले लिया। कहां कितनी सच्चाई है, ये अनुसंधान का विषय है। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि चंपारण के ग्रामीण अंचल बड़कागांव जैसे इलाकों में सैकडों बरसों से चली आ रही ‘टेका’ जैसे आय़ोजनों की परंपरा अपने आप में सबसे अलग है।
-प्रो. रामस्वार्थ ठाकुर
मुगल सम्राट औरंगजेब ने भी अपनी जिंदगी की आखिरी रात में जीने के लिए दवा की जगह दुआ मांगी थी। भारतवर्ष की आध्यात्मिक देवभूमि के चप्पे-चप्पे में इस दुआ, श्रद्धा, आशीष, आस्था के प्रतीक चिह्न मिलते हैं। जगह-जगह बड़े-बड़े तीर्थ तो हैं ही, छोटे-बड़े गांवों कस्बों में भी ऐसे स्थान हैं जहां जीवन में मुसीबतों से हारे-थके लोगों को राहत मिलती है, मन को चैन और आराम मिलता है, शंका-समाधान होता है। विज्ञान की दृष्टि में जो भ्रम है, अज्ञान है, अंधविश्वास और आडंबर है, भारत के गांवों में वही आस्था का रूप हो सकता है। देहात के लोगों के लिए माटी का ‘पीड़िया’(पिंड, पीड़ी, मूर्ति, प्रतीक) ही भगवान है। चंपारण जिले में बड़कागांव पंचायत में ऐसा ही एक प्रतीक है ‘टेका’। टेका का मतलब यहां वैसे तो देवी-देवता के पूजा स्थल से है, जहां सप्ताह में एक दिन दूर-दूर से लोग इकट्ठा होते हैं और ‘भगता’ नाम के पुजारी देवी-देवता की पूजा करते हैं और आगंतुकों की आधि-व्याधि संबंधी शंकाओं का समाधान भी करते हैं। ‘भगता’ नाम के पुजारी इसी गांव के मूल निवासी और गृहस्थ होते हैं। 50 से भी अधिक वर्षों के लंबे समय से अपनी महिमा के कारण यह ‘टेका’ लोक-विश्रुत है। इस गांव में इस ‘टेका’ के संस्थापक मुख्य ‘भगता’ कुछ ही वर्ष पूर्व तक जीवित थे। वे स्वयं अपनी दैवी सिद्धि के बारे में बतलाते थे कि कैसे उनका देवी से साक्षात्कार हुआ और देवी ने प्रसन्न होकर उनको आश्रय कर रहने या ठहरने या आम भाषा में टेकने की इच्छा जाहिर की और इसी के साथ ‘टेका’ का जन्म हुआ। बाबूलाल ओझा नाम के इस गृहस्थ ब्राह्मण ने कथित दैवी निर्देश में ‘टेका’ को स्थापित किया और जीवन पर्यन्त नियमित रूप से इसका आयोजन करते रहे। आम लोग गवाह हैं कि यह उनकी निःस्वार्थ लोक सेवा थी । समस्य़ा-समाधान अथवा आधि-व्याधि दूर हो जाने पर देवी की पूजा के लिए लोग कुछ धन या वस्तुएं प्रतीकात्मक रूप से दिया करते थे। इस ‘टेका’ का भव्य और विशाल रूप दशहरे के दौरान दिखाई पड़ता था – लगातार 9 दिनों तक यहां दिन-रात देवी की पूजा होती थी और श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती थी। आदि भगता बाबूलाल ओझा एक सज्जन, मृदुभाषी, नम्र और सहिष्णु व्यक्ति थे और देवी की अपनी कथित शक्ति-कृपा के माध्यम से वो गांववालों और दूरागत श्रद्धालुओं का कल्याण किया करते थे। यद्यपि अब वो संसार में नहीं हैं, लेकिन ‘टेका’ अब भी उनके दिशा-निर्देशों के मुताबिक लगता है। कहते हैं उन्होंने अपने कनिष्ठ पुत्र को देवी सेवा और ‘टेका’ लगाने का दायित्व दे रखा है। उनके पुत्र भी पूरी श्रद्धा-निष्ठा से अपने पिता के निर्दिष्ट-प्रदत्त दायित्व के निर्वाह में तत्पर हैं। इसमें संदेह नहीं कि इस टेका की दैवी शक्ति में लोक-आस्था अत्यंत गहरी है। प्रचार-विज्ञापन के इस युग में भी यह टेका केवल लोक-आस्था पर ही टिका हुआ पूजित-सम्मानित स्थल है।
नोट- देश में कितनी ही जगहों पर, सुदूर देहाती अंचलों में ‘टेका’ जैसे आय़ोजनों की परंपरा देखी जा सकती है, जहां ओझा-गुनी-पुजारी दैवी शक्तियों के जरिए लोगों के कष्ट दूर करने का दावा करते हैं और लोक आस्था के बल पर उनका काम भी चलता रहता है। कई जगहों पर ऐसी परंपराओं ने भोले-भाले अनजान लोगों के शोषण का रूप भी ले लिया। कहां कितनी सच्चाई है, ये अनुसंधान का विषय है। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि चंपारण के ग्रामीण अंचल बड़कागांव जैसे इलाकों में सैकडों बरसों से चली आ रही ‘टेका’ जैसे आय़ोजनों की परंपरा अपने आप में सबसे अलग है।
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PROF. RAM SWARTH THAKUR
Saturday, September 19, 2009
चंपारण भूमि-1
‘तीन बांध’
-प्रो. रामस्वार्थ ठाकुर
चंपारण में या और भी कहीं ऐसा क्षेत्र शायद ही कहीं हो, जहां तीन बांध होने के प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद हों। बिहार के पकड़ीदयाल अनुमंडल के बड़कागांव पंचायत में यह प्रमाण देखा जा सकता है। बड़कागांव के पश्चिम में लगभग 10 किलोमीटर लंबे क्षेत्र में सिकरहना नदी का पूर्वी किनारा है। इस नदी से पूरब का क्षेत्र हमेशा बाढ़ से तबाह होता रहा है। हहराज, भेड़ियाही, गोंढ़वा, कुंअवा, ठिकहां, फुलवार, हरकबारा, बड़कागांव आदि आवासी ग्रामीण क्षेत्र इस नदी के सीधे प्रभाव में रहते आए हैं। वर्षा में जब भी बाढ़ आती है, यह पूरा क्षेत्र जलमग्न हो जाता है। अंग्रेज शासन में इस बाढ़ के नुकसान को देखा और महसूस किया गया। फलतः सरकार की ओर से समय-समय पर बांध बनवाए गए। आज यहां बड़कागांव से उत्तर दिशा में दो बांधों के टूटने के अवशेष मौजूद हैं। पता नहीं किन कारणों से ये बांध उत्तर दिशा में ही पूरब से पश्चिम की ओर बंधवाए गए, जबकि नदी का बहाव उत्तर से दक्षिण- गांव के पश्चिम में है। बड़कागांव और अन्य सभी गांवों में नदी का पानी पश्चिम से घुसता था और पूरे क्षेत्र में फैल जाता था। पूर्व के दोनों बांध देश की आजादी से पहले ही बनाए गए थे। ये दोनों बांध कब और क्यों टूटे ये अभिलेख से खोज के विषय हो सकते हैं। अभी इन दोनों भग्न बांधों के अवशेष मौजूद हैं जो यूं तो सरकारी जमीन है, लेकिन इन पर अवैध कब्जा है। बताते हैं कि बांधों की सरकारी जमीन का ये अवैध कब्जा कम से कम सौ एकड़ का है। देश की स्वाधीनता के बाद देश में आम चुनाव के वक्त इस क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या सिकरहना नदी की बाढ़ से बचाव की ही थी। पहले आम चुनाव में जीतकर विधायक बने कांग्रेस के श्री गदाधर सिंह ने कड़ी मिहनत से इलाके में एक नए बांध के प्रस्ताव को पास करवाकर कार्यान्वित भी करवाया जो आज बड़कागांव के पश्चिम में सिकरहना नदी के पूर्वी किनारे को बांधता हुआ उत्तर से दक्षिण तक गया है। यह यहां इस क्षेत्र का तीसरा बांध है। इस बांध से इलाके को हर साल आनेवाली बाढ़ से सुरक्षा जरूर मिली, लेकिन मूल रूप से इस क्षेत्र की नैसर्गिक बनावट जल ग्रहण की है, इस कारण बारिश ज्यादा होने पर इलाके को बाढ़ जैसे समस्या से जूझना पड़ता ही है। 2007 में भी पूरा इलाका बारिश के पानी की बाढ़ से ही डूब गया था। ऐसे में जरूरत पूर्व में टूटे दो बांधों के संदेशों को सुनने और समझने की है।
-प्रो. रामस्वार्थ ठाकुर
चंपारण में या और भी कहीं ऐसा क्षेत्र शायद ही कहीं हो, जहां तीन बांध होने के प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद हों। बिहार के पकड़ीदयाल अनुमंडल के बड़कागांव पंचायत में यह प्रमाण देखा जा सकता है। बड़कागांव के पश्चिम में लगभग 10 किलोमीटर लंबे क्षेत्र में सिकरहना नदी का पूर्वी किनारा है। इस नदी से पूरब का क्षेत्र हमेशा बाढ़ से तबाह होता रहा है। हहराज, भेड़ियाही, गोंढ़वा, कुंअवा, ठिकहां, फुलवार, हरकबारा, बड़कागांव आदि आवासी ग्रामीण क्षेत्र इस नदी के सीधे प्रभाव में रहते आए हैं। वर्षा में जब भी बाढ़ आती है, यह पूरा क्षेत्र जलमग्न हो जाता है। अंग्रेज शासन में इस बाढ़ के नुकसान को देखा और महसूस किया गया। फलतः सरकार की ओर से समय-समय पर बांध बनवाए गए। आज यहां बड़कागांव से उत्तर दिशा में दो बांधों के टूटने के अवशेष मौजूद हैं। पता नहीं किन कारणों से ये बांध उत्तर दिशा में ही पूरब से पश्चिम की ओर बंधवाए गए, जबकि नदी का बहाव उत्तर से दक्षिण- गांव के पश्चिम में है। बड़कागांव और अन्य सभी गांवों में नदी का पानी पश्चिम से घुसता था और पूरे क्षेत्र में फैल जाता था। पूर्व के दोनों बांध देश की आजादी से पहले ही बनाए गए थे। ये दोनों बांध कब और क्यों टूटे ये अभिलेख से खोज के विषय हो सकते हैं। अभी इन दोनों भग्न बांधों के अवशेष मौजूद हैं जो यूं तो सरकारी जमीन है, लेकिन इन पर अवैध कब्जा है। बताते हैं कि बांधों की सरकारी जमीन का ये अवैध कब्जा कम से कम सौ एकड़ का है। देश की स्वाधीनता के बाद देश में आम चुनाव के वक्त इस क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या सिकरहना नदी की बाढ़ से बचाव की ही थी। पहले आम चुनाव में जीतकर विधायक बने कांग्रेस के श्री गदाधर सिंह ने कड़ी मिहनत से इलाके में एक नए बांध के प्रस्ताव को पास करवाकर कार्यान्वित भी करवाया जो आज बड़कागांव के पश्चिम में सिकरहना नदी के पूर्वी किनारे को बांधता हुआ उत्तर से दक्षिण तक गया है। यह यहां इस क्षेत्र का तीसरा बांध है। इस बांध से इलाके को हर साल आनेवाली बाढ़ से सुरक्षा जरूर मिली, लेकिन मूल रूप से इस क्षेत्र की नैसर्गिक बनावट जल ग्रहण की है, इस कारण बारिश ज्यादा होने पर इलाके को बाढ़ जैसे समस्या से जूझना पड़ता ही है। 2007 में भी पूरा इलाका बारिश के पानी की बाढ़ से ही डूब गया था। ऐसे में जरूरत पूर्व में टूटे दो बांधों के संदेशों को सुनने और समझने की है।
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PROF. RAM SWARTH THAKUR
Wednesday, September 16, 2009
Papa and Oranges (A humble gift to Motihari, India)
BY ANANT KUMAR
Maybe my father had something against oranges. Maybe because he never expressed his disinterest for the yellow juicy fruits to us, Mother and children. In any case, he never brought home oranges. Instead, apples and bananas were heaped in the kitchen. That these two, that is to say apples and bananas, were his favorite, we children knew.
We had a large private garden for vegetables and fruit in that little East Indian town of Motihari. In it grew all sorts of seasonal vegetables, and on the edge of the field numerous banana trees were planted. In the hot monsoon region no apples grow, after all. They come from the northern Himalayas, where the climate is more temperate and the land is hillier.
Oranges didn t grow at our place either. They came from the western part of India to us. It was said that there were many orange plantations in the vicinity of Nagpur, but I never saw any orange tree as a child, though I wished to fervently: fragrant trees full of juicy fruit!
As a child, I liked them very much, also because the humid summer lasts a long time in India just as the drizzly German winter does. So my dry child s throat yearned for sweet fresh orange juice. And my second-eldest sister, Mukta, liked citrus fruits very much. We siblings squeezed the stinging juice from the orange peel into each other s eyes mischievously. We considered it good for the eyes, just like the tears from cutting up onions.
Oranges were available at home only occasionally, if someone other than Papa bought fruit or had brought it as a present.
Fruit was plentiful in Motihari. Sometimes a little more expensive, sometimes a little more affordable. At the Mina bazaar in the center of the town there were countless fruit shops. Papa bought fruit from a fat, rich merchant on the main street. I did not like this man at all. Not only because of his gigantic belly, but above all because of his manner. The fat man gave me the impression of being unlikeable and lucre-lusty. But he had more luck than other merchants. The location of his shop was perfect and the rich and illiterate merchant had good clientele from the middle and richer levels of society.
I do not know to this day what the cultured people of my town saw in that puffed out belly and on the even more puffed out posterior of that merchant. I suspect perhaps that the old law of capitalism was at play there. To wit, that money makes one more interesting and attractive. So the rich man got even richer. Whether his brain developed further is doubtable.
That there were so many subspecies of orange is something I didn t learn until I was in Germany. Clementines, mandarins and oranges I eat here now and again. But such a yearning for citrus as in my childhood does not exist. Perhaps the reason is that my throat here, in the cold of Europe, rarely experiences thirst. In contrast to hot Motihari.
But the desire for an overloaded orange tree awakens in me now and then. And tragically, oranges are not cultivated in Germany. They come from Spain. Perhaps I will one day read my poems in Spain beneath an orange tree.
Contrary to expectations, Papa died very young. And he still owes me an answer as to why he could not abide oranges.
I feel sometimes like a magician and to top it all off, I am a poet. Perhaps I should conjure up Papa some day and get the answers to my question.
Yet I know, if Papa is here, that I would have forgotten my question. And he would bring apples and bananas home again. Yes, no oranges, my dears. And I will teasingly make fun of his apples and bananas, for I grew up to be almost as big as he.
...........................................................................................ABOUT ANANT KUMAR:
Anant Kumar, a writer in the German language, was born in Bihar. His birth place is Katihar where his father Prof. Major R. Prasad served the Indian Army. He did his schooling at Zila School Motihari and his father taught Psychology at M.S. College Motihari.
He learnt German as a Foreign Language in New Delhi, before he came to Germany. Between 1992 and 1999, he studied German Literature and Linguistics. He wrote his Masters Thesis on the epic MANAS of Alfred Doeblin at the University of Kassel, Germany. Besides regular contributions to literary magazines and periodicals, he is the author of twelve books of poetry and prose in German. He has received several awards in contemporary German literature and is a member of German Writers Association.www.anant-kumar.de
His works, i.e. short stories, essays and poems, have been translated into English by Prof Marilya Reese, NAU, AZ-USA (http://jan.ucc.nau.edu/mvc/html/cv.html )
Thursday, September 10, 2009
Orwell`s Champaran
"George Orwell, author of books Animal Farm and Nineteen Eighty-Four, was born in Motihari in 1903. His father Richard Walmesley Blair was a deputy posted in the opium department in Bihar. However, when he was one year old, George left for England with his mother and sister.
Until recently, the town of Motihari was largely unaware of its connection to Orwell. In 2003, Motihari discovered its role in Orwell's life when a number of journalists arrived in the city for what would have been Orwell's hundredth birthday. Local officials are making plans for the construction of a museum on Orwell's life."
(source: http://wapedia.mobi/en/Motihari?t=3.#3.)
Until recently, the town of Motihari was largely unaware of its connection to Orwell. In 2003, Motihari discovered its role in Orwell's life when a number of journalists arrived in the city for what would have been Orwell's hundredth birthday. Local officials are making plans for the construction of a museum on Orwell's life."
(source: http://wapedia.mobi/en/Motihari?t=3.#3.)
MAHATMA GANDHI`s CHAMPARAN
"Resurgence in the history of Bihar came during the struggle for India's independence. It was from Bihar that Mahatma Gandhi launched his civil-disobedience movement, which ultimately led to India's independence. At the persistent request of a farmer, Raj Kumar Shukla, from the district of Champaran, in 1917 Gandhiji took a train ride to Motihari, the district headquarters of Champaran. Here he learned, first hand, the sad plight of the indigo farmers suffering under the oppressive rule of the British. Alarmed at the tumultuous reception Gandhiji received in Champaran, the British authorities served notice on him to leave the Province of Bihar. Gandhiji refused to comply, saying that as an Indian he was free to travel anywhere in his own country. For this act of defiance he was detained in the district jail at Motihari. From his jail cell, with the help of his friend from South Africa days, C. F. Andrews, Gandhiji managed to send letters to journalists and the Viceroy of India describing what he saw in Champaran, and made formal demands for the emancipation of these people. When produced in court, the Magistrate ordered him released, but on payment of bail. Gandhiji refused to pay the bail. Instead, he indicated his preference to remain in jail under arrest. Alarmed at the huge response Gandhiji was receiving from the people of Champaran, and intimidated by the knowledge that Gandhiji had already managed to inform the Viceroy of the mistreatment of the farmers by the British plantation owners, the magistrate set him free, without payment of any bail. This was the first instance of the success of civil-disobedience as a tool to win freedom. The British received, their first "object lesson" of the power of civil-disobedience. It also made the British authorities recognize, for the first time, Gandhiji as a national leader of some consequence. What Raj Kumar Shukla had started, and the massive response people of Champaran gave to Gandhiji, catapulted his reputation throughout India. Thus, in 1917, began a series of events in a remote corner of Bihar, that ultimately led to the freedom of India in 1947.
Sir Richard Attenborough's award winning film, "Gandhi", authentically, and at some length, depicts the above episode. (Raj Kumar Shukla is not mentioned by his name in the film, however.) The two images here are from that film. The bearded gentleman, just behind Gandhiji, in the picture on the left, and on the elephant at right, is Raj Kumar Shukla.
Gandhiji, in his usual joking way, had commented that in Champaran he "found elephants just as common as bullock carts in (his native) Gujarat"!!"
(SOURCE: HISTORY OF BIHAR, http://gov.bih.nic.in/profile/history.htm)
Sir Richard Attenborough's award winning film, "Gandhi", authentically, and at some length, depicts the above episode. (Raj Kumar Shukla is not mentioned by his name in the film, however.) The two images here are from that film. The bearded gentleman, just behind Gandhiji, in the picture on the left, and on the elephant at right, is Raj Kumar Shukla.
Gandhiji, in his usual joking way, had commented that in Champaran he "found elephants just as common as bullock carts in (his native) Gujarat"!!"
(SOURCE: HISTORY OF BIHAR, http://gov.bih.nic.in/profile/history.htm)
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