Monday, April 21, 2014

रांची में बसंत बहार!!!!




सौ. डॉ. शशांक पुष्कर, बीआईटी मेसरा

Saturday, April 19, 2014

ताजिकिस्तान में बसंत की बहार!!!!!!!!





फोटो सौजन्य- डॉ. अमित कुमार, दुशान्बे

Tuesday, April 15, 2014

चंपारण के एक ‘युग’ का अवसान



चंपारण समेत पूरे बिहार में हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित अध्येता और मानस मर्मज्ञ प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद सिंह हमारे बीच नहीं रहे। हिंदी साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान होने के साथ-साथ अपनी सहृदयता, और अपने विचारों से लोगों के दिलों में अमिट छाप छोड़ने वाले प्रोफेसर सिंह ने अपने जीवनकाल में श्रीरामचरित मानस और गोस्वामी तुलसीदास पर सैकड़ों व्याख्यान दिए और अपने लेखों में उन्होंने मानस की विचार मीमांसा की परंपरा को समृद्ध किया।
प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद सिंह पूर्वी चंपारण जिले के मुख्यालय मोतिहारी में स्थित अंगीभूत एमएस कॉलेज के हिंदी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत होकर यहां की साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक गतिविधियों में लगातार सक्रिय भूमिका में थे। हिंदी के प्रोफेसर के रूप में उन्होंने बीआरए बिहार विश्वविद्यालय में 40 साल से ज्यादा की अवधि तक विश्वविद्यालय के शैक्षणिक स्तरोन्नयन में बहुमूल्य योगदान देकर प्रतिष्ठित स्थान बनाया। सन 1961 में मोतिहारी के मुंशी सिंह कॉलेज में कामकाज शुरु करने के बाद से प्रोफेसर सिंह हिंदी शोध, आलोचना और रचनात्मक लेखन के क्षेत्र में भी निरंतर सक्रिय रहे। प्राध्यापक के रूप में उनका सर्वश्रेष्ठ योगदान चंपारण की युवा पीढ़ी को उच्च शिक्षा में श्रेष्ठ कार्य करने की दिशा देना था। उनके द्वारा पढ़ाए गए और मार्गनिर्दिष्ट सुयोग्य छात्रों की बड़ी संख्या आज देश और विदेशों में आज उनके कीर्तिस्तंभ हैं। मध्यकालीन और आधुनिक साहित्य के गंभीर अध्येता होने के साथ-साथ प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद सिंह की संस्कृत और प्राकृत साहित्य पर भी व्यापक पकड़ रही। चंपारण के शिक्षण समुदाय के शिखर पुरुष के रूप में वो हमेशा याद किए जाते रहेंगे।
प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद सिंह की गोस्वामी तुलसीदास और श्रीरामचरित मानस में जीवनपर्यन्त गहरी अभिरुचि रही। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम उनके आदर्श नायक थे। उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को जन-जन तक पहुंचाने के लिए मोतिहारी शहर के बीचोबीच स्थित गांधी स्मारक से सटे मंदिर के प्रांगण में श्रीरामचरित मानस नवाह्न पारायण यज्ञ का शुभारंभ किया था जिसका यह 43वां वर्ष है। इस यज्ञ में देश के कोने-कोने से विभिन्न पीठों के शंकराचार्य, मानसज्ञाता आचार्य, मानस कथा वाचक और साहित्य सेवी विद्वान आमंत्रित किए जाते हैं जिनके प्रवचन 9 दिनों तक सुनकर लोग ज्ञान, भक्ति और कर्म के त्रिवेणी संगम का लाभ उठाते हैं। प्रो. रामाश्रय प्रसाद सिंह ने न सिर्फ श्रीरामचरित मानस यज्ञ और पारायण की सालाना परंपरा की शुरुआत की, बल्कि तन-मन-धन से उसे आगे बढ़ाया और इसके जरिए इलाके के आम जन समुदाय के लिए धार्मिक आस्था और श्रद्धा के साथ-साथ सांस्कृतिक एकता का भी मजबूत मार्ग प्रशस्त किया। 

मोतिहारी के प्रमुख शिक्षा संस्थान मुंशी सिंह महाविद्यालय के हिंदी विभाग के आचार्य और अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त होने के बाद प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद सिंह ने अपना पूरा वक्त श्रीरामचरित मानस मीमांसा में गुजार दिया। उम्र के गुजरते पड़ावों पर रोग-व्याधि और पारिवारिक-सामाजिक व्यस्तताओं से दो-चार होते हुए प्रोफेसर सिंह का अधिकाधिक वक्त मोतिहारी रेलवे स्टेशन के पास शांतिपुरी मुहल्ले में अपने निवास पर ही गुजरा। बीच-बीच में अपने पुत्र, नाबार्ड के अधिकारी सुबोध कुमार, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक पुत्रवधू रचना और पौत्री ताविशी के साथ वो दिल्ली प्रवास का भी आनंद लेते रहे।


मोतिहारी में य़शस्वी विद्वान प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद सिंह का निवास हमेशा हिंदी के साहित्यप्रेमियों, छात्र-छात्राओं और श्रीरामचरितमानस में श्रद्धा रखनेवालों से भरा रहता था। अजब संयोग है कि 1934 में पैदा हुए श्रीरामभक्त प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद सिंह ने हनुमान जयंती के दिन मंगलवार अपराह्न मोतिहारी स्थित निवास पर देह त्याग किया.. उनके निधन के समाचार से चंपारण के शिक्षा जगत एवं अध्यात्म से जुड़े लोगों में शोक की लहर है। उनके निधन से चम्पारण सहित बिहार के समस्त दिग्विद्या जगत में एक ऐसा स्थान रिक्त हो गया है, जो कभी पूरा नहीं हो सकेगा..वो लंबे समय तक भविष्य में लोगों के मन-प्राणों को स्पर्श करते रहेंगे और प्रेरणा देते रहेंगे। उन्हें क्षेत्र के असंख्य नर-नारी, छात्र और आम लोग अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।

Wednesday, April 9, 2014

विकास बनाम विनाश की गाथा



2014 के चुनाव में तकरीबन हर पार्टी ने विकास को मुद्दा बनाया। बीजेपी से लेकर कांग्रेस समेत तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने विकास के मुद्दे पर वोट मांगे। हालांकि, जुबानी जंग और बयानों के विवाद भी मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में छाये रहे। लेकिन चुनावी जंग में विकास जिस तरह मुद्दा बना उसके साथ-साथ टेलीविजन पर विकास की चर्चा का सवाल भी जेहन में उठता है। सवाल ये है कि भले ही तमाम पार्टियां विकास के वादे करती हैं, अपने-अपने शासित क्षेत्रों में विकास के गुण गाती हैं, परंतु क्या टीवी पर विकास की कहानियां प्रत्यक्ष देखने को मिलती हैं? उत्तर मिलता है, आमतौर पर नहीं। कभी-कभार टीवी चैनलों पर प्रसारित हो रहे बुलेटिनों की आखिरी स्टोरीज़ में से कुछेक ऐसी स्टोरीज़ टेल पीस या अच्छी खबरेंया गुड न्यूज़ के खांचे में दिखाई जाती हैं, जिनसे ये पता चलता है कि समाज में कुछ सकारात्मक परिवर्तन हो रहे हैं, लोगों के जीवन-स्तर में कुछ सुधार हो रहा है, ऐसा कुछ नया हो रहा है जो समाज और देश के लिए हितकारी हो। मगर, अमूमन ऐसा नहीं दिखता। इसकी वजह क्या है? क्य़ा समाचार चैनलों को विकास की चिंता नहीं ? या फिर लोग अच्छी खबरें देखना पसंद नहीं करते? क्य़ा देश और समाज में ऐसी खबरों का अभाव है, जो विकास का चित्रण करती हों? गहराई से विचार करने पर ऐसे तमाम सवालों से दो-चार होना पड़ता है, जो मीडिया में विकास की अच्छी खबरों के बुरे हाल को बयां करते हैं।
दरअसल, भारत में हिंदी टीवी मीडिया इसीलिए आमतौर पर आलोचना का भी शिकार बनता है क्योंकि उसका एजेंडा अलग दिखता है। भारत में 50 साल में टेलीविजन समाचार का जितना विकास हुआ है, जितनी तेजी से विकास हुआ है, उसके साथ-साथ कई बुनियादी मुद्दे भी उभरे हैं। टीवी पर दिखाई जानेवाली खबरों की परिभाषा सवालों के घेरे में रही है। टीवी पर संचार और संप्रेषण के मूलभूत उद्देश्यों से भटकने और तत्वों से दूर होने के आरोप लगते रहे हैं। ये बात काफी हद तक सही कही जा सकती है कि नए दौर का लाइव टीवी तमाम खबरों को पकड़ने की अंधी दौड़ में लगा हुआ है और इस दौड़ में उद्देश्यों से भटकना कोई आश्चर्य की बात नहीं। 50 साल में अगर देश में करीबन 500 समाचार चैनल अस्तित्व में आए तो उनके बीच सैकड़ों करोड़ दर्शकों से भरे बाज़ार पर कब्जे का मुकाबला भी बढ़ा। इस मुकाबले में तथाकथित लोक रुचि के समाचारों को प्रमुखता से दिखाने की परिकल्पना पैदा हुई और इस परिकल्पना ने किस तरह टीवी समाचारों को प्रभावित, इसकी काफी मीमांसा पहले ही हो चुकी है। बहरहाल, सबसे आगे निकलने की होड़ में टीवी के समाचार चैनलों ने जो हथियार अपनाये उनमें प्रमुख है कुछ खास किस्म की खबरों को तवज्जो देना। मसलन,  
-          सनसनी यानी ऐसी खबरें जिनसे सनसनी फैलती है, दर्शक अचंभित हों, उनकी जिज्ञासा बढ़े- चाहे वो अपराध की खबर के जरिए हो, या हादसे , आपदा और विनाश की खबरों के जरिए
-          अपराध- जो यूं तो आम लोगों की जिंदगी से जुड़ा पहलू है, लेकिन सिर्फ अपराध की रिपोर्टिंग के बजाय अपराध की तह में जाकर उसका पोस्टमॉर्टम करके ये बताना कि अपराध किस तरह हुआ और क्यों हुआ, उसे चटपटे और मसालेदार तरीके से पेश करना जो खबर के बदले फिल्मी कहानी ज्यादा लगे
-          खेल-खिलाड़ी – जिनमें लोगों की दिलचस्पी लाजिमी है, लेकिन लोगों की दिलचस्पी औऱ बढ़ाने के लिए उन खबरों का अलग ट्रीटमेंट
-          तमाशा और ड्रामा जो अपराध से लेकर एंटरटेनमेंट तक हर किस्म की खबर में हो सकता है
जाहिर  है, उपरोक्त किस्म की खबरों को तवज्जो देते हुए पर्यावरण, शिक्षा, स्वास्थ्य और जनहित के मुद्दों से जुड़ी खबरें आसानी से पीछे छूट जाती हैं। यही नहीं, इन मुद्दों से जुड़ी खबरों पर मीडियाकर्मियों की सोच भी बदलने लगती है। आम जन के लिए फायदेमंद किसी सरकारी योजना की खबर देना सरकार की चापलूसी समझ लिया जाता है, तो दूसरी तरफ, सरकार की खिंचाई करनेवाली खबरों को तवज्जो देना भी दर्शकों की दिलचस्पी बढ़ानेवाला मान लिया जाता है। ये आम मानसिकता है कि अच्छाई के बजाय बुराई ज्यादा आसानी से लोगों को आकर्षित करती है, लोगों को ज्यादा देर तक याद रहती है। ऐसे में, उस पहलू को उजागर करना जो छवि बनाने के बजाय उसे मलिन करे, ये टीवी पत्रकारिता का प्रमुख दायित्व बन गया है। इसका ज्वलंत उदाहरण 2014 के चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल के उन वीडियोज़ के चैनलों पर प्रचार-प्रसार से देखने को मिला, जो रॉ फुटेज के रूप में यूट्यूब पर अपलोड किए गए थे। इस कड़ी में मशहूर एंकर पुण्य प्रसून वाजपेयी से इंटरव्यू के सिलसिले में बातचीत का एक वीडियो सामने आया था, साथ ही, इंडिया टीवी ने भी कुछ ऐसा रॉ वीडियो तलाशकर दिखाया था, जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से अरविंद केजरीवाल नरेंद्र मोदी का समर्थन करते दिखे। इन वीडियोज़ के प्रसारण ने एक तरफ सनसनी फैलानेवाली पत्रकारिता का नमूना पेश किया, तो दूसरी तरफ नेता और पत्रकार के कथित संबंधों को उजागर करने के नाम पर नेताओं और पत्रकारों के आपसी भरोसे और अनौपचारिक बातचीत की बड़ी ही आम परिपाटी पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया।
प्रश्नचिह्न तो 2014 के चुनाव में मीडिया, खासकर टीवी चैनलों के चरित्र पर भी उठे। तमाम नेताओं ने एक सुर से मीडिया पर बिक जाने का इल्जाम मढ़ दिया और लगातार नसीहतें देते रहे। कोई टीवी चैनलों पर मोदी के हाथों बिके होने का इल्जाम लगाता रहा, तो कोई केजरीवाल के हाथों, तो कोई किसी और के हाथों। चुंकि, निजी समाचार चैनलों पर हरेक पक्ष या पार्टी की खबर संतुलित रूप से दिखाने और उसके मूल्यांकन की कोई निश्चित और ठोस व्यवस्था या नियमन प्रैक्टिस में नहीं रहा, लिहाजा हरेक पार्टी के नेता को मीडिया पर ठीकरा फोड़ने का आसानी से मौका मिलता रहा।
लेकिन, ये मीडिया की माया ही है कि हर नेता को इस बात से टीस होती रही कि दूसरा प्रतिद्वंद्वी क्यों टीवी पर खबरों में ज्यादा रहा, सुर्खियों में ज्यादा रहा और ज्यादा से ज्यादा फुटेज खाता रहा। वास्तव में नेता तो टीवी के लिए खबर क्या है, इसके सिद्धांत से परिचित नहीं और अगर परिचित हों भी तो खुद खबर बनाने में नाकाम रहे लिहाजा टीवी चैनलों पर बड़ी आसानी से अपना गुस्सा उतार दिया। और दर्शकों को बांधे रखने के लिए मीडिया को अपना मायावी रूप दिखाना ही पड़ता है, हर उस पंक्ति में से खबर निकालनी पड़ती है, जहां किताबी सिद्धांतों के मुताबिक खबर न भी हो। पहले बिटविन द लाइंस की टीवी पत्रकारिता अब उस सनसनीखेज पत्रकारिता का ही हिस्सा बन गई है जिसके जरिए कभी सीधी ऊंगुली से तो कभी टेढ़ी ऊंगुली से घी निकालने में माहिर टीवी चैनल खबरें निकाल लेते हैं और अब तो इसकी भी जरूरत इसलिए नहीं पड़ती क्योंकि संयम-नियम से बेखबर और नेतागीरी में मदहोश नेतागण मनसा-वाचा-कर्मणा रोजाना ऐसा कुछ कर बैठते हैं, जो टीवी के लिए खबर बन जाता है।
बहरहाल, कहना न होगा कि टीवी समाचार की ये स्थिति बुनियादी मुद्दों से भटकती दिखती है। 2013 के मध्य से लेकर कई महीनों तक उत्तराखंड में केदारनाथ धाम की त्रासदी और कुदरत की विनाशलीला की कहानियां टीवी समाचारों में छाई रहीं। वजह साफ थी। एक तो केदारनाथ धार्मिक आस्था के विशाल केंद्रों में से है। दूसरे, आपदा का मानवीय पहलू, जो हादसे की वजह से जान गंवानेवाले और रास्ते में फंसे तीर्थयात्रियों से जुड़ा था। तीसरा, उस सैलाब का हाहाकारी सितम जिसकी कभी किसी ने कल्पना तक नहीं की होगी। टीवी के समाचार चैनल महीनों इन तीनों वजहों के चलते केदारनाथ की विभिषिका की खबरें बेचते रहे क्योंकि उपरोक्त तीनों ही वजहों से इन खबरों में आम दर्शकों को आकर्षित करने की जबर्दस्त क्षमता थी। पहली वजह को छोड़ भी दें, तो दूसरी और तीसरी वजहें टीवी के लिए और ज्यादा मायने रखती हैं क्योंकि टीवी पत्रकारों को स्क्रीन पर दिखाने के लिए हाहाकार का खजाना जो मिल गया था। केदारनाथ आपदा की कवरेज का सकारात्मक पहलू ये है कि अगर मीडिया की पहुंच न होती तो शायद प्रभावित इलाकों में फंसे सैकड़ों-हजारों लोगों तक सरकारी तंत्र का ध्यान जाना नामुमकिन होता और वो बेमौत मारे जाते। आखिर विजय बहुगुणा इसी आपदा की बलि चढ़ ही गए और देर सबेर उन्हें उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पद से हटना ही पड़ा। लेकिन, टीवी पर दिखाए गए दर्द से हटकर सैलाब के हाहाकार और सितम की कल्पना के ग्राफिक्स और एनिमेशन से सजे आधे-आधे घंटे के कितने ही कार्यक्रमों ने आखिर दर्शकों का कितना सामान्य ज्ञान बढ़ाया होगा?
टीवी पत्रकारिता के किसी धुरंधर ने कभी मुझे कहा था टीवी पर दो ही चीजें बिकती हैं- डर और पैसा यानी अगर आप पैसा बनाने का तरीका दिखाओगे, तो दर्शक खूब देखेंगे या फिर ऐसी चीज दिखाओगे जिससे दहशत हो, डर लगे, तो उसे भी लोग खूब देखेंगे। कुछ वक्त तक अश्लील मनोरंजन भी टीवी की कमाऊ श्रेणी में जुड़ा रहा, लेकिन उस पर किन्ही वजहों से लगाम लग गई और समाचार चैनलों पर संयम बरता जाने लगा। लेकिन डर और पैसे की खबरिया मानसिकता बरकराकर है। यही वजह है कि डर और दहशत पैदा करनेवाले विनाश और अपराध की खबरें खूब टीआरपी बटोरती हैं।
तो केदारनाथ आपदा की विनाशलीला की खबरें भी खूब चलीं और नवंबर 2013 में हालात कुछ सामान्य होने के बाद धीरे-धीरे करके ऐसी खबरें टीवी चैनलों से हटती चली गईं। ज्यादा वक्त नहीं गुजरा, एक बार फिर केदारनाथ यात्रा का वक्त करीब आया, और उत्तराखंड और केंद्र सरकारों की ओर से नए सिरे से यात्रा के इंतजाम की खबरें अखबारों में, इंटरनेट माध्यमों पर, न्यूज़ वायर के जरिए आने लगीं। सरकारी दावे किये जाने लगे कि यात्रा के लिए कितने पुख्ता इंतजाम किए जा रहे हैं, कितने लोगों के सफर के इंतजाम हैं, टूटी सड़कों की मरम्मत कहां तक हुई है, केदार धाम में बुनियादी सुविधाएं कहां तक पहुंची हैं। लेकिन, किसी टीवी चैनल ने अपना क्रू भेजकर जमीनी हकीकत की पड़ताल करने की कोशिश शायद ही की। फ़ाइल फुटेज का इस्तेमाल करके जहां-तहां यात्रा की तैयारियों की खबरें जरूर दिखा दी गईं। लेकिन किसी चैनल ने मौके पर जाकर हकीकत का सर्वे करना शायद जरूरी नहीं समझा। इसके पीछे आखिर वजह क्या रही? क्या विनाश की खबर विकास की खबरों पर भारी पड़ गई या फिर, चुनावी माहौल में केदारनाथ की जमीनी हकीकत दिखाना उत्तराखंड की सत्ताधारी सरकार पर और भारी पड़ सकता था या टीवी चैनलों के पत्रकार चुनाव की कवरेज में व्यस्त थे? वजहें कुछ भी हो सकती हैं, दलीलें भी कई तरह की दी जा सकती हैं और उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर य़े निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि टीवी के समाचार चैनलों को क्या-क्या दिखाना अच्छा लगता है। टीवी पर विकास की कहानियां चलें या विनाश की गाथा गाई जाए, इसको लेकर कोई शक-शुबहा नहीं, परंतु ये भी सोचना पड़ेगा कि विकास के उल्लेखनीय़ दौर में तकनीकी तौर पर समृद्ध होने के बावजूद टीवी के समाचार चैनल अपनी जिम्मेदारियों से कैसे दूर भाग रहे हैं और क्या हालात में किसी तरह बदलाव संभव है?
-          कुमार कौस्तुभ

Tuesday, April 8, 2014

बेकार खबर, बकवास खबर!




टीवी चैनलों के न्यूज़रूम में काम करनेवाले तो बेकार खबर, बकवास खबर की शब्दावली से परिचित होंगे ही, लेकिन पत्रकारिता के किसी आम छात्र के लिए ये तय कर पाना बड़ मुश्किल हो सकता है कि आखिर कोई खबर बेकार या बकवास कैसे हो सकती है? दरअसल, बेकार खबर, बकवास खबर की परिकल्पना खबरिया माध्यम की जरूरत और मानसिकता पर निर्भर है। अगर कोई खबर आपके काम की नहीं है, तो उसे चलताऊ भाषा में आप बड़े आराम से बेकार खबर, बकवास खबर कह सकते हैं। लेकिन, इससे खबर की मूल परिभाषा तो नहीं बदल सकती। खबर की मूल परिभाषा के तहत जो पांच तत्व ‘5 W और 1 H’ किसी जानकारी में होना चाहिए, वो है, तो वो खबर तो है ही, हां किसी व्यक्ति विशेष, चैनल विशेष, अखबार या किसी और माध्यम के लिए अगर कोई खबर काम की नहीं, तो उसे वो खबर के दायरे से अलग मान लेते हैं, ये प्रमुख बात है।
सवाल है कि परिभाषा के खांचे में आने के बावजूद कोई खबर खबर है क्या या कि खबर नहीं है, ये कैसे तय होगा? क्या ये सिर्फ किसी संपादकीय अधिकारी के विवेक का मामला है, या फिर इसके लिए कुछ मानक भी होने चाहिए। दोनों ही चीजें महत्वपूर्ण हैं। समाचार चैनल पर क्या चलेगा, ये तय करना तो संपादकीय अधिकारी का दायित्व है, तो अगर वो ये कहते हैं कि अमुक जानकारी खबर नहीं है या बेकार खबर है, या बकवास है, ये उनके विवेक के हिसाब से बिल्कुल सही माना जा सकता है। लेकिन अगर मानकों की बात करें, तो ये भी ख्याल रखना होगा कि टीवी पर प्रसारित होने के लिए किसी जानकारी या किसी खबर में कौन-कौन से तत्व होने चाहिए। सैद्धांतिक तौर पर तो टेलीविजन पर प्रसारित होनेवाली कोई खबर विजुअल यानी वीडियो और तस्वीरों का मौजूद होना सबसे जरूरी है। विजुअल के बिना खबर टीवी की खबर हो ही नहीं सकती, ऐसा माना जाता है। साथ ही साउंड यानी आवाज, एंबिएंस का भी होना जरूरी है जो घटना का चित्रण करे और उसके बारे में बताए। लेकिन मौजूदा दौर में टेक्स्ट के साथ ग्राफिक्स और एनिमेशन के सहयोग से टीवी पर खबरों को पेश करने का चलन बढ़ा है। ऐसे में किसी खबर को टीवी की खबर बनाने के लिए अगर विजुअल की कमी हो, तो ग्राफिक्स और एनिमेशन का इस्तेमाल प्रोड्यूसर की रचनात्मक प्रतिभा का परिचायक है। हालांकि, हमेशा ऐसा संभव नहीं होता। खबरों से जुड़ी परिस्थितियों और घटना का काल्पनिक चित्रण हमेशा नहीं किया जा सकता। ऐसे में बगैर विजुअल और साउंड के, खबर को थोड़े समय तो चलाया जा सकता है, उसे टीवी जैसे डायनेमिक माध्यम पर ज्यादा देर जिंदा नहीं रखा जा सकता।
खबर की पूर्णता से जुड़ा दूसरा मुद्दा है तथ्यात्मक पूर्णता का। अगर एक लाइन की किसी जानकारी में आवश्यक तथ्यों का अभाव है, तो उससे खबर नहीं बन सकती, बशर्ते किसी तरह से जरूरी तथ्य जुटा लिए जाएं। ऐसे में, एक लाइन की कोई जानकारी बड़े आराम से खबर के तौर पर खारिज की जा सकती है, क्योंकि उससे ये पता नहीं चलता कि वो लाइन कितनी बड़ी खबर को जन्म दे सकती है। लेकिन अगर, चैनल की आवश्यकता हो, और संभव हो, तो उस जानकारी के आसपास, इर्द-गिर्द की और जानकारियां और तथ्य जुटाकर उन्हें खबर बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, अगर मुंबई में हुए आतंकवादी हमले या केदारनाथ में आई प्राकृतिक आपदा की खबरों की शुरुआती लाइन्स को नजरअंदाज कर दिया जाता तो कई चैनल बहुत बड़ी ब्रेकिंग न्यूज़ में पिछड़ जाते। इससे पत्रकारिता के छात्रों को सबक ये लेना चाहिए कि आपके पास आपके दिमाग में तमाम ऐसी जानकारियां होनी चाहिए, जो किसी भी नई जानकारी के लिए बैकग्राउंडर का काम कर सकती है और उसे बड़ी खबर बना सकती है। खासकर ऐसे वक्त में, जिस दिन खबरों का सूखा पड़ा हो, चैनल को नई खबरों की कमी हो, ऐसे में छोटी-छोटी दिखनेवाली जानकारियां, बड़ी खबरों में तब्दील की जा सकती हैं। इन दिनों सियासी बयानबाजियों से जुड़ी खबरें भी खूब चर्चा में हैं। अगर ऐसी खबरों के न्यूज़मेकर्स की बाइट उपलब्ध न हो, तो खबर देर तक नहीं चल सकती। टीवी के समाचार चैनलों में अक्सर ऐसा होता है, जब किसी नेता की रैली से एक-दो लाइन की जानकारी मिलती है। चाहें तो उसे नजरअंदाज कर दें, या फिर उसके आजू-बाजू, आगे-पीछे की जानकारियों को जोड़कर खबर को बड़ा बना दें। महाराष्ट्र के नेता राज ठाकरे एक ही जैसी बातें अमूमन हर बार बोलते हैं, लेकिन हर बार उनकी एक लाइन से कम से कम 30-40 सेकेंड की खबर बन जाती है।
एक और मुद्दा है घटना से जुड़े हर पक्ष को खबर में शामिल किया जाना। मसलन अगर हादसे, बलात्कार या ठगी के किसी मामले की खबर है और उसमें न पीड़ित की तस्वीर है, ना आरोपी की, तो उसे पूर्ण नहीं माना जाएगा। साथ ही, अपराध संबंधी खबरों में आरोपी और पीड़ित पक्षों के साथ-साथ पुलिस या जांच अधिकारी या प्रशासनिक पक्ष की प्रतिक्रिया नहीं हो, तो उन्हें एकतरफा मानकर बेशक खारिज किया जा सकता है, बशर्ते हादसे या अपराध से जुड़े पुख्ता विजुअल नहीं मौजूद हों। कई बार विदेशों से रॉयटर्स और एपीटीएन से अपराधिक खबरों की ऐसी फीड्स आती हैं जिनमें पर्याप्त विजुअल नहीं होते, ना ही घटना का चित्रण करने लायक पुख्ता सबूत होते हैं। तो ऐसी खबरों को प्रसारण लायक खबरों की श्रेणी में रखना मुश्किल होता है। ऐसा ही, किसी सांस्कृतिक समारोह की करवेज में भी हो सकता है, जिसमें आपके पास इच्छित कलाकार के विजुअल उपलब्ध न हों, तो उन्हें बेकार या बकवास करार देकर किनारा किया जा सकता है।
हालांकि एक बात ध्यान में रखनी चाहिए औ र अमूमन रखी भी जाती है कि कई बार कुछ जानकारियों में इतना दम होता है, जो बहुत जरूरी और काम की खबर बन सकती हैं, तो उन्हें विजुअल के अभाव में बेकार या बकवास नहीं करार दिया जा सकता । ऐसी स्थिति में ये प्रोड्यूसर की रचनात्मकता पर निर्भर करता है कि वो फाइल फुटेज, ग्राफिक्स और एनिमेशन का इस्तेमाल करके खबर को मुकम्मल तरीके से पेश करे, न कि उसे अपूर्ण मानकर खारिज कर दे। बड़े नेताओं, पदाधिकारियों के अहम बयानों, सरकारी सूचनाओं , प्रशासनिक जानकरियों वगैरह मामलों की जानकारियों में अक्सर ऐसा होता, जब दिखाने के लिए कुछ भी पुख्ता नहीं होता, लेकिन खबर की भरमार होती है। ऐसे में ये तो प्रोड्यूसर की काबिलियत पर ही निर्भर करता है कि वो कितनी सफाई और चुस्ती से खबर को खबर की तरह पेश करे।
अखबारों के लिए कोई खबर बेकार नहीं होती, क्योंकि वहां छपने के लिए पर्याप्त जगह होती है। यदि संपादकीय अधिकारी चाहें, तो किसी भी जानकारी को जगह देकर खबर बना सकते हैं। यही हाल इंटरनेट और सोशल मीडिया आधारित खबरिया वेबसाइट्स का भी है। रेडियो में भी टीवी से ज्यादा वक्त की कमी होती है, क्योंकि बुलेटिन तय होते हैं और समय सीमित होता है, लिहाजा, वहां भी इस बात का बड़ा ख्याल रखा जाता है कि कौन सी खबर बेकार है या बकवास है।
सबसे बड़ी बात ये है कि चैनल या समाचार देनेवाले किसी भी माध्यम को अपने दर्शक-पाठक और श्रोता वर्ग की पहचान होनी चाहिए और उसी के आधार पर ये तय होना चाहिए कि कोई खबर बेकार है या बकवास है या नहीं है। अगर दिल्ली-एनसीआर या मुंबई पर केंद्रित समाचार चैनल य़ा अखबार या रेडियो चैनल या इंटरनेट साइट हैं, तो उन्हें दिल्ली-एनसीआर या मुंबई से जुड़ी हर खबर किसी न किसी तरीके से लेनी चाहिए, क्योंकि लोगों की दिलचस्पी उनमें होगी ही होगी। इसी तरह राष्ट्रीय टीवी चैनलों, अखबारों, से ये अपेक्षा की जाती है कि वो कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात, गोवा से गुवाहाटी तक की खबरों को कवर करें और प्रसारित करें,न कि सिर्फ दिल्ली या मुंबई तक केंद्रित रहें। हालांकि टीवी चैनलों की अपनी सीमाएं हैं, जिनकी वजह से उन्हें खबरों के चयन में बेकार और बकवास का बड़ा ख्याल रखना पड़ता है। परंतु, ये भी बात अहम है कि दर्शक देश के हर कोने का हाल जानना चाहते हैं और हर इलाके की उन खबरों को देखना-सुनना चाहते हैं जो किसी भी तरीके से दिलचस्प हो, चाहे वो किसी हादसे की दिल दहलाने वाली तस्वीर हो, या सांस्कृतिक कार्यक्रम की रंगारंग झलक। अगर किसी खबर में तथ्यात्म पूर्णता है और उसके वीडियो, तस्वीरें और साउंड जानदार हैं तो वो खबर बेकार या बकवास नहीं हो सकती। उसे प्रस्तुत करना फायदेमंद ही हो सकता है, नुकसानदेह नहीं।
-          कुमार कौस्तुभ

बड़ी खबर



मीडिया, खासकर समाचारों की दुनिया की शब्दावली में बड़ी खबर जाना-पहचाना टर्म है। खासतौर से वो लोग जो 24 घंटे समाचारों से खेलते हैं, उनके लिए बड़ी खबर की अहमियत बहुत ज्यादा होती है। टीवी हो या रेडियो, या फिर इंटरनेट के समाचार चैनल या अखबार या समाचार पत्रिकाएं, समाचार संप्रेषण के हर माध्यम में बड़ी खबर का मुद्दा उठता ही उठता है और हर खबरिया शख्सियत हर पल ये तय करने में जुटा रहता है कि आखिर उसके लिए किसी समय विशेष में बड़ी खबर क्या है? ऐसे में ये सवाल शाश्वत है कि आखिर क्या है बड़ी खबर’? कोई एक खबर कब बड़ी हो सकती है, कैसे बड़ी हो सकती है, कितनी बड़ी हो सकती है, आखिर बड़ी खबर की पहचान क्या है?‘बड़ी खबर को कैसे पेश किया जाना चाहिए? किसी पल के लिए बड़ी खबर आखिर कब तक बड़ी रहती है या रह सकती है? ये तमाम सवाल बड़ी खबर के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं और खबरों की दुनिया में काम करनेवाले तमाम लोग इन सवालों से दो-चार होते रहते हैं।
असल में देखें तो बड़ी खबर कितनी देर बड़ी रहती है और कितनी देर बाद वो मर जा सकती है ये तय करना तो वास्तव में खबरिया लोगों का ही काम है, और ये भी कहा जा सकता है कि कोई भी खबर बड़ी खबर हो सकती है, ये भी खबरों की दुनिया के लोग ही तय करते हैं, लेकिन आमतौर पर ये तो मान ही लिया जाता है कि अमुक खबर में बड़ी खबर होने का पोटेंशिय़ल है, काबिलियत है और अमुक में नहीं है। ये काबिलियत वाली बात तय़ होती है मीडिया माध्यमों की मानसिकता से, उनके स्वरूप से, उनके टार्गेट ऑडिएंस से और, और भी कई ऐसे पहलुओं के जरिए जो खबरों में, उनके विस्तार में, उनके संसार में निहित होते हैं। समाचार माध्यमों में काम करनेवाले लोगों को रोज ही बड़ी खबर के बड़े पहलुओं से रूबरू होने का मौका मिलता है। लेकिन, इस मुद्दे पर गहराई से विचार करना अकादमिक अध्ययन का भी विषय हो सकता है, इस पर शायद ही कभी चर्चा हुई हो। पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों में खबरों, हेडलाइंस, स्क्रिप्टिंग और खबरों से जुड़े अन्य पहलुओं की चर्चा होती है, पर अमूमन इस बात पर विचार नहीं होता, इसका संधान नहीं होता कि बड़ी खबर अपने-आप में खबरिया क्रियाकलापों का कितना जरूरी पहलू है। वास्तव में ये तो पत्रकारिता के व्यावहारिक पक्ष से जुड़ा पहलू है, जिसकी जानकारी छात्रों को पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद किसी समाचार संगठन, किसी टीवी चैनल या अखबार या किसी और माध्यम में काम करते हुए ही मिलती है और वरिष्ठ सहयोगियों के संसर्ग में इसकी समझ भी विकसित होती है कि कब कोई खबर वाकई बड़ी खबर हो सकती है या नहीं। पत्रकारिता के छात्रों की जरूरत को देखते हुए यहां अलग-अलग माध्यमों में बड़ी खबर के कांसेप्ट पर विस्तार से विचार करने की कोशिश की गई है।
टीवी के लिए बड़ी खबर क्या है?
5 अप्रैल 2014, समय दोपहर 1.25 बजे –डेढ़ बजे का बुलेटिन प्रोड्यूसर बुलेटिन को अंतिम रूप देने में लगा हुआ है। उस वक्त की खबरों में बीजेपी के नेता अमित शाह के विवादित बयान और उस पर प्रतिक्रियाओं की झड़ी लगी हुई है। उसी वक्त, गुजरात के गांधीनगर से बीजेपी के नेता लालकृष्ण आडवाणी के लोकसभा उम्मीदवार के तौर पर पर्चा भरने की लाइव तस्वीरें न्यूज़रूम के फीड मॉनिटर पर लाइव आ रही हैं। नरेंद्र मोदी भी लंबे समय बाद आडवाणी के साथ नज़र आ रहे हैं। पल भर में संपादकीय सलाह-मशविरा होता है और एजेंडा बदल जाता है। बुलेटिन की शुरुआत आडवाणी और मोदी की एक साथ तस्वीरों से होती है, जो लाइव मिल रही होती हैं और बुलेटिन का तकरीबन आधा से ज्यादा वक्त इन्हीं तस्वीरों को दिखाते हुए गुजरता है। ये एक उदाहरण है बड़ी खबर का जिससे टीवी चैनल का बुलेटिन शुरु हुआ और उस पर केंद्रित हो गया। सवाल इसमें ये है कि बड़ी खबर इसमें क्या थी? टीवी के नजरिये से देखें तो उस वक्त की बड़ी खबर मोदी और आडवाणी के मिलन की तस्वीरें थीं क्योंकि पहले पीएम पद की दावेदारी, फिर गांधीनगर सीट से उम्मीदवारी के विवाद के बाद, लंबे समय बाद बीजेपी के बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी और बीजेपी के नए क्षत्रप नरेंद्र मोदी एक साथ दिख रहे थे, एक-दूसरे की तारीफ के कसीदे पढ़ रहे थे। वाकई टीवी पर दिखाने के लिए ये उस खास वक्त की सबसे अच्छी तस्वीर थी। क्योंकि, एक तो दिन सियासी खबरों का था, साथ ही साथ, ये उसी वक्त की लाइव तस्वीरें थीं, जब बुलेटिन चलना था। अमित शाह के बयान पर विवाद से जुड़ी खबरें दर्शक सुबह से देख रहे थे और शायद कोई और ऐसी खबर थी ही नहीं जो इतनी बड़ी हो कि बुलेटिन की पहली खबर और सबसे महत्वपूर्ण खबर बन सके। ये एक उदाहरण भर है। ऐसा भी नहीं है कि जब भी किसी घटना की लाइव तस्वीरें आ रही हों, तो उनसे बुलेटिन की शुरुआत करना जरूरी हो। टीवी के बुलेटिन की सबसे महत्वपूर्ण खबर क्या हो, ये तात्कालिकता और सामयिकता के साथ-साथ खबरों की प्रकृति, उनके स्थान और परिवेश पर भी निर्भर करता है। साथ ही साथ इस पर भी निर्भर करता है कि प्रतिद्वंद्वी चैनल क्या चला रहे हैं, यानि किस खबर को प्रमुखता से दिखा रहे हैं। उस वक्त अगर चैनल के टार्गेट एरिया से जुड़े किसी इलाके में किसी बड़े हादसे की खबर, और तस्वीरें मिल रही होतीं, तो ये तय करना शायद और मुश्किल होता कि प्रमुखता किस खबर को दी जाए, सियासी खबर को, य़ा हादसे में हुए नुकसान से जुड़े मानवीय पहलू से जुड़ी खबर को। ऐसे तमाम मौके रोज ही आते हैं, जब बुलेटिन प्रोड्य़ूसर को बुलेटिन को अंतिम रूप देते हुए इस चुनौती से जूझना पड़ता है कि आखिर बुलेटिन की सबसे बड़ी खबर क्या हो। ऐसे में वो वरिष्ठ सहयोगियों, संपादकीय प्रभारियों की सलाह लेता है और अपने विवेक का भी इस्तेमाल करता है और चैनल के स्वरूप, उसकी मानसिकता, उसके टार्गेट को ध्यान में रखते हुए बड़ी खबर का चयन करता है। राष्ट्रीय चैनलों की बात छोड़ दें, तो दिल्ली-एनसीआर या यूपी या एमपी या राजस्थान के किसी क्षेत्रीय चैनल के लिए मोदी-आडवाणी की खबर बड़ी खबर नहीं भी हो सकती थी, वैसे ही किसी बिज़नस चैनल के लिए भी मोदी-आडवाणी मिलन का खबरिया महत्व इतना नहीं हो सकता।
टेलीविजन के समाचार चैनलों में अक्सर बड़ी खबर का अर्थ ब्रेकिंग न्यूज़ से भी लिया जाता है, यानी जिस वक्त किसी महत्वपूर्ण घटना से जुड़ी खबर आए, उसी वक्त उसे प्रसारित कर दिया जाए। लेकिन, जहां तक मेरा मानना है, ब्रेकिंग न्यूज़ बड़ी खबर का एक रूप हो सकती है, बड़ी खबर को पेश करने का एक जरिया हो सकती है। लेकिन जो विस्तार बड़ी खबर की प्रस्तुति में होना चाहिए, वो ब्रेकिंग न्यूज़ में अक्सर नहीं होता क्योंकि खबर से जुड़ी जानकारी, तस्वीरों और अन्य अंगों के अभाव में किसी खबर को ब्रेकिंग न्यूज़ के ढ़ांचे में पेश करके टीवी चैनल के बुलेटिन में दूसरी खबरों को भी दिखाने की पूरी कोशिश रहती है। हां, अगर, कोई खबर लगातार डेवलप हो रही है, उससे जुड़ी जानकारियां बढ़ रही हैं, तस्वीरें औऱ बाइट्स मिल रही हैं, तो ब्रेकिंग न्यूज के ढांचे में भी 10-15 मिनट से लेकर आधे-एक घंटे तक का वक्त उसके लिए कम पड़ सकता है और वो खबर न सिर्फ एक बुलेटिन बल्कि पूरे दिन या 24 घंटे के लिए बड़ी खबर बनी रह सकती है बल्कि अगले दो-चार दिन उसका असर दिख सकता है। याद रहे, मुंबई में 2008 के आतंकवादी हमले की खबरें तकरीबन ढाई-तीन दिन से ज्यादा लगातार टीवी चैनलों पर छाई रही थीं, जब तक कि पूरा ऑपरेशन संपन्न नहीं हो गया। लेकिन, ऐसा भी देखा जाता है कि ब्रेक्रिंग न्यूज़ के तौर पर किसी बुलेटिन में सबसे पहले दिखाई जानेवाली कोई खबर अगले बुलेटिन्स से नदारद हो और उसकी जगह कोई और खबर ले ले। ऐसा इसलिए क्योंकि समय और परिस्थितियों के मुताबिक, बुलेटिन के लिए दूसरी कोई खबर बड़ी खबर के तौर पर मुफीद हो सकती है। ये सब टीवी चैनलों के संपादकीय प्रभारियों और बुलेटिन प्रोड्यूसर्स को तय करना होता है कि किस वक्त, किस बुलेटिन में कौन सी खबर बड़ी खबर के तौर पर पेश की जाए। इस प्रक्रिया में तमाम खबरों पर हमेशा नज़र रखना अतिआवश्यक है ताकि कहीं कोई बड़ी खबर नज़रअंदाज न हो जाए।
रेडियो के लिए बड़ी खबर क्या है?
रेडियो पर बड़ी खबर का कांसेप्ट टेलीविजन से कुछ अलग है। क्योंकि, एक तो ब्रेकिंग न्यूज़ वाली बात रेडियो में आमतौर पर नहीं सुनने में आती ( कभी नया प्रयोग दिख जाए तो बात और है), साथ ही, श्रव्य माध्यम होने के चलते तस्वीरों की कोई जगह नहीं । हां, बुलेटिन के वक्त या उससे ठीक पहले कोई बड़ी घटना की जानकारी आ जाए, तो उसे छोड़ना मुनासिब नहीं समझा जाता, भले ही वो खबर कुछ आगे-पीछे हो जाए। रेडियो में आमतौर पर समग्र बुलेटिन का कांसेप्ट है, जिसमें हर तरह की खबरें हों। ऐसे में किसी एक खबर के बड़े या छोटे होने का सवाल आमतौर पर नहीं उठता। रेडियो बुलेटिन के लिए अगर कोई खबर बड़ी हो, तो वो शुरुआती खबरों में और हेडलाइन में होगी, उस पर ज्यादा वक्त दिया जाए, ऐसा भी कम ही पाया जाता है। खबर को खींचनेवाली बात रेडियो में इसलिए नहीं, क्य़ोंकि तस्वीरों और एंबिएंस की मदद से किसी एक खबर पर ज्यादा देर टिकना यहां मुमकिन नहीं और एक ही लाइन को बार-बार दोहराने की बात हो नहीं सकती। हां, खबर से जुड़ी और भी खबरें हों, तो उन्हें साथ-साथ जरूर पेश किया जा सकता है। वर्ना रेडियो के लिए बड़ी खबर का मतलब या तो शुरुआती खबर, या फिर जब आ जाए, तभी पेश कर दी जानेवाली खबर। टेलीविजन के मुकाबले, रेडियो की अपनी सीमाएं हैं। बुलेटिन में हर तरह की खबरें शामिल करने की परंपरा है। ऐसे में बड़ी खबर का मतलब यहां मुख्यतः हेडलाइंस से ही होता है।
इंटरनेट के लिए बड़ी खबर क्या है?
तकनीकी तौर पर सबसे उन्नत होने के कारण इंटरनेट चुंकि टेलीविजन, रेडियो और अखबार- तीनों ही समाचार माध्यमों की सुविधा और संसाधन इस्तेमाल कर सकता है, ऐसे में, इंटरनेट की न्यूज़ साइट्स और सोशल मीडिया के लिए बड़ी खबर का मतलब मिला-जुला है। इंटरनेट पर बुलेटिन का वक्त निश्चित नहीं होता, ऐसे में जब जी चाहे, कोई खबर पेश की जा सकती, टेक्स्ट, वीडियो, साउंड अपलोड किए जा सकते हैं। ऐसे में ये सबसे तेज़ गति से खबरों को पेश करने का सबसे आसान माध्यम है। लेकिन, टेलीविजन के मुकाबले इंटरनेट की साइट्स पर किसी वक्त की बड़ी खबरकी प्रस्तुति थोड़ी धीमी दिखती रही है। इसकी वजह ये हो सकती है कि इंटरनेट के न्यूज़ साइट अभी तक टीवी और अखबार की छाया से उबर नहीं सके हैं। एक तो कम से कम भारत में ज्यादातर न्यूज़ साइट्स किसी न किसी टीवी चैनल या अखबार का हिस्सा हैं, ऐसे में पहले कोई भी खबर टीवी चैनल या अखबार के हिसाब से आती है, फिर वेबसाइट पर आती है। विदेशों में, जहां भी खबरों की स्वतंत्र वेबसाइट्स काम कर रही हैं, वो अपने हिसाब से खबरें पेश करती हैं। मसलन, दुनिया के किसी महत्वपूर्ण हिस्से में भूकंप, या सूनामी या ऐसे किसी औऱ हादसे की खबरें हों, या फिर अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव जैसे बड़े इवेंट्स की खबरें हों, उन्हें न्यूज़ साइट्स पर तेजी से फॉलो किया जाता है। याद रहे, पॉप गायक माइकल जैक्सन की मौत से जुड़ी खबरें टीवी चैनलों के मुकाबले www.tmz.com जैसी वेबसाइट्स ने ज्यादा तेजी से पेश कीं। ऐसा ही, सुमात्रा के सूनामी और भूकंप के हादसों के बाद भी देखा गया। इन दिनों सोशल मीडिया की माइक्रोब्लॉगिंग साइट्स, ट्विटर और फेसबुक पर खबरों की पेशकश ज्यादा बढ़ गई है। बल्कि, ये कहना गलत नहीं होगा कि ट्विटर और फेसबुक भी टीवी चैनलों, रेडियो और अखबार के समान ही खबरों के माध्यम बन चुके हैं। किसी तय समय में जो भी बड़ी खबरें सोशल मीडिया पर बड़ी हो सकती हैं, या दूसरे शब्दों में जिन मुद्दों पर सबसे ज्यादा चर्चा हो रही हो, उनकी जानकारी ट्रेंडिंगके जरिए मिलती है। यानी सोशल मीडिया पर बड़ी खबरका मतलब है ट्रेंडिंग में जो मुद्दे शामिल हों, आगे चल रहे हों। तो अगर आप ट्रेंडिंग पर नज़र रख रहे हैं, तो बड़ी खबरों की जानकारी से महरूम नहीं रह सकते। लेकिन, किसी टीवी चैनल के लिए जो खबर बड़ी खबर हो, जरूरी नहीं, वो ट्रेंडिंग में भी दिखे। क्योंकि सोशल मीडिया का संसार कुछ तो अलग है ही, टीवी, रेडियो या अखबार की बड़ी खबर वहां से गायब भी रह सकती है और जो खबर सोशल मीडिया पर ट्रेंडिंग में हो, वो जरूरी नहीं कि टीवी, रेडियो या अखबार में मिल ही जाए। हर माध्यम के लिए बड़ी खबरका कांसेप्ट अलग हो सकता है, ये हमेशा ख्याल रखना होगा।
अखबारों के लिए बड़ी खबर क्या है?
बात अखबारों की बड़ी खबरकी। अखबारों के संस्करण तो 24 घंटे में एक बार छपते हैं, तो उनके लिए बड़ी खबर जाहिर है अलग ही होगी। अखबारों में पहले पन्ने पर सुर्खियों में शामिल खबर बड़ी खबर मानी जाती है। अखबारों में चुंकि पिछले दिनभर की खबरें होती हैं, तो उन्हीं में से सबसे महत्वपूर्ण खबरों को सुर्खियों में जगह मिलेगी और वही बड़ी खबरें होंगी, चाहे वो सियासत की खबरें हों, खेल की, या अपराध की या किसी और मुद्दे से जुड़ी खबर। हर अखबार का अपना रोज का एजेंडा होता है, जिसका असर उसकी बड़ी खबर पर देखा जा सकता है। मौसम चुनाव का है, तो सियासी बयानबाजी की कोई खबर पहले पन्ने की पहली खबर यानी सबसे बड़ी खबर हो सकती है। किसी बड़ी घटना से जुड़ी खबर भी बड़ी खबर हो सकती है। इतना जरूर ध्यान रखना पड़ता है कि चुंकि अखबार छापकर बेचे जाते हैं और एक बार छप जाने के बाद पन्नों में बदलाव नहीं हो सकता , तो खबर में ऐसा कुछ न जाए, जो या तो पुराना पड़ चुका हो, बासी लगे, या फिर उसकी जानकारी में आमूल-चूल कोई बदलाव हो। ऐसे में अखबार के लिए बड़ी खबर चुनना ज्यादा बड़ी चुनौती है टीवी या इंटरनेट के बनिस्पत।  
समाचार पत्रिकाओं के लिए क्या है बड़ी खबर?
रही बात समाचार पत्रिकाओं में बड़ी खबरकी, तो एक बात साफ है कि समाचार पत्रिकाओं को साप्ताहिक या पाक्षिक तौर पर खबरों का लेखा-जोखा देना होता है। ऐसे में उनके लिए बड़ी खबर किसी ऐसे खास मुद्दे से जुड़ी हो सकती है, जिसका दूरगामी महत्व हो, जिसमें पाठकों की दिलचस्पी लंबे समय तक बनी रहे। आम तौर पर समाचार पत्रिकाओं में कवर स्टोरी या आवरण कथा पेश की जाती है, जिन्हें बड़ी खबर की श्रेणी में रखा जा सकता है। जैसा कि शीर्षक से ही साफ है, आवरण कथा का जिक्र पत्रिका के पहले पन्ने यानी कवर पर रहता है ऐसे में वो ही पत्रिका की प्रमुख खबर हुई। समाचार पत्रिकाओं में बड़ी खबर क्या हो, ये तय करना संपादकों का काम है और दूरदर्शी अनुभवी संपादकगण इसका पूरा ख्याल रखते हैं कि बड़ी खबर वही हो, जो पत्रिका को बेचे। ऐसे में सबसे रोचक, दिलचस्प या सनसनीखेज खबर आमतौर पर कवर स्टोरी या आवरण कथा बनती है।

बड़ी खबर कितनी बड़ी?
मीडिया की शब्दावली में बड़ी खबर इस्तेमाल कब  और कैसे शुरु हुआ, ये तो कहना मुश्किल है। लेकिन, इतना जरूर कहा जा सकता है कि ये टीवी समाचार की भाषा के सरलीकरण की ही देन है। आम बोल चाल में हेडलाइन कही जानेवाली खबरों को बड़ी खबरें कहा जाने लगा, फिर कई टीवी चैनलों ने हेडलाइंस का ही नाम बदलकर बड़ी खबर रख दिया। ज़ी न्यूज़ ने तो बड़ी खबर के नाम से समाचार कार्यक्रम ही शुरु किया था जिसे काफी समय तक मशहूर एंकर पुण्य प्रसून वाजपेयी पेश करते थे। दरअसल, बड़ी खबर किसी भी प्रमुख खबर को अहमियत के साथ पेश करने का एक तरीका, एक ढांचा बन गया, जिसका इस्तेमाल अलग-अलग समाचार चैनल, अखबार और दूसरे माध्यम अपने-अपने तरीके से करते आ रहे हैं। लेकिन, बड़ी खबर का कांसेप्ट एक तरह से देखें तो सिर्फ प्रमुख खबर तक ही केंद्रित है और कोई खबर किसी समय, किसी परिस्थिति, किसी बुलेटिन, किसी चैनल के लिए कब महत्वपूर्ण हो सकती है, कब बड़ी हो सकती है, ये तो पूर्ण रूप से संपादकीय सरोकारों पर निर्भर है, पत्रकारिता की भाषा और व्याकरण पर नहीं।
-          कुमार कौस्तुभ