Monday, February 4, 2013

'समाचार वाचक' की 'अकाल मृत्यु'


"तो ये थीं खबरें अभी तक, आप देखते रहिए आज तक"- बुलेटिन की ये टैग लाइन अब भी टीवी के उन दर्शकों को सुरेंद्र प्रताप सिंह की याद दिला देती है, जो भारत में टेलीविजन समाचार के उत्थान के गवाह रहे हैं। सुरेंद्र प्रताप सिंह का चेहरा और उनका अंदाज-ए-बयां तो एक मिसाल भर है, भारत में टेलीविजन पर समाचार देखने में दिलचस्पी रखनेवालों लोगों को दूरदर्शन समाचार के वो तमाम चेहरे भी जेहन में हमेशा ताजा रहेंगे, जो अब कहीं नहीं दिखते, मसलन जेवी रमन, शम्मी नारंग, सलमा सुल्तान, सरला माहेश्वरी, अविनाश कौर सरीन, सुनीत टंडन...ये ऐसे तमाम चेहरों की फेहरिस्त है, जिनके नाम सामने आते ही, भारत के टीवी समाचार दर्शकों की कई पीढ़ियां रोमांचित हो उठती हैं...अगर इनमें से किसी की तस्वीर अब भी सामने आ जाए, तो लोग इन्हें नहीं भूलेंगे..भारत में टेलीविजन की समाचार प्रस्तुति का पर्याय बन चुके इन चेहरों की फेहरिस्त को कुछ और आगे बढ़ाएं तो कुछ ऐसे चेहरे भी सामने आते हैं, जो आज भी भारतीय टेलीविजन के अलग-अलग चैनलों पर दिख जाते हैं और सहसा आम दर्शक उन्हें पहचान लेते हैं...जैसे डॉ. प्रणय रॉय, विनोद दुआ, राजदीप सरदेसाई, संजय पुगलिया, आशुतोष, पुण्य प्रसून वाजपेयी, निधि कुलपति, रवीश कुमार, अभिज्ञान प्रकाश, दीपक चौरसिया...ये टेलीविजन समाचार चैनलों के वो चेहरे हैं, जिन्होंने न सिर्फ समाचार प्रस्तुति से बल्कि पत्रकारिता की अपनी धार से टेलीविजन समाचार की दुनिया में अपनी पहचान बनाई। लेकिन दूरदर्शन से लेकर निजी चैनलों तक टेलीविजन समाचार करीब डेढ़-दो दशकों के सफर का जो दौर हमने देखा है, उससे साफ जाहिर है कि इंडस्ट्री में नई तकनीक के इस्तेमाल, नवीनता और कुछ नया करने-दिखाने की चाहत की जद्दोजहद के बीच उस स्क्रीन पर उभरने वाले उस चेहरे की अकाल-मृत्यु हो गई, जिसे शुरुआती दौर में समाचार-वाचक कहा जाता था।
दरअसल, टेलीविजन स्क्रीन पर समाचार पेश करनेवाले शख्स को समाचार वाचक या न्यूज़ रीडर कहना हमें भारत में रेडियो से मिला, जिसकी साफ वजह ये है कि भारतीय रेडियो सेवा आकाशवाणी में शुरुआत से ही समाचार सुनानेवालों को समाचार वाचक कहने की परिपाटी शुरु हो गई थी और बुलेटिन को ऑन एयर करने की परिकल्पना में शामिल मुख्य शख्सियत को निर्माता या प्रोड्यूसर कहा जाता था। ये शब्दावली भी शायद बीबीसी जैसे संस्थान  से उधार ली गई होगी, जिसके आधार पर हमारे यहां रेडियो और टेलिविजन सेवा की शुरुआत हुई।
वक्त बदला..नवीनता आई..प्रस्तुति में बदलाव शुरु हुए और समाचार वाचक की पदवी भी आकाशवाणी से लेकर टेलीविजन तक में बदलकर न्यूज़ एंकर हो गया..समाचार चैनलों में न्यूज़ एंकर बनना अब बड़े फख्र की बात समझी जाती है..पत्रकारिता की पढ़ाई करनेवाला हर छात्र रिपोर्टर बनना चाहता है, तो हर छात्रा न्यूज़ एंकर बनने का ख्वाब देखती है...समाचार चैनलों में न्यूज़ एंकर की कुर्सी तक पहुंचने के लिए तमाम पापड़ बेलने को लोग तैयार रहते हैं...इसके पीछे छुपी रहती है छोटे पर्दे पर चेहरा दिखने की चाहत...लेकिन अगर गहराई से सोचा जाए और वर्तमान परिस्थितियों का अध्ययन करें तो साफ पता चलता है अब पिचासी प्रतिशत न्यूज़ एंकर्स की कोई पहचान नहीं है...आम दर्शक उनका नाम तक नहीं जानते, उन्हें याद नहीं रख पाते...क्या यही परिणती है इस 'हॉट फेवरेट' कुर्सी को पाने की ..वाकई ये दशा काफी चिंताजनक है..आवाज चाहे कितनी ही बेहतरीन क्यों न हो, प्रेजेंटेशन कितना ही नाटकीय और कितना ही कथित तौर पर बेहतरीन क्यों न हो, लेकिन दर्शकों के दिलोदिमाग पर ये सब क्यों नहीं कोई छाप छोड़ पाते, ये शायद कभी किसी स्वनामधन्य एंकर ने नहीं सोचा होगा। वजह ये है कि संस्थान के दूसरे कारिंदों की तरह वो भी नौकरी बजाते हैं और लगातार घंटों बुलेटिन पढ़ने के बोझ से इतने दबे होते हैं कि उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि बॉस के अतिरिक्त किसी और को उनका प्रेजेंटेशन कितना अच्छा लग रहा है या नहीं। ये एक परिस्थिति है, जिससे , मेरा मानना है कि तमाम निजी समाचार चैनलों के दूसरे-तीसरे दर्जे के न्यूज़ एंकर दो-चार होते हैं। न तो वो होम वर्क कर पाते हैं, ना ही अपने-आप को अपडेट रखने की कोशिश करते हैं..चेहरे की बदौलत कमाई करने वाली तमाम महिला एंकर्स को खबरों की ए-बी-सी-डी पता नहीं होती और अगर वो कोई गलती करें, तो इसके लिए डेस्क के कारिंदे दोषी होते हैं कि वो वक्त रहते उन्हें अपडेट क्यों नहीं कर सके..सवाल टीम की जिम्मेदारी पर आकर टिक जाता है, जिसके लिए कब कौन कितना दोषी होता है, ये समय और परिस्थितियों पर छोड़ दिया जाए तो अच्छा।
बात न्यूज़ एंकर की हो रही है, तो जरा और तफसील से सोचें कि आखिर क्या है न्यूज़ एंकर का काम..कहां से आई है ये शब्दावली...इतिहास और सामान्य़ ज्ञान की गहराई में जाएं तो विकिपीडिय़ा के सौजन्य से पता चलता है कि ये शब्द अमेरिका से आयातित है। वीकिपीडिय़ा में दी गई जानकारी के मुताबिक, न्यूज़ एंकर और मिलते-जुलते शब्दों न्यूज़कास्टर, न्यूज़ प्रजेंटर का इस्तेमाल पहले पहल अमेरिका में शुरु हुआ। समाचार पेश करनेवालों के लिए एंकर शब्द का इस्तेमाल 1952 के आसपास एक गेम शो में पैनल के प्रमुख सदस्य को उद्धृत करने के लिए किये गए शब्द से उधार लेकर किया गया।  वैसे, वीकिपीडिया एंकर शब्द को खेलों की ट्रैक एंड फील्ड प्रतियोगिताओं में सबसे तेज़ धावक की पोजिशन से भी जोड़ता है और बाद में इस शब्द का इस्तेमाल समाचार से जुड़े शो में संवाददाताओं के पैनल के एक स्थाई सदस्य के रूप में  बताता है, जिसे आगे चलकर खास कार्यक्रमों की कवरेज करनेवाले शो के होस्ट और न्यूज़ प्रेजेंटर के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा।
साफ जाहिर है कि न्यूज़ एंकर का काम कितना चुनौतीपूर्ण है और उन पर दर्शकों को खबर को शुरु से अंत तक समझाने की कितनी बड़ी जिम्मेदारी होती है। आज के दौर में भारतीय समाचार चैनलों में ज्यादातर न्यूज़ एंकर किस तरह अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं, ये किसी से छिपा नहीं है। जैसे जहाज को समंदर में खड़ा होने के लिए 'एंकर' की जरूरत होती है, ठीक उसी तरह खबरों को एक सीमा तक ले जाकर छोड़ देने से ज्यादा कुछ और जिम्मेदारी हमारे न्यूज़ एंकर्स में नहीं देखी जाती। इसके बाद खबर किस ओर जाएगी, ये तय करना समाचार चैनलों के डेस्क के कारिंदों का हो जाता है और आखिरी तौर पर जिम्मेदार भी वही होते हैं जो बुलेटिन के प्रोड्यूसर होते हैं, आउटपुट की जिम्मेदारी संभालते हैं। लेकिन सवाल फिर भी यही है कि समाचार वाचक से न्यूज़ एंकर तक के सफर में क्या-क्या बदला।
पुराने गुजरे जमाने में जब समाचारों की पैकेजिंग की परिपाटी नहीं रही होगी, तब के समाचार वाचकों पर समाचार के आइटम की हर लिखी हुई पंक्ति पढ़कर सुनाने की जिम्मेदारी थी..काम काफी हद तक मशीनी था, वहां सिर्फ आपकी आवाज और थोड़ी नाटकीयता से काम चल जाता था। 90 के दशक के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत में लाइव टेलीविजन समाचार ने समाचार प्रस्तुति में बड़ा बदलाव ला दिया और इसके साथ ही समाचार वाचकों की भूमिका बदली और वो समाचार पढ़ने से आगे बढ़कर समाचार की नैया को समुद्र में पार लगाने की दिलचस्प भूमिका में आ गए...ये कम से कम भारत में टेलीविजन समाचार के उस दौर की दास्तान है, जब देश में निजी समाचार चैनलों का उदय हो रहा था, प्रतियोगित बढ़ रही थी, टीवी मीडिया संस्थानों के मालिकों और संपादकों पर नया कर दिखाने और मैदान में अपने-आप को बड़ा मजबूत साबित करने की कड़ी चुनौती थी। दूरदर्शन के एकाधिकार से समाचार को बाहर निकालने के संक्रमण के उस दौर ने समाचार वाचकों के न्यूज़ एंकर्स के रूप में बदलाव को कागज से टेलीप्रॉंम्पटर और फिर टॉकबैक से स्क्रिप्ट तक शिफ्ट होते देखा। जो समाचार वाचक खुद को नई तकनीक और जरूरतों के काबिल बनाकर मैदान में बने रहे, और जो खुद को नहीं बदल सके, उन्हें मैदान से हटना पड़ा और नए चेहरों ने उनकी जगह ले ली। दर्शक एक ही जैसे चेहरे देखकर उब न जाए, चैनलों की इस मानसिकता ने भी तमाम पुराने चेहरों को जगह खाली करने के लिए मजबूर कर दिया और जो समाचार वाचक कभी टेलीविजन की शान हुआ करते थे, वो गुमनामी के अंधेरे में खो गए।
भारतीय टेलीविजन के संक्रमण काल का जो दौर अभी चल रहा है, उसमें न्यूज़ चैनलों की बाढ़ सी आ गई है। राष्ट्रीय चैनलों के बाद क्षेत्रीय चैनलों की बहुतायत ने दर्शकों के सामने इतना कुछ परोस दिया है, जो देख पाना औऱ रजिस्टर कर पाना आम दर्शक के लिए दुरुह है। लोगों के पास रिमोट कंट्रोल के बटन हैं और नापसंदगी जाहिर करते हुए चैनल बदलने का पूरा हक है यानी किसी एक या दो चैनल को देखने की मजबूरी नहीं है। दर्शक खुद ये तय कर सकता है कि वो क्या देखना चाहता है। बात समाचार चैनलों की हो रही है, तो खास समय में भी पचासों चैनल बदल-बदलकर देखने का विकल्प खुला हुआ है। चैनल पचासों हैं, तो बुलेटिन भी सैकड़ों-हजारों होंगे क्योंकि अब ,समाचारों के लिए अलग टेलिविजन चैनल हैं और उन पर 24 में से 12 घंटे तो समाचार बुलेटिन आते ही हैं। जाहिर सी बात है कि बुलेटिन की भरमार है तो एंकर भी सैकड़ों होंगे। ऐसे में कोई दर्शक अब शिद्दत से किसी खास चेहरे से समाचार जानने-सुनने को बाध्य नहीं। एंकरों की इस भीड़ को देखते हुए सवाल फिर भी वही है कि किसी भी चैनल का कोई चेहरा आंम दर्शकों के लिए खास क्यों नहीं बन सका। रवीश कुमार और दीपक चौरसिया जैसे कुछ चेहरे अपवाद हो सकते हैं, लेकिन उनके अपवाद होने की वहज है, वो ये है कि उन्होंने अपनी पहचान अपनी खास रिपोर्टिंग से बनाई है, न कि समाचार बुलेटिन पढ़कर। ऐसे में अगर किसी आम न्यूज़ एंकर को दर्शक याद नहीं रख सके, तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है। क्या न्यूज़ एंकर खुद जिम्मेदार हैं कि वो अपनी अलग पहचान न बना सके, या फिर टेलीविजन स्क्रीन का वो एंकर फ्रेम जिम्मेदार है, जिसके जरिए उन्हें स्क्रीन पर पेश किया जाता है, ..एंकर फ्रेम से मतलब स्क्रीन पर एंकर की प्लेसमेंट से है- किसी चैनल पर एंकर कमर तक नजर आता है तो कही आपाद मस्तक। कहीं, पासपोर्ट साइज़ तस्वीर जैसा फ्रेम , तो कहीं इतना लांग शॉट कि एंकर का चेहरा समझ में ही न आए। कहीं बक्से में तो कहीं लेफ्ट या राइट साइड में इतना किनारे कि स्क्रीन पर मौजूद स्पेस में उसका होना य़ा न होना बराबर हो...दो या तीन मेहमान साथ हों और फुल फ्रेम शॉट भी उसी तरीके से हो, तब तो एंकर तो क्या, मेहमानों को भी पहचानना मुश्किल।  खबर अहम है, एंकर नहीं- ये मानसिकता भी समाचार चैनलों पर आजकल काफी मजबूत देखी जा रही है। लिहाजा फास्ट पेस में बुलेटिन की शुरुआत करती एंकर जितनी तेजी में अपने नाम के साथ स्वागत करके आगे बढ़ जाती है, वो शाय़द ही किसी के जेहन में जम पाता हो। बुलेटिन की शुरुआत में पट्टी पर एंकर का नाम दिए जाने की परंपरा भी आमतौर पर खत्म हो चली है। बड़ी खबर हो, तो एंकर का चेहरा दिखाना अहम नहीं माना जाता, उसके बजाए समाचार से जुड़े तथ्यों के टेक्स्ट वाली ब्रेकिंग न्यूज़ की पट्टी या दूसरी ग्राफिक पट्टियां या फिर विजुअल दिखाना जरूरी होता है। जंमाना तेज़ गति से खबरें दिखाने का है, लिहाजा हरेक समाचार चैनल पर 24 घंटे में कई ऐसे बुलेटिन होते हैं, जिनमें ग्राफिक और विजुअल के साथ 50 से 100 खबरें दिखाने की मजबूरी बेचारे एंकर को पर्दे के पीछे बिठा देती है।  ऐसे में 365 दिन 24X7 चलनेवाले न्यूज़ चैनलों में एंकर की पहचान बने तो कैसे। समाचार वाचक से न्यूज़ एंकर के बदलाव के लगभग 2 दशकों ने उन चेहरों की जैसे हत्य़ा कर दी, जो आम दर्शकों के पसंदीदा हुआ करते थे, जिनके आने का रोज इंतजार रहता था, तब जो हमारे सामने परोसा जाता था, उसकी क्वालिटी का आज कोई सानी नहीं..लेकिन बाजारवादी व्यवस्था के बदले माहौल ने छीन लिए हमारे हरदिल अजीज चेहरे और हो गई समाचार वाचक की अकाल मृत्यु जिसे समाचारों के सभी दीवाने याद करते हैं, लेकिन शोक कोई नहीं मनाता।