Friday, April 1, 2016

विवादों की बुनियाद पर टिके टीवी के समाचार चैनल



9 फरवरी 2016 को दिल्ली ही नहीं बल्कि देश-विदेश में मशहूर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के कैंपस में देशविरोधी नारेबाजी की जो घटना हुई, उसकी चर्चा काफी दिनों तक टीवी के समाचार चैनलों पर छाई रही। आमतौर पर विश्वविद्यालयों के परिसरों में होनेवाले छात्रों के कार्यक्रमों में मीडिया की मौजूदगी नहीं ही रहती है, ना ही किसी मुद्दे पर बैठक या सेमिनार-संगोष्ठी जैसे कार्यक्रमों में टेलीविजन चैनलों की दिलचस्पी देखी जाती रही है क्योंकि एक तो ये कार्यक्रम विजुअलीबोरिंग किस्म के होते हैं, दूसरे, टीवी चैनलों में ये मान लिया जाता है कि भला ऐसे कार्यक्रमों में देशभर या टार्गेट ऑडिएंस के लिए न्यूज़ क्या निकलेगी? इस आम धारणा के बावजूद 9 फरवरी को जेएनयू कैंपस में हुए कार्यक्रम में चुनिंदा मीडिया की मौजूदगी देखी गई। ये भी कहा गया है कि मीडिया को इस कार्यक्रम की कवरेज के लिए बाकायदा छात्रों के एक संगठन की ओर से बुलाया गया था। और इसके बाद टीवी चैनलों पर जो तस्वीरें आईं और फिर जो कुछ हुआ वो न सिर्फ देश बल्कि पूरी दुनिया के दर्शकों ने टीवी चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक हर प्लेटफार्म पर देखा। इसके साथ ही अलग-अलग प्रतिक्रियाओं की बरसात शुरु हुई, बहस, रैलियां और प्रदर्शन शुरु हुए, कोर्ट कैंपस में मारपीट हुई..और जेएनयू में हुई एक घटना को लेकर अब तक जो कुछ हो रहा है वो रोज एक न एक नई खबर को जन्म दे रहा है। मीडिया को, खासकर टीवी के समाचार चैनलों को जिंदा रहने के लिए खबर चाहिए, वो भी हर रोज एक बार ही नहीं, बल्कि हर घंटे, हर पल। खबरें भला कहां से आती हैं, छप्पर फाड़कर तो आती नहीं, रोज-ब-रोज होनेवाली घटनाओं से ही निकलती हैं और संवाददाता या पत्रकारगण हमेशा घटित हो रही घटनाओं में से अपने काम लायक खबरें निकालते हैं, अपने लिए यानी अपने चैनल, अपने अखबार के लिए खबरों का निर्माण करते हैं। यहां खबरों का निर्माण कहना इसलिए जरूरी हो गया है क्योंकि अब खबरबाजी की प्रक्रिया में आज के पत्रकार हर घटना को अपने लिए उपयोगी खबर का मोड़ देने में लगे दिखते हैं। और इसका सबसे आसान तरीका है किसी भी घटना में विवाद खोजना, विवाद पैदा करना, और उस विवाद से नए-नए विवादों का सृजन जो खबरबाजी की प्रक्रिया को बरकरार रखे। जेएनयू की घटना भी एक ऐसी ही घटना मानी जा सकती है, क्योंकि इसे उन प्रायोजित घटनाओं की श्रेणी में रखा जा सकता है, जिनसे विवाद की पैदाइश की गुंजाइश हो और मीडिया उन्हें लपकने को तैयार बैठा हो। सवाल ये नहीं है कि जेएनयू में 9 फरवरी को जो कुछ हुआ वो गलत था या नहीं, सवाल तो ये है कि पहली बार, हां, शायद पहली बार ही मीडिया को, कुछेक टीवी चैनलों को कैंपस में हुए एक कार्यक्रम में खबर का एंगल क्यों मिला। जेएनयू में रोज ही तमाम बैठकें होती हैं, परिसंवाद होते हैं जिनमें देश के गणमान्य विद्वान, शिक्षाविद, राजनयिक, राजनेता जैसे तमाम लोग शामिल होते हैं, लेकिन ऐसे कितने कार्यक्रमों की कवरेज टीवी चैनलों की ओर से की जाती है? शायद उंगुलियों पर गिनने लायक कार्यक्रम मिलें, जिनमें टीवी चैनलों के कैमरे दिखें। लेकिन एक दिन एक कार्यक्रम की कवरेज हुई और उसके बाद पूरे देश में आग लग गई। ये कहना गलत होगा कि उक्त कार्यक्रम को नहीं कवर किया जाना चाहिए था। यहां तो इसके जरिए सिर्फ ये बताने की कोशिश हो रही है कि कैसे एक घटना की कवरेज एक विवाद की कवरेज में बदल जाती है और वो विवाद ऐसी खबर बन जाता है जो टीआरपी की जंग लड़ रहे चैनलों के लिए कोरामीन की खुराक से कम नहीं।
विवाद को खबर बनाने की बात सिर्फ जेएनयू की घटना की कवरेज तक ही सीमित नहीं है। आपको रोज ही टीवी पर किसी नेता, या किसी और सामाजिक या राष्ट्रीय महत्व की शख्सियत का कोई न कोई ऐसा बयान देखने को मिल जाएगा जिस पर ताबड़तोड़ प्रतिक्रियाएं आ रही होंगी और टीवी पर आधे-आधे घंटे का डिबेट चल रहा होगा। टीवी के लिए इंटरव्यू करनेवाले य़ा बाइट लेनेवाले पत्रकारों की हमेशा ये कोशिश रहती है कि सामनेवाला व्यक्ति कुछ न कुछ ऐसा बोल दे, जिससे खबर बन जाए और खबर आमतौर पर कुछ सकारात्मक बोलने पर नहीं बनती, बल्कि कुछ ऐसा बोलने बनती है जो किसी न किसी को चुभे। नेताओं की सभा और भाषणबाजी के दौरान भी बड़ी आसानी से ऐसी चंद लाइनें निकल जाती हैं जिन पर विवाद खड़ा होता है और टीवी पर दिन भर से लेकर प्राइम टाइम तक में प्रमुखता से चलने के लिए खबर बन जाती है। अब 29 मार्च 2016 को हुई एक घटना को ही देखिए। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के एक कार्यक्रम में केंद्र सरकार के कृषि राज्यमंत्री संजीव बाल्यान के एक किसान को दिये गये बयान पर ऐसा विवाद खड़ा हुआ कि मंत्री महोदय को बार-बार सफाई पेश करनी पड़ी। खबर है कि किसान ने मंत्री से अपने खेत में हुए नुकसान की बात बताई और आत्महत्या करने की धमकी दी तो मंत्री ने आपे से बाहर होकर उसे कह डाला कि –जा कर ले आत्महत्या। मंत्री ने ये बयान किन हालात में दिया और क्या ये कहने के पीछे वाकई जिम्मेदार मंत्री की ये मंशा रही होगी कि नुकसान से परेशान किसान खुदकुशी कर लें तो कर लें, उन्हें कोई परवाह नहीं- ये सोचने की बात है। लेकिन टीवी चैनलों पर संजीव बाल्यान का वो बयान बार-बार हाईलाइट करके चलाया गया और विरोधियों ने इस पर मंत्री की आलोचना के लिए अपने तरकश के तमाम तीर निकाल लिए। जाहिर है, मंत्री की जुबान से जो बात निकल चुकी थी, उसने ऐसे विवाद को जन्म दे दिया, जो टीवी के लिए बड़ी खबर बन गया।
ऐसे तमाम उदाहरण आए दिन देखने को मिलते रहते हैं। वीएचपी नेता साध्वी प्राची, बीजेपी सांसद साक्षी महाराज, केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह, उत्तर प्रदेश सरकार के कद्दावर मंत्री आजम खान, जगदंबिका पाल, बेनी प्रसाद वर्मा जैसे तमाम नेता तो ऐसे बयानवीर हैं जो जब बोलते हैं तो जैसे आग निकलती है और कोई न कोई नया विवाद खड़ा हो जाता है और टीवी के समाचार चैनल उनके बयानों को आज की प्रमुख खबर या सबसे बड़ी खबर के तौर पर पेश करते नहीं थकते। हालांकि, राजनाथ सिंह और गुलाम नबी आजाद जैसे बड़े नेता भी कभी-कभी कुछ ऐसा बोल जाते हैं जो विवाद का मुद्दा बन जाता है। गौर कीजिये, जेएनयू मुद्दे पर हाफिज सईद वाला राजनाथ सिंह का बयान और ISIS  और RSS  की तुलना वाला गुलामनबी आजाद का बयान।
विवादों से खबर बनाने की प्रक्रिया का सबसे अहम हिस्सा है राजनीतिक हस्तियों की बाइट्स। देश में विजुअल मीडिया की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी एएनआई के संवाददाता और कैमरामैन रोज तड़के तकरीबन हर प्रमुख राजनीतिक दल के बड़े प्रवक्ता, या बोलने में माहिर नेता से गुजरे दिन या बीती रात या आज के दिन होनेवाली प्रमुख गतिविधियों पर बाइट लेने पहुंचते हैं और वो बाइट्स तमाम सब्सक्राइबर टीवी चैनलों को दी जाती है। अगर किसी नेता ने कोई ऐसी लच्छेदार बात कह दी या तीखा बयान दे दिया जिससे विवाद की बू आ रही हो, तो समझ लीजिए कि टीवी के समाचार चैनलों का दिन बन गया। क्योंकि फिर तो एक बयान की बाल की खाल निकालते हुए प्राइम टाइम तक की निपटाने की संभावना बन जाती है।
जहां विवाद, वहां खबर – टीवी के समाचार चैनलों के लिए ये फॉर्मूला कई वजहों से बेहद कारगर है। एक वजह तो ये है कि इसके जरिए समाचार चैनलों को समाज की वो सच्चाई दिखाने का मौका मिलता है, जिससे आम दर्शक नावाकिफ रहता है। मसलन मंत्रीजी अगर कैमरे के सामने कुछ ऐसा-वैसा बोल गए, तो दर्शक को तो पता चलेगा ही ना कि असल में सफेदपोश, लकदक कपड़ों में देश की दशा-दिशा का हिसाब रखनेवाले कर्णधारों के मन में क्या चल रहा है? अब 30 मार्च 2016 को मीडिया में वारयल यूपी के सीएम अखिलेश यादव की एक बाइट को ही देखिए जिसमें वो अपनी समस्या के लिए गुहार लगानेवाली एक महिला की बात सुने बगैर पुलिसकर्मियों से उसे सभा से हटाने औऱ उसकी मदद नहीं करने को कह रहे हैं और ये भी आरोप लगा रहे हैं कि ये उनकी सभा को डिस्टर्ब करने की विरोधियों की साजिश है। घटना की सच्चाई असल में जो भी हो, लेकिन सार्वजनिक मंच से क्या सीएम को इस तरह बयान देना शोभा देता है, क्या ये सवाल नहीं उठता कि भले ही महिला विरोधियों की साजिश के तहत सभा में आई हो, लेकिन, सीएम को उससे अलग तरीके से पेश आना चाहिए था औऱ विनम्रता से बात करके मामले को ठंडा करना चाहिए था। तो जो कुछ हुआ, उसमें सीएम अखिलेश यादव खुद विवाद में फंस गए और मीडिया ने उनके बयान और उस घटना की तस्वीरों को पेश करके सीएम को आईना दिखाने का ही काम किया। इस तरह, कई बार ऐसा हुआ है कि कैमरे के सामने गलतबयानी करने पर नेताओं को सफाई पेश करनी पड़ती है, शर्मिंदा होना पड़ता है, क्योंकि बयानों से विवाद में फंसने पर उनका असली चेहरा सामने आ जाता है। और खबर की खोज में लगा मीडिया, टीवी चैनलों के पत्रकार तो हमेशा इस ताक में रहते हैं कि कोई कुछ ऐसा बोल जाए, जिसको लेकर उसकी खिंचाई का मौका मिल जाए।  

ऐसा नहीं है कि विवाद सिर्फ किसी शख्सियत के बयान से ही निकले। विवाद तो किसी भी घटना से निकल सकता है, जैसा जेएनयू प्रकरण में देख ही चुके हैं। इसके अलावा, सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन, घोटाले, दफ्तरों में कार्यप्रणाली से लेकर घरों से सड़कों तक आम लोगों के झगड़े तक की खबर में विवाद का एंगल तलाशा जा सकता है। हर आदमी का जीवन कहीं न कहीं विवाद से जुड़ा है और वो विवाद तब खबर बन सकता है, जब किसी सुधी पत्रकार या संवाददाता की नज़र उस पर पड़ जाए। अगर किसी नामी हस्ती से जुड़ा विवाद हो, तो खबर ज्यादा वजनदार हो सकती है। उदाहरण के लिए, पूर्व केंद्रीय मंत्री नटवर सिंह की बहु नताशा सिंह की मार्च 2002 में हुई मौत का मामला भले ही ग्लैमर और क्राइम के एंगल से खबर हो, लेकिन चुंकि इसको लेकर नटवर सिंह और उनके बेटे जगत सिंह विवाद में रहे, इसलिए भी ये बड़ी खबर थी। या फिर 2015 में शीना बोरा हत्याकांड में मीडिया जगत की मशहूर हस्ती रहीं इंद्राणी मुखर्जी और पीटर मुखर्जी की गिरफ्तारी की खबर भी काफी हद तक इन हस्तियों के विवाद में फंसने के चलते टीवी के समाचार चैनलों के लिए हॉटकेक बन गई।
भले ही आजकल इस बात पर जोर दिया जा रहा हो कि टीवी और दूसरे समाचार माध्यमों में सकारात्मक खबरों को प्रमुखता दी जानी चाहिए, लेकिन ये कड़वी सच्चाई है कि मनोवैज्ञानिक तौर पर ऑडिएंस का रुझान उन्हीं खबरों पर ज्यादा रहता है जहां कुछ सवाल उठ रहे हों, कुछ सस्पेंस हो और ऐसा अक्सर विवादों में ही देखने को मिलता है। 24 में से 18 घंटे खबरें दिखाने की होड़ में लगे टीवी के समाचार चैनलों के सामने बुलेटिनों की ताजगी बरकरार रखने के लिए विवादों से खबर निकालने के अलावा शायद कोई और चारा नहीं और टाइम स्लॉट भरने के लिए गर्मागर्म बहसबाजी के जो कार्यक्रम रोज पेश किये जाते हैं, उनकी बुनियाद भी तो विवादों पर ही टिकी है। विवाद न हों, तो भला बात कैसे होगी, मुद्दा तो विवाद से ही खड़ा होगा और तभी टीवी के बने-बनाए मंच पर वाद-विवाद-संवाद की औपचारिकता भी पूरी की जा सकेगी।
-          कुमार कौस्तुभ
SRB-101-C, शिप्रा रिवेरा,
ज्ञान खंड-3, इंदिरा पुरम,
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